मंगलवार, 17 जनवरी 2017

शिवमूर्ति : अकथ का कथाकार


शिवमूर्ति जी को  दूसरा रेणु  समझने और समझाने वाले लोग शिवमूर्ति जी के कथाकार  का जाने -अनजाने अवमूल्यन कर रहे होते हैं । उनकी कहानियों की अपनी अलग विशेषताएं और उनका अलग युगीन परिप्रेक्ष्य  हैं ।  वे जिस कहानी कसाई बाड़ा से हिन्दी जगत में ख्यातिनाम  हुए वह आपातकाल के बाद के भारतीय जनमानस और भावनाओं की रूपक एवं प्रतीकों के माध्यम से की गयी  अत्यंत व्यंग्यधर्मी  एवं साहसिक- संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है । रेणु की कहानियों मे मिलने वाले नेहरूयुगीन आशावाद और उल्लास के स्थान पर शिवमूर्ति की कहानियों मे सत्ता से सम्पूर्ण मोहभंग, अनास्था और आत्म-भर्त्सना युक्त मार्मिक संवेदनशीलता है । उनकी बाद में लिखी कुछ कहानियों मे अवधी संवादों एवं चरित्रों  की आंचलिक  उपस्थिति है लेकिन  उनमे भी युगीन यथार्थ का सजग बोध एवं  व्यंग्यधर्मी स्वर मिलता है ।  रेणू की रिपोर्ताज शैली से अलग शिवमूर्ति के यहाँ प्रेमचन्द की किस्सागोई परम्परा को परिष्कृत करने वाली एक निजी शिल्प और शैली मिलती है जो नाटकीय,रूपकात्मक ,चित्रात्मक तथा सूक्तियो -प्रसंगों और किम्वदन्तियो से बुनी गयी है । शिवमूर्ति के कथाकार की सृजनशीलता लोक से मिली अनगढ़ स्मृतियों के सुगढ़ एवं प्रासंगिक संयोजन मे हैं  । 
          वर्जित  या यह कहें कि अब तक अकथित  कथा-प्रसंगों के.शिवमूर्ति मूलतः विरल , वर्जित, प्रतिबंधित एवं अछूते- प्रायः अब तक अकथित कथा-प्रसंगों के अद्भुत किस्सागो हैं . आसान और कम शब्दों में उन्हें प्रतिबंधित यथार्थ का किस्सागो  कहा जा सकता है .उनकी सबसे प्रसिद्ध कहानी कसाईबाड़ा तो अभिव्यक्ति पर ऐतिहासिक प्रतिबंधों के सबसे काले दौर आपातकाल की ही उपज है .असहिष्णु अनैतिक सत्ता के विरुद्ध दुस्साहसिक अभिव्यक्ति का यह कलात्मक अनुभव  उनकी कई अन्य कहानियों में जैसे त्रिशूल, आखिरी छलांग,बनाना रिपब्लिक आदि में अकथ के सामाजिक,सांस्कृतिक ,सांप्रदायिक वर्जनाओं का अतिक्रमण संभव बनाता है . अस्वीकार्य यथार्थ का हास्यात्मक आरेखन करती उनकी कई कहानियां राजनीति के सामाजिक - सांस्कृतिक विद्रूपीकरण का पुनःपाठ  प्रस्तुत करती हैं .
     प्रेमचंद्र की तरह ही शिवमूर्ति का भी कथाकार साहित्य की गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि पर एक सामाजिक विमर्शकार और क्रांतिकारी की भूमिका में है. उनकी कई कहानियां समाज के नकारात्मक राजनीतिकरण तथा अतीतगामी  यथास्थितिवादी मानसिक समूहों की सक्रिय उपस्थिति की गहन पड़ताल और पहचान प्रस्तुत करती हैं-ऐसे समूहों की जो अपने नैतिक औचित्य-अनौचित्य की परवाह किए बिना, किसी फरार अपराधी की तरह दूसरों के मानवाधिकारों की हत्या करते हुए भी स्वयम को वर्चस्व एवं अधिकार में बनाए रखना चाहती हैं .
           अभिव्यक्ति के जोखिम एवं वर्जनाओं के अनुरूप शिवमूर्ति का कथाकार जानबूझकर अपने पाठकों के लिए अनेक ऐसे कलात्मक दृष्टि-भ्रम प्रायोजित करता रहता है ,जिनका अतिक्रमण प्रायः कथाकार की योजना -अनुसार ही कहानी के अंत तक पहुंचते-पहुंचते एक आकस्मिक सम्वेदनात्मक कौंध या फिर मोह-भंग के रूप में पाठक कर पाता है . अपनी कथा-प्रविधि के रूप में शिवमूर्ति पूरी परम्परा से कभी भी कुछ भी ले सकते हैं . आधुनिक मनोविज्ञान से लेकर प्रेमचंदपूर्व की कहानियों की नाटकीयता,प्रेमचंद की कहानियों में प्रायः मिलने वाला घटना-कौतुक ,रेणु की आंचलिकता ,मोहन राकेश की कहानियों में मिलने वाली वर्णन की तटस्थता तथा निर्मल वर्मा की कहानियों में मिलने वाली सांगीतिक दृश्य-वर्णन की काव्यात्मक सजीवता  के साथ नयी कहानी-पूर्व का चरमोत्कर्ष विधान सब कुछ एक बार फिर लौट आता है शिवमूर्ति की कहानियों में . अपने निजी जीवन के अनुभवों और चिंतन को ही कथा-रूप में रूपांतरित करने के कारण शिवमूर्ति की अधिकांश कहानियाँ उनके व्यक्तिगत सच का कथात्मक रूपांतरण मात्र हैं . उनकी कई कहानियों के कथा-सूत्र तो उनके आत्म-कथ्य में ही देखे जा सकते हैं - जैसे सिरी उपमा जोग , केसर-कस्तूरी ,भरतनाट्यम ,ख्वाजा !ओ मेरे पीर "आदि .'त्रिशूल ' कहानी के नायक को तो अपने घर के अन्तेवासी महमूद को ही सामायिक परिस्थितियों से कलात्मक ‘फ्यूजन’ कराकर कथालोक में पहुंचा दिया है . यह एक संयोग नहीं है कि शिवमूर्ति की पहचान बनने वाली ये सभी मर्मस्पर्शी एवं सम्वेदनाधर्मी कहानियां ‘मैं’ शैली में ही हैं . शिवमूर्ति के साथ संवेदनात्मक विश्वसनीयता का संकट नहीं है . उनकी कुछ कहानियां तो उनके निजी जीवन के अनुभवों से इतनी एकाकार हैं कि वे शिवमूर्ति की आत्मकथा न समझ ली जाएँ इसके लिए उन्हें कथात्मक युक्ति तलाशनी पड़ी है .उदहारण के लिए भारतनाट्यम कहानी की पत्नी यदि कहानी के अंत में भाग न जाती तो बहुत से पाठक यही सोचने लगते कि उसकी नायिका का कुछ न कुछ सम्बन्ध शिवमूर्ति जी के पत्नी के चरित्र से भी हो सकता है . यद्यपि यह सच है कि कथा-नायक की बेरोजगारी और स्वयं शिवमूर्ति की बेरोजगारी की परिस्थितियां वास्तविक हैं ; लेकिन जो अपने जीवन में नहीं घटा  है-उन संभावनाओं के चिंतन ने ही ऐसी अविस्मरणीय कहानी रच दी है .सिरी उपमा जोग ' का यथार्थ भी स्वानुभूत ही है ,लेकिन जो अपनी जिंदगी में करने से बचे हैं और दूसरों को उन्ही परिस्थतियों में वैसा करते देखा है -उसे ही उन्होंने कहानी का रूप दे दिया है . 
