मंगलवार, 29 मई 2012

एक भूमिगत साहित्य-धर्मी का स्मृति-लेख



स्वर्गीय रामसूरत सिंह राजीव के लिए

तुम्हारे लिए धरती किसी ग्लोब की तरह गोल नहीं
बलिक सोना बनाने के सूत्र खोजते
किसी मध्ययुगीन कीमियागर के रहस्यमय किताब जैसी ही रही होगी
अक्षरों की काली झाडि़यों में दौड़ लगाते किसी उजले खरगोश
या फिर छपे हुए अक्षरों की मिठास के लिए पागल किसी चींटे की तरह
कितनी रहस्यमय थी तुम्हारी हर पल पढने के लिए आतुर और तत्पर
कभी भी न थकने वाली आंखों की सक्रिय चुप्पी !
एक कभी खत्म न होने वाली यात्रा के रोमांचक प्रस्थान की तरह......

जैसे साहितियक पत्रिकाओं के हर नए अंक को पढ़ना अपने नाम लिखी
किसी प्रिय की चिटठी पढ़कर संवेदित और संवादित होना हो--------
जैसे कविता लिखने से अधिक महत्वपूर्ण हो जीवन में कविता को जीना
किताबों की सारी ताजी प्राण-वायु
अपने मसितष्क में फेफड़ों की तरह खींचकर
सागर की गहराइयों में उतर जाने वाले गोताखोर की तरह-----------

जैसे पढ़ना ही जीना हो और हो मसितष्क के अन्तरिक्ष में
ज्ञान के नवजन्में सूरज का अभी-अभी पहली बार उगना
बहना भावों की मन्द-मन्द हवाएं-----------चलना विचारों के विध्वंसक तूफान
घटित होना स्मृति के जीवित इतिहास में
जीना अपनी ही चेतना के जीवन्त स्मृति-कौंध का विस्मयपूर्ण रोमांच--------

कि कविता को दिखना ही चाहिए जीवन की तरह
और जीवन को किसी तेज-तर्रार खिलाड़ी की तरह उछल कर
छू लेना ही चाहिए -अपनी कल्पना की सर्वोच्च ऊंचार्इ तक उछली गेंद
जीवन को स्वयं ही एक अविस्मरणीय कविता में बदल देने के लिए------------
कि आदमी को होना और दिखना चाहिए कुछ ऐसे कि जैसे कोर्इ
संवेदनशील ,र्इमानदार और नैतिक कल्पना ही
दिख रही हो कविता बनकर--------
कि जीवन को दिखना चाहिए असंख्य नक्षत्रों और सूरज की तरह
अंधेरे में जिन्दा असंख्य गुमनाम आंखों के नाम-----------
चुपके-चुपके किसी कविता की तरह रचते हुए अपना होना
गरजना और बरसना ही चाहिए किसी बादल की तरह----------
कि अंधेरे में छिप जाते हैं सारे रंग और जीवन व्यक्त नहीं हो पाता !

जैसे साहित्य-रचना कोर्इ उल्लसित मौज हो सागर की
या फिर मसितष्क की परखनली में रखे मन के तरल में घटित होती
भावों की कोर्इ उन्मुक्त रासायनिक अन्त:क्रिया हो-----
जैसे सिर्फ साहित्य ही सच्चा और जीवित वारिस हो नए समय का
और साहित्य को पढ़ना ही सच्ची पूजा हो और इबादत
जैसे पढ़ना स्वयं में ही जीवन्मुकित हो------------
जैसे हर साहित्यप्रेमी पुषिटमार्गीय भक्त हो
और उसका साहित्य पढ़ना ही अच्छा और भला मनुष्य बन जाना हो....
कि सिर्फ साहित्य-मर्मी ही सच्चा धर्मी हो सकता है....और एक संवेदनशील
सâदय होना ही समय के अधतन उत्तराधिकार में आधुनिक सन्त होना है ....
जैसे साहित्य जिए जा रहे जीवन का द्वितीयक उत्पाद हो
गाय का दूध पीते बछड़े के मुख से झरती-बहती
जीवन के फेन की तरह-----------

