भारत की मुख्य समस्या यह है किउसमें पेशेवर राजनीति का अभाव है और उसके नेताओं में सृजनात्मक इच्छा शक्ति और कल्पना का भी .यह एक बड़ा देश है.इस लिए सामूहिक असंतोष और संगठित विद्रोह से पर्याप्त सुरक्षित है .यहाँ के परंपरागत वोट बैंक वाले लोकतंत्र नें राजनीतिक घरानों को विकसित किया है .ये राजनीति के व्यवसायी परिवार हैं .इनका अपना आर्थिक तन्त्र है ,जो एक सीमा तक राजनीति के बाजार को प्रभावित करने में सक्षम है .कुछ के पास जातिगत वोट है तो कुछ के पास परम्परागत या आनुवांशिक समर्थक .ये निष्ठाजिवी होने के कारण किसी भी निंदा -आलोचना के अयोग्य हैं .वे एक दुसरे की सीमाओं को जानते हैं और बहुत कम प्रतिस्पर्धी हैं .इसीलिए वे प्रायः मिल -जुल कर अस्तित्व में बने रहते हैं .क्योंकि उन्हें किसी क्रांति द्वारा सत्ता च्युत होने का तात्कालिक भय भी नहीं है,इसलिए वे बिना कोई रन बनाए पिच पर बने रहने की दृष्टि से पारंगत हो गए हैं .
जीवन का रास्ता चिन्तन का है । चिन्तन जीवन की आग है तो विचार उसका प्रकाश । चिन्तन का प्रमुख सूत्र ही यह है कि या तो सभी मूर्ख हैं या धूर्त या फिर गलत । नवीन के सृजन और ज्ञान के पुन:परीक्षण के लिए यही दृष्टि आवश्यक है और जीवन का गोपनीय रहस्य । The Way of life is the way of thinking.Thinking is the fire of life And thought is the light of the life. All are fool or cheater or all are wrong.To create new and For rechecking of knowledge...It is the view of thinking and secret of life.
शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012
मंगलवार, 25 दिसंबर 2012
विचारधारा और मानवीय समाज
अधिकांश विचारधाराएँ वर्तमान व्यवस्था की अपर्याप्तता का अतिक्रमण करने और मनुष्य की भविष्योन्मुख सृजनशीलता तथा उसकी प्रत्याशी कल्पनाशीलता का परिणाम हैं..विचारधाराओं के निर्माण की तात्कालिक परिस्थिति और उनके लोकप्रिय होने की समकालीन मानवीय आवश्यकताओं को देखें तो किसी भी यूटोपिया के ऐतिहासिक आधार को समझा जा सकता है .क्योंकि हर विचारधारा का अपना देशकाल और अपेक्षाओं-इच्छाओं का अपना मानवीय पर्यावरण होता है ,इस लिए जब दूसरी पारिस्थितिकी और समय में उसे पूरी तरह सही मानकर जीने का प्रयास करते हैं तो जीवन या तो पिछड़ता है या फिर विकृत होता है.ऐसी विचारधाराएँ असुविधा,गतिरोध और तनाव पैदा कराती हैं . क्योंकि अधिकांश विचारधाराएँ और यूटोपिया अपने निर्माण के समय की वास्तविकताओं की प्रतिक्रिया में ही जन्म लेते हैं ,लेकिन उनके अनुयायी और प्रशंसक उन्हें सार्वभौम और सर्वकालिक मन लेते हैं.इस समझ के अभाव में किसी यूटोपिया या विचारधारा के साइड -इफेक्ट का चिंतन नहीं हो पाता.इस तरह हर यूटोपिया में मानवीय पर्यावरण के विनाश के कुछ खतरे हो सकते हैं..
वस्तुतः सभ्यता के बहुत से आयाम हैं और हो सकते हैं .इसी तरह व्यवस्था -चिंतन के भी बहुत से आयाम हो सकते हैं.शासन-सत्ता का स्वरूप ,उसकी प्राथमिकताएं और नियम,नागरिकों या शासितों के अधिकार या नियम आदि व्यवस्था-चिंतन करने वाली विचार-धाराओं के मुख्या-विषय रहें हैं . इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कोई भी विचारधारा तकनीक और विज्ञानं की व्यावहारिक प्राथमिकताओं को ही प्रभावित कर सकती है ,उसकी ज्ञानात्मक सैद्धांतिकी को नहीं .
व्यापक लोकप्रियता और संस्कारगत मानवीय उपस्थिति के कारण विचारधाराए प्रायःअतीतजीविताको बढावा ही देती हैं.सामजिक अनुकरणशीलता में पुनरुत्पादित होने के कारण वे अतीतोंमुखी समाज की रचना भी करती हैं इसी लिए आधुनिक होना सदैव नया होना ही नहीं होता ,न ही आधुनिक सभ्यता से आशय पूरी तरह वर्तमान की अद्यतन सभ्यता ही है .दरअसल हम जाने -अनजाने यथार्थ का कालान्तरणकर रहे हैं -प्राचीन को आधुनिक बना रहे हैं .अतीत और वर्तमान दोनों ही एक साथ उपस्थित हैं .वस्तुतः आधुनिक और वर्तमान में फर्क है .विडम्बना याह है की जो वर्तमान है वह आधुनिक नहीं है और जो आधुनिक है वह वर्तमान नहीं है .आज का वर्तमान इतिहासग्रस्त है .अतीत का पुनरुत्पादन किया जा रहा है .इसी तरह हमारी सामूहिक जीवन अथवा सभ्यता की यात्रा वांछित-अवांछित,सुनियोजित-अनियोजित भविष्य के साथ,भविष्य की ओर हो रही है .
इस दृष्टि से जब वर्तमान को देखता हूँ तो पता हूँ कि अलग मानसिकता और संस्कृति के कारण समाज में ऐच्छिक विक्षोभ का भी अलग-अलग स्तर दिखता है .कम इच्छाएँ विकास की इच्छा और आवश्यकताओं के बोध को सीमित कराती हैं .इस लिए जब कोई विचारधारा मानव-इच्छाओं को प्रेरित-प्रभावित कराती है तो वह मानवीय पर्यावरण और आविष्कारों को भी प्रभावित करने की स्थिति में होती है -चाहे वह गांधीवाद ही क्यों न हो .उदहारण के लिए देंखे तो गांधीवाद पूंजीवाद को नैतिक और मानवीय बनता है .बनाने की अपील करता है .वह कुछ अधिक विश्वासी है .जबकि मार्क्सवाद एक नकारात्मक नियामक है और वह मनुष्य को असभ्य ,अनैतिक और अमानवीय बनाने का अवसर ही नहीं देता .मानव -मनोविज्ञान की दृष्टि से दोनों की ही आलोचना की जा सकती है .गांधीवाद का तरीका मानव-इच्छाओं की निगरानी करने का है .व्यक्ति की इच्छाओं को अनुशासित और परिसीमित करने के कारण गांधीवाद जिस मनुष्य को निर्मित करेगा वह नैतिक दृष्टि से सज्जन और भद्र पुरुष तो होगा लेकिन उसमे सृजनशीलता की कल्पनाशक्ति कुण्ठित हो सकती है .बहुत प्रभावी होने पर वह बहुत सी तकनीकों और आविष्कारों को हतोत्साहित कर सकता है .
इसके विपरीत मार्क्सवादी विचारधारा के आधार पर निर्मित व्यवस्था की अयोग्यता भिन्न प्रकार की होगी .वह पूंजी की उन्मुक्त और निर्बाध सृजनशीलता के अधिकार को सीमित करना चाहता है इस तरह वह अभिप्रेरणा के स्तर पर सृजनशीलता के आनंद को कुण्ठित करता है . इस दृष्टि से मार्क्सवाद नकारात्मक है .
सामूहिकता में चलने -चलाने की उसकी इच्छा की तुलना परेड में चलने से की जा सकती है .वह कदमताल को अधिक महत्व देता है .
मार्क्सवाद में से दमन ,अविश्वास और तानाशाही को निकालकर उसमे पूंजी -निर्माण की सामूहिक और सकारात्मक सृजनशीलता को बल देने वाली व्यवस्था लाईजा सकती है .मार्क्सवाद को लेकर एक और समस्या यह है कि नियामक विचारधारा होने के कारण मार्क्सवाद संवादी नहीं है .उसकी सैद्धांतिकी बाजार और मुद्रा दोनों को ही व्यर्थ और ध्वस्त कराती है .बाजार के पास मांग और पूर्ति का सटीक सूचनातंत्र तो होता है ,किन्तु मानवीय संवेदना और नैतिक चेतना विभाजित और वर्ग-आधारित होता है.नए मार्क्सवाद को मार्क्सवाद की नैतिक चेतना और संवेदना के साथ बाजार से संवादी होना भी सीखना होगा .क्योंकि बाजार मानवजाति की सृजनशीलता का सर्वोत्तम संग्रहालय भी है .
वस्तुतः सभ्यता के बहुत से आयाम हैं और हो सकते हैं .इसी तरह व्यवस्था -चिंतन के भी बहुत से आयाम हो सकते हैं.शासन-सत्ता का स्वरूप ,उसकी प्राथमिकताएं और नियम,नागरिकों या शासितों के अधिकार या नियम आदि व्यवस्था-चिंतन करने वाली विचार-धाराओं के मुख्या-विषय रहें हैं . इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कोई भी विचारधारा तकनीक और विज्ञानं की व्यावहारिक प्राथमिकताओं को ही प्रभावित कर सकती है ,उसकी ज्ञानात्मक सैद्धांतिकी को नहीं .
व्यापक लोकप्रियता और संस्कारगत मानवीय उपस्थिति के कारण विचारधाराए प्रायःअतीतजीविताको बढावा ही देती हैं.सामजिक अनुकरणशीलता में पुनरुत्पादित होने के कारण वे अतीतोंमुखी समाज की रचना भी करती हैं इसी लिए आधुनिक होना सदैव नया होना ही नहीं होता ,न ही आधुनिक सभ्यता से आशय पूरी तरह वर्तमान की अद्यतन सभ्यता ही है .दरअसल हम जाने -अनजाने यथार्थ का कालान्तरणकर रहे हैं -प्राचीन को आधुनिक बना रहे हैं .अतीत और वर्तमान दोनों ही एक साथ उपस्थित हैं .वस्तुतः आधुनिक और वर्तमान में फर्क है .विडम्बना याह है की जो वर्तमान है वह आधुनिक नहीं है और जो आधुनिक है वह वर्तमान नहीं है .आज का वर्तमान इतिहासग्रस्त है .अतीत का पुनरुत्पादन किया जा रहा है .इसी तरह हमारी सामूहिक जीवन अथवा सभ्यता की यात्रा वांछित-अवांछित,सुनियोजित-अनियोजित भविष्य के साथ,भविष्य की ओर हो रही है .
इस दृष्टि से जब वर्तमान को देखता हूँ तो पता हूँ कि अलग मानसिकता और संस्कृति के कारण समाज में ऐच्छिक विक्षोभ का भी अलग-अलग स्तर दिखता है .कम इच्छाएँ विकास की इच्छा और आवश्यकताओं के बोध को सीमित कराती हैं .इस लिए जब कोई विचारधारा मानव-इच्छाओं को प्रेरित-प्रभावित कराती है तो वह मानवीय पर्यावरण और आविष्कारों को भी प्रभावित करने की स्थिति में होती है -चाहे वह गांधीवाद ही क्यों न हो .उदहारण के लिए देंखे तो गांधीवाद पूंजीवाद को नैतिक और मानवीय बनता है .बनाने की अपील करता है .वह कुछ अधिक विश्वासी है .जबकि मार्क्सवाद एक नकारात्मक नियामक है और वह मनुष्य को असभ्य ,अनैतिक और अमानवीय बनाने का अवसर ही नहीं देता .मानव -मनोविज्ञान की दृष्टि से दोनों की ही आलोचना की जा सकती है .गांधीवाद का तरीका मानव-इच्छाओं की निगरानी करने का है .व्यक्ति की इच्छाओं को अनुशासित और परिसीमित करने के कारण गांधीवाद जिस मनुष्य को निर्मित करेगा वह नैतिक दृष्टि से सज्जन और भद्र पुरुष तो होगा लेकिन उसमे सृजनशीलता की कल्पनाशक्ति कुण्ठित हो सकती है .बहुत प्रभावी होने पर वह बहुत सी तकनीकों और आविष्कारों को हतोत्साहित कर सकता है .
इसके विपरीत मार्क्सवादी विचारधारा के आधार पर निर्मित व्यवस्था की अयोग्यता भिन्न प्रकार की होगी .वह पूंजी की उन्मुक्त और निर्बाध सृजनशीलता के अधिकार को सीमित करना चाहता है इस तरह वह अभिप्रेरणा के स्तर पर सृजनशीलता के आनंद को कुण्ठित करता है . इस दृष्टि से मार्क्सवाद नकारात्मक है .
सामूहिकता में चलने -चलाने की उसकी इच्छा की तुलना परेड में चलने से की जा सकती है .वह कदमताल को अधिक महत्व देता है .
मार्क्सवाद में से दमन ,अविश्वास और तानाशाही को निकालकर उसमे पूंजी -निर्माण की सामूहिक और सकारात्मक सृजनशीलता को बल देने वाली व्यवस्था लाईजा सकती है .मार्क्सवाद को लेकर एक और समस्या यह है कि नियामक विचारधारा होने के कारण मार्क्सवाद संवादी नहीं है .उसकी सैद्धांतिकी बाजार और मुद्रा दोनों को ही व्यर्थ और ध्वस्त कराती है .बाजार के पास मांग और पूर्ति का सटीक सूचनातंत्र तो होता है ,किन्तु मानवीय संवेदना और नैतिक चेतना विभाजित और वर्ग-आधारित होता है.नए मार्क्सवाद को मार्क्सवाद की नैतिक चेतना और संवेदना के साथ बाजार से संवादी होना भी सीखना होगा .क्योंकि बाजार मानवजाति की सृजनशीलता का सर्वोत्तम संग्रहालय भी है .