          इससे फायदा यह हुआ है कि वे बहुत कुछ ऐसा कह पाए हैं जैसा कहने की हिम्मत उनके पूर्ववर्ती कथाकारों में नहीं थी ; लेकिन इससे नुकसान यह हुआ है कि अत्यंत ही लोकप्रिय या बहुत पढ़े जाने के बावजूद वे कुछ अनिक्षुओं द्वारा आंचलिक आस्वादधर्मिता के साथ लिखने वाले रोचक लेखक मान लिए गए हैं .ऐसा संभवतः व्यंग्य ,हास्य और नाटकीयता की कलात्मक भंगिमा के कारण भी हुआ है . उनकी कहानियां किसी हास्यात्मक मूर्खता की तरह जीवन की गंभीर से गंभीर त्रासदी का भी मजाक उडाती चलती हैं- अँधेरे का सबसे अधिक कथा-बिम्बन करने वाले इस कथाकार की कई कहानियों में जैसे भारतेंदु हरिश्चंद के विख्यात प्रहसन ‘अंधेर नगरी ‘ की आत्मा समाई हुई है . उनमें एक साथ ही बेबसी घृणा और आक्रोश है .दमित शोषित भारतीय जनता की निरीहता ,अशक्तता और अस्वीकार को वे करुणा और आक्रोश के मिश्रित रसायनों से चित्रांकित करते हैं . चाहे भारत-नाट्यम हो  या अकाल दण्ड- उनकी कहानियां पाठकीय अतिक्रमण और निष्क्रमण को प्रहसन के शिल्प में प्रस्तुत कर, संभव करती हैं . उनकी कहानियां एक नकारात्मक राजनीतिक कारण की उन अतीतगामी यथास्थितिपरक मानसिक समूहों की उपस्थिति का पहचानपत्र प्रस्तुत करती हैं-जो किसी फरार अपराधी की तरह दूसरों के मानवाधिकारों की हत्या करते हुए भी स्वयं को वर्चस्व एवं अधिकार में बनाए रखना चाहती है .
          सामाजिक और साहित्यिक इतिहास की समानांतरता में देखें तो  मुक्तिबोध के अभिव्यक्ति-संघर्ष की तरह शिवमूर्ति का भी साहसिक अभिव्यक्ति-संघर्ष देखा जा सकता है . उनकी कला और कलाकार, अभिव्यक्ति की आजादी पर तमाम प्रतिबंधों के बावजूद अभिव्यक्ति के नए रास्तों की तलाश का जोखिम पसंद करता है . कथन में मुद्राओं का चमत्कारिक एवं नाटकीय हेर-फेर उन्हें प्रिय है . वे गंभीर बातों को हास्यात्मक बनाकर और अपनी निज की अन्वेषित व्यंग्यात्मक शैली में गंम्भीरतम बातों को प्रस्तुत करते रहते हैं . सिर्फ उनकी ही कहानियों में ऐसा हुआ है और हो सकता है कि जो कहानी चूहे के बारे में सुनाई जा रही हो वह वास्तव में हाथी के बारे में हो . ठीक वैसे ही , जैसे कसाईबाड़ा कथावस्तु के भीतर एक गाँव है , शीर्षक के स्तर पर एक देशव्यापी प्रतीक  तथा कहानी के स्तर पर एक कथात्मक रूपक .
               शिवमूर्ति पाठकों के मनोरंजन एवं कहानी की पठनीयता बनाए रखने की सृजनात्मक चिंता ,जीवन और समाज से सीधे उठा ली गयी अवधी अंचल के लोक की टटकी भाषा की प्रस्तुति करते हुए भी अपने समय के वास्तविक वर्तमान से असंतुष्ट उनके लेखक का सामाजिक और क्रन्तिकारी विमर्शकार रूप ,लोगों को हंसाते-गुदगुदाते हुए भी अपने क्रांतिधर्मी आक्रोश को ,ताश के जरुरी पत्तों की तरह कहानी के अंत तक बचाए हुए चलता रहता है .
             शिवमूर्ति की अधिकांश कहानियां जीवन और समाज की किसी न किसी महत्वपूर्ण समस्या पर लोक-विमर्श का एक समानांतर एवं गंभीर पाठ प्रस्तुत करती चलती हैं . लोकबोध का एक ऐसा अदृश्य प्रवाह जो आसान शब्दों ,बोलचाल के मुहावरों तथा लोकोक्तियों-मिथकों के सहारे चल रहा होता है और कभी -कभी आम-चुनावों के परिणाम घोषित होने के अवसर पर लोगों को चौंका भी देता है .वैसा ही कुछ !
              हिंदी का कोई भी अन्य कथाकार गौण एवं अवांतर कथा-प्रसंगों की सर्जना करते हुए मुख्य कथावस्तु एवं कहानी के केन्द्रीय चरित्रों पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर इतना गंभीर ,सजग और सुनियोजित रूप से तत्पर नहीं होगा जितना कि शिवमूर्ति . उनका यह रचनात्मक प्रयास कुछ-कुछा वैसा ही है ,जैसा कि प्रकृति में किसी ऊँचे पहाड़ का होना प्रायः अगल -बगल की भारी कटान से बनी गहरी घाटियों के कारण ही संभव हुआ होता है . जब हम गहराई में खड़े होकर उसके विलोम अनुपात में ही ऊँचाई की प्रतीति और मूल्यांकन करते हैं . अकालदण्ड  कहानी की सुरजी के चरित्र का नैतिक-निखार वे विधवा गुलाबो सहुआइन और सरजूपारी चाची जैसे चरित्रों की पार्श्व उपस्थिति या सर्जना द्वारा संभव करते हैं तो 'सिरी उपमा जोग 'में प्रत्यक्षतः अनुपस्थिति रहकर भी पाठक के मन-मस्तिष्क पर छा जाने वाली , त्याग और सज्जनता की प्रतिमूर्ति नायक की पत्नी का प्रतिकारविहीन एकपक्षीय मूक समर्पण ही पाठक के भीतर नायक के प्रति संचित घृणा के रूप में कथा-नायक के खलत्व में सीमाहीन प्रभाव-वृद्धि करती है .अपनी मार्मिकता के कारण ही शिवमूर्ति की अधिकांश कहानियां कहानी से वांछित प्रयोजनात्मक वर्जनाओं को संवेदना के धरातल पर शत –प्रतिशत घटित करनें में सफल हैं .
