शिवमूर्ति जी को दूसरा रेणु समझने और समझाने वाले लोग शिवमूर्ति जी के कथाकार का जाने -अनजाने अवमूल्यन कर रहे होते हैं । उनकी कहानियों की अपनी अलग विशेषताएं और उनका अलग युगीन परिप्रेक्ष्य हैं । वे जिस कहानी कसाई बाड़ा से हिन्दी जगत में ख्यातिनाम हुए वह आपातकाल के बाद के भारतीय जनमानस और भावनाओं की रूपक एवं प्रतीकों के माध्यम से की गयी अत्यंत व्यंग्यधर्मी एवं साहसिक- संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है । रेणु की कहानियों मे मिलने वाले नेहरूयुगीन आशावाद और उल्लास के स्थान पर शिवमूर्ति की कहानियों मे सत्ता से सम्पूर्ण मोहभंग, अनास्था और आत्म-भर्त्सना युक्त मार्मिक संवेदनशीलता है । उनकी बाद में लिखी कुछ कहानियों मे अवधी संवादों एवं चरित्रों की आंचलिक उपस्थिति है लेकिन उनमे भी युगीन यथार्थ का सजग बोध एवं व्यंग्यधर्मी स्वर मिलता है । रेणू की रिपोर्ताज शैली से अलग शिवमूर्ति के यहाँ प्रेमचन्द की किस्सागोई परम्परा को परिष्कृत करने वाली एक निजी शिल्प और शैली मिलती है जो नाटकीय,रूपकात्मक ,चित्रात्मक तथा सूक्तियो -प्रसंगों और किम्वदन्तियो से बुनी गयी है । शिवमूर्ति के कथाकार की सृजनशीलता लोक से मिली अनगढ़ स्मृतियों के सुगढ़ एवं प्रासंगिक संयोजन मे हैं ।
वर्जित या यह कहें कि अब तक अकथित कथा-प्रसंगों के.शिवमूर्ति मूलतः विरल , वर्जित, प्रतिबंधित
एवं अछूते- प्रायः अब तक अकथित कथा-प्रसंगों के अद्भुत किस्सागो हैं . आसान और कम शब्दों में उन्हें प्रतिबंधित
यथार्थ का किस्सागो कहा जा सकता है .उनकी
सबसे प्रसिद्ध कहानी कसाईबाड़ा तो अभिव्यक्ति पर ऐतिहासिक प्रतिबंधों के सबसे काले
दौर आपातकाल की ही उपज है .असहिष्णु अनैतिक सत्ता के विरुद्ध दुस्साहसिक अभिव्यक्ति
का यह कलात्मक अनुभव उनकी कई अन्य कहानियों
में जैसे त्रिशूल, आखिरी छलांग,बनाना रिपब्लिक आदि में अकथ के सामाजिक,सांस्कृतिक
,सांप्रदायिक वर्जनाओं का अतिक्रमण संभव बनाता है . अस्वीकार्य यथार्थ का
हास्यात्मक आरेखन करती उनकी कई कहानियां राजनीति के सामाजिक - सांस्कृतिक
विद्रूपीकरण का पुनःपाठ प्रस्तुत करती हैं
.
प्रेमचंद्र
की तरह ही शिवमूर्ति का भी कथाकार साहित्य की गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि पर एक
सामाजिक विमर्शकार और क्रांतिकारी की भूमिका में है. उनकी कई कहानियां समाज के
नकारात्मक राजनीतिकरण तथा अतीतगामी
यथास्थितिवादी मानसिक समूहों की सक्रिय उपस्थिति की गहन पड़ताल और पहचान
प्रस्तुत करती हैं-ऐसे समूहों की जो अपने नैतिक औचित्य-अनौचित्य की परवाह किए बिना, किसी फरार अपराधी की तरह दूसरों के मानवाधिकारों
की हत्या करते हुए भी स्वयम को वर्चस्व एवं अधिकार में बनाए रखना चाहती हैं .
अभिव्यक्ति के जोखिम एवं वर्जनाओं के
अनुरूप शिवमूर्ति का कथाकार जानबूझकर अपने पाठकों के लिए अनेक ऐसे कलात्मक दृष्टि-भ्रम
प्रायोजित करता रहता है ,जिनका अतिक्रमण प्रायः कथाकार की योजना
-अनुसार ही कहानी के अंत तक पहुंचते-पहुंचते एक आकस्मिक सम्वेदनात्मक कौंध या फिर
मोह-भंग के रूप में पाठक कर पाता है . अपनी कथा-प्रविधि के रूप में शिवमूर्ति पूरी
परम्परा से कभी भी कुछ भी ले सकते हैं . आधुनिक मनोविज्ञान से लेकर प्रेमचंदपूर्व
की कहानियों की नाटकीयता,प्रेमचंद की कहानियों में प्रायः मिलने
वाला घटना-कौतुक ,रेणु की आंचलिकता ,मोहन राकेश की कहानियों में मिलने वाली
वर्णन की तटस्थता तथा निर्मल वर्मा की कहानियों में मिलने वाली सांगीतिक दृश्य-वर्णन
की काव्यात्मक सजीवता के साथ नयी कहानी-पूर्व
का चरमोत्कर्ष विधान सब कुछ एक बार फिर लौट आता है शिवमूर्ति की कहानियों में . अपने
निजी जीवन के अनुभवों और चिंतन को ही कथा-रूप में रूपांतरित करने के कारण
शिवमूर्ति की अधिकांश कहानियाँ उनके व्यक्तिगत सच का कथात्मक रूपांतरण मात्र हैं .
उनकी कई कहानियों के कथा-सूत्र तो उनके आत्म-कथ्य में ही देखे जा सकते हैं - जैसे
सिरी उपमा जोग , केसर-कस्तूरी ,भरतनाट्यम ,ख्वाजा !ओ मेरे पीर "आदि .'त्रिशूल ' कहानी के नायक को तो अपने घर के
अन्तेवासी महमूद को ही सामायिक परिस्थितियों से कलात्मक ‘फ्यूजन’ कराकर कथालोक में
पहुंचा दिया है . यह एक संयोग नहीं है कि शिवमूर्ति की पहचान बनने वाली ये सभी
मर्मस्पर्शी एवं सम्वेदनाधर्मी कहानियां ‘मैं’ शैली में ही हैं . शिवमूर्ति के साथ
संवेदनात्मक विश्वसनीयता का संकट नहीं है . उनकी कुछ कहानियां तो उनके निजी जीवन
के अनुभवों से इतनी एकाकार हैं कि वे शिवमूर्ति की आत्मकथा न समझ ली जाएँ इसके लिए
उन्हें कथात्मक युक्ति तलाशनी पड़ी है .उदहारण के लिए भारतनाट्यम कहानी की पत्नी
यदि कहानी के अंत में भाग न जाती तो बहुत से पाठक यही सोचने लगते कि उसकी नायिका
का कुछ न कुछ सम्बन्ध शिवमूर्ति जी के पत्नी के चरित्र से भी हो सकता है . यद्यपि
यह सच है कि कथा-नायक की बेरोजगारी और स्वयं शिवमूर्ति की बेरोजगारी की
परिस्थितियां वास्तविक हैं ; लेकिन
जो अपने जीवन में नहीं घटा है-उन
संभावनाओं के चिंतन ने ही ऐसी अविस्मरणीय कहानी रच दी है .सिरी उपमा जोग ' का यथार्थ भी स्वानुभूत ही है ,लेकिन जो अपनी जिंदगी में करने से बचे
हैं और दूसरों को उन्ही परिस्थतियों में वैसा करते देखा है -उसे ही उन्होंने कहानी
का रूप दे दिया है .