मंगलवार, 4 दिसंबर 2012
प्रतिरोध में ब्राह्मणवाद! और समय के कैंसर
प्रतिरोध में ब्राह्मणवाद !
अभी मैं आगरा-मथुरा के पर्यटन से लौटा हूँ
और हतप्रभ रह गया
ब्राह्मणवाद की ताकत प्रतिरोध और आजीविका की शैली देखकर
क्या अदा है ब्राह्मणवाद के चुपचाप दुनिया जीतने की
इनसे तो सीखना चाहिए मार्क्सवादियों को भी .....
वे एक पुराने राजा की प्रशंसात्मक स्मृति से
समय के राजा को अप्रतिष्ठित कर देते हैं
अपने गगनचुम्बी किले में बैठा हुआ झींकता रहता है राजा
करता रहता है ईर्ष्या अतीत के सम्मानित राजा से
बीते ज़माने का राजा जो समय में न होते हुए भी
हर पल के मानवीय समय में है
उसे देता हुआ मानक श्रेष्ठता की चुनौतियां
गया राजा जिसने एक जातिके पुरखों को खुश कर दिया था
और जिसकी कृतज्ञता में
आज भी उसके गुणगान में लगे हैं जाति-विशेष के वंशज
समय के राजा का किला
अपने समय के आसमान को जीतने के बाद
अपने अभूतपूर्व होने के घमण्ड की मांग के बावजूद उपेक्षित खड़ा है
समय के दरबार के समानान्तर
जनस्वीकृति की शक्ति से खड़ा है एक और दरबार
स्मृतिलोक के अप्रतिम शासक के सम्मान में स्तुतिगान करता हुआ
एक सामूहिक जीवन-समय
अपनी रूचि पसंद और स्वीकार की कसौटी पर
समय की वास्तविक विजेता शक्तियों को
मनोवैज्ञानिक स्वतंत्रता के साथ अस्वीकार कर रहा है
यह एक अहँकार रहित होकर
भिक्षाटन से आजीविका अर्जित करने वाली
अपनी जातीय श्रेष्ठता की अभिमानी जाति का प्रतिरोध है
जिसकी विजयों और युद्ध-नीति के बारे में
कितना कम जानते हैं हम और आप !
जो अपने समुदाय के अधिकृत योद्धाओं के पराजित होने के बाद भी
बिना हारे लड़ती और जीतती आई है
अहंकार रहित हारी हुई सी दिखने के बावजूद
एक बड़े समुदाय के मानस-लोक पर
चुपचाप राज करती हुई
समय के नापसंद राजा के समानान्तर
अतीत से खोज कर लाती हुई
मनोलोक के राजा का चरित और सौन्दर्य .....
व्यभिचार की स्वतंत्रता के अराजक सामंती समय में
अपनी एक ही पत्नी के लिए कुण्ठित क्यों होते हो जन-भाई
समय के राजा के पास तो मात्र तीन-चार ही रानियाँ हैं
अनुकरण मत करो
क्योंकि अनुकरण किया ही नहीं जा सकता
मनोलोक के अतुलनीय एवं कालातीत लीलापुरुष का
उसके पास सोलह हजार रानियाँ हैं जो समय के राजा के बस की बात नहीं ....
एक पूरी जाति का गप्पी सृजन-तंत्र
समय की वास्तविकताओं के बहिष्कार और अस्वीकार में लगा हुआ है
लोक के स्मृतितंत्र पर सुनियोजित और संगठित वर्चस्व के साथ
गाते हुए समय को भजती और भाजती हुई -राधे-राधे -राधे ....
समय के कैंसर
जब हम एक जगह किसी मानवीय भूमिका में उपस्थिति होते हैं तो
उसी समय किसी अन्य मानवीय भूमिका के लिए
सामाजिक रूप से अनुपस्थित भी होते हैं
जब हम बन जाते हैं व्यवस्था के एक हिस्से के पुर्जे
दूसरे हिस्सों के लिए होते जाते हैं असंगत
कोई भी सर्वव्यापी नहीं हो सकता
एक व्यक्ति के रूप में
लेकिन प्रभाव के रूप में हो सकता है
उन संगठनो के कारण
जो एक व्यक्ति के विवेक कोसभी का विवेक बना देते हैं
होते हैं जिनके पास अपने ही समय के बंधुआ मस्तिष्क
और जो महानता की ओट में शर्मनाक ढंग से
दूसरों के लिए सोचते हैं
और बन जाते हैं समय के कैंसर
ज्ञान भी एक सम्पदा है
सब कुछ बाँट देने के बाद भी
बचा रह जाएगा जिसे देकर भी दिया नहीं जा सकेगा
रह जाएगा अपने भीतर
अपनी निजी समझदारी के रूप में
जो एक भिन्न यात्रा से आई होगी और ले जाएगी अलग राह
जो एक अलग अनुभव की पृष्ठभूमि पर
पुष्पित और पल्लवित करेगी जीवन को...
यह ठीक है किहम अपनी रुचियाँ और स्वभाव के लिए होते हैं जिम्मेदार स्वयं ही
और उसे किसी से भी साझा नहीं कर सकते
सब कुछ बराबर कर देने के बावजूद
रह जाएगा कुछ विषम -विसंगत
और यह सोचना कि
जो कुछ है अपने पास उसे दिया भी जाय या नही
ज्ञान जो परमाणु बम बनाने की प्राविधि के रूप में भी हो सकता है
और दुरुपर्योग किएजा सकने वाले अधिकार के रूप में भी
ज्ञान एक शक्ति है
इसी लिए सुरक्षा के लिए
स्वभाव और चरित्र मागती है
रविवार, 25 नवंबर 2012
हिन्दी का समकालीन साहित्यिक परिदृश्य : विश्लेषण एवं पुनर्विचार
सृजन -संवाद
संपादक -ब्रजेश
में प्रकाशित लेख
संपादक -ब्रजेश
में प्रकाशित लेख
हिन्दी के समकालीन साहित्यिक परिदृश्य का र्इमानदार विश्लेषण , उसकी सृजनशीलता को दुष्प्रभावित करने वाले ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को सही ढंग से समझे बिना संभव ही नहीं है । हिन्दी जाति के अपने यथार्थ के अनुसार उसकी सृजनात्मक समस्याएं और चुनौतियां क्या हैं ? किन सामाजिक-ऐतिहासिक कारणों से हिन्दी का लेखक वैशिवक धरातल पर कोर्इ बड़ी साहितियक कृति देने में अब तक असफल रहा है ? वे कौन से सामूहिक एवं सापेक्षिक भटकाव हैं ,जिनके कारण विकास के अपेक्षाकृत अपने छोटे से काल में अनेक प्रायोजित वाद और विवाद पैदा करके भी वैशिवक धरातल पर कोर्इ भी महत्त्वपूर्ण सृजनात्मक चुनौती देने में हिन्दी जगत प्राय: असमर्थ रहा है ? आत्ममूल्यांकन की प्रक्रिया में ऐसे बहुत से प्रश्न सामने आ सकते हैं । कुछ ऐसे भी कि 'क्या यह सच नहीं है कि पूर्व में भी आधुनिक हिन्दी कविता का स्वर्ण युग कहे जाने वाले छायावाद के कवियों की भरपूर प्रशंसा भी हम उनके प्रभावकों जैसे रवीन्द्रनाथ टैगोर,शेली,कीटस आदि का नाम छिपाकर ही कर पाते हैं ! क्या यह सच नहीं है कि जोखिम से बचने एवं जातीय सुरक्षा पाने की अभ्यस्त हिन्दी जाति और उसके सम्पादक ,अपने लेखकों से प्राय: बिरादराना प्रभाव एवं अनुशासन में लिखी गयी रचनाओं की ही मांग करते हंै ?
क्या यह एक र्इमानदार तथ्य नहीं है कि पशिचम की तरह हिन्दी में सृजन की सामाजिकता को , मात्र स्कूल बनाने की प्रवृत्ति के रूप में ही नहीं देखा जा सकता ! पशिचम की मौलिक सृजनशीलता से अलग हिन्दी का साहितियक समाज 'जातीय(समूह-अनुमोदित) रचनाधर्मिता को ही अचेतन रूप से बढ़ावा देता रहा है । स्पष्ट रूप से यहां मेरा आशय डा0 रामविलास शर्मा की हिन्दी जाति से नहीं है ,बलिक मौलिक एवं विशिष्ट सृजन की विरोधी सर्वमान्य-सामान्य को सृजित करने के उस अघोषित मनोवैज्ञानिक दबाव से है, जिसके कारण हर नए लेखक को अपनी ही तरह का नहीं लिखना पड़ता है बलिक वैसा कुछ लिखना पड़ता है, जैसा लिखना दूसरों को बदलने की अधिक चुनौती न देता हो और जैसा लिखने पर लिखे हुए की स्वीकृति की संभावनाएं बढ़ जाती है। इस प्रवृत्ति की व्याख्या बाजार के मांग एवं पूर्ति के नियम से भी नहीं की जा सकती है ,क्योंकि यह सृजन की सामाजिक अनुकूलता यानि दूसरों जैसा होने की होड़ को प्रोत्साहित करती प्रतीत होती है । हजारों वषोर्ं से प्राप्त जाति-जीवी होने का संस्कार हिन्दी सृजनशीलता कोे पूर्ण मौलिक विकल्प की खोज करने ही नहीं देता। इसे और स्पष्ट करते हुए कहें तो प्रकाशित होने और समर्थन पाने के अचेतन मानसिक दबाव में हम वैसा कुछ भी नहीं लिख और रच सकते , जो हिन्दी बिरादरी के संस्कार,सोच और मुहावरे से बाहर की उपसिथति हो ।
इस तरह अपनी रूढि़वादी पृष्ठभूमि और पारम्परिक संस्कार के कारण ;जाति में जीवित और सुखी रह पाने के अपने अचेतन असुरक्षा बोध के कारण हिन्दी मनीषा बहुत जल्दी ही जाति बनाने लग जाती है । उसका अधिकांश लेखन तर्ज की मर्ज का शिकार है । हिन्दी में ऐसी कर्इ पत्रिकाएं हैं ,जिनके स्वनामधन्य सम्पादकों की कृति-आस्वाद की आदतें एवं उनके मानक तीस वर्षों से भी नहीं बदले । ऐसी पत्रिकाओं ने अपने प्रभाव-क्षेत्र के लेखकों और उनके लेखन से प्रभावित होकर पढ़ती-लिखती आ रही परवर्ती पीढ़ी को कुछ इस प्रकार अपनी रुचि,सोच, पसन्द-नापसन्द, स्वीकार-अस्वीकार की निजी बौद्धिक सीमा में नियनित्रत और निर्देशित किया है कि हर पत्रिका और उसके द्वारा प्रकाशित साहित्य अपने अनुप्रभावित लेखक-समूह के साथ एक अलग जातीय स्कूल में बदल गए हैं ।
हिन्दी पाठकों और लेखकों को सृजन की पृष्ठभूमि के रूप में प्राप्त सामाजिक यथार्थ को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो उन्नीसवीं शताब्दी के औधाोगिक क्रानित से लेकर, बीसवीं शताब्दी के कम्प्यूटर क्रानित तक, उसके अर्थ-तन्त्र एवं समाज नें स्वरूप बदला है । व्यापक उपभोक्ता वर्ग तक पहुंचने के लिए विकसित विपणन तन्त्र ने मजदूरों को कारखानों से निकालकर सर्विस सेन्टरों एवं शो रूमों के प्रशिक्षित कर्मचारियों एवं कुलियों में बदल दिया है । आधुनिक आटोमेटिक मशीनों ने कारखानों से मजदूरों की भीड़ को बाहर कर दिया है । अब उनके लिए सेल्स मैन की भूमिका ही बची है । पूंजीपतियों की गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा और उपभोक्ताओं को आकर्षित करने अर्थ-युद्ध के बीच अतिरिक्त मूल्य एक काल्पनिक अवधारणा बन गयी है और उसके स्थान पर मध्यवर्गीय जीवन को पालने में सहायक विनिमय मूल्य एवं दलाल संस्कृति निर्णायक प्रमाणित हुर्इ है । इस सैद्धानितक अन्तर्विरोध से आंखे चुराते हुए भारतीय वामपन्थ पहले भारतीय किसानों की ओर बढ़ा फिर बढ़ती हुर्इ जनसंख्या और बंटती जमीनों के यथार्थ से पलायन कर वन-विभाग सम्बन्धी कानूनों से भूमि के सरकारी अधिग्रहण के विरुद्ध उपजे असन्तोष को हवा देने के लिए जंगलों की ओर निकल गया । एक समग्र एवं आदर्श साम्यवादी व्यवस्था और समाज के निर्माण में आने वाली चुनौतियों से मुंह चुराते हुए ,वैशिवक एवं औधोगिक पूंजीवाद से बचते-बचाते भारत में सर्वहारा की खोज आदिवासियों को वामपन्थ में दीक्षित करने के रूप में पूरी हुर्इ है या बनते हुए बाधों से हुए विस्थापितों के पुनर्वास की चिन्ता और संघर्ष के रूप में । भारतीय सामाजिक यथार्थ और उसके बुद्धिजीवियों के ऐसे ही कुछ वैचारिक सीमान्त है।
सच तो यह है कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध में हिन्दी का साहित्यकार, गांधीवाद और माक्र्सवाद की आदर्शवादिता से प्रभावित रहने के कारण वस्तुनिष्ठ हो ही नहीं पाता है । वह किसी नए प्रस्थान के लिए असमर्थ ,पराश्रित और मोहाच्छन्न है । उस समय तक जाति और सम्प्रदाय जैसी समस्याओं काें विमर्श का विषय बनानें में वह अपनी हेठी समझता है । कुटुम्बीय परिवार की पृष्ठभूमि तथा जातीय समाज की मनोरचना के कारण, स्त्री-स्वातन्«य एवं विमर्श का पाश्चात्य स्वरूप यहां आ ही नहीं सका ; क्योंकि आर्थिक वर्गान्तरण से जातीय वर्गान्तरण, मनोवैज्ञानिक दृषिट से अधिक जटिल और संघर्षपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया है । पशिचम में जाति से अधिक कुलीनता-अकुलीनता की अवधारणा नें वर्गान्तर किया है । इसलिए वर्ग-विभाजन का आर्थिक आधार ही उनके लिए पर्याप्त था । इसके अतिरिक्त अपनी पिरामिडीय संरचना के कारण पूंजीवादी व्यवस्था का अधिकार-तन्त्र निम्नस्तरीय एवं अकुशल व्यकितयों को भी शोषण के बावजूद उनका इस्तेमाल करते हुए उन्हें संरक्षित भी करता था । संभवत: जटिल विकास के इसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से बचने के लिए भारतीय वामपन्थ नें वन-विभाग से शोषितों के रूप में आदिवासियों एवं जनजातियों की खोज की । हिन्दी के अधिकांश प्रगतिशील साहित्यकार ,भारतीय वामपन्थ के विकास ,शोषण एवं संघर्ष की मुख्य भूमि को छोड़कर ,सशस्त्र संघर्ष के बावजूद नक्सलवाद की वैचारिक पलायनवादिता को सृजन एवं विचार की चुनौती के रूप में देखते ही नहीं ।
अपनी भोली-र्इमानदार प्रतिबद्धता एवं संवेदनशीलता के साथ हिन्दी में माक्र्सवादी सिद्धान्तों और वामपन्थी क्रानित के सपनों पर आधारित प्रगतिशील साहित्य एक ऐतिहासिक सच्चार्इ है ; लेकिन इस सच्चार्इ ने जिस प्रतिगामी साहितियक सच्चार्इ को जन्म दिया है ,वह है सामाजिक यथार्थ का साहितियक यथार्थ में रूपान्तरण न कर पाने की विफलता । एक अवरुद्ध समाज अपने यथार्थ को देर तक परिवर्तित नहीं कर पाता । ऐसे में बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध के कथाकार प्रेमचन्द का , इक्कीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध तक प्रासंगिक बने रहना , उनकी प्रतिभा की महानता को जितना प्रमाणित करता है ,उससे अधिक भारतीय समाज के अवरूद्ध यथार्थ की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है । हिन्दी क्षेत्र के अपरिवर्तित यथार्थ नें उसके बहुआयामी साहितियक उपयोग की सम्भावना को सीमित किया है । यदि कथा-साहित्य को लें तो यथार्थ की अपरिवर्तनीयता नें लम्बे समय से हिन्दी की कथात्मक सृजनशीलता को औसत और आवृत्तिपरक बनाए रखा है । लम्बे समय तक कुणिठत यथार्थ के चित्रण से हिन्दी के पाठकों एवं लेखकों का बौद्धिक अन्तराल घट रहा है । लेखक ऐसा नहीं लिख पा रहा है कि उसका लिखा पाठक को पढ़ने की चुनौती दे । वास्तविक घटनाएं जो लिखित रूप में ही समाचार-पत्रों और दृश्य मीडिया के माध्यम से पहुंचती हैं ,वह तेजी से बढ़ते विकास के साथ अधिक लाेंमहर्षक और अविश्वसनीय होती जाती हैं । आखिर समकालीन यथार्थ भी समकालीन समाज के मनुष्यों की सामूहिक सृजनशीलता का परिणाम अर्थात मानवीय उत्पाद ही है , चाहे वह अपराध या भ्रष्टाचार ही क्यों न हो !
