प्राचीन भारतीय समाज और उसकी अर्थव्यवस्था मुद्रा और बाजार आधारित न होकर स्थानीय स्तर पर वस्तु-विनिमय आधारित थी .यह एक -दुसरे को सहयोग करते हुए जीने और जिलाने कि व्यवस्था थी .पूंजी-वितरण एवं न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा के लिए एक धार्मिक-सांस्कृतिक मानसिकता ओर पद्धति विकसित कि गयी थी.अतिथि को देवता घोषित करते हुए द्वार पर आए हुए को भोजन कराना अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण कर्तव्य ठहराया गया था .इस सांस्कृतिक व्यवस्था का इतिहास में सर्वाधिक संगठित लाभ बौद्ध-भिक्षुओं ने उठाया .इसी व्यवस्था के बल पर समाज छोड़ कर भागने वाले निवृतिमार्गी साधु भी सुविधा-सम्पन्न जीवन जीते रहे .जातीय रूप से इसका लाभ पुरोहित वर्ग नें लिया .इस सामाजिक आर्थिक सुरक्षा-तंत्र नें ही उस भारतीय ईश्वरऔर आस्था का होना संभव किया जो आज के बाजारवादी युग में भी आध्यात्मिक सुरक्षा-तंत्र और स्वर्ग बचाए हुए है .ऐसा आध्यात्मिक भिक्षाटन और दान को महिमामंडित कर पाया गया .दरअसल यह एक कृषि-आधारित स्थायित्वपूर्ण समाज की सहयोगी और पूरक निर्भरता थी .इसने पूंजी के अर्जन से अधिक विसर्जन को महत्त्व दिया .यह एक आधुनिक अर्थों में राजनीतिक सत्ता आधारित तंत्र नहीं था ,लेकिन सांस्कृतिक होनें से अधिक टिकाऊ और दीर्घजीवी था .यह एक धार्मिक-सांस्कृतिक आधार वाला आर्थिक सुरक्षा-तन्त्र था ,जो आज के राजनीतिक सत्ता-तन्त्र अथवा संगठित मानव-व्यव्हार से विस्थापित हो गया है .
आज का बाजारवादी मूल्य-तन्त्र विनिमय और सहयोग पर आधारित न होकर मुद्रा आधारित आदान-प्रदान पर आधारित है .यह शेक्सपियर के उपन्यास मर्चेण्टऑफ़ वेनिस के प्रमुख पात्र शाइलार्क जैसी क्रूरता और संवेदनहीनता देता है .यह मुद्रा-व्यहवार की दृष्टि से यंत्रिकीकृत समाज है .यह कमाने के लिए भावनारहित आर्थिक-व्यवहार की मांग करती है .इस व्यवस्था में उदारता बेवकूफी है .मार्क्स कि विचारधारा के अनुसार कहें तो यह एक व्यक्ति-केन्द्रित स्वार्थ जीवी वैयक्तिक पूंजीवादी समाज है और इसकी क्रूरता और संवेदनहीनता का निराकरण सिर्फ साम्यवादी व्यवस्था को अपनाने से ही संभव है .भारत के प्राचीन सांस्कृतिक अर्थ-तंत्र को यहाँ का जातीयता आधारित पूंजीपति -व्यवसायी तंत्र अब भी बचे हुए है .यहाँ का सांस्कृतिक-धार्मिक आर्थिक व्यव्हार लोगों को अब भी जिलाने और सुखी करने में सक्षम है .यह भारत की बढ़ती आर्थिक समृद्धि के साथ और आकर्षक और वैभवपूर्ण हुआ है .
भारतीयों का सांस्कृतिक -आर्थिक व्यव्हार जो दान देने और उदार होने के लिए उकसाता है वही भिक्षा लेने को बिना किसी सामाजिक हीनता ग्रंथि के स्वीकार करने वाला जातीय समुदाय भी उपस्थित करता है .यह आर्थिक व्यव्हार दूसरों के धन को बेहिचक स्वीकार करने वाली मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी देता है .वह अपराध-बोध और हीनता-ग्रंथि जो दूसरों के धन को बिना किसी श्रम के लेने को बुरा समझाती है ,उसका किसानों से अलग पृष्ठभूमि से आए जातीय समुदायों में अभाव है .सिर्फ किसान-जातियों से आए लोग ही ईमानदार आर्थिक व्यव्हार की मानसिकताऔर मनोवैज्ञानिक पात्रता रखते हैं.