           इसमें संदेह नहीं कि शिवमूर्ति कथा-तकनीकों के जादूगर हैं . संवेदनात्मक और संवेगात्मक प्रभाव-वृद्दि के लिए उन्होंने अपनी अलग-अलग कहानियों में अलग-अलग तकनीक का प्रयोग किया है . शिवमूर्ति के पास कहानी कहने का ही नहीं बल्कि कहानी बुनने का भी बिलकुल अलग अंदाज और कला-कौशल है . उनकी कहानियो के चरित्र और शिल्प का निजी अंदाज है . सिर्फ 'सिरी उपमा जोग 'तथा 'ख्वाजा !ओ मेरे पीर 'को छोड़ कर, जिसमें अतीत का पुनर्कथन या स्मृति आधारित वक्तव्य-शिल्प का प्रयोग किया गया है तथा आंशिक रूप से
‘कसाईबाड़ा’  और ‘अकालदण्ड’ जैसी कुछ कहानियों को छोड़ कर शिवमूर्ति की अधिकांश कहानियों की कथन-भंगिमा आँखों-देखा हाल सुनाने की ही है . वे जीवंत वर्तमान कालिक प्रस्तुति के सिद्धहस्त कथाकार हैं .यह विशेषता भी उन्हें प्रेमचंद और रेणु की लोकप्रिय कथा-तकनीक से जोड़ती है .

      शिवमूर्ति की तुलना रेणु से करते हुए जब उन्हें मिथिला की जगह अवधी अंचल के आंचलिक कथाकार के रूप में देखा जाता है तो सिर्फ इतना ही व्यंजित होता है कि हिदी-पाठकों और आलोचकों को शिवमूर्ति के कथाकार की ऊँचाई और अवदान की समानता रेणु की प्रतिष्ठा से करने में कोई आपत्ति नहीं है . शिवमूर्ति के बारे में यह सर्वसम्मति से यह मान  लिया गया है कि वे अवधी आंचलिकता के कथाकार और दूसरे रेणु हैं . उनके पाठकों और आलोचकों की इस सम्मान-भावना का मैं सम्मान करता हूँ . मेरी आपत्ति इस पर नहीं है - मेरी दृष्टि में दोनों कथाकारों का भिन्न ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और विशिष्टता को लेकर उनकी मौलिक निजता मूल्याङ्कन के आधार के लिए अधिक महत्वपूर्ण है . मेरी आपत्ति रेणु के अवदान को लेकर उस प्रचलित समझ पर भी है जो कि शिवमूर्ति के साथ-साथ रेणु के भी साहित्यिक अवदान को सही -सही समझने में असमर्थ है .ऐसी दृष्टि रेणु के ऐतिहासिक अवदान को सिर्फ आंचलिकता तक समेट कर उनका भी अवमूल्यन ही करती है  . यह एक आलोचनात्मक सरलीकरण ही है . रेणु की आंचलिकता में भी मुद्रा-आधारित अमानवीय शहरी जीवन-बोध का व्यापक अस्वीकार छिपा हुआ है . रेणु का आंचलिक साहित्य संवेदनशून्य ,मुद्रा-आधारित यांत्रिक ,अर्थग्रस्त धन-पशुओं को निर्मित करने वाली;विसंगति, विडम्बना और अलगाव-बोध की शिकार शहरी बाजारू सभ्यता का समानांतर प्रतिरोधी पुनः पाठ वस्तु-विनिमय और श्रम-सहयोग आधारित सर्वपोषी जिस उदात्त किसान-संवेदना से करती हैं -उसे , आंचलिकता को किसी बाह्य अलंकार की तरह सिर्फ शोभा- कारक  कला-मूल्य मानकर देखने वाले नहीं देख पाते . रेणु की चाहे 'तीसरी कसम' कहानी हो या फिर 'लाल-पान की बेगम ',शहर और बाजार की क्रय-विक्रयवादी  मानसिकता से अपरिचित -सभी को रागात्मक आत्मीयता तथा सहजीवी समानता की सम्मान-भावना से देखने वाली किसान -सभ्यता ,संवेदना और मूल्य -दृष्टि ही रेणु -साहित्य का केन्द्रीय संप्रेष्य है .यह सच है कि आंचलिकता के साथ-साथ शिवमूर्ति के मानवतावाद का पक्ष और आधार भी किसान-संवेदना ही है ,लेकिन हिंदी के इन दोनों ही सर्वाधिक लोकप्रिय कथाकारों की भिन्न ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और चुनौतियां एक नहीं हैं . आजादी के तुरंत बाद का आशावाद रेणु -साहित्य को उत्सवधर्मी उत्फुल्लता देता है जबकि आपातकाल कि समवर्ती मोहभंग की चेतना शिवमूर्ति के कथा-साहित्य को व्यंग्यधर्मी अपने  समकालीनों और पूर्ववर्तियों के सापेक्ष शिवमूर्ति के कथाकार  का प्रतिभ अतिक्रमण तथा उनकी अनावर्ती पूरक मौलिकता के वैशिष्ट्य बिदु वास्तव में उनके उन सामाजिक-राजनीतिक पर्यवेक्षणों में छिपे हैं जो ही उन्हें  परिवर्तन कामी ,हस्तक्षेप कारी सृजन-शक्ति से सम्पन्न कथाकार बनाती हैं 
       शिवमूर्ति के कथाकार का मूल्याङ्कन करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी जगत में अपनी जिस 'कसाईबाड़ा 'कहानी को लेकर शिवमूर्ति को अभूतपूर्व ख्याति मिली थी ,उस कहानी नें आठवें दशक की समाप्ति और नवें दशक के आरम्भ के समकाल में व्याप्त भारतीय जन-मानस की आपातकालीन कुंठित-दमित अभिव्यक्तिहीनता को विद्युत्-कौंध के समान ही सब कुछ को बिना किसी लाग-लपेट के सही-सही व्यक्त कर देने वाली कथा-भाषा मिली थी . रेणु के सकारात्मक उत्सवधर्मी  उस आशाजन्य प्रमुदित कथालोक से अलग , संपूर्ण मोहभंग और निर्मम मुक्ति का सुख-जो दीर्घकालीन अवसाद के बाद सहसा भारतीय जनमानस में चिढ़-उपहास और व्यंग्यबोध के साथ स्वातंत्रयोत्तर नवजागरण के रूप में संपूर्ण क्रान्ति के मुक्ति-संवेगों को साहित्यिक अभिव्यक्ति देता है .इसतरह इतिहास की  समकालीनता की दृष्टि से शिवमूर्ति जयप्रकाश नारायण और जनता पार्टी के उभार तथा भारतीय जन-चेतना में व्याप्त तत्कालीन प्रतिरोध-भावना के सबसे प्रमाणिक एवं मर्मस्पर्शी भाष्यकर्ता कथाकार हैं .'सबसे' का प्रयोग मैं इस आधार पर का रहा हूँ कि उदयप्रकाश की उसी दौर की प्रसिद्ध कहानी 'टेपचू ' कहानी का जादुई यथार्थवाद ,टेपचू के चरित्र की प्रतीकात्मकता तथा 