इससे फायदा यह हुआ है कि वे बहुत कुछ
ऐसा कह पाए हैं जैसा कहने की हिम्मत उनके पूर्ववर्ती कथाकारों में नहीं थी ; लेकिन
इससे नुकसान यह हुआ है कि अत्यंत ही लोकप्रिय या बहुत पढ़े जाने के बावजूद वे कुछ
अनिक्षुओं द्वारा आंचलिक आस्वादधर्मिता के साथ लिखने वाले रोचक लेखक मान लिए गए
हैं .ऐसा संभवतः व्यंग्य ,हास्य और नाटकीयता की कलात्मक भंगिमा
के कारण भी हुआ है . उनकी कहानियां किसी हास्यात्मक मूर्खता की तरह जीवन की गंभीर
से गंभीर त्रासदी का भी मजाक उडाती चलती हैं- अँधेरे का सबसे अधिक कथा-बिम्बन करने
वाले इस कथाकार की कई कहानियों में जैसे भारतेंदु हरिश्चंद के विख्यात प्रहसन
‘अंधेर नगरी ‘ की आत्मा समाई हुई है . उनमें एक साथ ही बेबसी घृणा और आक्रोश है
.दमित शोषित भारतीय जनता की निरीहता ,अशक्तता और अस्वीकार को वे करुणा और आक्रोश
के मिश्रित रसायनों से चित्रांकित करते हैं . चाहे भारत-नाट्यम हो या अकाल दण्ड- उनकी कहानियां पाठकीय अतिक्रमण
और निष्क्रमण को प्रहसन के शिल्प में प्रस्तुत कर, संभव करती हैं . उनकी कहानियां
एक नकारात्मक राजनीतिक कारण की उन अतीतगामी यथास्थितिपरक मानसिक समूहों की
उपस्थिति का पहचानपत्र प्रस्तुत करती हैं-जो किसी फरार अपराधी की तरह दूसरों के
मानवाधिकारों की हत्या करते हुए भी स्वयं को वर्चस्व एवं अधिकार में बनाए रखना
चाहती है .
सामाजिक और साहित्यिक इतिहास की
समानांतरता में देखें तो मुक्तिबोध के
अभिव्यक्ति-संघर्ष की तरह शिवमूर्ति का भी साहसिक अभिव्यक्ति-संघर्ष देखा जा सकता
है . उनकी कला और कलाकार, अभिव्यक्ति की आजादी पर तमाम प्रतिबंधों के बावजूद
अभिव्यक्ति के नए रास्तों की तलाश का जोखिम पसंद करता है . कथन में मुद्राओं का
चमत्कारिक एवं नाटकीय हेर-फेर उन्हें प्रिय है . वे गंभीर बातों को हास्यात्मक बनाकर
और अपनी निज की अन्वेषित व्यंग्यात्मक शैली में गंम्भीरतम बातों को प्रस्तुत करते
रहते हैं . सिर्फ उनकी ही कहानियों में ऐसा हुआ है और हो सकता है कि जो कहानी चूहे
के बारे में सुनाई जा रही हो वह वास्तव में हाथी के बारे में हो . ठीक वैसे ही , जैसे
कसाईबाड़ा कथावस्तु के भीतर एक गाँव है , शीर्षक के स्तर पर एक देशव्यापी
प्रतीक तथा कहानी के स्तर पर एक कथात्मक रूपक
.
शिवमूर्ति पाठकों के मनोरंजन एवं
कहानी की पठनीयता बनाए रखने की सृजनात्मक चिंता ,जीवन और समाज से सीधे उठा ली गयी अवधी अंचल के लोक की टटकी भाषा की
प्रस्तुति करते हुए भी अपने समय के वास्तविक वर्तमान से असंतुष्ट उनके लेखक का
सामाजिक और क्रन्तिकारी विमर्शकार रूप ,लोगों को हंसाते-गुदगुदाते हुए भी अपने
क्रांतिधर्मी आक्रोश को ,ताश के जरुरी पत्तों की तरह कहानी के अंत तक बचाए हुए
चलता रहता है .
शिवमूर्ति की अधिकांश कहानियां जीवन
और समाज की किसी न किसी महत्वपूर्ण समस्या पर लोक-विमर्श का एक समानांतर एवं गंभीर
पाठ प्रस्तुत करती चलती हैं . लोकबोध का एक ऐसा अदृश्य प्रवाह जो आसान शब्दों ,बोलचाल के मुहावरों तथा
लोकोक्तियों-मिथकों के सहारे चल रहा होता है और कभी -कभी आम-चुनावों के परिणाम
घोषित होने के अवसर पर लोगों को चौंका भी देता है .वैसा ही कुछ !
हिंदी का कोई भी अन्य कथाकार गौण
एवं अवांतर कथा-प्रसंगों की सर्जना करते हुए मुख्य कथावस्तु एवं कहानी के
केन्द्रीय चरित्रों पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर इतना गंभीर ,सजग और सुनियोजित रूप से तत्पर नहीं
होगा जितना कि शिवमूर्ति . उनका यह रचनात्मक प्रयास कुछ-कुछा वैसा ही है ,जैसा कि प्रकृति में किसी ऊँचे पहाड़ का
होना प्रायः अगल -बगल की भारी कटान से बनी गहरी घाटियों के कारण ही संभव हुआ होता
है . जब हम गहराई में खड़े होकर उसके विलोम अनुपात में ही ऊँचाई की प्रतीति और
मूल्यांकन करते हैं . अकालदण्ड कहानी की
सुरजी के चरित्र का नैतिक-निखार वे विधवा गुलाबो सहुआइन और सरजूपारी चाची जैसे
चरित्रों की पार्श्व उपस्थिति या सर्जना द्वारा संभव करते हैं तो 'सिरी उपमा जोग 'में प्रत्यक्षतः अनुपस्थिति रहकर भी
पाठक के मन-मस्तिष्क पर छा जाने वाली , त्याग और सज्जनता की प्रतिमूर्ति नायक की
पत्नी का प्रतिकारविहीन एकपक्षीय मूक समर्पण ही पाठक के भीतर नायक के प्रति संचित
घृणा के रूप में कथा-नायक के खलत्व में सीमाहीन प्रभाव-वृद्धि करती है .अपनी
मार्मिकता के कारण ही शिवमूर्ति की अधिकांश कहानियां कहानी से वांछित प्रयोजनात्मक
वर्जनाओं को संवेदना के धरातल पर शत –प्रतिशत घटित करनें में सफल हैं .
इसमें संदेह नहीं कि शिवमूर्ति
कथा-तकनीकों के जादूगर हैं . संवेदनात्मक और संवेगात्मक प्रभाव-वृद्दि के लिए
उन्होंने अपनी अलग-अलग कहानियों में अलग-अलग तकनीक का प्रयोग किया है . शिवमूर्ति
के पास कहानी कहने का ही नहीं बल्कि कहानी बुनने का भी बिलकुल अलग अंदाज और
कला-कौशल है . उनकी कहानियो के चरित्र और शिल्प का निजी अंदाज है . सिर्फ 'सिरी उपमा जोग 'तथा
'ख्वाजा !ओ मेरे पीर 'को छोड़ कर, जिसमें अतीत का पुनर्कथन या
स्मृति आधारित वक्तव्य-शिल्प का प्रयोग किया गया है तथा आंशिक रूप से
‘कसाईबाड़ा’ और ‘अकालदण्ड’ जैसी कुछ कहानियों को छोड़ कर
शिवमूर्ति की अधिकांश कहानियों की कथन-भंगिमा आँखों-देखा हाल सुनाने की ही है . वे
जीवंत वर्तमान कालिक प्रस्तुति के सिद्धहस्त कथाकार हैं .यह विशेषता भी उन्हें
प्रेमचंद और रेणु की लोकप्रिय कथा-तकनीक से जोड़ती है .
