गुरुवार, 31 मई 2012

केनोपनिषद की मनोवैज्ञानिक पुनर्रचना

केनोपनिषद को पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा था कि यह दृष्टि तो जातिवाद और साम्प्रदायिकता से भी बाहर निकालने में सहायक हो सकती है । भाषा ही चित्तग्रस्तता और सभ्यताकरण का मुख्य आधार है । इसलिए विकृतियों से बाहर निकलने और उचित प्रतिरोध के लिए भाषा को ही आधार बनाना होगा । एक बुरी सभ्यता से निष्क्रमण और नर्इ सभ्यता के सृजन के लिए यह दृष्टि  महत्वपूर्ण हो सकती है ।

मुकित के लिए......



प्रतीति को नहीं ,प्रतीति की प्रक्रिया को देखो,
मुक्ति के लिए.......

वह ज्ञान है समानान्तर सत्य के
प्राणों का मन का-प्राणों ,आंखों ,कानों का
जिहवा और त्वचा का-स्वाद और स्पर्श -ऐनिद्रय !

कौन है वह चेतन-अनुभूतिमय...सृष्टि में जड़ों सा उतरता हुआ
सब कुछ को जीवन्त ऊर्जस्वित क्रियमाण करता हुआ-क्या है वह ?

प्रतीति को नहीं, प्रतीति की प्रक्रिया को देखो !
श्रवणकों का श्रवण....मानस का मन.....वाचकों की वाणी
चक्षुओं का दर्शन और प्राणियों का प्राण.......

क्योंकि उसको जानना भी उसको जानना नहीं है
क्योंकि उसका जानना-भाषा का जानना है
भाषा में जानना है....भाषा से जानना है......

यदि 'तू जान सका उसे भाषा के बाहर भी
भाषा से ऊपर भी....भाषा से हटकर भी
तब 'तू उसे जानता है और जानता है उसका होना
और होना अपना भी-प्रक्रिया में होना ''मनुष्य का और ब्रह्म का
होना चेतना का और जीवन का
होना आत्मा का और परमात्मा का
होना सर्जक और सृष्टि -भाषा से ....भाषा में....भाषा तक....भाषा की !

तब 'तू उठ सकेगा ऊपर
होना मनुष्य से और ब्रह्म  से.....आत्मा से और परमात्मा से
प्रकृति से और प्राण से......जीवन से और बुद्धि से
चेतना से और चित्त से.....

तभी 'तू हो सकेगा सभी कुछ
सृष्टिमय...धारासार प्रवाहित अपने अस्तित्व को देख सकेगा
जान सकेगा मुक्त अस्तित्व -मुक्ति - सत्य
भूत में...भविष्य में और वर्तमान में......
अन्यथा उसे जानते हुए भी न जानेगा 'तू
उसे देखते हुए भी न देखेगा 'तू
क्योंकि उसको जानना भाषा को भाषा का
भाषा में जानना नहीं है
न ही उसको देखना -आंखों का आंखों से देखना है
वह जो जानता है भाषा और देखना ....और है !

सत्य के लिए....मुकित के लिए....ज्ञान के लिए....दृष्टि के लिए
सृष्टि की प्रक्रिया की वैज्ञानिक प्रतीति की सृष्टि के लिए
प्रतीति को नहीं , प्रतीति की प्रक्रिया को देखो
समष्टि के भ्रामक भटकाव से मुकित के लिए.....