         लेकिन शिवमूर्ति को पढ़ते हुए लोगों को रेणु की आस्वद्धार्मिता की याद आती है तो उसका आधार सिरी उपमा जोग ,'केशर कस्तूरी ' और ख्वाजा !ओ मेरे पीर ' जैसी सम्वेदनाधर्मी ,मार्मिक तथा वास्तविक जीवन को ही कथारूप प्रदान करने वाली अविस्मरणीय  कहानियां ही हैं शिवमूर्ति की बिम्बधर्मी काव्यात्मक भाषा के बावजूद इन कहानियों की ख्याति का आधार उनकी आंचलिकता नहीं बल्कि मार्मिक और विचलित कर देने वाली विश्वसनीयता है . रिपोर्ताज शैली होने के कारण आंचलिकता का एक कलात्मक वैशिष्ट्य के रूप में प्रयोग उनकी ‘अकालदण्ड’ और 'तिरियाचरित्तर ' जैसी कहानियों में चरमोत्कर्ष पर है . लेकिन रेणु के कथाकार  जैसी मुक्त -मन यायावरी की जगह शिवमूर्ति में निरिक्षण की एक विरल सूक्ष्मता और सजगता मिलती है उनका दृष्टिकार अब तक वर्जित अकथ को भी कथनीय बनाने की नयी से नयी युक्तियाँ और अवसर खोजता रहता है . वे जीवन की उन सच्चाइयों को भी कथा में ले आना चाहते हैं जिसकी ओर अभी तक किसी का ध्यान न गया हो . . तिरियाचरित्तर की विमली के चतुर्दिक कामुकता और अश्लीलता के परिवेश वाला समाजव्यापी पुरुषचरित्तर हो या या ‘ख्वाजा  ! ओ मेरे पीर का ‘ के मामा और मामी का असामान्य दांपत्य और समायोजी अभिसारी यौन-सम्बन्ध - जीवन के गोताखोर की तरह किसी भी गोते में वे कुछ भी ऐसा छोड़ना नहीं चाहते जो देखने से रह जाय .
     शिवमूर्ति की प्रभावशीलता का एक कारण यह भी है कि वे प्रायः अपने जिए हुए या अनुभूत का ही कथात्मक रूपांतरण प्रस्तुत करते हैं  .उनके आत्मकथ्य और जीवन में ख्वाजा ! ओ मेरे पीर 'आदि कहानियों के बहुत से अंश उनकी निजी जिंदगी और पारिवारिक पृष्ठभूमि से मिलते हैं . ‘त्रिशूल’ का महमूद तो अपने घर में रहने वाले जीवन-चरित्र का ही कथा-चरित्र में रूपांतरण है .योग्य निर्धन प्रतिभाओं को पहचान कर उन्हें उच्च-शिखर तक पहुचने जैसे गुप्त सहायता कार्यक्रम भी शिवमूर्ति अपने वास्तविक जीवन में भी चलाते ही रहते थे . संवेदनात्मक संकोच का निर्वाह  ही रहा होगा कि ऐसे संस्मरणों की चर्चा करने या उपयोग करने से सायास बचे हैं .
     शिवमूर्ति की कहानी ‘कसाईबाड़ा’  को पढ़ते हुए मुक्तिबोध की लंबी कविता अँधेरे में की याद अनायास ही नहीं आती . और उसमें भी वह अंश आकर आँखों के सामने ठहर जाता है .-हाय-हाय! मैंने उन्हें देख लिया है नंगा /इसकी मुझे कड़ी सजा मिलेगी .अंतर बस यही है कि अँधेरे में कविता में यह सजा  जहाँ उसके काव्यनायक 'मैं ' को मिलने वाली है ,वहीं 'कसाईबाड़ा ' में 'सनीचरी 'को मिलती है .दहेज़ रहित सामूहिक विवाह के नाम पर उसकी बेटी रूपमती को वेश्यावृत्ति के लिए बेच देने वाले ग्राम-प्रधान और उसकी पत्नी के अन्तिम आश्वासन में अनशन तोड़ने के नाम पर जहर मिला दूध पीकर हमेशा के लिए दम तोड़ देती है . सनीचरी की हत्या के बाद पुलिस द्वारा पोस्टमार्टम जैसे कानूनी रूप से आवश्यक अन्त्य-कर्म के लिए भी जिस प्रकार औपचारिकता निर्वाह के लिए भी राज्य -तंत्र का आगमन नहीं होता -वह आम हिंदी फिल्मों जैसा नाटकीय और अविश्वसनीय होते हुए भी तत्कालीन यथार्थ  की कलात्मक एवं नाट्य-रूपकात्मक प्रस्तुत की दृष्टि से  महत्वपूर्ण है  . इस प्रायोजन द्वारा जैसे कहानीकार कहना चाहता हो कि ‘सनीचरी’ वर्त्तमान राज्य-तंत्र के लिए नेपथ्य की या अवांछित उपस्थिति है , जिसकी मृत्यु की सूचना पाना भी उसके लिए जरुरी नहीं है .
        आपातकाल की ऐतिहासिक  पृष्ठभूमि में सृजित शिवमूर्ति की ‘कसाईबाड़ा’ कहानी की अँधेरी रात इतनी बहुआवर्ती ,अर्थगर्भी  एवं सांकेतिक है कि उसके निहितार्थों से ही तत्कालीन आपातकालीन ऐतिहासिक समय के केन्द्रीय चरित्र  का सम्पूर्णता में साक्षात्कार संभव है . ‘कसाईबाड़ा’ कहानी में जब सुगनी अर्द्ध-रात्रि के सघन अन्धकार में सामूहिक शादी के नाम पर  गाँव की कई लड़कियों को बेच दिए जाने तथा बदमाशों द्वारा आतंककारी  रूप में अपना पीछा किए जाने की सूचना देकर गायब हो जाती है तो आशंकाओं का अन्धकार और रहस्य और गहरा हो जाता है . कहानीकार सुगनी के किसी अपराधियों के गिरोह द्वारा  अपहरण कर लिए जाने की आशंका और कल्पना का कार्य पूरी तरह पाठकों पर ही छोड़ देता है .