शिवमूर्ति की तुलना रेणु से करते हुए जब
उन्हें मिथिला की जगह अवधी अंचल के आंचलिक कथाकार के रूप में देखा जाता है तो
सिर्फ इतना ही व्यंजित होता है कि हिदी-पाठकों और आलोचकों को शिवमूर्ति के कथाकार
की ऊँचाई और अवदान की समानता रेणु की प्रतिष्ठा से करने में कोई आपत्ति नहीं है . शिवमूर्ति
के बारे में यह सर्वसम्मति से यह मान लिया
गया है कि वे अवधी आंचलिकता के कथाकार और दूसरे रेणु हैं . उनके पाठकों और आलोचकों
की इस सम्मान-भावना का मैं सम्मान करता हूँ . मेरी आपत्ति इस पर नहीं है - मेरी
दृष्टि में दोनों कथाकारों का भिन्न ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और विशिष्टता को लेकर
उनकी मौलिक निजता मूल्याङ्कन के आधार के लिए अधिक महत्वपूर्ण है . मेरी आपत्ति
रेणु के अवदान को लेकर उस प्रचलित समझ पर भी है जो कि शिवमूर्ति के साथ-साथ रेणु
के भी साहित्यिक अवदान को सही -सही समझने में असमर्थ है .ऐसी दृष्टि रेणु के
ऐतिहासिक अवदान को सिर्फ आंचलिकता तक समेट कर उनका भी अवमूल्यन ही करती है . यह एक आलोचनात्मक सरलीकरण ही है . रेणु की
आंचलिकता में भी मुद्रा-आधारित अमानवीय शहरी जीवन-बोध का व्यापक अस्वीकार छिपा हुआ
है . रेणु का आंचलिक साहित्य संवेदनशून्य ,मुद्रा-आधारित
यांत्रिक ,अर्थग्रस्त धन-पशुओं को निर्मित करने
वाली;विसंगति, विडम्बना और अलगाव-बोध की शिकार शहरी बाजारू सभ्यता का समानांतर
प्रतिरोधी पुनः पाठ वस्तु-विनिमय और श्रम-सहयोग आधारित सर्वपोषी जिस उदात्त
किसान-संवेदना से करती हैं -उसे , आंचलिकता को किसी बाह्य अलंकार की तरह सिर्फ
शोभा- कारक कला-मूल्य मानकर देखने वाले
नहीं देख पाते . रेणु की चाहे 'तीसरी
कसम' कहानी हो या फिर 'लाल-पान
की बेगम ',शहर और बाजार की क्रय-विक्रयवादी मानसिकता से अपरिचित -सभी को रागात्मक आत्मीयता
तथा सहजीवी समानता की सम्मान-भावना से देखने वाली किसान -सभ्यता ,संवेदना और मूल्य -दृष्टि ही रेणु
-साहित्य का केन्द्रीय संप्रेष्य है .यह सच है कि आंचलिकता के साथ-साथ शिवमूर्ति
के मानवतावाद का पक्ष और आधार भी किसान-संवेदना ही है ,लेकिन हिंदी के इन दोनों ही सर्वाधिक
लोकप्रिय कथाकारों की भिन्न ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और चुनौतियां एक नहीं हैं . आजादी
के तुरंत बाद का आशावाद रेणु -साहित्य को उत्सवधर्मी उत्फुल्लता देता है जबकि
आपातकाल कि समवर्ती मोहभंग की चेतना शिवमूर्ति के कथा-साहित्य को व्यंग्यधर्मी
अपने समकालीनों और पूर्ववर्तियों के
सापेक्ष शिवमूर्ति के कथाकार का प्रतिभ
अतिक्रमण तथा उनकी अनावर्ती पूरक मौलिकता के वैशिष्ट्य बिदु वास्तव में उनके उन
सामाजिक-राजनीतिक पर्यवेक्षणों में छिपे हैं जो ही उन्हें परिवर्तन कामी ,हस्तक्षेप कारी सृजन-शक्ति से सम्पन्न कथाकार बनाती हैं
शिवमूर्ति के कथाकार का मूल्याङ्कन करते
हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी जगत में अपनी जिस 'कसाईबाड़ा 'कहानी को लेकर शिवमूर्ति को अभूतपूर्व
ख्याति मिली थी ,उस कहानी नें आठवें दशक की समाप्ति और
नवें दशक के आरम्भ के समकाल में व्याप्त भारतीय जन-मानस की आपातकालीन कुंठित-दमित
अभिव्यक्तिहीनता को विद्युत्-कौंध के समान ही सब कुछ को बिना किसी लाग-लपेट के
सही-सही व्यक्त कर देने वाली कथा-भाषा मिली थी . रेणु के सकारात्मक
उत्सवधर्मी उस आशाजन्य प्रमुदित कथालोक से
अलग , संपूर्ण मोहभंग और निर्मम मुक्ति का सुख-जो दीर्घकालीन अवसाद के बाद सहसा
भारतीय जनमानस में चिढ़-उपहास और व्यंग्यबोध के साथ स्वातंत्रयोत्तर नवजागरण के रूप
में संपूर्ण क्रान्ति के मुक्ति-संवेगों को साहित्यिक अभिव्यक्ति देता है .इसतरह इतिहास
की समकालीनता की दृष्टि से शिवमूर्ति
जयप्रकाश नारायण और जनता पार्टी के उभार तथा भारतीय जन-चेतना में व्याप्त तत्कालीन
प्रतिरोध-भावना के सबसे प्रमाणिक एवं मर्मस्पर्शी भाष्यकर्ता कथाकार हैं .'सबसे' का प्रयोग मैं इस आधार पर का रहा हूँ कि उदयप्रकाश की उसी दौर की
प्रसिद्ध कहानी 'टेपचू ' कहानी का जादुई यथार्थवाद ,टेपचू
के चरित्र की प्रतीकात्मकता तथा
लेकिन शिवमूर्ति को पढ़ते हुए लोगों को
रेणु की आस्वद्धार्मिता की याद आती है तो उसका आधार सिरी उपमा जोग ,'केशर कस्तूरी ' और ख्वाजा !ओ मेरे पीर ' जैसी सम्वेदनाधर्मी ,मार्मिक तथा वास्तविक जीवन को ही
कथारूप प्रदान करने वाली अविस्मरणीय
कहानियां ही हैं शिवमूर्ति की बिम्बधर्मी काव्यात्मक भाषा के बावजूद इन कहानियों
की ख्याति का आधार उनकी आंचलिकता नहीं बल्कि मार्मिक और विचलित कर देने वाली
विश्वसनीयता है . रिपोर्ताज शैली होने के कारण आंचलिकता का एक कलात्मक वैशिष्ट्य
के रूप में प्रयोग उनकी ‘अकालदण्ड’ और 'तिरियाचरित्तर
' जैसी कहानियों में चरमोत्कर्ष पर है . लेकिन
रेणु के कथाकार जैसी मुक्त -मन यायावरी की
जगह शिवमूर्ति में निरिक्षण की एक विरल सूक्ष्मता और सजगता मिलती है उनका
दृष्टिकार अब तक वर्जित अकथ को भी कथनीय बनाने की नयी से नयी युक्तियाँ और अवसर
खोजता रहता है . वे जीवन की उन सच्चाइयों को भी कथा में ले आना चाहते हैं जिसकी ओर
अभी तक किसी का ध्यान न गया हो . . तिरियाचरित्तर की विमली के चतुर्दिक कामुकता और
अश्लीलता के परिवेश वाला समाजव्यापी पुरुषचरित्तर हो या या ‘ख्वाजा ! ओ मेरे पीर का ‘ के मामा और मामी का असामान्य
दांपत्य और समायोजी अभिसारी यौन-सम्बन्ध - जीवन के गोताखोर की तरह किसी भी गोते
में वे कुछ भी ऐसा छोड़ना नहीं चाहते जो देखने से रह जाय .
शिवमूर्ति की प्रभावशीलता का एक कारण यह भी
है कि वे प्रायः अपने जिए हुए या अनुभूत का ही कथात्मक रूपांतरण प्रस्तुत करते
हैं .उनके आत्मकथ्य और जीवन में ख्वाजा ! ओ मेरे
पीर 'आदि कहानियों के बहुत से अंश उनकी निजी
जिंदगी और पारिवारिक पृष्ठभूमि से मिलते हैं . ‘त्रिशूल’ का महमूद तो अपने घर में
रहने वाले जीवन-चरित्र का ही कथा-चरित्र में रूपांतरण है .योग्य निर्धन प्रतिभाओं
को पहचान कर उन्हें उच्च-शिखर तक पहुचने जैसे गुप्त सहायता कार्यक्रम भी शिवमूर्ति
अपने वास्तविक जीवन में भी चलाते ही रहते थे . संवेदनात्मक संकोच का निर्वाह ही रहा होगा कि ऐसे संस्मरणों की चर्चा करने या
उपयोग करने से सायास बचे हैं .
