यह कविता धर्म ,मोक्ष और उद्धार के नाम पर बाबाओं द्वारा ठगे जाने के तकोर्ं का उचित निरसितकरण करती है । भारतीय दर्शन के अनुसार जन्म और मृत्यु-चक्र के बन्धन में पड़ी आत्माओं का ही पुनर्जन्म होता है । इस दृषिट से देखने पर तथाकथित सभी धर्मगुरू अभी इस जन्म तक तो मुक्त नहीं ही हैं ।
जब उनका अपना ही उद्धार नहीं हुआ है तो वे दूसरों का उद्धार कैसे कर सकते हैं ?
जो सबसे अच्छे थे अब तक पैदा ही नहीं
हुए शायद
कम अच्छे मारे गए गर्भपात में
कमतर अच्छे आकर भी छोड़कर चले गए दुनिया......
फिर हम आए हम !
क्या पता पुण्य क्षीण होने पर
देवताओं नें स्वर्ग से गिराए थे धक्के
मारकर
या फिर हम कीट-पतंगों से रेंगते हुए
पिछले दरवाजे से यहां तक पहुंचे !
हमारे जन्म पर शास्त्रों ने आशीर्वाद
नहीं कहे
अभुक्त थे जो हम-गिरे हुए लौकिक या
नारकीय !
स्वर्ग मृत्यु के पार था इसलिए देवता
भी नहीं थे हम
और मारे जाने के लिए अभिशप्त
अपने होने से ही प्रमाणित कि मुक्त
नहीं हम ।
तो अच्छे लोगों के विरुद्ध निरन्तर
घृणास्पद होती जाती नियति में
शास्त्रसम्मत यही है कि हममें से कोर्इ
मुक्त नहीं हैं
अपने पवित्र संकल्पाों और प्रार्थनाओं
के बावजूद
हम सभी पापी हैं और कुकर्मी.......
न होते तो हमारा जन्म ही क्यों होता-
कहते हैं शास्त्र !
हम सब विद्रोह के लिए अभिशप्त तिरष्कृत-त्रिशंकु
की सन्ताने हैं
और हमारी मुकित सिर्फ विश्वामित्र बनने
में है........
हमारे लिए प्रतिबनिधत स्वर्ग की अश्लील
नागरिकता के समानान्तर
एक बार फिर रचने में है एक नया स्वर्ग
!