इस विशिष्ट जातीय सामाजिक संरचना और पृष्ठभूमि के कारण आधुनिक भारतीय लोकतन्त्र, एक जातिवादी चरित्र का लोकतन्त्र बनता गया है.यद्यपि पढ़े -लिखे लोग विशेषतया बुद्धिजीवी इस जातीयकरण को सैद्धांतिक स्तर पर स्वीकार नहीं पाते .कुछ दिनों पहले तक भारत की किसान और श्रमजीवी जातियों में पैदा लोग क्योंकि सिर्फ नैतिकता और ईमानदारी से ही समाज में सम्मान प्राप्त कर पाते थे .उनके परिवार में परम्परा से ही श्रम की संस्कृति और संस्कार थे-इसलिए वे यदि नौकरी में भी थे तो घुस आदि के रूप में किसी से अनैतिक राशि लेना अपना अपमान समझते थे .विशेषकर पिछड़ी जातियों में जन्में लोग अपनी नैतिकता और आचरण से ही दूसरों को प्रभावित करने की स्थिति में होते थे .
इस तरह पहले परंपरागत जातियों में सिर्फ एक ही जाति ऐसी थी ,जिसका परंपरागत मनोविज्ञान आर्थिक लेन-देन के आधुनिक मानदंडों के अनुरूप नहीं था .पुरोहित कर्म करने वाली यह जाति थी ब्राह्मण .यद्यपि शिक्षित और सुदृढ़ आर्थिक पृष्ठभूमि वाले शिक्षित ब्राह्मण तो नहीं ,लेकिन गरीब ब्राह्मणों को यह सुविधा रही है कि वे आरती ,प्रसाद ,पूजा या फिर मंदिर के निर्माण के बहाने भरण-पोषण योग्य वित्त एकत्रित कर सकते थे .इसे वे भिक्षा,श्रद्धा या फिर चंदा आदि नामों से प्राप्त कर सकते थे .
अन्य वर्ण में जन्में लोगो को अपने लेन-देन का हिसाब रखना जरुरी था .पुनर्जन्म वाद के कारण अगले जन्म में उस लिए हुए के प्रतिदान में देना पड़ सकता था .इस धार्मिक विश्वास के कारण भी अन्य जातियों को नैतिक बने रहना मजबूरी थी .सिर्फ ब्राह्मणों को ही यह सुविधा थी कि वे बिना किसी हिसाब के किसी से भी निर्बाध दान लें सकते थे .उनका देना आशीर्वाद के रूप में ही था .यह पुण्य के रूप में था 'पण्य के रूप में नहीं .लेकिन आधुनिकता जनित नास्तिकता नें इस संकोच को मिटा दिया है .अब किसी भी जाति में जन्मा भारतीय हिसाब से बाहर का मांग और पाकर प्रसन्न होने लगा है .अब घूस मांगनें में पाप और पुण्य की परम्परागत मानसिक बाधा नहीं रही
इस तरह हम भारतीय, सांस्कृतिक स्तर पर ही भ्रष्टाचार की अनैतिकता को समझने के अयोग्य हैं .
आज का बाजारवादी मूल्य-तन्त्र विनिमय और सहयोग पर आधारित न होकर मुद्रा आधारित आदान-प्रदान पर आधारित है .यह शेक्सपियर के उपन्यास मर्चेण्टऑफ़ वेनिस के प्रमुख पात्र शाइलार्क जैसी क्रूरता और संवेदनहीनता देता है .यह मुद्रा-व्यहवार की दृष्टि से यंत्रिकीकृत समाज है .यह कमाने के लिए भावनारहित आर्थिक-व्यवहार की मांग करती है .इस व्यवस्था में उदारता बेवकूफी है .मार्क्स कि विचारधारा के अनुसार कहें तो यह एक व्यक्ति-केन्द्रित स्वार्थ जीवी वैयक्तिक पूंजीवादी समाज है और इसकी क्रूरता और संवेदनहीनता का निराकरण सिर्फ साम्यवादी व्यवस्था को अपनाने से ही संभव है .भारत के प्राचीन सांस्कृतिक अर्थ-तंत्र को यहाँ का जातीयता आधारित पूंजीपति -व्यवसायी तंत्र अब भी बचे हुए है .यहाँ का सांस्कृतिक-धार्मिक आर्थिक व्यव्हार लोगों को अब भी जिलाने और सुखी करने में सक्षम है .यह भारत की बढ़ती आर्थिक समृद्धि के साथ और आकर्षक और वैभवपूर्ण हुआ है .