शिवमूर्ति
की कहानी ‘कसाईबाड़ा’ को पढ़ते हुए
मुक्तिबोध की लंबी कविता अँधेरे में की याद अनायास ही नहीं आती . और उसमें भी वह
अंश आकर आँखों के सामने ठहर जाता है .-हाय-हाय! मैंने उन्हें देख लिया है नंगा
/इसकी मुझे कड़ी सजा मिलेगी .अंतर बस यही है कि अँधेरे में कविता में यह सजा जहाँ उसके काव्यनायक 'मैं ' को मिलने वाली है ,वहीं
'कसाईबाड़ा ' में 'सनीचरी 'को मिलती है .दहेज़ रहित सामूहिक विवाह
के नाम पर उसकी बेटी रूपमती को वेश्यावृत्ति के लिए बेच देने वाले ग्राम-प्रधान और
उसकी पत्नी के अन्तिम आश्वासन में अनशन तोड़ने के नाम पर जहर मिला दूध पीकर हमेशा
के लिए दम तोड़ देती है . सनीचरी की हत्या के बाद पुलिस द्वारा पोस्टमार्टम जैसे
कानूनी रूप से आवश्यक अन्त्य-कर्म के लिए भी जिस प्रकार औपचारिकता निर्वाह के लिए
भी राज्य -तंत्र का आगमन नहीं होता -वह आम हिंदी फिल्मों जैसा नाटकीय और
अविश्वसनीय होते हुए भी तत्कालीन यथार्थ
की कलात्मक एवं नाट्य-रूपकात्मक प्रस्तुत की दृष्टि से महत्वपूर्ण है
. इस प्रायोजन द्वारा जैसे कहानीकार कहना चाहता हो कि ‘सनीचरी’ वर्त्तमान
राज्य-तंत्र के लिए नेपथ्य की या अवांछित उपस्थिति है , जिसकी मृत्यु की सूचना पाना भी उसके लिए जरुरी नहीं है .
आपातकाल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में सृजित शिवमूर्ति की ‘कसाईबाड़ा’
कहानी की अँधेरी रात इतनी बहुआवर्ती ,अर्थगर्भी एवं सांकेतिक है कि उसके निहितार्थों से ही तत्कालीन
आपातकालीन ऐतिहासिक समय के केन्द्रीय चरित्र
का सम्पूर्णता में साक्षात्कार संभव है . ‘कसाईबाड़ा’ कहानी में जब सुगनी
अर्द्ध-रात्रि के सघन अन्धकार में सामूहिक शादी के नाम पर गाँव की कई लड़कियों को बेच दिए जाने तथा
बदमाशों द्वारा आतंककारी रूप में अपना
पीछा किए जाने की सूचना देकर गायब हो जाती है तो आशंकाओं का अन्धकार और रहस्य और
गहरा हो जाता है . कहानीकार सुगनी के किसी अपराधियों के गिरोह द्वारा अपहरण कर लिए जाने की आशंका और कल्पना का कार्य
पूरी तरह पाठकों पर ही छोड़ देता है .
छोटी -छोटी बिम्बात्मक ,संकेतधर्मी नाटकीय प्रस्तुतियां
काव्यात्मक सम्वेदनधर्मिता के साथ पाठकों की कल्पना को उत्तेजित करती हुई चलती हैं
और आपातकालीन भारतीय सत्ता और समाज की संपूर्ण आपराधिक , अनैतिक , निरंकुश भयावहता का जीवंत संवेगात्मक अनुभव-संसार शिवमूर्ति की जीवंत वर्णन-कला द्वारा चेतन-अचेतन सभी स्तरों
पर साहित्य के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो जाता है . कहानी के बीच के अंशों
में जनता की अबोधता और अज्ञानता का अन्धकार है , जिसे शिवमूर्ति नें व्यंग्य,घृणा आक्रोश और उपहास के मिले-जुले
शिल्प में चित्रित किया है . अंग्रेजी का लूप शब्द मानों अशिक्षित लोकचेतना के
अन्धकार में पहुंचकर संस्कृत के लुप्त तत्सम शब्द का तद्भव अपभ्रंश "लुप्प ' हो जाता है . जहाँ भारतीय लोकतंत्र और
उसकी जनता आपराधिक और शातिर तंत्र -विशेषज्ञ
सत्ता पक्ष और तंत्र-अज्ञ शासित जनता में बदल जाता है . अनैतिक तंत्र
-विशेषज्ञों द्वारा अपहृत सत्ता का तंत्र
उसे लोकतंत्र की अवधारणा से अलग शोषक और
शोषित तथा शासक और शासित में ही नहीं बल्कि शिकार और शिकारी में बदल देता है . इस
दृष्टि से कसाईबाड़ा के फैंटेसी-चरित्र
अधरंगी की यह व्यंग्यात्मक टिप्पणी अत्यंत ही संकेताधर्मी और अर्थगर्भी है
-"आदमी का शिकार करके पेट नहीं भरा तो चिरई का शिकार करके नहीं भरेगा दरोगा
बाबू !" कथाकार नें तत्कालीन व्यवस्था पर इसतरह की अनेक साहसिक अभिव्यक्तियों
के लिए अर्द्धविक्षिप्त फैंटेसी चरित्र अधरंगी
की सर्जना की है .’कसाईबाड़ा’ कहानी की कथावस्तु और चरित्रों में रूपकात्मक , प्रतीकात्मक तथा फैंटेसी-कथा होने की कलात्मक संभावनाएं ऐसी ही चरित्र-सृष्टि
द्वारा कथाकार शिवमूर्ति नें पैदा की है .सिर्फ कथानक ही नहीं यहाँ तक कि उसका नाम
तक एक निर्मम हत्यारे कारागार का आभासी प्रतिसंसार रचने वाला एक अर्थ-गर्भी रूपक
है .
इस
प्रसंग या फिर तिरियाचरित्तर के विमली के उसी का यौन शोषण करने वाले ससुर विसराम
द्वारा उसे दागने की सजा के रूप में दण्ड-विधान की कमान संदिग्ध और अपराधी हाथों
में ही सौंप देने जैसे अनेक कथा-प्रसंग आस्था और आदर्श के प्रति विश्वास का
निर्णायक निषेध प्रस्तुत करते हैं .कसाई बाड़ा में अधरंगी की नेताओं की नस्ल पर यह टिपण्णी कि 'लीडर ,दगाबाज ,दो-मुहाँ और दरोगा का घामाचा है(केशर कश्तूरी ,पृष्ठ १९ ) .-प्रशासन और नेतृत्व दोनों
के ही चरित्र पर सम्पूर्ण अविश्वास की घोषणा है .
दरअसल शिवमूर्ति की अधिकांश कहानियां संरचना
के धरातल पर अपने समय के वृहत्तर यथार्थ का गहन एवं सांकेतिक नाट्य-रुपक प्रस्तुत
करती हैं .कसाईबाड़ा जैसी उनकी प्रसिद्ध कहानी में तो यह नाट्य संयोजन दिखता भी है
.प्रथम द्रष्टाया असंगत और असामयिक लगने
वाले कथा-प्रसंगों का विनिवेश जैसे कि
गाँव में तहकीकात के लिए गए दरोगा द्वारा ग्राम-प्रधान द्वारा पहले से पकड़ कर छोड़ी गयी
वन -मुर्गियों के शिकार का प्रसंग बिना
किसी अतिरिक्त श्रम के पाठकों द्वारा भारतीय प्रशासन-तंत्र के ब्रिटिश औपनिवेशिक
उत्तराधिकार वाले स्वरूप पर पूरा विमर्श खड़ा करने में सक्षम है .सत्ता का
औपनिवेशिक अहंकार ,सिर्फ कहने के लिए ही लोक-सेवक लेकिन व्यवहार में जनता से अलग
अपने को श्रेष्ठ और विशिष्ट समझने की भावना,सामान्य
जन के प्रति सहानुभूति और कर्ताव्यकारी संवेदनशीलता का अभाव अर्थात`जन-विरोधी चरित्र ही उसका प्रमुख लक्षण
है ..
कसाई बाड़ा में जन-इच्छा की सांकेतिक
अभिव्यक्ति शिवमूर्ति अपने फैंटेसी चरित्र अधरंगी द्वारा की गयी इस घोषणा के
द्वारा करते हैं कि "आज शाम पांच बजे .पांच बजे शाम को बिल्डिंग के सामने
बबूल के ठूंठ पर लटकाकर गाँव के बेटी-बेचवा परधान और उसके बेटे प्रेम को फांसी
दी जाएगी .आप सभी हिजड़ों से हाथ जोड़कर पराथना है कि इस शुभ अवसर पर पधार कर
..."(पृष्ठ १९)अधरंगी की विकलांगता भी अत्यंत सुचिंतित रूप से भारतीय जनता की
असमर्थता और विवशता की ही प्रतीकात्मक और नाटकीय अभिव्यक्ति है ..