सैद्धानितक दृषिट से साहितियक सृजनशीलता भी अनुपसिथत को उपसिथत करने की कला है और इस प्रकार कोर्इ भी सृजन सदैव ही पृष्ठभूमि का अतिक्रमण है । वह वर्तमान के यथार्थ का उपयोग करते हुए भी उपलब्ध वर्तमान का अतिक्रमण है । वह चाहे आदर्शपरक हो या यथार्थपरक सृजित यथार्थ सदैव ही मनुष्य की चेतना द्वारा पूर्व यथार्थ के अतिक्रमण के रूप में घटित होता है। यह अतिक्रमण न घटित कर पाने के कारण ही हिन्दी में प्रकाशित यथार्थवादी कहानियों की एक बड़ी संख्या अपने समकालीन यथार्थ की भाषिक अभिव्यकित मात्र हैं । वे सामाजिक यथार्थ का साहितियक यथार्थ में सफल रूपान्तरण नहीं कर पातीं ,क्योंकि साहितियक यथार्थ एक सृजित यथार्थ होता है ।
अपने समकालीन यथार्थ का साहितियक सृजनशीलता में भी अतिक्रमण न कर पाने की अपनी ऐतिहासिक एवं प्रवृत्तिगत सीमाओं तथा विशुद्ध भारतीय शैली के बिरादराना चयन के बावजूद , व्यावसायिक दबाव न होने से लघु पत्रिकाओं नें कर्इ मौलिक एवं प्रयोगधर्मी रचनाएं भी प्रकाशित कीं । उनमें सच को और निर्भयता से प्रस्तुत करने का गैर-व्यावसायिक साहस भी दिखा; लेकिन, यह भी सच है कि हर दौर में लघु पत्रिकाओं के सम्पादको में एक बड़ी संख्या साहित्यकार बनने के अभिलाषी नवोदित साहित्यकारों की ही रही है । स्वयं साहित्यकार न होते हुए भी ऐसे सम्पादक साहितियक रचनाओं के लिए मेजबान की भूमिका में थे । एक देश द्वारा दूसरे देश को मान्यता देने की शैली में-दूसरी साहितियक लघु-पत्रिकाओं को अपने साथ नाम-पते विज्ञपित करने की अच्छी प्रथा नें हिन्दी में लघु-पत्रिकाओं के आन्दोलन को एक लोकतानित्रक साहितियक संस्कृति का निर्माता बना दिया । लघु-पत्रिकाओं ने नवोदित साहित्यकारों के लिए न सिर्फ आरम्भी मंच उपलब्ध कराया बलिक उनके प्रशिक्षण-केन्द्र के रूप में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है । इसी साहितियक परिदृश्य का एक दूसरा पहलू यह है कि सम्पादकीय दृषिटहीनता के कारण हिन्दी का साहितियक परिदृश्य सामान्य रचनाओं से पट गया है। स्थगित सामाजिक यथार्थ से टकराते-टकराते हिन्दी का प्रगतिशील साहित्य और साहित्यकार भी स्थगित साहितियक यथार्थ का निर्माता और चितेरा बन गया है । उसके द्वारा सृजित कथा-वस्तु, उठार्इ गर्इ समस्याएं और विचार सभी कुछ पुनरावर्ती हो गए हैं ।
व्यावसायिक पूंजी के दबाव से मुक्त होने के कारण , हिन्दी की लघु-पत्रिकाओं नें समानान्तर सिनेमा की तरह ही एक समानान्तर साहितियक पाठक-वर्ग भी पैदा किया है । अलग-अलग ग्रहों को केन्द्र में रखकर जैसे अन्तरिक्षीय पदार्थ एकत्रित होकर अनेक सूर्य बना देते हैं ; हिन्दी के अनेक प्रतिभाशाली साहित्यकारों के नाम से जुडी साहितियक पत्रिकाएं अपना नियमित पाठकवर्ग एवं आर्थिक संसाधन विकसित कर चुकी हैं । उनसे जुड़े साहित्यकार एवं प्रशंसक भी उनकी ताकत हैें। कुछ साहितियक पत्रिकाएं तो लेखकों का अलग स्कूल ही बना रही हैं । इसे स्थानीयता का प्रभाव कहें या आंचलिकता का - हिन्दी की कर्इ पत्रिकाओं नें निजी लेखक टीम विकसित कर ली है । ऐसी पत्रिकाओं ने अपने पाठकों को भी विशेषीकृत किया है । मनोविज्ञान का एक निष्कर्ष है कि जुड़वा बालकों का सही विकास नहीं होता क्योंकि वे एक-दूसरे का ही अनुकरण करते रह जाते हैं । किसी तीसरे के प्रति बिल्कुल उदासीन रहने के कारण कुछ नया नहीं सीख पाते । हिन्दी की अनेक साहितियक पत्रिकाओं ने भी प्रायोजित लेखन का शिकार होकर अपने अलग वैचारिक साहितियक पूर्वाग्रह विकसित कर लिए हैं । साहित्य के इतिहास पर चढ़ार्इ करने वाले अलग साहितियक गिरोह के रूप में सम्पादकीय आत्मश्लाधा एवं महत्त्वपूर्ण होने के भ्रम के साथ सिर्फ वाद्र्धक्य ही नहीं, बलिक मौलिक एवं नर्इ सृजनशीलता की दृषिट से मृत्यु की ओर भी बढ़ रही हंै। इसे हिन्दी का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उसकी शीर्ष साहितियक पत्रिकाएं भी किसी दल या व्यकित-विशेष का साहितियक 'फ्रण्ट नजर आने लगी हैं । निजी जीवन में चरित्रहीनता के आरोपों का सामना कर रहे कुछ सम्पादकों नें तो किसी अन्धे-बहरे की तरह व्यापक सहितियक समाज और सरोकारों से स्वयं को काट लिया है । वे अपने ऊपर लगे आरोपों के मानसिक प्रतिरोध में निर्लज्ज ,असंवादी ,सीमित ,संकीर्ण एवं असामान्य हो गए हैं । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय राजनीति की सभी बुराइयों के प्रतिनिधि व्यवहार, हिन्दी-साहित्य की रचनाधर्मिता और विकास के परिदृश्य को भी विद्रूपित कर रहे हैं ।
एक सीमा तक हिन्दी-साहित्य के वर्तमान परिदृश्य को , उसके राजनीतिक यथार्थ का ही साहितियक रूपक कहा जा सकता हैं । यथार्थ की अनुकूल या प्रतिकूल सृजनात्मक सम्भावनाओं पर विचार करने के स्थान पर उसका साहित्यकार प्राय: अपने समकालीन इतिहास और यथार्थ का साहितियक रूपान्तरण प्रस्तुत करता है । इससे उसके लेखन में मानवीय सृजनशीलता के अन्य आयाम नहीं उभर पाते । उसका अधिकांश साहित्य सम्पूर्ण मानव-जाति के नाम सृजित ,सम्बोधित और सम्प्रेषित भी नहीं है । वह कुछ प्रतिषिठत व्यकितयों के नाम सम्बोधित निजी पत्र बनकर रह गया है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि हिन्दी का साहित्यकार जिन मूल्यांकन-मानों की कल्पना कर साहित्य सृजित करता है , उसकी हैसियत मात्र एक स्कूल की ही है । एक आंचलिक या क्षेत्रीय सच्चार्इ की तरह उसके साहितियक समाज नें सराहना और समीक्षा के नाम पर मूल्यांकन-मान के रूप में जो फतवे जारी किए है-वे काफी बचकाने अथवा नीरस है।
हिन्दी-साहित्य में भी वर्चस्व और प्रभुत्त्व के कांग्रेसनुमा सत्ता-केन्द्रों के साथ , अनेक क्षेत्रीय शकितयां और क्षत्रप काबिज हो गए हैं या काबिज होने का प्रयास कर रहें हैं । कुछ पुराने उजड़े हुए साहितियक-केन्द पुन:: संगठित हो रहे है। कर्इ प्रतिषिठत साहित्यकारों ने अपनी उपेक्षा से आहत मन की प्रतिक्रिया में साहितियक पत्रिकाएं निकाल ली हैं । हिन्दी का साहितियक चरित्र भारतीय राजनीति के चरित्र का ही अनुकरण करता प्रतीत होता है । जिस प्रकार नेहरू और शास्त्री के बाद आपात काल के कांग्रेस नें सत्ता और इतिहास को बन्धक बनाने के प्रायोजित प्रयास में , काल-पात्र गड़वाने से लेकर प्रतिभा-नियोजन के लिए पार्टी से योग्यों का निष्कासन किया -व्यकितत्व और चरित्र से हीन चाटुकारों को मुख्यमंत्री बनाकर जनता के ऊपर थोपने का असफल एवं आत्मघाती प्रयास किया और जिसका ही प्रतिक्रियात्म्क परिणाम यह हुआ कि तिरस्कृत-निष्कासित प्रतिभाओं ने अलग पार्टी ही बना ली और आगे चलकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक बने । इतिहास और सत्ता का मुख्य राजमार्ग साजिशन बन्द कर दिए जाने से समर्थ प्रतिभाओं ने स्वतंत्रता,प्रतिरोध और विकल्प के लिए क्षेत्रीय पार्टियां बनायीं । कुछ-कुछ वैसा ही -व्यकितगत महत्वाकांक्षा,राग-द्वेष,उपेक्षा तथा स्थापन-विस्थापन के भितरघातों के प्रतिक्रियात्मक सन्तुलन नें हिन्दी के साहितियक परिदृश्य को बहुवैकलिपक एवं विविधतापूर्ण बना दिया है ।
इस रूढि़वादी देश में जैसे आजादी के पूर्व कुछ ही नेताओं ने मिलकर भारत-पाकिस्तान के रूप में कर्इ करोड़ भारतीयों का भविष्य और वर्तमान बिगाड़ दिया ,वैसे ही हिन्दी के साहितियक इतिहास को कुछ गिने-चुने वर्चस्वशाली मसितष्क ही बना-बिगाड़ और बांट रहे है। सम्बन्धों एवं रुचियों पर आधारित उनकी स्मृतियां एवं उनका प्रायोजित चयन ही हिन्दी साहित्य के मानक इतिहास के रूप में विज्ञापित हो रहा है । इधर इस आरोप का प्रतिपक्ष भी देखने में आ रहा है -स्कूलों और विश्वविधालयों तक के पाठयक्रमों में गैर-मानक साहित्य और साहित्यकारों की अराजक प्रविषिट के रूप में । लघु पत्रिकाओं की बढ़ती हुर्इ संख्या के पीछे साहित्य में सक्रिय प्रायोजित सृजनशीलता तथा वर्चस्व के यथार्थ से असहमत साहितियक विपक्ष और प्रतिरोध की समानान्तर साहितियक संस्कृति के निर्माण का संघर्ष भी है।
'समकालीन सोच के प्रवेशांक (जून 1989) में व्यक्त डा0 पी0एन0सिंह की इस विचारपूर्ण समझ का विस्तार करना भी हिन्दी समाज और साहित्य के विश्लेषण में सहायक होगा कि ' अभी हमारी सामाजिक चित्ति मुख्यत: मध्ययुगीन है,जिसमें आदिम अवशेषों की भी कमी नहीं है । हमारा वैज्ञानिक और ऐतिहासिक ज्ञान हमारी सामाजिक चेतना एवं आचरण की वस्तु नहीं है , अभी यह मात्र सूचना की चीज है । हमारे वैज्ञानिक एवं विद्वान सामाजिक संवेदना के स्तर पर अपढ़ हैं । हमारे यहां शास्त्रज्ञों का नहीं ,बलिक बुद्धिधर्मियों का हमेशा अभाव रहा है । इस अभाव की पूर्ति हिन्दी समाज अन्तर्निभरता और अन्तर्सहमति से करता है । उसके जातीय या प्रवृत्तिपरक सृजनधर्मिता का राज भी यही है । इसके कारण ही वह प्राय: प्रतिभा-स्वातं«य को एक विजातीय एवं विपक्षी तत्त्व के रूप में देखता है । नए लेखकों को एक पूर्वनिर्धारित æैक पर चलकर आने का अगि्रम प्रस्ताव भेजता है । लेखन में नव-रीतिवादी आवृत्ति की परिसिथतियां पैदा करता है ।