आखिर ऐसा क्यों हुआ कि बिना किसी विकलांगता के----------
अपनी प्रकृति-प्रदत्त समर्थ-सक्षम प्रतिभा के बावजूद
विकलांगों की भीड़ में शामिल होने से तुमने इन्कार कर दिया !
या कहीं सर्वश्रेष्ठ बेहया नायक की खोज में निकली हुर्इ
जमाने की पागल भीड़ की हास्यास्पद मंशा को भांपकर
तुम चुपके से खिसक लिए !
याकि निर्लज्ज आत्मश्लाघा के नायकत्व-दौर में
निरंकुश महत्वाकांक्षाओं की
पागल होड़ को देखकर ही अपने भीतर छुर्इ-मुर्इ-सा शरमा गए थे तुम ?

कुछ ऐसे कि जैसे किसी कवि की कविता का छपना ही
उस कवि का बाजार में बिकने के लिए बैठ जाना हो
जैसे प्रकाशित होना स्वयं में ही एक संवादहीन अशिष्ट होड़ हो
जैसे अपने-अपने असितत्व की आक्रामक और हिंसक भगदड़ हो
जैसे बाजार में किताब की तरह बिकने में भी आती हो शर्म
जैसे घोबी के कुत्ते के घर और घाट के बीच पड़ता हो वह बाजार
जिसको पार करने के प्रयास में
जीवन किसीे आवारा कुत्ते की तरह खो जाएगा

कि इस सृषिट में अरबों-खरबों प्रयोगों को खारिज करने के बाद
जैसे विकसित हुआ है मनुष्य जैसे अरबों-खरबों मनुष्यों नेंं
निरन्तर जन्मते-मिटते हुए पूरी की है
अन्तहीन जीवन-चक्र की अनथक यात्रa
या फिर डार्विन के विकासवाद के योग्यतम की उत्तरजीविता और
अयोग्यतम के मृत्यु-वरण का व्यंग्य-विलोम घटित हुआ था
तुम्हारे जीवन में-
विनम्रतम की मृत्यु के रूप में------जैसे कि जीवन का महत्त्वाकांक्षी न होना
एक आत्महंता मनोभाव हो और दूसरों के असितत्व के सम्मान में
अपने असितत्व और उपसिथति को निरन्तर निरस्त करते जाना
एक आत्मघाती शिष्टाचार में अपनी ही मृत्यु का वरण हो
मैंने तुम्हें अपनी ही लिखी-अधलिखी प्रकाशित-अप्रकाशित कविताओं को
मरे हुए चूहे की तरह रददी की टोकरी में फेंकते देखा
किसी ऊबे हुए सम्पादक की तरह
अपनी ही सध: लिखी रचनाओं के विरुद्ध

कुछ ऐसे कि जैसे सृषिट की
अरबों-खरबों वर्ष लम्बी अनथक विकास-यात्रा में
रामसूरत सिंह राजीव किसी लुप्तप्राय मैमथ या डाइनोसोर की तरह
हमेशा के लिए भुला दिया जाने वाला साहित्य का कोर्इ
विफल जैविक प्रयोग हो----------एक अवांछनीय उपसिथति हो-----------
जिसे एक दिन गिरी हुर्इ पतितयों की तरह चुपचाप सड़ जाना हो
किसी भावी नर्इ पीढ़ी-बेहतर नर्इ फसल के नाम----------
या जैसे दूसरों के नाम अपने खेत लिख चुके
किसी भूतपूर्व किसान की तरह
अपना सारा समय---------सारी इच्छाएं लिख दी गयी हाें अपने किसी अन्तरंग-आत्मीय मित्र के नाम------

मैं तुम्हारी स्वयं को निरस्त करते जाने वाली विनम्रता
और साहितियक शिष्टाचार से हतप्रभ हूं
इस शिकायत के साथ कि तुमने अरबों-खरबों पुस्तकों की
जनसंख्या वाले ग्रन्थागारों में छिपी किसी छिपकली की तरह ही सही
चुपचाप दम साधे छिपे रहने का कोर्इ नन्हा सपना क्यों नहीं पाला !?
कि क्या तुम्हारी कविताएं प्रकाशकों के आगे-पीछे घूमते-छपतें
तथाकथित विज्ञापित और भव्यीकृत साहित्यकारों की
ग्रन्थावलियों में प्रकाशित
हाल-चाल पूछने वाली चिटिठयों से भी गर्इ-गुजरीं थींं !?
या तुमने भयावह पूंजीतन्त्र के किसी भू-स्खलित पहाड़ की तरह
टूटते समय के विशालकाय मलबे के नीचे चुपचाप दबना स्वीकार कर लिया था !?