भारतीयों का सांस्कृतिक -आर्थिक व्यव्हार जो दान देने और उदार होने के लिए उकसाता है वही भिक्षा लेने को बिना किसी सामाजिक हीनता ग्रंथि के स्वीकार करने वाला जातीय समुदाय भी उपस्थित करता है .यह आर्थिक व्यव्हार दूसरों के धन को बेहिचक स्वीकार करने वाली मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी देता है .वह अपराध-बोध और हीनता-ग्रंथि जो दूसरों के धन को बिना किसी श्रम के लेने को बुरा समझाती है ,उसका किसानों से अलग पृष्ठभूमि से आए जातीय समुदायों में अभाव है .सिर्फ किसान-जातियों से आए लोग ही ईमानदार आर्थिक व्यव्हार की मानसिकताऔर मनोवैज्ञानिक पात्रता रखते हैं.
इस विशिष्ट जातीय सामाजिक संरचना और पृष्ठभूमि के कारण आधुनिक भारतीय लोकतन्त्र, एक जातिवादी चरित्र का लोकतन्त्र बनता गया है.यद्यपि पढ़े -लिखे लोग विशेषतया बुद्धिजीवी इस जातीयकरण को सैद्धांतिक स्तर पर स्वीकार नहीं पाते .कुछ दिनों पहले तक भारत की किसान और श्रमजीवी जातियों में पैदा लोग क्योंकि सिर्फ नैतिकता और ईमानदारी से ही समाज में सम्मान प्राप्त कर पाते थे .उनके परिवार में परम्परा से ही श्रम की संस्कृति और संस्कार थे-इसलिए वे यदि नौकरी में भी थे तो घुस आदि के रूप में किसी से अनैतिक राशि लेना अपना अपमान समझते थे .विशेषकर पिछड़ी जातियों में जन्में लोग अपनी नैतिकता और आचरण से ही दूसरों को प्रभावित करने की स्थिति में होते थे .
इस तरह पहले परंपरागत जातियों में सिर्फ एक ही जाति ऐसी थी ,जिसका परंपरागत मनोविज्ञान आर्थिक लेन-देन के आधुनिक मानदंडों के अनुरूप नहीं था .पुरोहित कर्म करने वाली यह जाति थी ब्राह्मण .यद्यपि शिक्षित और सुदृढ़ आर्थिक पृष्ठभूमि वाले शिक्षित ब्राह्मण तो नहीं ,लेकिन गरीब ब्राह्मणों को यह सुविधा रही है कि वे आरती ,प्रसाद ,पूजा या फिर मंदिर के निर्माण के बहाने भरण-पोषण योग्य वित्त एकत्रित कर सकते थे .इसे वे भिक्षा,श्रद्धा या फिर चंदा आदि नामों से प्राप्त कर सकते थे .
अन्य वर्ण में जन्में लोगो को अपने लेन-देन का हिसाब रखना जरुरी था .पुनर्जन्म वाद के कारण अगले जन्म में उस लिए हुए के प्रतिदान में देना पड़ सकता था .इस धार्मिक विश्वास के कारण भी अन्य जातियों को नैतिक बने रहना मजबूरी थी .सिर्फ ब्राह्मणों को ही यह सुविधा थी कि वे बिना किसी हिसाब के किसी से भी निर्बाध दान लें सकते थे .उनका देना आशीर्वाद के रूप में ही था .यह पुण्य के रूप में था 'पण्य के रूप में नहीं .लेकिन आधुनिकता जनित नास्तिकता नें इस संकोच को मिटा दिया है .अब किसी भी जाति में जन्मा भारतीय हिसाब से बाहर का मांग और पाकर प्रसन्न होने लगा है .अब घूस मांगनें में पाप और पुण्य की परम्परागत मानसिक बाधा नहीं रही
इस तरह हम भारतीय, सांस्कृतिक स्तर पर ही भ्रष्टाचार की अनैतिकता को समझने के अयोग्य हैं .