इस जड़ता को तोड़ने के लिए सभ्यता के विकास-क्रम में सामने आयीं अधतन सूचनाओं को हिन्दी के आम लेखकों-पाठकों तक उपलब्ध कराने की जरूरत है । अधिक से अधिक विदेशी साहित्य को हिन्दी भाषा में उपलब्ध कराने की भी जरूरत है । हिन्दी के ऐसे साहितियक परिदृश्य पर यह सुझावपरक टिप्पणी की जा सकती है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की उच्चस्तरीय पाठय-सामग्री सर्वसुलभ न होने के कारण हिन्दी मनीषा के सृजनात्मक उत्पाद भी किसी अपढ़ एवं अप्रशिक्षित मसितष्क की उपज की तरह सामनें आते हैं । क्योंकि सामाजिक यथार्थ के साहितियक यथार्थ एवं कृति में रूपान्तरण की प्रक्रिया रचनाकार के बौद्धिक श्रम ,सोच , दृषिट एवं ज्ञान के समन्वय के पश्चात ही किसी विशिष्ट कृति के सृजन के रूप में पूरी हो पाती है ।
हिन्दी के सहितियक परिदृश्य के समाज-वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए हिन्दी सिनेमा से उधार लिए गए व्यावसायिक और समानान्तर जैसे शब्दों से बेहतर विशेषण मुझे दूसरे नहीं दीखते। व्यवसायिक के स्थान पर लोकप्रिय शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है ;लेकिन, हिन्दी में भारतेन्दु ,देवकीनन्दन खत्री ,प्रेमचन्द,दुष्यन्त और हरिवंशराय बच्चन जैसे गिने-चुने लेखकों को छोड़कर किसी को लोकप्रिय साहित्यकार कहना भी इस शब्द का अपमान करना ही होगा । व्यावसायिकता से मेरा प्रयोजन पेशेवर रूप से प्रायोजित साहित्य से है । लोकप्रिय में प्रभावी नेतृत्त्व उपभोक्ता या पाठक वर्ग का रहता है जबकि व्यावसायिक में व्यवसायी का-यधपि वह अपनी सारी रीति एवं नीति उपभोक्ता या पाठक को केन्द्र में रखकर ही बनाता है, लेकिन बाजार पर निर्भर रहने के कारण प्राय: पाठक वर्ग उसकी सृजनशीलता एवं श्रम पर आश्रित तथा प्रतीक्षा में ही रहता है । एक बार बिकाऊ माल की सही पहचान हो जाने के बाद साहितियक प्रवृत्तियां आवृत्ति या व्यसन के रूप में, रूप बदल-बदलकर थोड़े हेर-फेर के साथ पाठकों तक पहुंचने लगती है । यही कारण है कि व्यावसायिक पत्रिकाएं प्राय: यथा-सिथतिवादी होती हैं ;रूप ,सौन्दर्य एवं आस्वादधर्मी होती हैं।
सामान्यत: लघु पत्रिकाओं के आन्दोलन को बाजारवाद और उपभोक्ता-संस्कृति के समानान्तर रचनात्मक प्रतिरोध की संस्कृति के रूप में देखा जाता है । इस देखने का ठोस आधार भी है । उपभोक्ता संस्कृति के प्रभाव से विकृत रचनाशीलता का सबसे प्रामाणिक उदाहरण हिन्दी फिल्मों की वर्तमान दशा-दिशा है । लोकप्रियता के अर्थशास्त्र नें उसे नुस्खों के अजायबघर में बदल दिया है । हिट-पिट के उसके लम्बे इतिहास नें उसकी व्यावसायिकता को एक कला-संस्कृति में बदल दिया है । हिन्दी की व्यावसायिक पत्रिकाओं ने भी साहितियक सृजनशीलता को एक अलग कलात्मक रूढि़ दी है । इस रूढि़ की एक कलात्मक उपलबिध है- हिन्दी में गीत और नवगीत लेखन की निरन्तरता तथा पारिवारिक कहानियों की आवृतितपूर्ण उपसिथति आदि ; लेकिन हिन्दी के साहितियक परिदृश्य में विचारहीन विचारशीलता अथवा अवरुद्ध विचारशीलता के यथार्थ का भी ठोस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है ।
इस परिदृश्य को देखते हुए आश्चर्य नहीं कि हिन्दी की मुक्त विचारशीलता का अधिकांश हिस्सा लघु-पत्रिकाओं में छपकर ही सामने आता है । हिन्दी का प्रबुद्ध पाठक वर्ग लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित साहित्य को समानान्तर साहित्य के रूप में स्वीकार करता है । साहितियक सृजनशीलता के अधिक र्इमानदार और बहुआयामी स्वरूप लघु-पत्रिकाओं के माध्यम से ही हिन्दी में सामने आ रहा है । व्यावसायिकता के दबावों से मुक्त गम्भीर विचारशीलता एवं प्रतिरोध की साहितियक संस्कृति को जन्म देने के कारण हिन्दी का समानान्तर साहित्य , बौद्धिक स्वातं™य का असंगठित क्षेत्र बनकर भी उभरा है । असंगटित इसलिए कि एक-दूसरे को महत्त्व एवं स्वीकृति देने के बावजूद हिन्दी का यह साहितियक परिदृश्य अन्तरिक्ष में फैले तारों अथवा भारतीय राजनीति में सक्रिय क्षेत्रीय दलों की तरह इतना बिखरा हुआ है कि यदि वैयकितक ग्राहक न हो तो हिन्दी क्षेत्र के अधिकांश शहरों और कस्बों में इन पत्रिकाओं की सार्वजनिक उपसिथति देखने को नहीं मिलती । बुक स्टालों पर इनकी अनुपसिथतिं एक सामान्य पाठक के लिए समकालीन सृजनशीलता के इतिहास से भी अनुपसिथत करती है । व्यावसायिक पत्रिकाओं के बीच स्थानीय लघु-पत्रिकाएं ही अपनी उपसिथति दर्ज करा पाती हैं ; फिर भी ये लघु-पत्रिकाएं हिन्दी-क्षेत्र एवं हिन्दी क्षेत्र से बाहर भी साहितियक सृजनशीलता का सार्थक परिवेश एवं उपनिवेश निर्मित करती हैं ।
गम्भीरता से देखा जाय तो सम्पादक साहितियक इतिहास के निर्माण का प्रथम द्वार ही है ।
वह रचना का प्रथम किन्तु मौन समीक्षक होता है । वह रचना का प्रस्तावक होता है । इधर हिन्दी की साहितियक पत्रिकाओं में यह भूमिका किसी व्यकित-विशेष की नहीं बलिक व्यकित-समूह की होने लगी है । यह चेहरा-विहीन सम्पादन का दौर है । अब यदि कोर्इ रचना अस्वीकृत होती है तो सम्पादकीय टीम में शामिल पता नहीं किसने किया । अब इतिहास में वैसा आरोप नहीं लगाया जा सकता , जैसा कि निराला की 'जुही की कली कविता न छापने पर महावीर प्रसाद द्विवेद्वी के सठियाने की बात ध्यान में आती है । इधर कर्इ साहितियक पत्रिकाएं एक साझे मंच में बदल गर्इ हैं और 'खण्डे-खण्डे सम्पादक भिन्ना जैसी सिथति हो गर्इ है । अतिथि सम्पादक , चयन सम्पादक ,कार्यकारी सम्पादक और वैधानिक सम्पादक जैसी अनेक कोटियां बन गर्इ है । सम्पादन में 'अन्य-पुरुष के प्रचलन नें आहत लेखक द्वारा सम्पादक को गाली दिए जाने की सम्भावना ही समाप्त कर दी है । पत्रिकाओं और लेखकों की भीड़ में रचना की सिथति कन्या जैसी हो गयी है ।
एक जगह से खेद सहित वाला जवाब मिल गया तो प्रकाशन रूपी विवाह के लिए दूसरी पत्रिका का दरवाजा देखिए। अधिक चिन्ता की कोर्इ बात नहीं -क्योंकि जो पढ़ रहा है वही पढ़ रहा है और वह कहीं भी पढ़ लेगा । हिन्दी का नए दौर का जो साहितियक परिदृश्य है उसमें लेखक ही पाठक है और पाठक ही लेखक । व्यसनी है तो छपने की लालच में खरीदेगा ही और पढेगा ही । छपेगा तो लेखक कहलाएगा नहीं तो पत्र लिखेगा कि अगली बार जब वह छपे तो उसके छपने पर भी पत्र लिखने वाले रहें । अन्यथा नाराज होने पर सभी मौन साध लेंगे ।
सच तो यह है कि भारत के लिए प्रगतिशीलता का एक ही सही तात्पर्य हो सकता है-अपनी सृजनशीलता के माध्यम से अतीत के यथार्थ में परिवर्तनकारी हस्तक्षेप । इस दृषिट से मैं उन्हीं सम्पादकों का सम्पादन-कर्म सार्थक मानता हूं , जो किसी न किसी रूप में अतीत से मुक्त होने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते हैं । यह प्रक्रिया बेहतर भविष्य के सपने के साथ बेहतर विकल्प की तलाश के बिना सम्भव ही नहीं है । एक सार्थक साहितियक सृजन इसी यात्रा में ही घटित हो सकता है ।
सोमवार, 19 नवंबर 2012
पत्नी के सम्मान में
रामप्रकाश कुशवाहा की कविताएँ
पत्नी के सम्मान में
( राग - बंध -अंध )
पत्नी के सम्मान में
वापस लौट आये दुनिया के सारे अन्धविश्वास
वे भी जिन्हें कभी मैंने नापसन्द किया था
जिनसे मै असहमत हुआ और जिन्हें अपने विवाहपूर्व काल में
निर्णायक और घोषित रूप में कभी ख़ारिज भी !
निर्णायक और घोषित रूप में कभी ख़ारिज भी !
पत्नी को मेरी सारी निरीह्ताओं का पता है
जैसे कि मै अपना ईश्वर बदल सकता हूँ लेकिन बोंस नहीं
कि मध्यवर्ग का हर पुरुष अपनी दृश्य -अदृश्य मूँछ के साथ
यथा -अवसर हिलाने के लिए एक अह्लाद्वर्धक पूँछ भी रखता है
बेंत के विकल्प में सहलाना-क्रिया जैसे !
उन्हें चाहिए सुरक्षा का जोखिम-मुक्त आश्वासन
जो मेरे हाथ में बिलकुल ही नहीं है
क्या मै सुबह का घर से निकला शाम को सही-सलामत
परिवार में वापस आ सकता हूँ !
क्या दूसरो के झूठ और शरारतों को पकड़ने वाला
एंटीवायरस साफ्टवेयर है मेरे पास
क्या मुझमे बजट की बारीकियों और मंहगाई के आपसी रिश्तों की
एंटीवायरस साफ्टवेयर है मेरे पास
क्या मुझमे बजट की बारीकियों और मंहगाई के आपसी रिश्तों की
थोड़ी भी समझ है !