           छोटी -छोटी बिम्बात्मक ,संकेतधर्मी नाटकीय प्रस्तुतियां काव्यात्मक सम्वेदनधर्मिता के साथ पाठकों की कल्पना को उत्तेजित करती हुई चलती हैं और आपातकालीन भारतीय सत्ता और समाज की संपूर्ण आपराधिक , अनैतिक , निरंकुश भयावहता का जीवंत संवेगात्मक अनुभव-संसार शिवमूर्ति की  जीवंत वर्णन-कला द्वारा चेतन-अचेतन सभी स्तरों पर साहित्य के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो जाता है . कहानी के बीच के अंशों में जनता की अबोधता और अज्ञानता का अन्धकार है , जिसे शिवमूर्ति नें व्यंग्य,घृणा आक्रोश और उपहास के मिले-जुले शिल्प में चित्रित किया है . अंग्रेजी का लूप शब्द मानों अशिक्षित लोकचेतना के अन्धकार में पहुंचकर संस्कृत के लुप्त तत्सम शब्द का तद्भव अपभ्रंश "लुप्प ' हो जाता है . जहाँ भारतीय लोकतंत्र और उसकी जनता आपराधिक और शातिर तंत्र -विशेषज्ञ  सत्ता पक्ष और तंत्र-अज्ञ शासित जनता में बदल जाता है . अनैतिक तंत्र -विशेषज्ञों द्वारा  अपहृत सत्ता का तंत्र उसे लोकतंत्र की अवधारणा से अलग  शोषक और शोषित  तथा शासक और शासित में ही नहीं  बल्कि शिकार और शिकारी में बदल देता है . इस दृष्टि से कसाईबाड़ा के फैंटेसी-चरित्र  अधरंगी की यह व्यंग्यात्मक टिप्पणी अत्यंत ही संकेताधर्मी और अर्थगर्भी है -"आदमी का शिकार करके पेट नहीं भरा तो चिरई का शिकार करके नहीं भरेगा दरोगा बाबू !" कथाकार नें तत्कालीन व्यवस्था पर इसतरह की अनेक साहसिक अभिव्यक्तियों के लिए  अर्द्धविक्षिप्त फैंटेसी चरित्र अधरंगी की सर्जना की है .’कसाईबाड़ा’ कहानी की कथावस्तु और चरित्रों  में रूपकात्मक , प्रतीकात्मक तथा फैंटेसी-कथा  होने की कलात्मक संभावनाएं ऐसी ही चरित्र-सृष्टि द्वारा कथाकार शिवमूर्ति नें पैदा की है .सिर्फ कथानक ही नहीं यहाँ तक कि उसका नाम तक एक निर्मम हत्यारे कारागार का आभासी प्रतिसंसार रचने वाला एक अर्थ-गर्भी रूपक है .    
इस प्रसंग या फिर तिरियाचरित्तर के विमली के उसी का यौन शोषण करने वाले ससुर विसराम द्वारा उसे दागने की सजा के रूप में दण्ड-विधान की कमान संदिग्ध और अपराधी हाथों में ही सौंप देने जैसे अनेक कथा-प्रसंग आस्था और आदर्श के प्रति विश्वास का निर्णायक निषेध प्रस्तुत करते हैं .कसाई बाड़ा में अधरंगी की  नेताओं की नस्ल पर यह टिपण्णी कि 'लीडर ,दगाबाज ,दो-मुहाँ  और दरोगा का घामाचा है(केशर कश्तूरी ,पृष्ठ १९ ) .-प्रशासन और नेतृत्व दोनों के ही चरित्र पर सम्पूर्ण अविश्वास की घोषणा है .
            दरअसल शिवमूर्ति की अधिकांश कहानियां संरचना के धरातल पर अपने समय के वृहत्तर यथार्थ का गहन एवं सांकेतिक नाट्य-रुपक प्रस्तुत करती हैं .कसाईबाड़ा जैसी उनकी प्रसिद्ध कहानी में तो यह नाट्य संयोजन दिखता भी है .प्रथम द्रष्टाया असंगत  और असामयिक लगने वाले कथा-प्रसंगों का विनिवेश  जैसे कि गाँव में तहकीकात के लिए गए दरोगा द्वारा ग्राम-प्रधान द्वारा पहले से पकड़ कर छोड़ी गयी वन -मुर्गियों के  शिकार का प्रसंग बिना किसी अतिरिक्त श्रम के पाठकों द्वारा भारतीय प्रशासन-तंत्र के ब्रिटिश औपनिवेशिक उत्तराधिकार वाले स्वरूप पर पूरा विमर्श खड़ा करने में सक्षम है .सत्ता का औपनिवेशिक अहंकार ,सिर्फ कहने के  लिए ही लोक-सेवक लेकिन व्यवहार में जनता से अलग अपने को श्रेष्ठ और विशिष्ट समझने की भावना,सामान्य जन के प्रति सहानुभूति और कर्ताव्यकारी संवेदनशीलता का अभाव अर्थात`जन-विरोधी चरित्र ही उसका प्रमुख लक्षण है ..
            कसाई बाड़ा में जन-इच्छा की सांकेतिक अभिव्यक्ति शिवमूर्ति अपने फैंटेसी चरित्र अधरंगी द्वारा की गयी इस घोषणा के द्वारा करते हैं कि "आज शाम पांच बजे .पांच बजे शाम को बिल्डिंग के सामने बबूल के ठूंठ पर लटकाकर गाँव के बेटी-बेचवा परधान और उसके बेटे प्रेम को फांसी दी जाएगी .आप सभी हिजड़ों से हाथ जोड़कर पराथना है कि इस शुभ अवसर पर पधार कर ..."(पृष्ठ १९)अधरंगी की विकलांगता भी अत्यंत सुचिंतित रूप से भारतीय जनता की असमर्थता और विवशता की ही प्रतीकात्मक और नाटकीय अभिव्यक्ति है ..
          शिवमूर्ति अपने वैचारिक निष्कर्षों एवं पर्यवेक्षण को किस प्रकार अपने पात्रों और चरित्र -परिकल्पना में ही निवेशित कर देते हैं ,इसे देखना है तो  उनकी अकालदण्ड ' कहानी के सामन्ती पृष्ठभूमि के चरित्र रंगबहादुर  की चरित्र-सर्जना को देखा जा सकता है . पूजी और सत्ता की नयी दुरभिसंधि नें  सामंती अवशेषों को किस प्रकार पाखंडी निरीह और पतनोन्मुख किया है इसकी सांकेतिक अभिव्यक्ति भ्रष्ट सत्ता के नए केंद्र सिकरेटरी द्वारा अपनी ही बेटी के शीलहरण  की संभावना भांप कर वह आत्म - भर्त्सना-"जा रे रंगिया साले "के रूप में करता है .अकालदण्ड में सुरजी और उसके प्रतिरोध को  जिसप्रकार वे भारतीय जनता के प्रतिरोध की प्रतीकात्मक और सांकेतिक और नाटकीय अभिव्यक्ति में जिस प्रकार बदलते हैं -यह भी उनके गंभीर रूप में सुचिंतित कथा-कौशल का ही प्रमाण है .सुरजी द्वारा हंसिए से सिकरेटरी  की देह के नाजुक हिस्से को अलग कर देने का दंड जहाँ प्रतिरोध को क्रातिकारी निर्णायक हस्तक्षेप तक ले जाने का सन्देश छिपाए है वहीँ पुरुषों की असमाधेय यौन-हिंसा से चिढ़े हुए समाज की भावना का कथात्मक विरेचन भी प्रस्तुत करती है .