शिवमूर्ति अपने वैचारिक निष्कर्षों एवं
पर्यवेक्षण को किस प्रकार अपने पात्रों और चरित्र -परिकल्पना में ही निवेशित कर
देते हैं ,इसे देखना है तो उनकी अकालदण्ड ' कहानी के सामन्ती पृष्ठभूमि के चरित्र रंगबहादुर की चरित्र-सर्जना को देखा जा सकता है . पूजी
और सत्ता की नयी दुरभिसंधि नें सामंती
अवशेषों को किस प्रकार पाखंडी निरीह और पतनोन्मुख किया है इसकी सांकेतिक अभिव्यक्ति
भ्रष्ट सत्ता के नए केंद्र सिकरेटरी द्वारा अपनी ही बेटी के शीलहरण की संभावना भांप कर वह आत्म - भर्त्सना-"जा रे
रंगिया साले "के रूप में करता है .अकालदण्ड में सुरजी और उसके प्रतिरोध
को जिसप्रकार वे भारतीय जनता के प्रतिरोध
की प्रतीकात्मक और सांकेतिक और नाटकीय अभिव्यक्ति में जिस प्रकार बदलते हैं -यह भी
उनके गंभीर रूप में सुचिंतित कथा-कौशल का ही प्रमाण है .सुरजी द्वारा हंसिए से
सिकरेटरी की देह के नाजुक हिस्से को अलग
कर देने का दंड जहाँ प्रतिरोध को क्रातिकारी निर्णायक हस्तक्षेप तक ले जाने का
सन्देश छिपाए है वहीँ पुरुषों की असमाधेय यौन-हिंसा से चिढ़े हुए समाज की भावना का
कथात्मक विरेचन भी प्रस्तुत करती है .
यथार्थ के अधिक से अधिक प्रमाणिक और
सटीक अंकन के लिए शिवमूर्ति पृष्ठभूमि के विस्तृत रेखांकन तथा वैषम्य -चित्रण का
भी भरपूर सहारा लेते हैं .कभी -कभी तो इतना अधिक कि उनकी कहानी किसी रिपोर्ताज का
हिस्सा लगने लगाती है .उनकी अकालदण्ड कहानी का एक बड़ा हिस्सा अकाल पर लिखा एक ह्रदय
-स्पर्शी और जीवंत रिपोर्ताज ही है .ग्रामीण परिवेश का चित्रण करते हुए वे यह टिप्पणी करना भी नहीं
भूलते कि "यही विद्युत्धारा दूर-दराज
के शहरों को रोशनी से जगमगा रही होगी .करोड़ों गैलन पानी से मीलों लम्बे पार्कों और
विहारों को तर करते रंगीन फव्वारे छूट रहे होंगे लेकिन यहाँ गांवों के लिए इस
शक्ति का कोई अर्थ नहीं है ."(केशर कस्तूरी ,पृष्ठ २९ ) इसीतरह सिकरेटरी के यौनाचारी भ्रष्ट अतीत के रेखांकन के प्रसंग में वे वेदानन्द जैसे उच्च नैतिक मूल्यों वाले धर्मं-गुरुओं का परिप्रेक्ष्य सन्दर्भ भी देते
चलते हैं तो दूसरी ओए पाखंडी -ढोंगी धर्म-गुरुओं के यहाँ मुक्ति तलाशने वाली विधवा गुलाबो सहुआइन और
सरजूपारी चाची जैसी महिलाओं का भी ,जिनके
लिए धर्म का आवरण अपनी अतृप्त यौन-इच्छाओं
की पूर्ति करने का मानवेतर नहीं ,बल्कि
समाज सम्मत अपमानवीय चोर -दरवाजा है -शिवमूर्ति की सजगता इसमें है कि वे स्वयं धर्म
के विवादास्पद,नकारात्मक और अमानवीय संभावनाओं पर
प्रत्यक्ष टिप्पणी कहीं नहीं देते .वे बहुत चालाकी से ऐसे संभावना स्थल के आस-पास
अपने पाठकों को ले जाकर उकसाकर छोड़ देते
हैं .इतने पर्याप्त संकेतों के साथ कि पाठक चाहे तो उन चरित्रों को लेकर अपनी कल्पना
से भी कथा -रचना कर सकता है .अकालदण्ड की गुलाबो सहुआइन और सरजूपारी चाची ऐसी ही
कथा-चरित्र हैं जहाँ प्रसंगानुसार सूचनाएं देते हुए विषयांतर होने के भय से
बचाते-बचते कहानीकार नें संकेतों में ही सही बहुत कुछ कह दिया है .तीर्थयात्रा में
अयोध्याजी' जा रही सरजूपारी चाची के संवाद की व्यंजन में ही पाठक से बहुत कुछ
अकथ कह दिया गया है .देखें-"महंत जी की सेवा से लौटूं तो मेरे लिए भी एक
हाथ-पाँव दबाने वाली चाहिए .और भी कोई ऊँच -नीच पड़ जाए तो परदेस है ,झेलना पड़ेगा ."(पृष्ठ ४३
)काशी-करवट या फिर तीर्थ-वास के नाम पर वृद्ध सेवा से पीछा छुड़ाने वाली भारतीय
धर्म-व्यवस्था पर व्यंग्य कहानीकार इस भेदक टिप्पणी के साथ करता है -"सुरजी
को भी 'मुक्ती 'का आसान रास्ता सुझाया था सरजूपारी चाची नें .खुद चलकर आयीं थीं
.सुरजी की सास की 'मुक्ती ' और सुरजी की सास से 'मुक्ती
' दोनों साथ-साथ .सरजू जी में जल-समाधि
दिलाकर ,'सरग' का द्वार चौपट खुला मिलता है इस रस्ते .खुद भगवान रामचंद्र जी इसी
रास्ते गए थे अपने धाम ."(वाही ,पृष्ठ
४३ )लेखक नें इस प्रसंग का उपयोग सुरजी के चारित्रिक उभर के लिए किया है .क्योंकि
वह अपनी अंधी-बूदी सास को पानी में धकेलने से मना कर देती है .शिवमूर्ति की कई
कहानियां आधुनिकता बोध के साथ युग के बदले सन्दर्भों में मिथकों की नयी मानवीय
पुनर्व्याख्या प्रस्तुत करती हैं .उदाहरण के लिए अविवाहित सिकरेटरी के यौनाचारी स्वभाव वाले अतीत का रेखांकन वे
ब्रह्मचारी माने जाने वाले मिथकीय चरित्र हनुमान के औरस पुत्र मकरध्वज का पौराणिक सन्दर्भ देकर करते हैं
.मिथकों के भीतर छिपे मानवीय यथार्थ और सच को उद्घाटित करने वाले उनके पुनः पाठी सन्दर्भ विद्युत् की आकस्मिक
कौंध की तरह कहानी की कथावस्तु के अवशिष्ट
अकथित पक्षों को अकल्पनीय विस्तार और आयाम में प्रकाशित कर जाते हैं-"कहते
हैं उनके पसीने में इतनी ताकत आ गयी है कि मकरध्वज जैसा पुत्र पैदा हो जाए .कहाँ
नहीं हैं उनके पसीने के मकरध्वज ?मध्यप्रदेश के जंगल हों या स्वामी
वेदानन्द जी के आश्रम का पडोसी मोहल्ला ,आश्रयदाता
सेठ की हवेली हो या सूखापीडित क्षेत्र के
गाँव .जहाँ थोड़ी भी छाँव मिली कि मकरध्वज ."(वही ,पृष्ठ ३७ )आधुनिक यथार्थ के अनुरूप
अतीत की मिथकीय कथाओं की व्याख्या के साथ
धर्म में छिपे अतीत के संदिग्ध स्थलों में पाखंडों की पड़ताल शिवमूर्ति के कथाकार को एक गंभीर एवं प्रबुद्ध
सामाजिक विमर्शकार की अतिरिक्त प्रतिष्ठा देती है .