और एक समझदार पूर्वानुमान के साथ बचत की सतर्कता भी
पत्नी ही हैं जो इस दुनिया में सिर्फ एकमात्र मुझे ही सुधार सकती हैं
और सबसे अधिक दुनिया की सुधार वाले मेरे असमभव सपनों से ही
डरती है
उन्हें मेरी निरपेक्ष और अकेली बहादुरी से डर लगता है
सुनो जी ! तुम सारे बूद्धि-जीवी ही कटे -कटे रहते हो
बिना जुड़े और जोड़े न डकैत बना जा सकता है न नेता
जेबकतरे भी सामूहिक अभिनय से लोगो को लूट लेते हैं
अकेली समझदारी तो मूर्खों के गैंग द्वारा भी रौंद कर मारी जा सकती है
मुझे कोई भ्रम नहीं है
मै जानता हूँ इस दुनिया में जीवित लोगों की तुलना में
मरे हुओ से सहमत होना अधिक आसान होता है
असहमति अकेला बनाती है और असामाजिक भी
मेरी पत्नी जो सामाजिक धोखा-धड़ी अपराध और दुर्घटना की शिकार
एक डरे हुए परिवार से है
मुझे पूरी सावधानी और समझदारी के साथ उन्ही को जीना है
उनके अविश्वासो और आशंकाओं के साथ अनुत्तरित
घूस और पैरवी दोनो ही न देने -करने के स्वाभिमानी पागलपन में
योग्य होते हुए भी मैंने और इस समाज ने मिलकर उन्हें रखा है बेरोजगार
इसे तिकड़म की अभियांत्रिकी की अयोग्यता कहें या ईश्वर की इच्छा !
यह जरुरी तो नहीं कि मै जिस तरह सोच और समझ रहा हूँ
उसी तरह सोचें और समझें आप
अभी जो भक्तिसंगीत का रिंगटोन बज रहा है
उसे बिना किसी अन्यथा और टिप्पणी के फ़िलहाल धैर्यपूर्वक सुने !
इसे तिकड़म की अभियांत्रिकी की अयोग्यता कहें या ईश्वर की इच्छा !
यह जरुरी तो नहीं कि मै जिस तरह सोच और समझ रहा हूँ
उसी तरह सोचें और समझें आप
अभी जो भक्तिसंगीत का रिंगटोन बज रहा है
उसे बिना किसी अन्यथा और टिप्पणी के फ़िलहाल धैर्यपूर्वक सुने !
वैसे भी मै अभी नौकरी कर रहा हूँ समझे आप !
कोई भी पार्टी न बनाने के संवैधानिक अनुबंध के साथ
प्रेम के बादशाह शाहजहाँ के लिए
उसकी प्रेम की सत्ता है या एक सत्ताधारी का प्रेम
प्रदर्शन संकोच और अभिजात्य की पूरी गरिमा से ढंका हुआ
सुरक्षा और प्रतीक्षा की चाहरदीवारी में बंद मनों की
दिन -दिन तड़पती मुक्ति-उडान
सत्ता की वर्जनाओं ने उन्हें एक अभिशाप की तरह छिपाकर रखा है
उसका प्रेम और उसके परिवार की स्त्रियाँ
उसका प्रेम और उसके परिवार की स्त्रियाँ
सभी एक प्रतिष्ठित समूह की सुंदरियाँ थीं
कम सुन्दर होते हुए भी कुलीनता की गरिमा से युक्त और असाधारण
विशिष्टता का अभिशाप लिए
जहाँआरा कुँवारियाँ जिन्हें सत्ता की मर्यादा की रक्षा के लिए
अदृश्य यानि पर्दानशीं कर रखा गया था
प्रेम का बादशाह अपनी बेगम के साथ अब भी सोया है शान से
पूरी अदब और सुरक्षा के साथ
वह समयातीत और सत्ता से बेदखल होने के बावजूद
एक जीवंत और शानदार उपस्थिति है
औरन्गजेब की कैद के बावजूद उसकी आत्मा मुक्त रही लोकोत्तर प्रेम के लिए
वह उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सका
प्रेम का बादशाह आज भी भर रहा है आगरे की जनता का पेट
उसने अपनी सत्ता को कितना सुन्दर बना दिया था
तबले की संगत पर
आज भी उसके लिए मुँह से निकलता है-आह ताज!वाह ताज !
बादशाह-दो
(बादशाह अकबर के लिए)
सब विश्वास में हैं
और बादशाह भी
विश्वास करने के बादशाह को
विश्वास करने वाली प्रजा ही चाहिए
विश्वास करने वाली प्रजा ही चाहिए
हर तलवार चलाने वाला बादशाह चाहता है कि
उसके तलवार चलाने के दिनों को भुला दिया जाय
बादशाह-तीन
(बाबर के लिए )
उनके लिए जीतना बहुत ही जरुरी था
वे आपने घर से उजड़े हुए लोग थे
उन्हें कहीं बसने के लिए
जीतना बहुत ही जरुरी था
क्योंकि वे लड रहे थे
आपनी मुक्ति और पुनर्जीवन के लिए
थोड़ी सी जगह जरुरी है
किसी और के लिए
चाहे वह ईश्वर हो या फिर कोंई और
थोडा सा भोजन उसके लिए
जो अभी नहीं आया है
लेकिन जो आ सकता है कभी भी
थोडा सा धैर्य -जो दुःख में हैं
उनकी नाराजगी और क्रोध के लिए
थोडा सा बोझ दूसरो की विपत्ति को
बाँट लेने और बचा लेने के लिए
थोड़ी सी सम्भावनाये बची रहनी चाहिए
नए आविष्कारो के लिए भी
और थोड़ी सी ऊब नए प्रश्नो के लिए
थोडा सा मन नैराश्य के अंतिम क्षणों के विरुद्ध
थोड़ी सी चुप्पी और थोडा सा संवाद
एक संवेदनशील मन और सुरक्षित जीवन के लिए---
घर से बाहर निकलते ही
चीजें बदल जाया करतीं हैं
यात्रा के पाथेय के लिए
पत्नी द्वारा प्रेम से पकाए गए पुए
बदल जाते हैं अश्लील दृश्य में
पकवानों की सुगंध भूख का शोर मचा देती है
पहाड़ की लम्बी यात्रा के बाद
सोंदर्य के स्वर्ग से भूख की धरती पर उतरे थे हम
घर के साथ यात्रा करते हुए प्लेटफार्म के मंच पर
सपरिवार अवतरित ही हुए थे कि
टिफिन के खुलने ने बन्दर,कुत्ते ,एक भिखारी और सांड को
एक साथ ही अयाचित आमंत्रण दे दिया
हमने स्वयं को एक हिंसक उपस्थिति के साथ
भोजन करते पाया भीड़ भरे प्लेटफोर्म पर
भोजन ने हलचल ही नहीं भगदड़ सी ही मचा दी थी प्लेटफोर्म पर
यह एक संवेदनात्मक आक्रमण जैसा अनुभव था
जैसे आक्रमणकारी टूट पड़े हों निरीह शिकार पर
पत्नी थी स्तब्ध और ठगे से ठिठक कर रह गए थे उनके हाथ
किसी अपमानित अपराधिनी-सी कोस रही थीं जैसे
अपने-आप को
आधुनिक साहसिकता को अतिक्रमण करती
संभवतः उन्हें याद आ रहीं थीं
पुरखों से मिली सीख और वर्जनाएं
कि सार्वजानिक स्थल पर भोजन करना भी एक दृश्य-अपराध है
पहाड़ की कितनी लम्बी और थका देने वाली भूखी-यात्रा के बाद
दीर्घ प्रतीक्षित भूख के अंत का उत्सव मनाना चाहते थे हम
पत्नी दुखी थीं कि इन अयाचित अतिथियों के लिए
कितनी कम पूड़ियाँ तल कर लाई थीं वे
खिन्न मन और क्षोभ के साथ उस दिन
हम सभी ने सामूहिक उपवास करना ही उचित समझा
स्वयं भूखी और संवेदन-शून्य हो चुकी
एक लगभग अदृश्य और अनुपस्थित हो चुकी ममेतर व्यवस्था के नाम!
सारा सुख आदमी के ऊपर ही टिका हुआ है
हर सुखी आदमी किसी दुखते कंधे वाले
आदमी के सर पर चढ़ा हुआ है
कोई जानबूझकर तो कोई अनजाने ही
किसी के पैरो तले पड़ा हुआ है
जेब काटने से लेकर जीने तक आदमी के लिए
आदमी ही है कच्चा माल
मानसिक विकलांगो और पराश्रितों की एक बड़ी भीड़
जो कुछ भी नया रचना और स्वयं कमाना नहीं जानती
उनकी दुनिया का एकमात्र सच यही है कि
आदमी से छीन कर ही आदमी का भाग्योदय और भला हुआ है !
बाजार में एक ही शिखर था
बिल्कुल एवरेस्ट की तरह
घटता-बढ़ता रहता था लेकिन
झुककर किसी ऊंट की तरह कर्इ बार
किसी अदने से व्यकित को भी बिठा लेता था अपनी पीठपर
फिर उसे बहुत दूर से दिखता और दिखाता था किसी शाहंशाह की तरह
एक ही एवरेस्ट की पीठ पर सब चढ़ना चाहते थे एक दिन
कूबड़ ही एवरेस्ट का था समय का पैमाना बना हुआ
दूल्हे और बारात के आने की प्रतीक्षा और पूर्वाभ्यास में
कुछ लोग बैठकर ऊंघ रहे थे एवरेस्ट की पीठ पर
समय के सूनेपन को भरते हुए
शून्यकाल के नायक!
फेरीवाला लाल किले की दीवार पर खड़ा होकर
वहीं से झांक रहा था
जहां से सिर्फ पन्द्रह अगस्त को
राष्ट्र के नाम अपना आधिकारिक सम्बोधन करते हैं प्रधानमंत्री
बाजार में
यह एक मेले का एवरेस्ट था
जहां कुछ शराबी
अपने-अपने सिर पर अपने जीवन का बोझ उठाए
थकी हुर्इ यात्री भीड़ की पीठ पर
इतिहास की दिशा का पोस्टर चिपका रहे थे ।
बाजार में होना था
और अपनी तरह
अपनी ही शर्तो पर होना था
साथ-साथ.....
मुर्दो के लिए कफन और ताबूत बेचने वाला भी
बाजार के एक छोर पर बैठा मुस्करा रहा था
पहाड़ के पत्थर और नदी के रेत बेचने वाला भी वहां बैठा मुस्करा रहा था
अपनी यादगार बिक्री और शानदार आमदनी पर
उड़ती हुर्इ रेत को बच-बचाकर चल रहे थे राहगीर
जिन्हें नहीं खरीदनी थी रेत
रेत को उड़ते हुए झेल रहे थे
झुझला रहे थे रेत पर....
रेत से अन्धी हुर्इ हवा चल रही थी कर्इ देखने वालो के विपक्ष में
रेत तो उड़ती ही है
एक बूढ़े राजगीर नें कहा-
बाजार में रेत का होना भी जरूरी है
रेत से गर्वान्वित या अपमानित होने जैसा कुछ भी नहीं है.....
संपर्क-
बी-1,श्री साईं अपार्टमेंट ,टडिया ,
करौंदी ,सुन्दरपुर,वाराणसी ,उ 0प्र 0 पिन -221005
मो 0-09451342730
अग्र-शेष
थोड़ी सी जगह जरुरी है
किसी और के लिए
चाहे वह ईश्वर हो या फिर कोंई और
थोडा सा भोजन उसके लिए
जो अभी नहीं आया है
लेकिन जो आ सकता है कभी भी
थोडा सा धैर्य -जो दुःख में हैं
उनकी नाराजगी और क्रोध के लिए
थोडा सा बोझ दूसरो की विपत्ति को
बाँट लेने और बचा लेने के लिए
थोड़ी सी सम्भावनाये बची रहनी चाहिए
नए आविष्कारो के लिए भी
और थोड़ी सी ऊब नए प्रश्नो के लिए
थोडा सा मन नैराश्य के अंतिम क्षणों के विरुद्ध
थोड़ी सी चुप्पी और थोडा सा संवाद
एक संवेदनशील मन और सुरक्षित जीवन के लिए---
दृश्य-अपराध
घर से बाहर निकलते ही
चीजें बदल जाया करतीं हैं
यात्रा के पाथेय के लिए
पत्नी द्वारा प्रेम से पकाए गए पुए
बदल जाते हैं अश्लील दृश्य में
पकवानों की सुगंध भूख का शोर मचा देती है
पहाड़ की लम्बी यात्रा के बाद
सोंदर्य के स्वर्ग से भूख की धरती पर उतरे थे हम
घर के साथ यात्रा करते हुए प्लेटफार्म के मंच पर
सपरिवार अवतरित ही हुए थे कि
टिफिन के खुलने ने बन्दर,कुत्ते ,एक भिखारी और सांड को
एक साथ ही अयाचित आमंत्रण दे दिया
हमने स्वयं को एक हिंसक उपस्थिति के साथ
भोजन करते पाया भीड़ भरे प्लेटफोर्म पर
भोजन ने हलचल ही नहीं भगदड़ सी ही मचा दी थी प्लेटफोर्म पर
यह एक संवेदनात्मक आक्रमण जैसा अनुभव था
जैसे आक्रमणकारी टूट पड़े हों निरीह शिकार पर
पत्नी थी स्तब्ध और ठगे से ठिठक कर रह गए थे उनके हाथ
किसी अपमानित अपराधिनी-सी कोस रही थीं जैसे
अपने-आप को
आधुनिक साहसिकता को अतिक्रमण करती
संभवतः उन्हें याद आ रहीं थीं
पुरखों से मिली सीख और वर्जनाएं
कि सार्वजानिक स्थल पर भोजन करना भी एक दृश्य-अपराध है
पहाड़ की कितनी लम्बी और थका देने वाली भूखी-यात्रा के बाद
दीर्घ प्रतीक्षित भूख के अंत का उत्सव मनाना चाहते थे हम
पत्नी दुखी थीं कि इन अयाचित अतिथियों के लिए
कितनी कम पूड़ियाँ तल कर लाई थीं वे
खिन्न मन और क्षोभ के साथ उस दिन
हम सभी ने सामूहिक उपवास करना ही उचित समझा
स्वयं भूखी और संवेदन-शून्य हो चुकी
एक लगभग अदृश्य और अनुपस्थित हो चुकी ममेतर व्यवस्था के नाम!