मैं तुम्हारी आत्मीय और स्वप्नदर्शी आंखों को
एक बार फिर पढ़ना चाहता हूं
उन लिखी-अधलिखी कविताओं को भी-
जिन्हें जैसे लिखते-लिखते सहसा छोड़कर
तुमने कहा होगा कि -अब मेरे लिखने की कोर्इ जरूरत ही नहीं !
शायद तभी मैने कभी तुम्हें दक्षिणी ध्रुव के असफल खोजी स्काट की तरह
कभी भी उदास और आशंकित नहीं देखा कि मुझसे भी पहले कोर्इ एंडर्सन
पहुंच गया होगा साहित्य की रचनात्मक सार्थकता के
चरम सीमान्त दक्षिणी ध्रुव पर
मुझसे भी पहले-जैसे साहित्य कोर्इ अनितम लक्ष्य नहीं अपितु यात्रा हो और
असमाप्त यात्रा में थकान के पड़ाव भी किसी यातना से कम नहीं होते--------

जैसे एक पौधा छोड़ जाता है
अपने बीते दिनों की खाद अपनी जड़ों-पैरों के पास
जैसे न जाने कितने गुमनाम चेहरों का अभिवादन स्वीकार करता हुआ
अपनी यानित्रक-अभ्यस्त पथरार्इ मुस्कान के साथ
राजपथ पर आगे बढ़ता जाता है अपने समय की सारी क्रूरता को
अपनी बन्द मुटिठयों और कसे जबड़े में भींचे कोर्इ प्र-सिद्ध महानायक !
तुम वैसा क्यों नहीं कर सके क्यों नहीं देखे तुमने वैसे सपने
सबकी नींद में योग्यता और प्रतिभा के आतंक के साथ
कभी भी न भुला पाने के लिए उतर जाने के लिए

तुम्हारे चेहरे को देखकर सोचता रहता था मैं
कि जवाहरलाल नेहरू मेरे पडोस में नाम बदलकर रहते हैं
बड़ों की जीवन-चर्या से ऊबे बच्चों के लिए कविताएं लिखकर
अपने आत्मस्थ जीवन के एकान्त में खुश होते-मुस्कराते हुए
'सरस्वती में छपकर भी उदास रहते हुए और
'बालभारती में छपते ही आस-पास के बच्चों को पढ़ाते और चहकते हुए
तुम 'सरस्वती से सीधे बालभारती की ओर मुड़ गए
यानि कि सीधे एक गरिमामयी इतिहास से भविष्य के नाम

क्या तुम इस लिए चुप लगा गए थे कि
जो कुछ लिखा जा रहा था वह तुम्हें पसन्द नहीं था
या वैसा कुछ भी नहीं लिखा जा रहा था जैसा तुम चाहते थे पढ़ना
या तुम स्वयं ही बन गए थे साहित्य को पढ़ते हुए एक कविता !

कि वे जो स्वयं दूसरा गांधी नहीं बन पाते हुए
एक दिन बन जाते हैं गोड़से की तरह गांधी के हत्यारे
या कुछ वे जो एक दिन बन सकते हुए भी गांधी-एक दिन
स्वयं को दूसरा गांधी बनने देने से इन्कार कर देते हैं-------
क्ुछ इस तरह कि अब किसी दूसरे गांधी की कोर्इ जरूरत ही नहीं है
जबकि हम पहले ही पा चुके हैं एक प्रामाणिक गांधी