शिवमूर्ति की 'अकालदण्ड'
कहानी तो लोकतान्त्रिक सत्ता के ही पूंजीवादी मानसिकता के साथ एक नए शोषक वर्ग
के हाथों में चले जाने की सूचना देती है .औद्योगिक पूंजीवाद और सत्ता के नए गठबंधन
नें शोषकों की बिलकुल नयी पीढ़ी को जन्म दिया है .इस नए शोषक वर्ग के लिए बीते युग
की सामंती शक्तियां भी उपयोग ,सुरक्षा
और धनार्जन का संसाधन है .यह उन्हें किस प्रकार अधीनस्थ बनाकर उनका दोहन करता है
इसे न सिर्फ रंगबहादुर के प्रसंग में देखा जा सकता है बल्कि कहानी से बाहर भी बड़े-बड़े होटलों और
मालों के मुख्य द्वार पर सामंत- युगीन शान की प्रतीक मूंछों को दरबान या फिर
महाराजा की वेशभूषा तथा भूमिका में
उपभोक्ताओं को झुक-झुक कर सलाम करते हुए
देखा जा सकता है .अकालदण्ड कहानी भ्रष्ट
नौकरशाहों की विलासिता ही नहीं ,बल्कि
सामंती युग की सामाजिक शक्तियों के अवसान ,पराभव
तथा भ्रष्ट सत्ता-नियामकों की निरंकुश
अनैतिक जीवन-चर्या का बेबाक चित्रण करती हैं .यहाँ तक कि बाह्य सामाजिक प्रतिष्ठा ,भव्य पुरानी गढ़ी ,विशाल परिसर ,दो -नाली बन्दूक ,भव्य व्यक्तित्व और शानदार मूंछों के
होते हुए भी सामंती अतीत का वारिस रंग
बहादुर नए ज़माने की सत्ता के प्रतीक तथा भ्रष्ट प्रतिनिधि सेक्रेटरी से उसके अधीन
नौकरी कर रही अपनी पहली बेटी को यौन शोषण से नहीं बचा पाता .कहानी के अंत में
सुरजी का प्रतिशोध प्रतीकात्मक रूप से ही
सही सुरजी के बहाने सदियों से निम्न और उपेक्षित समझी जाने वाली हाशिए की उस जनता
परिवर्तन और क्रान्ति का दारोमदार डाल कर उसके प्रति विश्वास व्यक्त करती है
जिसमें अब भी शक्ति बची हुई है .जो अप्रत्याशित रूप से एक नए दण्ड विधान का इतिहास
रच सकती है .इस दृष्टि से देखें तो कहानी के शीर्षक का पहला शब्द 'अकाल 'जहाँ समस्या और अभाव -सूचक है तो दूसरा शब्द 'दण्ड
न्याय-चक्र के नए विधान का .'सामंती
पूंजीवाद का नए ज़माने के औद्योगिक पूंजीवाद के सम्मुख घुटने टेकना एक ऐतिहासिक
तथ्य तो है ही मार्क्सवाद सम्मत भी .कहानीकार नें रंगबहादुर उर्फ़ रंगी बाबू की इस
पतन -यात्रा को अत्यंत तनावपूर्ण घटना -क्रम में संवेदनशीलता और सहानुभूति के
साथ सजीव रूप में प्रस्तुत किया है .रहस्य
,कौतूहल ,सांकेतिक चित्रण के साथ
भूतपूर्व सामंत रंग बहादुर जब अपनी ही गाल पर थप्पड़ मरते हुए स्वयं को 'रंगिया साले 'संबोधित करता है तो उसके अपमानजनक हश्र
और निरीहता को देखते हुए पाठक के लिए कुछ भी समझाना जानना शेष नहीं रहता
.मार्क्सवादी विचारधारा की बिना कहीं प्रकट चर्चा के भी 'अकाल दण्ड ' कहानी सामाजिक शक्तियों के उत्थान -पतन
की मार्क्सवाद सम्मत समझ दारी भी अपने पाठकों को सौंप जाति है .नयी पूंजीवादी सत्ता
का प्रतीक चरित्र सेक्रेटरी जहाँ पतनशील भारतीय लोकतंत्र की चारित्रिक समीक्षा भी
है तो रंग बहादुर उर्फ़ रंगी उर्फ़ रंगिया तथा उसकी बेटी माला सामाजिक आर्थिक
परिवर्तन के तीव्र दौर में झूठे दंभ के सहारे गत युगीन प्रतिष्ठा बचाए रखने के
प्रयास में अपना शील गंवाती रहती है
.संन्तो द्वारा पाखण्ड जीने की विवशता और उनकी वास्तविक निरीहता को शिवमूर्ति नें
अत्यंत सूक्ष्मता एवं प्रमाणिकता के साथ
अंकित किया है . कहानी का उपरी वृत्तांत और केन्द्रीय घटनाशीलता भले ही आर्थिक निरीहता में यौन शोषण के आपराधिक
प्रयास और उसके निवारण के लिए अपेक्षित जन-प्रतिकार की प्रस्तावना करने वाला हो
-पूरी कहानी अनेक सजीव चारित्रिक बिम्बों से रची गयी किसी लम्बी कविता की तरह बहुत
से आयामों ,अनुभवों ,सामाजिक समस्याओं ,चिंताओं एवं मानवीय संवेगों -आवेगों से
निवेशित एवं आवेष्ठित है .शिवमूर्ति की
कहानियां शिल्प-संरचना के स्तर पर इस विधा की बहुआयामी सार्थकता के लिए
गंभीर वैचारिक आयाम देती है . शिवमूर्ति
की अन्य कहानियों की तरह '
अकालदण्ड ' कहानी भी अनेक संरचनात्मक स्तरों को समेटे हुए है
.कहानी अपने भीतर अकाल पर लिखी एक गंभीर और सम्पूर्ण रिपोर्ताज छिपाए हुए है .
उसके
दुश्चरित्र की असलियत को सामने लाने वाले किसी भी अवसर के सार्थक इश्तेमाल से वे
चूकते नहीं-भ्रष्ट नौकरशाही के पतन का एक आयाम अकालदण्ड कहानी में नर बहादुर सेवादार द्वारा कर्मचारी
रामफल पर की गयी इस टिपण्णी में भी है -"कितनी बार किसी का बाप मरता है ,इसका हिसाब होना चाहिए .साल भर में दो बार मर चुका सेवादार का बाप .अभी कोई चाहे तो लखपतिया की झोपड़ी में घुस कर रंगे हाथ
पकड़ सकता है उसके साथ में कैम्प का दस-बीस किलो राशन भी निकाल आएगा ."(केसर
कस्तूरी ,पृष्ठ ३१ )
सबसे अधिक आंचलिक प्रतीत होने वाली शिवमूर्ति
की 'अकालदण्ड " कहानी शिवमूर्ति की कहानी-कला का एक और रहस्य खोलती
है .शिवमूर्ति की कहानियां वस्तुतः अपने समय के वृहत्तर यथार्थ को अवध की स्थानीय पृष्ठभूमि में आंचलिक पुनर्रचना ही करती हैं .इस तरह उनकी कई कहानियों का 'आचलिक' नाटकीय और कलात्मक है . वह रेणु की कहानियों की तरह हर बार पूरी शुद्धता या
सीमितता के साथ आंचलिक नहीं है .अपने समय और यथार्थ की विकास तथा पतनशील अधिक जटिलता के कारण शिवमूर्ति की कहानियां अधिक समाजवैज्ञानिक तथा
राजनीतिक बोध -दृष्टि से सम्पन्न हैं . अकालदण्ड कहानी में वर्णित अकाल शिवमूर्ति की स्मृतियों में सुरक्षित 1966 की उत्तर-भारत में पड़े अकाल की याद दिलाता है . स्वतंत्रता
के पूर्व ब्रिटिश काल में बंगाल का अकाल और स्वतंत्रता के बाद कालाहांडी का
अकाल ही कहानी में वर्णित अकाल की समानता कर सकते हैं .स्पष्ट है कि कसाईबाड़ा
कहानी की चयनधर्मी नाटकीय कथावस्तु की तरह अकाल दण्ड कहानी भी एक साथ ही
तात्कालिक एवं आंचलिक यथार्थ से सम्बद्ध एवं असम्बद्ध नाटकीय कथा-रूपक ही है .यह अवध के मजदूर वर्ग
की स्थानीय स्त्री-चरित्र विमली के रूप में
जितनी आंचलिक है तो स्वतन्त्र भारत की नौकरशाही को ब्रिटिश औपनिवेशिक शोषक
चरित्र की आपराधिक उत्तराधिकार एवं संस्कार में दिखने के कारण कालान्तरणकारी एवं
सार्वभौम भी .हिन्दी के पूर्ववर्ती सफल कहानीकारों की कला-तकनीकों के बेहतर का
अपनी कहानी कला में निवेश करने के बावजूद शिवमूर्ति का कहानीकार अद्यतनता और
मौलिकता की दृष्टि से यदि स्पष्ट पहचान और प्रतिष्ठा की छवि स्थापित कर लेता है
तो सिर्फ इसीलिए कि शिवमूर्ति की कहानियां
मानव अस्तित्व के लिए आवश्यक सनातन संवेदनशीलता और उसके प्राकृत पर्यावरण के पक्ष
में खड़ी होकर आधुनिक शहरी , औद्योगिक व्यापारिक संवेदनहीन सभ्यता की निर्मम
एवं मोह रहित समीक्षा करती हैं .