          यथार्थ के अधिक से अधिक प्रमाणिक और सटीक अंकन के लिए शिवमूर्ति पृष्ठभूमि के विस्तृत रेखांकन तथा वैषम्य -चित्रण का भी भरपूर सहारा लेते हैं .कभी -कभी तो इतना अधिक कि उनकी कहानी किसी रिपोर्ताज का हिस्सा लगने लगाती है .उनकी अकालदण्ड कहानी का एक बड़ा हिस्सा अकाल पर लिखा एक ह्रदय -स्पर्शी और जीवंत रिपोर्ताज ही है .ग्रामीण परिवेश  का चित्रण करते हुए वे यह टिप्पणी करना भी नहीं भूलते कि "यही विद्युत्धारा  दूर-दराज के शहरों को रोशनी से जगमगा रही होगी .करोड़ों गैलन पानी से मीलों लम्बे पार्कों और विहारों को तर करते रंगीन फव्वारे छूट रहे होंगे लेकिन यहाँ गांवों के लिए इस शक्ति का कोई अर्थ नहीं है ."(केशर कस्तूरी ,पृष्ठ २९ ) इसीतरह सिकरेटरी के यौनाचारी  भ्रष्ट अतीत के रेखांकन के प्रसंग में  वे वेदानन्द जैसे उच्च नैतिक मूल्यों वाले  धर्मं-गुरुओं का परिप्रेक्ष्य सन्दर्भ भी देते चलते हैं तो दूसरी ओए पाखंडी -ढोंगी धर्म-गुरुओं के यहाँ  मुक्ति तलाशने वाली विधवा गुलाबो सहुआइन और सरजूपारी चाची जैसी महिलाओं का भी ,जिनके लिए धर्म का आवरण अपनी  अतृप्त यौन-इच्छाओं की पूर्ति करने का मानवेतर नहीं ,बल्कि समाज सम्मत अपमानवीय चोर -दरवाजा है -शिवमूर्ति की सजगता इसमें है कि वे स्वयं धर्म के विवादास्पद,नकारात्मक और अमानवीय संभावनाओं पर प्रत्यक्ष टिप्पणी कहीं नहीं देते .वे बहुत चालाकी से ऐसे संभावना स्थल के आस-पास अपने  पाठकों को ले जाकर उकसाकर छोड़ देते हैं .इतने पर्याप्त संकेतों के साथ कि पाठक चाहे तो उन चरित्रों को लेकर अपनी कल्पना से भी कथा -रचना कर सकता है .अकालदण्ड की गुलाबो सहुआइन और सरजूपारी चाची ऐसी ही कथा-चरित्र हैं जहाँ प्रसंगानुसार सूचनाएं देते हुए विषयांतर होने के भय से बचाते-बचते कहानीकार नें संकेतों में ही सही बहुत कुछ कह दिया है .तीर्थयात्रा में अयोध्याजी' जा रही सरजूपारी चाची  के संवाद की व्यंजन में ही पाठक से बहुत कुछ अकथ कह दिया गया है .देखें-"महंत जी की सेवा से लौटूं तो मेरे लिए भी एक हाथ-पाँव दबाने वाली चाहिए .और भी कोई ऊँच -नीच पड़ जाए तो परदेस है ,झेलना पड़ेगा ."(पृष्ठ ४३ )काशी-करवट या फिर तीर्थ-वास के नाम पर वृद्ध सेवा से पीछा छुड़ाने वाली भारतीय धर्म-व्यवस्था पर व्यंग्य कहानीकार इस भेदक टिप्पणी के साथ करता है -"सुरजी को भी 'मुक्ती 'का आसान रास्ता सुझाया था सरजूपारी चाची नें .खुद चलकर आयीं थीं .सुरजी की सास की 'मुक्ती ' और सुरजी की सास से 'मुक्ती ' दोनों साथ-साथ .सरजू जी में जल-समाधि दिलाकर ,'सरग' का द्वार चौपट खुला मिलता है इस रस्ते .खुद भगवान रामचंद्र जी इसी रास्ते गए थे अपने धाम ."(वाही ,पृष्ठ ४३ )लेखक नें इस प्रसंग का उपयोग सुरजी के चारित्रिक उभर के लिए किया है .क्योंकि वह अपनी अंधी-बूदी सास को पानी में धकेलने से मना कर देती है .शिवमूर्ति की कई कहानियां आधुनिकता बोध के साथ युग के बदले सन्दर्भों में मिथकों की नयी मानवीय पुनर्व्याख्या प्रस्तुत करती हैं .उदाहरण के लिए अविवाहित सिकरेटरी  के यौनाचारी स्वभाव वाले अतीत का रेखांकन वे ब्रह्मचारी माने जाने वाले मिथकीय चरित्र हनुमान के औरस पुत्र  मकरध्वज का पौराणिक सन्दर्भ देकर करते हैं .मिथकों के भीतर छिपे मानवीय यथार्थ और सच को उद्घाटित करने वाले  उनके पुनः पाठी सन्दर्भ विद्युत् की आकस्मिक कौंध की तरह कहानी की कथावस्तु  के अवशिष्ट अकथित पक्षों को अकल्पनीय विस्तार और आयाम में प्रकाशित कर जाते हैं-"कहते हैं उनके पसीने में इतनी ताकत आ गयी है कि मकरध्वज जैसा पुत्र पैदा हो जाए .कहाँ नहीं हैं उनके पसीने के मकरध्वज  ?मध्यप्रदेश के जंगल हों या स्वामी वेदानन्द जी के आश्रम का पडोसी मोहल्ला ,आश्रयदाता सेठ की हवेली हो या सूखापीडित  क्षेत्र के गाँव .जहाँ थोड़ी भी छाँव मिली कि मकरध्वज ."(वही ,पृष्ठ ३७ )आधुनिक यथार्थ के अनुरूप अतीत की मिथकीय कथाओं की व्याख्या  के साथ धर्म में छिपे अतीत के संदिग्ध स्थलों में पाखंडों की पड़ताल  शिवमूर्ति के कथाकार को एक गंभीर एवं प्रबुद्ध सामाजिक विमर्शकार की अतिरिक्त प्रतिष्ठा देती है .