सुख का आधार
सारा सुख आदमी के ऊपर ही टिका हुआ है
हर सुखी आदमी किसी दुखते कंधे वाले
आदमी के सर पर चढ़ा हुआ है
कोई जानबूझकर तो कोई अनजाने ही
किसी के पैरो तले पड़ा हुआ है
जेब काटने से लेकर जीने तक आदमी के लिए
आदमी ही है कच्चा माल
मानसिक विकलांगो और पराश्रितों की एक बड़ी भीड़
जो कुछ भी नया रचना और स्वयं कमाना नहीं जानती
उनकी दुनिया का एकमात्र सच यही है कि
आदमी से छीन कर ही आदमी का भाग्योदय और भला हुआ है !
शून्यकाल के नायक
बाजार में एक ही शिखर था
बिल्कुल एवरेस्ट की तरह
घटता-बढ़ता रहता था लेकिन
झुककर किसी ऊंट की तरह कर्इ बार
किसी अदने से व्यकित को भी बिठा लेता था अपनी पीठपर
फिर उसे बहुत दूर से दिखता और दिखाता था किसी शाहंशाह की तरह
एक ही एवरेस्ट की पीठ पर सब चढ़ना चाहते थे एक दिन
कूबड़ ही एवरेस्ट का था समय का पैमाना बना हुआ
दूल्हे और बारात के आने की प्रतीक्षा और पूर्वाभ्यास में
कुछ लोग बैठकर ऊंघ रहे थे एवरेस्ट की पीठ पर
समय के सूनेपन को भरते हुए
शून्यकाल के नायक!
फेरीवाला लाल किले की दीवार पर खड़ा होकर
वहीं से झांक रहा था
जहां से सिर्फ पन्द्रह अगस्त को
राष्ट्र के नाम अपना आधिकारिक सम्बोधन करते हैं प्रधानमंत्री
बाजार में
यह एक मेले का एवरेस्ट था
जहां कुछ शराबी
अपने-अपने सिर पर अपने जीवन का बोझ उठाए
थकी हुर्इ यात्री भीड़ की पीठ पर
इतिहास की दिशा का पोस्टर चिपका रहे थे ।
बाजार में रेत
बाजार में होना था
और अपनी तरह
अपनी ही शर्तो पर होना था
साथ-साथ.....
मुर्दो के लिए कफन और ताबूत बेचने वाला भी
बाजार के एक छोर पर बैठा मुस्करा रहा था
पहाड़ के पत्थर और नदी के रेत बेचने वाला भी वहां बैठा मुस्करा रहा था
अपनी यादगार बिक्री और शानदार आमदनी पर
उड़ती हुर्इ रेत को बच-बचाकर चल रहे थे राहगीर
जिन्हें नहीं खरीदनी थी रेत
रेत को उड़ते हुए झेल रहे थे
झुझला रहे थे रेत पर....
रेत से अन्धी हुर्इ हवा चल रही थी कर्इ देखने वालो के विपक्ष में
रेत तो उड़ती ही है
एक बूढ़े राजगीर नें कहा-
बाजार में रेत का होना भी जरूरी है
रेत से गर्वान्वित या अपमानित होने जैसा कुछ भी नहीं है.....
संपर्क-
बी-1,श्री साईं अपार्टमेंट ,टडिया ,
करौंदी ,सुन्दरपुर,वाराणसी ,उ 0प्र 0 पिन -221005
मो 0-09451342730
बुधवार, 14 नवंबर 2012
शूद्रों की उत्पत्ति और अस्मिता पर समाजैतिहासिक पुनर्विचार
भारत में शूद्रों की उत्पत्ति पर विचार करते समय
हमें यह घ्यान रखना चाहिए कि प्राय: लिखित साहित्य में ही उत्पत्ति के प्रमाण
ढूढ़ने की प्रवृत्ति के कारण परम्परागत अध्ययन पद्धति में कर्इ विसंगतियां हैं। शूद्रों को चतुर्वर्ण में शामिल करने वाले शास्त्रीय उद्धरणों में फतवा देने वाला
वर्ण ही प्रमाण है ,वह भी भारतीय सभ्यता के विकास के लगभग अंतिम चरण में जारी
हुआ था । पुराने युग के नाम से जारी क्षेपक के रूप में । ऐसा प्रतीत होता है कि
सामाजिक रीतियों और रुचियों की भिन्नता को व्याख्यायित न कर पाने की असमर्थता से
विवश होकर किसी संस्कृतज्ञ नें शूद्रों के पृथ के पैरों से उत्पत्ति का रूपक गढ़ा
होगा । इस मान्यता को ज्यों का त्यों स्वीकार करते सामाजिक अध्ययनों में भी इसे
प्राय: कर्म और पेशे से जोड़ कर देखा गया है ,जबकि भारतीय समाज एक धार्मिक-सांस्कृतिक समाज
भी रहा है । किसी भी अध्ययन में मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उस बदलते सामाजिक रिश्ते की
ऐतिहासिक पड़ताल नहीं की गयी है जो शूद्रों के वर्ण-क्रम को निम्नतम की ओर ले गया
है । इस स्तरीकरण में निहित उस घृणा के धार्मिक-सांस्कृतिक कारणों की पड़ताल नहीं
की गयी है ,जो शूद्रों को उनके पेशे के सामाजिक महत्त्व से अलग भी अपमानित करने का प्रयास
करता है । वेदवाक्य सुनने वाले शूद्रों के कान में पिघला शीशा डालने वाली अमानवीय
घृणा का आधार साम्प्रदायिक या राजनीतिक विद्वेष ही हो सकता है और यह विद्वेष किसी
सामान्य घटना की उपज नहीं हो सकता । जातियों के परस्पर व्यवहार के स्वरूप को
समाजैतिहासिक अध्ययन में किसी पुरातात्तिवक मलबे से अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए
था-जैसा नहीं किया गया । भारत जैसे मृतकों को भुला देने वाले और सिर्फ जीवितों को
ही अंतिम सच मानने वाले देश में जातीय मानसिकता एवं व्यवहार ही पुरातात्विक अध्ययन की वस्तु बन सकते हैं । सिर्फ पश्चिमी अध्ययन-पद्धति से ही भारतीय इतिहास को
समझने का प्रयास करने वाले भारतीय विद्वानों से ऐसी गलती हो जाना स्वाभाविक ही है
। इसी तरह का एक उदाहरण मुझे तक भी देखने को मिला था जब मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक बार-बार विदेश जाने वाले ख्याति-प्राप्त डाक्टर से एडस पर
गम्भीर व्याख्यान सुनने के बाद पूछा था कि भारतीय सैलूनों में नाइयों द्वारा
व्यापक स्तर पर प्रयोग की जाने वाली फिटकरी से एडस फैलने की कितनी वैज्ञानिक
संभावना है तो उन्होंने र्इमानदारी से स्वीकार किया कि प्राय: विदेशी दाढ़ी बनाने
में फिटकरी प्रयोग नहीं करते इसलिए भारत में भी किसी का ध्यान इस ओर शोध करने की
ओर नहीं गया ।
पश्चिमी सभ्यता का इतिहास-बोध इसतिए
वस्तुनिष्ठ है कि उसके यहां मृत्यु की अंतिम परिणति समारोहपूर्वक कब्र में बदल
जाना है । इसीलिए पश्चिमी सभ्यता जीवन का मूर्तन करने वाली सभ्यता है ,जबकि भारतीय समाज
की दार्शनिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना विसर्जन ,विलोपन और अमूर्तन करती है । इन्हीं अर्थो में
वह इतिहासजीवी नहीं है और प्राय: इतिहास-बोध का बहिष्कार ही करती रही है । ऐसी
सभ्यता के इतिहास को समझनें के लिए पश्चिमी पद्धति की प्रामाणिकता शैक्षणिक
अन्धविश्वास की तरह ही संदिग्ध हो सकती है। शूद्रों के प्रति भारतीय समाज के जातीय व्यवहार पर विचार करते समय मेरा
ध्यान जातीय व्यवहार से सम्बनिधत रीति-रिवाजों और प्रथाओं के पुरातात्तिवक अवशेष की तरह अध्ययन की प्रमाणिक सामग्री मानने की ओर गया था । इस अध्ययन- पद्धति के
अनुसार हर जाति मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक विशेष व्यवहार-संरचनात्मक यथार्थ है ।
इतिहास की किसी घटना या विवरण से अन्तर्संन्दर्भित करते हुए उस व्यवहार के मूल
घटनात्मक कारण की पहचान की जा सकती है । इस दृष्टि के साथ विचार करने पर कुछ रोचक
कार्य-कारण- मुझको श्रृंखला मिली ,जिसकी प्रस्तावना मै शूद्रों के संभावित इतिहास के रूप
में कर सकता हूं । इस प्रस्तावित इतिहास की प्रमुख स्थापना यह है कि शूद्र एक
धार्मिक सम्प्रदाय से क्रमश: वर्ण और जाति में परिणत हुआ है । कुछ तथ्यों पर विचार
करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकेगे कि एक सीमा से अधिक अंग्रेज इतिहासकारों
और विचारकों द्वारा प्रचारित यह बात पूरी
तरह सही नहीं है कि आर्यों ने द्रविड़ों को जीतकर कुछ उसी प्रकार अपना दास बना
लिया था जैसा कि कभी रोमनों ने किया था । वास्तव में यह एक रोमन कल्पना से प्रेरित
अवधारणा ही है । रोम में दास प्रथा थी । सही का रण तक न पहुंच पाने के कारण
अंग्रेजों नें शूद्रो को रोमन दासों के समकक्ष किसी पराजित जाति के वंशानुक्रम में देखा ।
भारत के प्राचीन इतिहास के अध्ययन से
यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध-काल से पहले शूद्र भारत का एक स्वतंत्र और
स्वाभिमानी समुदाय था । सम्राट अशोक के पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य नें चाणक्य के
साथ मिलकर मगध के जिस सम्राट से सत्ता छीनी थी वह शूद्र वंश का अंतिम शासक महापदमनन्द था । बाद के पुराणकारों एवं इतिहासकारों नें संभवत: इस सत्य को छिपानें
के लिए ही उसकी मां के शूद्रा नाम की एक दासी से होने का प्रचार किया ताकि बाद के शूद्र ,नन्द वंश को शूद्रों का राज्य ही घोषित न कर दें। शूद्र शासक महापदमनन्द अपने दरबार में चाणक्य
का अपमान उसके धार्मिक विचारों एवं विश्वासों के लिए ही करता है । यह भी पता चलता
है कि यह विचारधारा का टकराव भी था । मानसिक कल्पनाओं पर आधारित मत के वाहक होने
के कारण ही महापदमनन्द नें चाणक्य का सम्मान नहीं किया था । शूद्र कहे जाने वाले
नन्द वंश की अपनी संस्कृति थी । यह भी कि यह यज्ञ विरोधी संस्कृति की दार्शनिक
-सांस्कृतिक परम्परा थी जो पुरोहित वर्ग के सामाजिक वर्चस्व को चुनौती देती थी ।
चाणक्य के अपमान से सम्बनिधत प्रसंग से यह भी ध्वनित होता है कि उन दोनों के बीच धार्मिक-साम्प्रदायिक अलगाव के
लगभग वैसे ही वैचारिक बीज थे ,जैसे आज के विश्व हिन्दू परिषद और कटटरपंथी मुसलमानों के
बीच मिलते हैं । आधुनिक इतिहासकार आर्य संस्कृति के दम्भ को तो र्इमानदारी से
स्वीकार करते हैं,लेकिन शूद्रो के उस स्वाभिमान को विचारणीय नहीं समझते जो बुद्धपूर्व के भारत
की एक ऐतिहासिक सच्चार्इ है । बाद में बुद्ध धर्म की दार्शनिक एवं संगठनात्मक
श्रेष्ठता नें बुद्धकाल से पूर्व शूद्रों में प्रचलित दार्शनिक और धार्मिक
विश्वासों को पीछे छोड़ दिया होगा । भारत में प्रचलित शैव धर्म के आत्मवादी और
योगवादी स्वरूप को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शूद्रों का यह धर्म क्या
रहा होगा । आर्य भारत में तत्कालीन आर्यावर्त (र्इरान) की ओर से अग्नि और आहुति
लेकर आए थे । वे अग्नि पूजक ही नहीं,अग्नि पालक भी थे । भारतीय मूल की आत्मवादी संस्कृति से उनका
मूल संघर्ष सभी प्राकृतिक शकितयों को देवता मान हवन में उनके नाम की समिधा देने की
भीरुता और इसे निरर्थक और काल्पनिक मानने वाले आत्मवादी समुदाय के दार्शनिक
आत्मविश्वास के बीच ही रहा होगा । पुरोहितवादी और यज्ञ-वादी संस्कार कुछ ही
जातियों और सीमित जनसंख्या में प्रचलित रहे होंगे । चाणक्य का अपमान इसी पुरोहित
समुदाय का अपमान था जिसने बाद में बौद्धों को विस्थापित कर हिन्दू-संस्कृति का
विस्तार किया लेकिन अपनी पूजा में शिव को भी शामिल करने एवं आत्मवादी दार्शनिक
परम्परा को भी आत्मसात करने के बाद । क्योंकि नन्द वंश बुद्ध के बाद के भारत में
था ;इसलिए अधिक
संभावना यही है कि नन्द वंश बौद्ध ही रहा हो ,जिसका अनीश्वरवाद बुद्ध-पूर्व के शैव मतावलम्बी शूद्रों के आत्मवाद के इतना समीप रहा होगा कि नियतिवाद का प्रचार करने वाले और
राजा को र्इश्वर मानने वाले पुराहित वर्ग को गणराज्यों के कर्मवादी तथा पारस्परिक