वर्त्तमान के आँखों देखा हाल की तरह
रिपोर्ताज और यात्रा -वृत्तांत के मिले -जुले विधा -रूप की तरह निजी अनुभवों और
पर्यवेक्षणों से चरित्रों को केंद्र में रखकर बुनी गयी शिवमूर्ति की कहानियां
आरम्भ से ही अपने पाठकों को एक सही संवेदनात्मक पक्ष सौंपकर अस्वस्थ एवं विरोधी
यथार्थ का पर्दाफाश करती चलती हैं .उनकी लोकप्रियता का भी आधार यही है कि वे
असामान्य का नहीं बल्कि सामान्य का ही प्रतिनिधिक विशेष रूप प्रस्तुत करते हैं
. बहुत नजदीक से दिखने के कारण विरल प्रतीत होते हुए भी एक व्यापक वर्ग का
प्रतिनिधित्व उनके कथा-चरित्र करते हैं . तिरियाचरित्तर की विमली को ही देखें तो
अपने नाम के अनुरूप विमल होते हुए भी सिर्फ अपनी आर्थिक ,पारिवारिक और स्त्री लैंगिक सामाजिक
परिस्थितियों के कारण वास्तविक अपराधी पुरुष-प्रधान समाज के द्वारा अपमानित और
लांछित होती है .कहानीकार का निष्कर्ष और पक्ष पूरी तरह स्पष्ट है और शिवमूर्ति की
तिरियाचरित्तर कहानी अपने अंत तक पहुंचते-पहुंचते व्यंग्यात्मक निष्पत्ति के साथ
पुरुष-चरित्तर के सारे रहस्य खोल देती है
बहुत नजदीक से इस कहानी में भारतीय
स्त्री के प्रेम का समाजशास्त्र ,उसकी परिस्थितिकी ,सांस्कृतिक चित्ति ,नारी मनोविज्ञान और भारतीय परिवेश में
उसकी दुश्चिंताएं ,चरित्र को लेकर नौकरीपेशा औरतों पर
होने वाले आक्षेप आदि का विस्तृत रेखांकन शिवमूर्ति नें किया है . भारतीय समाज और
व्यवस्था आज भी स्त्री स्वावलंबन के अनुरूप नहीं हो पायी है .बचपन में पिता की
अधीनता और वयस्कता में पति की अधीनता ही किसी भारतीय स्त्री की सुरक्षा है .इससे
भिन्न मानवीय परिस्थितियां किस प्रकार त्रासद और विडंबनात्मक हो सकती है शिवमूर्ति
नें इसे तिरिया चरित्तर कहानी के माध्यम
से दिखाया है . पिता की विकलांगता के कारण और अकेली संतान होने के कारण विमली को
पुरुष-प्रधान भारतीय समाज में स्वावलंबन और
व्यक्तित्व-विकास का जो अवसर मिलता है -वह विमली को कीर्ति से अधिक
अपकीर्ति ही देते हैं .-"कुछ भी हो ,लेकिन
बदनाम रही है पुतोहू मायके में ...."(पृष्ठ १२०)बात-बात में मिथकों को जीने
वाला भारतीय समाज सामने खड़ीं जिंदगी के भीतर के सच को पहचान नहीं पाता . विमली के
साथ घटित उसके ही शातिर ससुर के दुराचार को जानने वाले पाठक के लिए कथाकार द्वारा
पुजारी जी के मुख से कहलाई गयी यह टिप्पणी एक नया व्यंग्यार्थ खोलती है- एक झटके
में ही कथाकार विमली के साथ घट रहे पुरुष आचार को इस पौराणिक प्रसंग का सन्दर्भ
देकर जसे पूरी सभ्यता को ही प्रश्नांकित कर देता है -"लछिमन जी नें तो इससे
छोटी गलती पर नाक-कान दोनों काट लिए थे ."( वही ,पृष्ठ १२१ ) शिवमूर्ति भारतीय स्त्री की
दशा-दिशा को गढ़नें में एक सुचिंतित -पूर्वनियोजित मिथकीय सांस्कृतिक तंत्र की
पार्श्ववर्ती भूमिका की और ध्यान दिलाना नहीं भूलते . जब वे ऐसा करते हैं तो वह एक
स्तब्ध करने वाला दृष्टिपात होता है .मार्क और बेधक सच वाले ऐसे दृष्टिपात के पास
कहानी को दो या तीन पंक्तियों से अधिक वे नहीं ठहरने देते . कुछ वैसे ही जैसे
इंजेक्शन लगने के समय डाक्टर अपने रोगी का ध्यान किसी दूसरी ओर हटा देते है . चाहे अकाल दण्ड कहानी में बाल
ब्रह्मचारी कहे जाने वाले हनुमान जी के मकरध्वज होने वाला प्रसंग हो या लक्षमण
द्वारा सुपर्णखा की नाक और कान काट लिए जाने का प्रसंग -शिवमूर्ति उनकी पौराणिक
व्याख्या से अपनी युगीन असहमति को छिपाना नहीं चाहते . कसाईंबाड़ा के अधरंगी की तरह सच बोलने वाली
स्त्री पात्र 'मनतोरिया की माई ' के मुख से व्यवस्था के नियामकों को
प्रश्नांकित करा कर भी शिवमूर्ति स्त्री विरोधी भारतीय समाज और व्यवस्था के पुरुष
-चरित्तर को उसकी चरम अन्यायिक परिणति तक पहुँचने देते हैं .प्रायः अपने
कथा-परिवेश के लिए आंचलिक मानी जाने वाली 'तिरियाचरित्तर
' कहानी भी 'कसाई बाड़ा कहानी की तरह भारतीय स्त्री के आधुनिकता विरोधी
नकारात्मक पूर्वाग्रहों ,सामाजिक मानसिकता और
मनोविज्ञान के सभी आयामों को उद्घाटित करने वाला नाट्यरुपक ही है.विमली की
जगह कमला या ईंट भट्टे की जगह ऑफिस रखा देने से भी कोई विशेष फर्क नहीं पड़ना है
.शिवमूर्ति नें विमली को रचा ही इस तरह से
है कि वह भारतीय स्त्री मात्र की पीड़ा का अधिकतम प्रतिनिधित्व कर सके .एक मात्र सच
बोलने वाली मनतोरिया का पति जब उसका बाल
पकड़कर पंचायत से बाहर ले जाता है तो कहानीकार व्यंग्यात्मक टिप्पणियों का एक भी पल
हाथ से बाहर जाने नहीं देता -"अपने आदमी को क्या कहे वह ? आदमी तो आदमी हठी हाथी होता है महावत महावत ,चाहे कितना ही कमजोर महावत
क्यों न हो !"(पृष्ठ १२२)दुराचारी ससुर द्वारा ही पंचायती निर्णय के अनुसार
दागे जाने के अवसर पर लेखक पूरे समाज के ही यौन -कुंठित होने की सूचना देता है-'' कई नौजवान पतोहू को हाथ-पैर और सिर पकड़
कर लिटा देते हैं ? कसकर दबाओ .जो जहाँ पकडे वहीँ मांसलता
का आनंद ले लेना चाहता है.नोचते -कचोटते ,खींचते
,दबाते हाथ "(वही ,पृष्ठ १२२ ) कहानी का अंत करने से पहले
एक बार फिर मिथकीय प्रसंग के बहाने संस्कृति -विमर्श की और वापस लौटता है कथाकार
.यह याद दिलाना नैन भूलता कि पुरुषों द्वारा रचे गए शास्त्रों में स्त्री का सही
और न्यायिक पक्ष पूरी तरह अनुपस्थित है .तब जब पुजारीजी भारी मन से कहते हैं
-तिरिया-चरित्र समझना आसान नहीं .बाबा भरथरी नें झूठ थोड़े कहा है .तिरिया चरित्रम
पुरुखष्य भाग्यम ...''(पृष्ठ १२३ ) और उसके पहले सीधे-सीधे