               शिवमूर्ति की 'अकालदण्डकहानी  तो लोकतान्त्रिक सत्ता के  ही पूंजीवादी मानसिकता के साथ एक नए शोषक वर्ग के हाथों में चले जाने की सूचना देती है .औद्योगिक पूंजीवाद और सत्ता के नए गठबंधन नें शोषकों की बिलकुल नयी पीढ़ी को जन्म दिया है .इस नए शोषक वर्ग के लिए बीते युग की सामंती शक्तियां भी उपयोग ,सुरक्षा और धनार्जन का संसाधन है .यह उन्हें किस प्रकार अधीनस्थ बनाकर उनका दोहन करता है इसे न सिर्फ रंगबहादुर के प्रसंग में देखा जा सकता है  बल्कि कहानी से बाहर भी बड़े-बड़े होटलों और मालों के मुख्य द्वार पर सामंत- युगीन शान की प्रतीक मूंछों को दरबान या फिर महाराजा की वेशभूषा  तथा भूमिका में उपभोक्ताओं को झुक-झुक कर  सलाम करते हुए देखा जा सकता है .अकालदण्ड कहानी  भ्रष्ट नौकरशाहों की विलासिता ही नहीं ,बल्कि सामंती युग की सामाजिक शक्तियों के अवसान ,पराभव तथा भ्रष्ट सत्ता-नियामकों  की निरंकुश अनैतिक जीवन-चर्या का बेबाक चित्रण करती हैं .यहाँ तक कि बाह्य सामाजिक प्रतिष्ठा ,भव्य पुरानी गढ़ी ,विशाल परिसर ,दो -नाली बन्दूक ,भव्य व्यक्तित्व और शानदार मूंछों के होते हुए भी सामंती अतीत का वारिस  रंग बहादुर नए ज़माने की सत्ता के प्रतीक तथा भ्रष्ट प्रतिनिधि सेक्रेटरी से उसके अधीन नौकरी कर रही अपनी पहली बेटी को यौन शोषण से नहीं बचा पाता .कहानी के अंत में सुरजी का प्रतिशोध  प्रतीकात्मक रूप से ही सही सुरजी के बहाने सदियों से निम्न और उपेक्षित समझी जाने वाली हाशिए की उस जनता परिवर्तन और क्रान्ति का दारोमदार डाल कर उसके प्रति विश्वास व्यक्त करती है जिसमें अब भी शक्ति बची हुई है .जो अप्रत्याशित रूप से एक नए दण्ड विधान का इतिहास रच सकती है .इस दृष्टि से देखें तो कहानी के शीर्षक का पहला शब्द 'अकाल 'जहाँ समस्या और अभाव -सूचक है तो दूसरा शब्द 'दण्ड  न्याय-चक्र के नए विधान का .'सामंती पूंजीवाद का नए ज़माने के औद्योगिक पूंजीवाद के सम्मुख घुटने टेकना एक ऐतिहासिक तथ्य तो है ही मार्क्सवाद सम्मत भी .कहानीकार नें रंगबहादुर उर्फ़ रंगी बाबू की इस पतन -यात्रा को अत्यंत तनावपूर्ण घटना -क्रम में संवेदनशीलता और सहानुभूति के साथ  सजीव रूप में प्रस्तुत किया है .रहस्य ,कौतूहल ,सांकेतिक चित्रण  के साथ भूतपूर्व सामंत रंग बहादुर जब अपनी ही गाल पर थप्पड़ मरते हुए स्वयं को 'रंगिया साले 'संबोधित करता है तो उसके अपमानजनक हश्र और निरीहता को देखते हुए पाठक के लिए कुछ भी समझाना जानना शेष नहीं रहता .मार्क्सवादी विचारधारा की बिना कहीं प्रकट चर्चा के भी 'अकाल दण्ड ' कहानी सामाजिक शक्तियों के उत्थान -पतन की मार्क्सवाद सम्मत समझ दारी भी अपने पाठकों को सौंप जाति है .नयी पूंजीवादी सत्ता का प्रतीक चरित्र सेक्रेटरी जहाँ पतनशील भारतीय लोकतंत्र की चारित्रिक समीक्षा भी है तो रंग बहादुर उर्फ़ रंगी उर्फ़ रंगिया तथा उसकी बेटी माला सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के तीव्र दौर में झूठे दंभ के सहारे गत युगीन प्रतिष्ठा बचाए रखने के प्रयास में  अपना शील गंवाती रहती है .संन्तो द्वारा पाखण्ड जीने की विवशता और उनकी वास्तविक निरीहता को शिवमूर्ति नें अत्यंत सूक्ष्मता  एवं प्रमाणिकता के साथ अंकित किया है . कहानी का उपरी वृत्तांत और केन्द्रीय घटनाशीलता  भले ही आर्थिक निरीहता में यौन शोषण के आपराधिक प्रयास और उसके निवारण के लिए अपेक्षित जन-प्रतिकार की प्रस्तावना करने वाला हो -पूरी कहानी अनेक सजीव चारित्रिक बिम्बों से रची गयी किसी लम्बी कविता की तरह बहुत से आयामों ,अनुभवों ,सामाजिक समस्याओं ,चिंताओं एवं मानवीय संवेगों -आवेगों से निवेशित एवं आवेष्ठित  है .शिवमूर्ति की कहानियां शिल्प-संरचना के स्तर पर इस विधा की बहुआयामी सार्थकता के लिए गंभीर  वैचारिक आयाम देती है . शिवमूर्ति की अन्य कहानियों की तरह ' अकालदण्ड ' कहानी भी  अनेक संरचनात्मक स्तरों को समेटे हुए है .कहानी अपने भीतर अकाल पर लिखी एक गंभीर और सम्पूर्ण रिपोर्ताज छिपाए हुए है .
      उसके दुश्चरित्र की असलियत को सामने लाने वाले किसी भी अवसर के सार्थक इश्तेमाल से वे चूकते नहीं-भ्रष्ट नौकरशाही के पतन का एक आयाम अकालदण्ड  कहानी में नर बहादुर सेवादार द्वारा कर्मचारी रामफल पर की गयी इस टिपण्णी में भी है -"कितनी बार किसी का बाप मरता है ,इसका हिसाब होना चाहिए .साल भर में दो बार मर चुका सेवादार का बाप .अभी कोई चाहे तो लखपतिया  की झोपड़ी में घुस कर रंगे हाथ पकड़ सकता है उसके साथ में कैम्प का दस-बीस किलो राशन भी निकाल आएगा ."(केसर कस्तूरी ,पृष्ठ ३१ )
            सबसे अधिक आंचलिक प्रतीत होने वाली शिवमूर्ति की 'अकालदण्ड " कहानी  शिवमूर्ति की कहानी-कला का एक और रहस्य खोलती है .शिवमूर्ति की कहानियां वस्तुतः अपने समय के वृहत्तर यथार्थ को अवध की स्थानीय पृष्ठभूमि में आंचलिक पुनर्रचना ही करती हैं .इस तरह उनकी कई कहानियों का 'आचलिक' नाटकीय और कलात्मक है . वह रेणु की कहानियों की तरह हर बार पूरी शुद्धता या सीमितता के साथ आंचलिक नहीं है .अपने समय और यथार्थ की  विकास तथा पतनशील अधिक जटिलता के कारण  शिवमूर्ति की कहानियां अधिक समाजवैज्ञानिक तथा राजनीतिक बोध -दृष्टि से सम्पन्न हैं . अकालदण्ड कहानी में वर्णित अकाल शिवमूर्ति की स्मृतियों में सुरक्षित 1966 की उत्तर-भारत में पड़े अकाल की याद दिलाता है  . स्वतंत्रता के पूर्व ब्रिटिश काल में बंगाल का अकाल और स्वतंत्रता के बाद कालाहांडी का अकाल ही कहानी में वर्णित अकाल की समानता कर सकते हैं .स्पष्ट है कि कसाईबाड़ा कहानी की चयनधर्मी नाटकीय कथावस्तु की तरह अकाल दण्ड कहानी भी एक साथ ही तात्कालिक एवं आंचलिक यथार्थ से सम्बद्ध एवं असम्बद्ध  नाटकीय कथा-रूपक ही है .यह अवध के मजदूर वर्ग की स्थानीय स्त्री-चरित्र विमली के रूप में  जितनी आंचलिक है तो स्वतन्त्र भारत की नौकरशाही को ब्रिटिश औपनिवेशिक शोषक चरित्र की आपराधिक उत्तराधिकार एवं संस्कार में दिखने के कारण कालान्तरणकारी एवं सार्वभौम  भी .हिन्दी के पूर्ववर्ती  सफल कहानीकारों की कला-तकनीकों के बेहतर का अपनी कहानी कला में निवेश करने के बावजूद शिवमूर्ति का कहानीकार अद्यतनता और मौलिकता की दृष्टि से यदि स्पष्ट पहचान और प्रतिष्ठा की छवि स्थापित कर लेता है तो  सिर्फ इसीलिए कि शिवमूर्ति की कहानियां मानव अस्तित्व के लिए आवश्यक सनातन संवेदनशीलता और उसके प्राकृत पर्यावरण के पक्ष में खड़ी होकर  आधुनिक शहरी औद्योगिक व्यापारिक संवेदनहीन सभ्यता की निर्मम एवं मोह रहित समीक्षा करती हैं .