समानता और सम्मानवादी बौद्र धर्म शूद्र धर्म ही लगा होगा । महापदमनन्द के अंतिम शूद्र राज्य के बाद बौद्ध धर्म का
स्वर्ण-युग मौर्य-वंश का काल आया । मौर्य वंश के अंतिम राजा बृहद्रथ को पुष्यमित्र द्वारा मारे जाने के बाद गुप्तकाल तक जाते-जाते पुरोहित वर्ग के विद्वानों नें
बौद्ध धर्म की जातक कथाओं के समानान्तर विपुल पौराणिक आख्यान रच दिए थे ।
यह आश्चर्य नहीं कि आज के भारत में
प्रचलित पुरोहितवाद भी मनुष्य के आत्मनिर्भर आत्मविश्वास का विरोधी है। सिर्फ
रहस्यात्मक मध्यस्थ की भूमिका में ही उसकी सामाजिक सत्ता सुरक्षित रह सकती थी ।
इसीलिए वह अपना देवता बदलता रहा है ,लेकिन उसने अपना कर्म आश्चर्य नहीं बदला । वैदिक
देवताओं से आगे निकलकर उसने लिंग और योनि के युग्मित प्रतीक शिव को ही अपना आराध्य
बना लिया-उसने सिर्फ अपने देवता बदले,लेकिन पूजा पद्धति नहीं । प्रश्न यह है कि उसके
बावजूद वह भारत में विस्तारित और लोकप्रिय क्यों हुआ ! इसका उत्तर यह है कि वह एक
श्रम-आधारित श्रेणीबद्ध समाज की संरचना के अधिक समीप था । अन्य जातियों के पेशे और
कर्म के समानान्तर ही वह एक स्वायत्त और सापेक्ष उपसिथति है । काल्पनिक होते हुए
भी उसने अपने रहस्यात्मक आश्वासनों के द्वारा अन्य जातियों के द्वारा पूजा में लगने
वाले श्रम-समय को बचाया । उनके श्रम-समय को उनके पेशेवर कार्यों के लिए मुक्त किया
और प्रासंगिक बना रहा । एक पेशेवर जाति के रूप में ही अपने समकालीन जनमत की
आवश्यकताओं और रुचि का आकलन करते हुए ,अपने समय की बाजारवादी शकितयों के दबाव में
उसने अपने आराध्य बदले और अपनी जाति द्वारा विकसित पौराणिक आख्यानों के माध्यम से आध्यात्मिक मनोरंजन जारी रखा । इस दौर में अधिकांश चरित्रप्रधान दिव्य नायकों का
प्रचार-प्रसार कर समाज को एक मूल्य -संस्कृति भी दी । यहां तक कि मुगलकाल में भी
तुलसीदास द्वारा 'राम चरित मानस की रचना किए जाने के
बाद उसने लोकभाषा में रामकथा को प्रचारित करने में संगठित प्रकाशक की भूमिका
निभार्इ । ठीक वैसे ही जैसे निर्गुन गाकर भीख मांगने वाली जोगी जाति नें गोरखनाथ
के साथ-साथ कबीर को भी अपनाया और बचाया । इसलिए किसी भी जाति में जन्में व्यकित को
अपनी जाति के अतीत के व्यवहार को लेकर कुणिठत होने की आवश्यकता तो नहीं है लेकिन
उसकी संकीर्णता से मुक्त होने की आवश्यकता जरूर है
।
भारत में शूद्रों की सामाजिक हैसियत
पर विचार करने के लिए मुख्य समस्या यही है कि वह श्रेष्ठता के दम्भ और क्षुद्रता
के दंश का ही परिणाम था या उसके पीछे किसी गैर-सामाजिक घृणा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
है । भारत के पौराणिक-धार्मिक साहित्य की
छानबीन से यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध के काल से पहले तक शूद्रों को भारतीय
सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था में सम्मानित स्थान प्राप्त था । वे सामाजिक वर्चस्व के शिखर पर थे और राज्य तथा सत्ता में भी थे । अन्य शूद्र( भारतीय मूल की शुद्ध) जातियां बढ़र्इ और लुहार आदि के साथ एवं चमड़े के बने युद्ध के सामान ढाल आदि
बनाते थे। पानी खींचने के लिए मोट और जूते आदि तो अभी भी दूर-दराज के क्षेत्रों
में बनाते मिल जाते है। इस दृष्टि से भारत की सामाजिक-आर्थिक संरचना के वे
महत्त्वपूर्ण अंग हैं । इसलिए अधिक संभावना साम्प्रदायिक विद्वेष के सांस्कृतिक
अचेतन की ही है । इस साम्प्रदायिक विद्वेष के अतीत पर पर्दा डालने का सबसे
महत्त्वपूर्ण कार्य रामकथा का प्रचलित पाठ ही करता है । रामकथा के आरमिभक अंश में
जो यज्ञ करने वाली एवं यज्ञ का विरोध करने वाली दो संस्कृतियों का हिंसक विरोध है ,उसके पीछे की
मनोग्रंथियां क्या थीं ! किन कारणों से यज्ञ-संस्कृति का उग्र विरोध बढ़ गया था ? यज्ञ करना और
यज्ञ का विरोध करना दो परस्पर विरोधी समुदायों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया
था । क्या राम की किशो रावस्था में मिलने वाले -ऋषियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञों
का असुरों द्वारा विध्वंस करने के प्रसंगों का सम्बन्ध शिवपुराण में विस्तार से
मिलने वाली कथा -पिता दक्ष द्वारा अपमानित होने पर सती द्वारा यज्ञ-कुण्ड में
कूदकर आत्मदाह करने के प्रसंग सें शूद्रों द्वारा यज्ञ का बहिष्कार करने में कोर्इ
अन्तर्सम्बन्ध है ! भारतीय समाज में आज भी यह परम्परा मिलती है कि यदि किसी परिवार
का कोर्इ सदस्य किसी पर्व के दिन मर जाता है तो उसका परिवार एवं वंशज भविष्य में
उस पर्व को अशुभ मानकर उसे मनाना छोड़ देते हैं । वही सती,
जिसका जला हुआ शव लेकर
प्रेमी शिव सारे देश में पागलों की तरह घूमे थे । उस पागल बना देने वाले प्रेम की
आधार सती के आत्मदाह के पश्चात शिव के
गणों ने प्रतिशोध में भारी तबाही मचायी थी । शिव के गणों द्वारा मचाए गए
दंगों से घबराकर उस यज्ञ के अवसर पर अतिथि बन कर आये आर्यों के कर्इ तत्कालीन नायक
विष्णु और ब्रहमा आदि भाग खड़े हुए थे । जिसके बाद मामला शान्त करने के लिए
तत्कालीन आर्यराजाओं नें द्रविड़ नायक शिव को एक दूसरी आर्यकन्या देकर अपना
सम्बन्धी बनाया । देवताओं के लिए किए जाने वाले यज्ञ के विध्वंस कर्ता शिव का कुछ
भी न बिगड़ने पर उन्हें ही महादेव घोषित कर दिया ।
डन्हें मोक्ष का देवता घोषित कर दिया गया । उनके
अनुयायियों के घर से मृत्यु के बाद पवित्र अग्नि मांगने की प्रथा आरम्भ हुर्इ ।
क्योंकि भारत में आज भी वाराणसी के डोम वही कर रहे हैं जो हरिश्चंद्र के जमानें
में और उसके भी पहले शिव के युग में करते थे -इस सामाजिक अस्तित्विक प्रमाण को देखते
हुए मुझे शिव इतिहास पुरुष ही लगते हैं । वेदों में चतुवर्ण के लिए चाहे जो भी
लिखा हो सती का आत्मदाह
मुझे शूद्र चेतना का 'बिगबैंग लगती है । इसमें मुझे उन वर्जनाओं के
समाज-मनोवैज्ञानिक आधार मिलते हैं ,जिसने उन प्रथाओं को जन्म दिया जिसे बाद में शूद्रों की
हीनता एवं अधिकारी न होने के रूप में ब्राहमणों द्वारा प्रचारित किया गया । ऐसा
बहुत सदियां बीत जाने के बाद ही संभव हो पाया होगा कि शूद्रो के सामाजिक
आचार-विचार में समायी हुर्इ उनके पुरखों से विरासत में मिलीं विचारधारा के स्वत्व
को भुला दिया जा सके और उसकी एक दोष के रूप में नर्इ व्याख्या देकर उन्हें
हीनता-बोध से लांछित किया जा सके ।
भारत में जातीय गुण-धर्म एवं
अवधारणा की वंशानुक्रमिक लम्बी निरन्तरता को देखते हुए मुझे ये जातीय प्रमाण
पुरातात्तिवक प्रमाण से अधिक विश्वसनीय प्रतीत होते हैं । किसी पुरानी सभ्यता की
लम्बी यात्रा में यह आश्चर्य नहीं कि ऐसा विस्मरण हो जाय । वर्तमान ब्राहमणवादी दृष्टि से शूद्रों की जिस पहचान को दोष के रूप में देखा और युगों पहले से प्रचारित
किया जाता रहा है, वह शूद्रों का दोष नहीं गुण था । उदाहरण के लिए यज्ञोपवीत न
धारण करना और कराना-अर्थात यज्ञमान (जजमान) न बनना ; जिसका अवशेष आज भी धर्मभीरु हिन्दू परिवारों
में होम-जाप ( हवन) करने-कराने के रूप में प्रचलित है ; जिसे ब्राह्राणें नें शूद्रों का दुर्गुण और
अपात्रता घोषित कर रखा है -वह शूद्रों का अपना धर्म ,आत्मविश्वास ,स्वाभिमान और विशेषता थी । इस धर्म को प्रचारित
करने वाले 'आदि शूद्र पौराणिक क्रान्ति-नायक शिव थे । आत्मस्थ योगी शिव नें ही सबसे पहले
ब्राहमणवाद के प्रमुख प्रतीक यज्ञ के ढोंग और परम्परा का बहिष्कार किया था । स्वयं
ब्राहमण पुराणकारों नें ही शिव पुराण में ये बातें विस्तार से संकलित की हैं ।
रामकथा की पृष्ठभूमि में भी यज्ञ
करने और न करने का यही साम्प्रदायिक द्वन्द्व और संघर्ष फैला हुआ है । प्रारम्भ
में रावण यज्ञ-विरोधी शिव के अनुयायियों यानि शूद्रों का कुशल नेतृत्त्व करता है
लेकिन बाद में अपनी बहन के अपमानित होने पर और स्वयंवर में सीता के रूप-सौन्दर्य
पर रीझने के कारण वह अपने समुदाय के सांस्कृतिक संघर्ष के नायक के पद से च्युत हो
जाता है। मूल्यपरक और सांस्कृतिक विरोध न
रहा होता तो विभीषण जैसा बुद्धिजीवी चरित्र रावण का देश -निकाला होने तक विरोध नहीं
करता। एक र्इमानदार आदर्शवादी की तरह वह सार्वजनिक स्तर पर अपना विरोध प्रकट करता
है,रावण से अपमानित
होता है और राम के साथ हो जाता है । आर्य रामकथाकारों नें इसे सिर्फ सीता को
केन्द्र में रखकर स्त्री की मर्यादा से जोड़ दिया है । उसे सिर्फ राम के नैतिक-चारित्रिक संघर्ष से ही जोडकर सीमित कर दिया है । दो सभ्यताओं के संघर्ष की कथा
दो राजाओं के मूल्यपरक संघर्ष की कथा तो बनती है ,लेकिन सिर्फ पारिवारिक और आचरण सम्बन्धी
परिप्रेक्ष्य में ही-उसका सामाजिक परिप्रेक्ष्य मिथकीयकरण करते हुए छिपा लिया गया
है । संभवत: मिथक इंजीनियर आने वाली पीढ़ी को राम-रावण युद्ध से जुड़ी अप्रिय
सामाजिक सच्चाइयों से बचाना चाहते थे । उन्होने इतिहास को सर्वकालिक नैतिक व्यापित
वाले मिथकीय कथा में बदल दिया ।
मेरी दृष्टि में शिव के अनुयायियों की शूद्रों में हुर्इ सामाजिक परिणति भारतीय इतिहास की एक दुखद दुर्घटना है । इसे
सिर्फ उच्च वर्ण की साजिश के रूप में ही नहीं देखा जा सकता । इसमें जातीय विस्मरण
की भूमिका अधिक है । क्योंकि परम्पराएं और सामाजिक मान्यताएं एक दिन में नहीं
बनतीं ; छोटी से छोटी
सामाजिक रीतियों में भी कोर्इ न कोर्इ इतिहास छुपा रहता है । शूद्रों के वर्तमान
जातीय संस्कार एवं व्यवहार में भी उनकी जाति में अतीत से ही प्रचलित वह सामूहिक
अचेतन छिपा हुआ है जिसने कभी काल्पनिक अवधारणाओं को जीने में विश्वास नहीं किया । ईश्वरों देश इसी भारत में , बिना किसी ईश्वर के भी हजारों वर्षों से सफलतापूर्वक जीकर
उसने दिखाया । मानव-मस्तिष्क को कल्पनाओं वाले आध्यात्म से बाहर निकालकर उसनें एक
नए प्रकार के आध्यात्म की तलाश की । स्थिति-प्रज्ञ के रूप में एक ऐसे मस्तिष्क की
खोज की जिसे अन्धविश्वासों की मदिरा पिलाकर बहकाया नहीं जा सकता । बौद्धों के
विश्व-प्रसिद्ध शून्यवाद पर भी उनके जीवन-दर्शन का प्रभाव देखा जा सकता है ।
देवताओं से डरने के स्थान पर वे स्वयं दिव्य होना जान गए थे ।
शूद्रों को नेतृत्त्व से बेदखल कर भारतीय
सामाजिक इतिहास कल्पनाप्रसूत रहस्यात्मक मनोरंजन और व्यसन की ओर बढ़ गया । यधपि
