पांडित्य और बुद्धत्व
मै कुछ बातें अपने ब्राह्मण मित्रों से कहना चाहता हूँ कि भारत के पुरातन बुद्धिजीवियो की सन्तानें होने का गर्व जीने से पहले उन्हें अपने पुरखों की उन सीमाओ से भी परिचित होना चाहिए जिनके कारण उनके पुरखे पंडित होकर भी ज्ञानी नहीं हो सके । सबसे पहली बात तो यह समझने की है कि ब्राह्मण जाति की ऐतिहासिक भूमिका ज्ञान के स्मृति संरक्षण की रही है । श्रद्धावान लभते ज्ञानं के आदर्श के अन्तर्गत उसके गुरुओं द्वारा दिए जा रहे ज्ञान पर प्रश्न करना प्रतिबन्धित था । प्रश्न न करनें के कारण उसकी शिक्षा- दीक्षा इस प्रकार की होती थी कि उसका विचारक हो पाना असंभव ही था । दूसरे शब्दों में कहें तो ज्ञान की श्रुति परम्परा के कारण ब्राह्मण की जातीय शिक्षा-व्यवस्था का उद्देश्य उसे सिर्फ एक जीवित पुस्तक-मनुष्य मे बदलना था । उसके श्रद्धामय ज्ञान का तात्पर्य ही यही था कि उसे दिए जा रहे ज्ञान मे जोड़ने या घटाने का अधिकार उसे हासिल नहीं था । उससे पूरी अपेक्षा ज्ञान के अक्षरशः स्मृति में बदल जाने की थी । क्योंकि स्मृतिपरक ज्ञान तार्किक-अतार्किक,उचित- अनुचित प्रासंगिक-अप्रासंगिक कुछ भी हो सकता था-बहुत बाद मे यह समझ लगभग औपनिषदिक काल मे आयी कि पौराणिक आख्यानों एवं स्मृतियों का अतिक्रमण कर हमे मानव-मस्तिष्क की अद्यतन प्रज्ञा को जीना सीखना चाहिए । यह स्मृतिजीवी-स्मृतिग्रस्त मस्तिष्क के आत्मसाक्षात्कार जैसा था । यह ज्ञान से बोझिल मस्तिष्क के विश्राम जैसा था । यह स्मृति-ज्ञान की निरर्थकता के साक्षात्कार और जीवन की दिव्यता के साक्षात्कार का क्षण था । इसे ही बुद्धत्व प्राप्ति के रूप मे देखा गया । स्पष्ट है कि ज्ञान की निःसारता या निरर्थकताबोध को पहचानने मे अर्थात् अतिक्रमण में विशुद्ध स्मृति जीवी ब्राह्मण समर्थ नहीं था । समय-समय पर पण्डितों द्वारा संरक्षित ज्ञान के औचित्य की परीक्षा गैर-ब्राह्मणों ने ही की । इनमे बुद्ध, महावीर, राम,कृष्ण,गोरखनाथ, कबीर, नानक,रैदास,गान्धी और विवेकानंद तक शामिल हैं । दूसरे शब्दों मे स्मृतिजीवी अथवा रुढिजीवी ज्ञानी होना ही पांडित्य-ज्ञान का अभिशाप है । इन जातीय प्रकृति एवं सीमाओ के कारण ही दूसरे वर्णों मे जन्मे लोगों की तुलना मे ब्राह्मण वर्ण मे जन्में विद्वानों के लिए आत्मसजग होने की जरूरत अधिक रही है ।