कथावाचक 'मैं ' यानि लेखकीय टिप्पणी के रूप में -'इतने दिनों बाद फिर दुहराई जा रही है महाभारत की कथा - भरी सभा में
लाचार औरत की बेइज्जती ! इसके कारण भी कोई महाभारत होगा क्या ? काहे भाई ! ई कोई रानी -महारानी है ?"(वही ,पृष्ठ १२३ )
इस कहानी की संरचना को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि
तिरियाचरित्तर कहानी सम्पूर्ण सामाजिक परिवेश का स्त्री केन्द्रित पाठ प्रस्तुत करती
है .यदि यह कहें कि कहानीकार विमली की आँखों से ही पाठकों को पूरी व्यवस्था को
देखने-समझाने का आग्रह करता है .स्त्री जाति का समस्त अनभिव्यक्त आक्रोश विमली के
हश्र और उसकी असहाय-असह्य घृणा में व्यक्त
हो उठा है . समाज में कभी-कभी दिखने-घटने वाली विरलतम घटना को आधार बना कर लिखी गयी
यह कहानी विमली के साथ अपने एक तथाकथित संरक्षक द्वारा ही छले जाने और दुखान्त
घटित होने से पहले ही भारतीय समाज में एक कामकाजी स्त्री की नियति ,दिनचर्या और जीवनानुभवों का अत्यंत ही
प्रमाणिकता और सूक्ष्मता से वृत्तांत उपलब्ध कराती है . यह समझना भूल होगा कि
कहानी सिर्फ विसराम का ही काम-खलत्व प्रस्तुत करती है . विमली के पास उसके
परिस्थितिजन्य सात्विक जीवन का एक ही पाठ है लेकिन समाज के पास अनेक-"एक
किस्सा हो तो बताए कोई ! नैहर में तो इसके पीछे रोज एक किस्सा तैयार होता था . इतने
किस्से पीछे छोड़ कर आई थी कि बताने लगे तो पूरी रामायण बन जाएगी "पाठक आसानी
से यह अनुमान लगा सकता है कि विसराम की इस घोषित सोच से अलग कि साथ छूट जाएगा तो
सारा किस्सा अपने आप खत्म हो जाएगा .वह विमली की विदाई कराने के लिए प्रेरित ही
समाज में उसे लेकर व्याप्त उन कुचर्चाओं को सच मानकर हुआ था कि कि उस यौनाचारिणी
बहू से वह भी आसानी से यौन सम्बन्ध स्थापित कर सकेगा .विमली को लेकर एक सर्वव्यापी कामुकता जैसे सारे संसार में छाई हुई हो ;कुछ -कुछ सूफी कवि जायसी के यहाँ मिलने वाली आकाश-पाताल एक करने वाली
सर्वव्यापी विरह भावना जैसी .शिवमूर्ति जैसे समाज में मिलने वाली कामुकता का दर्शन कराने ही चले हों .उसकी विभिन्न छटाओं और मुद्राओं का ,उसके भ्रामक आकलनों का -जहाँ घटित को
स्थगित कर संभावनाएं हवा में उड़ती हैं ;जहाँ
जो कुछ भी हो सकता है सब सच है . अश्लील हंसी-मजाक ,इशारे और कुइसा मिस्त्री का प्रेम -प्रस्ताव जो अपवाद होते हुए भी
प्रेम को कामुकता से नहीं बल्कि अस्तित्व के सहज स्वाभाविक आकर्षण और जीवन की
उपलब्धि तथा सार्थकता से जोड़कर देखता है .स्वार्थी किन्तु काम-भावना का एक सात्विक
प्रतिपाठ है कुइसा मिस्त्री का प्रसंग .कुछ-कुछ पौराणिक चरित्र नारद-मोह प्रसंग
वाले नारद का जो प्रेम-प्रभाव में हास्यास्पद और अपमानित होते हुए भी नायिका का
मान -सम्मान बढ़ाते हैं .कबीरपंथी पिता के पुत्र शिवमूर्ति ने उसके एकपक्षीय प्रेम के दुखांत को इस दोहे का
सन्दर्भ देकर कुछ पंक्तियों में ही समेत दिया है -
"माया केरी पूतरी ,तन तरकस मन बान !
तिरिया
धावै रथ चढ़ी ,पुरुखहिं करइ निसान !"
तिरियाचरित्तर कहानी का आरम्भ भी विमली और उसके एक दुर्घटना का शिकार होकर बेकार हाथों
वाले पिता के साथ ईंट-भट्ठे के बोझा -मिस्त्री कुइसा के नारी-प्रेम से ही होता है
.कहानीकार की यह रोचक टिप्पणी उल्लेखनीय है कि ' अपनी -अपनी पसंद .कुइसा को औरतों की गलियां ,और मिल जाए तो धक्का खाना पसंद है .
अगर चार औरतें मिलकर उसे नदी में डुबोने लगें तो भी वह इंकार नहीं कर सकता ."
(केसर कस्तूरी ,पृष्ठ ८२ )कुइसा एक प्रतिनिधि मानसिक
यौनिकताजीवी व्यक्तित्व है .एक कल्पनाजीवी प्रेमी .बिल्लर उसका समवयस्क सहकर्मी है
.दोनों ही विमली के यौन आकर्षण से अपने-अपने ढंग से जूझते हैं .जूझते तो
धीर-गंभीर प्रेमी मूंछों वाले डरेवर बाबू भी है .ये सभी चरित्र प्रेमियों की
अलग-अलग कोटि से पाठकों को परिचित कराती है .विमली के इस वृहत्तर परिवार या
विस्तार को यह समाज आज भी पूरी तरह समझने या उसको मान्यता देने में असमर्थ है
. इन्हीं संबंधों के कलंक का साक्ष्य देकर
विसराम उसे पंचायत से दण्ड पारित करवाता है .भारतीय स्त्री के लिए यौनिकता एक पराई
अमानत है . विमली उसे ही विभिन्न खतरों से बचाती आई थी . शिवमूर्ति नें भारतीय
स्त्री के लिए इस समाज को ठीक ही बीहड़ या जंगल का रूपक दिया है .जहाँ कितने जानवर
और शिकारी पद-पद पर मिलते हैं .कहानीकार उसे मुकाम तक सुरक्षित पहुंचकर भी लुट
जाना कहता है और छल से मेड द्वारा ही खेत का खा जाना ..यौन-कुंठित भारतीय समाज से
सम्बंधित शोध भी इसकी पुष्टि करते हैं कि अधिकांश मामलों में स्त्रियों के प्रति
लैंगिक अपराध निकट सम्बन्धियों द्वारा ही होते हैं .यौन -प्रसंगों को लेकर
कहानीकार का मजाकिया और खिलंदड़ा अंदाज ही तिरियाचरित्तर कहानी को एक अश्लील कहानी
बन जाने से बचाता है और वह भारतीय काम-विमर्श पर
केंद्रित हिंदी की एक विशिष्ट और अविस्मरणीय कहानी बन पाती है
आखिरी छलांग में आखिरी छलांग का अमूर्तन यथार्थ पर मानवीय जिजीविषा के संघर्ष और उसकी विजय की प्रत्याशा के पक्ष में है .इसमें संदेह नहीं कि बाजार व्यवस्था मानव निर्मित एक ब्लैक होल बन गयी है ,जिसमें आधार -सभ्यता (किसान
आखिरी छलांग में आखिरी छलांग का अमूर्तन यथार्थ पर मानवीय जिजीविषा के संघर्ष और उसकी विजय की प्रत्याशा के पक्ष में है .इसमें संदेह नहीं कि बाजार व्यवस्था मानव निर्मित एक ब्लैक होल बन गयी है ,जिसमें आधार -सभ्यता (किसान
संपर्क
–
हिंदी-विभाग
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,
गाजीपुर ,उ०प्र० -२३३००१