मेरे लिए अब भी रोमांच और जिज्ञासा का विषय है ऐसा सोचना
कि तुमने कितनी सहजता और विरकित के साथ एक नामवर को
अपने पास से स्वर्णिम अवसर की तरह गुजर जाने दिया----------
कौन विश्वास करेगा कि तुमने किसी शब्द-हस्त नामवर को
पूरी अन्तरंगता और आत्मीयता के साथ छूने भर की दूरी से
एक नया इतिहास रचने के लिए-----------
जंगल के किसी शानदार राजा की तरह गुजर जाने दिया था

जैसे अच्छी साहितियक कृतियों के सृजन-आपूर्ति से वंचित
साहित्य के हजारों टन गन्ने की पेरार्इ की क्षमता वाले
किसी बन्द पड़े या संकटग्रस्त चीनी मिल की तरह
साहित्य के बाजार के बीच स्थगित और अतृप्त
किसी रोमांचक कृति और घटना की खोज में घूमते-बीततेे
अपने अविस्मरणीय अतीत के सह-आवासी-विधार्थी मित्र नामवर को
चारों ओर फैले हिन्दी के खेत में कलम चलाते किसान की तरह छोड़कर
रस से भरे गन्ने की सही साहितियक फसल के इन्तजार में----------

जैसे कोर्इ गुमनाम प्रशंसक अपने आश्चर्य को
पुष्पहार की तरह अपनी र्इष्र्यामुक्त सहज शुभकामनाए
अपने प्रिय विजेता के गले मे डालकर पीछे हट जाए
खेल का रोमांचक मैदान छोड़कर तुम कब चुपके से आकर बैठ गए
पूरी र्इमानदारी ,तन्मयता और प्रेम के साथ
अनथक तालियां बजाती हुर्इ दर्शकों की भारी भीड़ के बीच

क्या तुमने बाजार को एक गन्दे नाले की तरह देखा
और फिर अपने घर वापस लौट आए-साहित्य का पूरा बाजार
जैसे अपने योग्य और विशेषज्ञ मित्र नामवर सिंह के लिए एकछत्र छोड़कर..
गांधी इण्टर कालेज कूबा,आजमगढ़ में किसी रामप्रकाश के
भीतर के कवि को किसी गुमनाम-विनम्र माली की तरह सींचनs

किसी लहराते समुद्र की तरह दूर-दूर तक फेले कूबा के ऊसर को
प्रतिभाओं की फसल के लिए उर्वर-
उपजाऊ हरे-भरे खेत में बदल देने के लिए
किसी कुम्हार की तरह गढ़ने के लिए कोर्इ
नित्यानन्द,तुषार और रामप्रकाश

जैसे कोर्इ मध्ययुगीन किसान अपने किसी प्रिय बहाुदुर योद्धा को
अपनी नि:शेष प्रशंसा के साथ पुरस्कार स्वरूप
अपना उगाया सारा अन्न-भंडार देकर
वापस मुड़ जाये अपने खेतों की ओर
अपने कन्धे पर हल उठाए सोंधी मिटटी की गंध सूघने
पुकारने के लिए नर्इ-नर्इ फसल
जैसे सत्याग्रह से आजादी की जीती हुर्इ लड़ार्इ हारने के बाद
अपने आश्रम में हमेशा की तरह चरखा चलाने से ऊबे हुए गांधी
बच्चों को मानसिक आजादी का पाठ पढ़ाने लगे हाें

कुछ ऐसे कि जैसे अन्तत: सारे आक्रामक विज्ञापनों
और विपणनों के बावजूद
हम एक दिन लौट आते हैं चील की तरह
अपने पंजे में दबाए हुूए एक मरे हुए इतिहास का टुकड़ा लेकर
अपनी थकी-हत्यारी आकांक्षाओं के साथ-अपने
असितत्व के एकान्त घोसले में
और एक दिन अपनी सभी महत्वाकांक्षाओं के अन्त की घोषणा के साथ
अपने भीतर की समस्त ऊर्जा को
विनम्रतापूर्वक सौंप देना चाहते हैं मिटटी के नाम
एक लम्बे विश्राम के बाद उर्वरा-शकित के पुन: प्रस्थान-बिन्दु की तरह !
एक सबसे अच्छे पौधे की जड़ के नीचे छिपा देते हुए अपने वज़ूद को