चरित्र-प्रधान होने से भारतीय देवताओं की अपनी समाज-मनोवैज्ञानिक सांस्कृतिक
भूमिका भी रही है । प्राय: वे किसी न किसी पौराणिक कथा के नायक ही हैं । वैसे भी
लोग कुण्ठा और तनाव जैसे क्षणों में ही मानसिक स्वास्थ्य को बचाए रखने के लिए किसी
आराध्य की क्षणों में जाते हैं । इन मनोवैज्ञानिक लाभों के बावजूद अब तक के
धार्मिक विश्वासों से मानव-मस्तिष्क को वैज्ञानिक कार्य-कारण से हटाकर सगिन ,समर्पण ,निर्भरता एवं प्रतीक्षा
का ही मनोविज्ञान रचते हैं । मनु को यथास्थितिवादी एवं नियतिवादी बना देते हैं । इसीलिए इस वातावरण की क्रांति और विद्रोह की संभावनाओं को शून्य करने के लिए आरम्भ से ही भूमिका रही है ।
मार्क्स द्वारा धर्म को अफीम कहे जाने की बात इन्हीं अर्थों में चरितार्थ होती है
।
भारत में लम्बा अन्धकार युग रहा है और
प्राय: वही स्मृतियां प्रागैतिहासिक काल की बची हैं जिन्हें लोक-चर्चा या
साहित्य-चर्चा के लिए चयनित कर लिया गया था । फिर तो वे सांस्कृतिक सृजनशीलता और
कल्पना का आधार बन गयी हैं । इसीलिए भारतीय इतिहास को समझने के लिए उसकी पौराणिक
कथाओं की ही समाज-मनोवैज्ञानिक जांच-पड़ताल करनी होगी । यहां पर प्राचीन तथ्यों का
जातीय विरूपण भी बहुत हुआ है । यहा तो कर्इ कथाओं का कल्पित होना सीधे-सीधे दिख भी
जाता है । कुछ तो आध्यात्मिक ढंग की प्रतीकात्मक हैं । इधर के सौ-दो सौ वर्षों सें ही
कभी प्रचलित सत्यनारायण की कथा और मात्र पचीस-तीस वर्षों के भीतर प्रचलित की गयी संतोषी माता की कथा ऐसी ही प्रतीक कथाएं हैं । ये कथाएं पेशेवर और जातीय सृजनशीलता
का एक अच्छा नमूना हैं । समय,समाज और आवश्यकता के अनुरूप ये बाकायदा 'लांच की गयी हैं
। वर्ग-स्वार्थ के कारण प्राचीन काल में भी ऐतिहासिक तथ्यों का बहुत विरूपण किया
गया है । वर्चस्व से हटते ही परवर्ती भारतीय (आर्य) शास्त्रकारों नें शूद्र समाज
और संस्कृति को वर्ण बना दिया । व्यापक विरूपण और विस्मरण को देखते हुए ही मेरा
व्यकितगत विश्वास तो यह भी है कि चार्वाक और कुछ नहीं बल्कि उन्हीं के समुदाय में
प्रचलित 'चारु वाक यानि
सुन्दर उकितयां रही होंगी जिन्हें बाद में चार्वाक ऋषि घोषित कर दिया गया । उनके
साथ कुछ वैसी ही वैचारिक धोखाधड़ी हुर्इ है जैसी यह कहकर की जा सकती है कि शूद्र
वे हैं जिनके यहां पंडित जी पूजा कराने नहीं जाते अथवा जो होम-जाप नहीं करते ; जो जनेऊ नहीं
पहनते । सुबह-सुबह न नहाकर दोपहर को नहाते हैं । प्राचीन काल के शिव के अनुयायियों
का भी वैसा ही सामाजिक एवं जातीय व्यकितत्त्व उभरता है जैसा कि वर्तमान शूद्रों का
है । यह भी संभव है कि यह शिव और द्रविड़ दो शब्दों के मेल से पाणिनी से बहुत पहले
ही बना हो और 'शैवाद्र ,'शिवाद्र या 'शिद्र से होते हुए शूद्र हो गया हो-जिसका अर्थ यह होगा कि'शिव को मानने
वाले द्रविड़ । क्योंकि भारत में शब्द-व्युत्पत्ति को अधिक प्रामाणिक माना जाता है
इस लिए मैंने भी एक व्युत्पत्ति प्रस्तुत कर दी है लेकिन मैं समझता हूं इसकी कोर्इ
आवश्यकता ही नहीं है । जातीय व्यकितत्वीकरण की प्रवृत्ति को देखते हुए भी यह स्वत:
सत्यापित हो जाता है कि प्रागैतिहासिक शैवों के वंशज ही प्राचीनकाल और वर्तमान के शूद्र है। प्राचीन काल में सती के आत्मदाह के बाद वे न सिर्फ आर्य राजा दक्ष के
यज्ञ का विध्वंस करते हैंबल्कि सती के आत्मदाह से अपवित्र हो चुके यज्ञ-कर्म को
पुन: करने को अपने आध्यात्मिक नेता की पत्नी और दिवंगत रानी की आात्मा का अपमान
समझते है। वे पीढि़यों तक सती के अपमान को भूल नहीं पाते । प्रतिशोध की आग में जलते
रहते हैं । प्रतिशोध की यही ज्वाला ही रामकथा में भी संघर्ष की प्रारमिभक पृष्ठ-भूमि रचती है । इसे प्राय:
आर्य-अनार्य संघर्ष के रूप में स्वीकार करते हुए भी लोग सीधे-सीधे उन्हें शूद्रों का पूर्वज कहने से बचते हैं कि इससे वर्तमान शूद्रों का भाव बढ़ जायेगा । आर्य
कथाकारों ने कुछ इसप्रकार उन घटनाओं को प्रस्तुत किया है कि मानों वे कोर्इ दूसरे
थे और अब नहीं हैं । वे तो राक्षस थे -उनसे वर्तमान शूद्रों का क्या लेना-देना आदि ? रावण का शिव-भक्त होना और उसके अनुचरों का यज्ञ-विध्वंस में लिप्त होना भी यही
बताता है कि रावण भी आज के शूद्रों के पूर्वजों के कुल में ही पैदा हुआ था ।
इसीलिए आज भी शूद्रों के जीवन और कार्यों में विद्रोही शैव मनोविज्ञान को देखा जा
सकता है । प्राचीन शूद्रों के व्यक्तित्वीकरण को देखें तब भी शूद्र वे ही हैं जिनके
पुरखे यज्ञ नहीं करवाते थे ;यज्ञोपवीत नहीं पहनते थे । इस गुण साम्य से भी स्पष्ट हो
जाता है कि भारत के सबसे पहले शूद्र अर्थात आदिशूद्र स्वयं शिव ही थे । आज के हवन
कराने वालों के पूर्वज ही तब यज्ञ कराते थे । ऐसे ही यज्ञ कराने वाले पणिडत दक्ष
की पुत्री सती से शिव का पहला प्रेम-विवाह हुआ था । क्योंकि प्राचीन काल में शैवों को वरण की स्वतंत्रता थी और कूटनीतिक कारणों से द्रविड़ राजा शिव को भी उसनें
स्वयंवर में आमंत्रित कर लिया था। सारा दायित्व पुत्री सती पर ही था कि वह उसे न
वरण कर आर्यों के जातीय स्वाभिमान की रक्षा करे । सती नें ऐसा नहीं किया । उसके वरण
से अपनी बिरादरी में अपमानित दक्ष नें यज्ञ आयोजित कर ,उसमें शिव को न आमंत्रित करते हुए अपनी पुत्री
के व्यकितगत निर्णय से स्वयं को असम्बद्ध प्रदर्शित करना चाहा । पिता से अपमानित
पुत्री नें यज्ञ के अग्निकुंड में ही कूदकर अपनी जान दे दी ।
इसी जातीय अचेतन के कारण ही भारत का शूद्र समुदाय प्राचीन यज्ञ-विरोधी दार्शनिक समुदाय का ही सामाजिक अवशेष है । दुख
की बात यही है कि प्राचीन शूद्र ब्राहमण और पुरोहितों द्वारा शिव की पूजा स्वीकार
कर लिए जाने के कारण इतनें सन्तुष्ठ हो गए कि उनके वंशजों को अपने स्वर्णिम अतीत
को संरक्षित करने की चिन्ता ही नहीं रही । ऐसी चूक इसलिए भी हुर्इ कि प्राचीन भारत
में ज्ञान के संरक्षण का दायित्व सामाजिक स्तर पर ब्राहमणों को ही सौंप दिया गया
था । बाद में यह जाति अपने पेशेगत स्वार्थ या फिर ऐतिहासिक तथ्यों से कट जाने के
कारण ज्ञान और साहित्य में हेरा-फेरी करने लगा । बाद के भारतीय समाज नें इस
तथ्यात्मक उलट-फेर को आसानी से स्वीकार कर लिया कि शिव का स्त्रोत रचने वाला रावण
ब्राहमण ही हो सकता है ;वह शूद्र कदापि नहीं हो सकता । इस प्रकार एक भव्य ऐतिहासिक
विरासत वाली जाति को उसके अपने ही स्वर्णिम काल के नायकों की स्मृति से वंचित कर
इतिहास के गर्त में फेंक दिया गया । सिर्फ नहीं मिटा पाये तो उस प्रौतिहासिक
घटनाक्रम से निकले डोमों के सांस्कृतिक और जातीय अस्तित्व को ; जो शूद्र होते हए
भी पूज्य हैं ।
आर्यों और अनार्यों के बीच एक और संघर्ष की संभावना मैं देखता हू। पश्चिम से आये हुए आर्यो में अवश्य ही शवों को
दफनाने की प्रथा रही होगी ,जैसी कि आज भी है । प्रारमिभक आार्य कबीले अग्नि-पूजक तो थे
लेकिन पवित्र अग्नि को शव से दूषित करने के लिए सोच भी नहीं सकते थे । सती के
आत्मदाह के बाद फैले विप्लव नें उन्हें यह प्रचारित करने के लिए विवश किया होगा कि
सती को अगिन-देवता स्वर्ग लेकर चले गए । अपने झूठ को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने
मृत्यु के बाद हर काया को धरती पर रहने वाले स्वर्ग के देवता अग्नि को ही हर मृत
देह समर्पित करने का सामूहिक निर्णय लिया होगा । सम्मान बढ़ाने के लिए इस पवित्र अग्नि को सौपने का दायित्व शिव के अनुचर सेनापतियों के परिवार को मिला होगा ।
प्रारम्भ में यह शिव के परम्परागत पीठ की तरह रहा होगा । यह डोम यम से योम और डोम
हुआ या इस षब्द का डमरू और उसकी ध्वनि 'डम से
कोर्इ सम्बन्ध है ,क्योंकि प्राचीन काल में अलग -अलग व्यकितयों के अलग-अलग
आवाज वाले शंख और वाध-यन्त्र रखने की भी प्रथा थी । संभव है कि शिव के अनुयायी डमरू
धारक होने के कारण ही डोम कहे गए हों । प्रारम्भ में ये स्वयं शव नहीं जलाते थे और
एक सिद्ध पीठ के उत्तराधिकारी के रूप में किसी सन्त की तरह सिर्फ पवित्र अग्नि ही
देते थे । आज भी वे ऐसा ही करते हैं ।
इन्हीं का क्षेत्र होने के कारण वाराणसी को महाश वस्थान माना जाता था और शिव को
समर्पित यह क्षेत्र रोम के वेटिकन की तरह ही किसी के अधीन नहीं माना जाता था ।
बौद्ध-काल के समय ही इसे महाजनपदों के अधीन माना जाने लगा । प्राचीन काल में इसकी
स्वायत्तता को प्रमाणित करने वाली राजा हरिशचन्द्र की कहानी है ही , जिसनें मजदूरों
के बाजार से अपना राज्य खो चुके राजा को शव जलाने के लिए खरीदा था और अपने यहां
उन्हें नियुक्त किया था ।
भारत जैसे दीर्घकालीन ब्राहमण वर्चस्व
वाले देश में यह आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि कभी शूद्र एक वर्ण और जाति नहीं बलिक
धार्मिक समुदाय रहा होगा । वैसे ही जैसे ब्रहम को मानने वालों के लिए कभी ब्राहमण
भी एक धार्मिक नाम ही था । यदि आज हमें शूद्र धर्म का साहित्य ही नहीं मिलता तो
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में बुद्ध धर्म का साहित्य ही कहां बरामद हुआ था
! राहुल सांकृत्यायन यदि तिब्बत से बौद्ध साहित्य नहीं लाए होते तो भारत में बौद्ध
साहित्य की एक भी पाण्डुलिपि नहीं रह गयी थी । मैं तत्कालीन वस्तुस्थिति के बारे में
जैसा सोचता हूं वह कुछ इस प्रकार है कि सीधे-सीधे सृष्टि के उदगम के रूप में यौन
प्रतीकों को ही पूज्य बनाने वाला यह सम्प्रदाय कितना वस्तुवादी और वास्तविकता जीवी
रहा होगा । जिसे लोग किसी नासितक सम्प्रदाय के ऋषि चार्वाक के कथन बतलाते हैं वे
इसी सम्प्रदाय के चारुवाक यानि सुन्दर कथन रहे होंगे । सिर्फ इतना यथार्थवादी
सम्प्रदाय ही ऐसा कह सकता था कि 'ऋणं कृत्वा,घृतमपिवेत । आर्य शास्त्रकारों नें सिर्फ मानव-सेवा को ही
अपना मूलमंत्र मानने वाले ऐसे क्रानितकारी धर्म के अनुयायियों को निम्न वर्ण बना
डाला । उन्हें अपने सेवा करने वाले धर्म को मानने की कीमत दास के रूप में
मूल्यांकित शूद्र बनकर चुकानी पड़ी । मेरे विचार से यदि मानव सेवा को ही अपना धर्म
मानने वाले ये ये प्राचीन शूद्र न हुए होते तो अहिंसा ,दया और करुणा को ही अपना धर्म मानने वाले बुद्ध
भी न पैदा होते और न ही जैन धर्म का
प्रवर्तन करने वाले महावीर ही ।
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