           वर्त्तमान के आँखों देखा हाल की तरह रिपोर्ताज और यात्रा -वृत्तांत के मिले -जुले विधा -रूप की तरह निजी अनुभवों और पर्यवेक्षणों से चरित्रों को केंद्र में रखकर बुनी गयी शिवमूर्ति की कहानियां आरम्भ से ही अपने पाठकों को एक सही संवेदनात्मक पक्ष सौंपकर अस्वस्थ एवं विरोधी यथार्थ का पर्दाफाश करती चलती हैं .उनकी लोकप्रियता का भी आधार यही है कि वे असामान्य का नहीं बल्कि सामान्य का ही प्रतिनिधिक विशेष रूप प्रस्तुत करते हैं . बहुत नजदीक से दिखने के कारण विरल प्रतीत होते हुए भी एक व्यापक वर्ग का प्रतिनिधित्व उनके कथा-चरित्र करते हैं . तिरियाचरित्तर की विमली को ही देखें तो अपने नाम के अनुरूप विमल होते हुए भी सिर्फ अपनी आर्थिक ,पारिवारिक और स्त्री लैंगिक सामाजिक परिस्थितियों के कारण वास्तविक अपराधी पुरुष-प्रधान समाज के द्वारा अपमानित और लांछित होती है .कहानीकार का निष्कर्ष और पक्ष पूरी तरह स्पष्ट है और शिवमूर्ति की तिरियाचरित्तर कहानी अपने अंत तक पहुंचते-पहुंचते व्यंग्यात्मक निष्पत्ति के साथ पुरुष-चरित्तर के सारे रहस्य खोल देती है
           बहुत नजदीक से इस कहानी में भारतीय स्त्री के प्रेम का समाजशास्त्र ,उसकी परिस्थितिकी ,सांस्कृतिक चित्ति ,नारी मनोविज्ञान और भारतीय परिवेश में उसकी दुश्चिंताएं ,चरित्र को लेकर नौकरीपेशा औरतों पर होने वाले आक्षेप आदि का विस्तृत रेखांकन शिवमूर्ति नें किया है . भारतीय समाज और व्यवस्था आज भी स्त्री स्वावलंबन के अनुरूप नहीं हो पायी है .बचपन में पिता की अधीनता और वयस्कता में पति की अधीनता ही किसी भारतीय स्त्री की सुरक्षा है .इससे भिन्न मानवीय परिस्थितियां किस प्रकार त्रासद और विडंबनात्मक हो सकती है शिवमूर्ति नें इसे तिरिया चरित्तर  कहानी के माध्यम से दिखाया है . पिता की विकलांगता के कारण और अकेली संतान होने के कारण विमली को पुरुष-प्रधान भारतीय समाज में स्वावलंबन और  व्यक्तित्व-विकास का जो अवसर मिलता है -वह विमली को कीर्ति से अधिक अपकीर्ति ही देते हैं .-"कुछ भी हो ,लेकिन बदनाम रही है पुतोहू मायके में ...."(पृष्ठ १२०)बात-बात में मिथकों को जीने वाला भारतीय समाज सामने खड़ीं जिंदगी के भीतर के सच को पहचान नहीं पाता . विमली के साथ घटित उसके ही शातिर ससुर के दुराचार को जानने वाले पाठक के लिए कथाकार द्वारा पुजारी जी के मुख से कहलाई गयी यह टिप्पणी एक नया व्यंग्यार्थ खोलती है- एक झटके में ही कथाकार विमली के साथ घट रहे पुरुष आचार को इस पौराणिक प्रसंग का सन्दर्भ देकर जसे पूरी सभ्यता को ही प्रश्नांकित कर देता है -"लछिमन जी नें तो इससे छोटी गलती पर नाक-कान दोनों काट लिए थे ."( वही ,पृष्ठ १२१ ) शिवमूर्ति भारतीय स्त्री की दशा-दिशा को गढ़नें में एक सुचिंतित -पूर्वनियोजित मिथकीय सांस्कृतिक तंत्र की पार्श्ववर्ती भूमिका की और ध्यान दिलाना नहीं भूलते . जब वे ऐसा करते हैं तो वह एक स्तब्ध करने वाला दृष्टिपात होता है .मार्क और बेधक सच वाले ऐसे दृष्टिपात के पास कहानी को दो या तीन पंक्तियों से अधिक वे नहीं ठहरने देते . कुछ वैसे ही जैसे इंजेक्शन लगने के समय डाक्टर अपने रोगी का ध्यान किसी दूसरी  ओर हटा देते है . चाहे अकाल दण्ड कहानी में बाल ब्रह्मचारी कहे जाने वाले हनुमान जी के मकरध्वज होने वाला प्रसंग हो या लक्षमण द्वारा सुपर्णखा की नाक और कान काट लिए जाने का प्रसंग -शिवमूर्ति उनकी पौराणिक व्याख्या से अपनी युगीन असहमति को छिपाना नहीं चाहते  . कसाईंबाड़ा के अधरंगी की तरह सच बोलने वाली स्त्री पात्र  'मनतोरिया की माई ' के मुख से व्यवस्था के नियामकों को प्रश्नांकित करा कर भी शिवमूर्ति स्त्री विरोधी भारतीय समाज और व्यवस्था के पुरुष -चरित्तर को उसकी चरम अन्यायिक परिणति तक पहुँचने देते हैं .प्रायः अपने कथा-परिवेश के लिए आंचलिक मानी जाने वाली 'तिरियाचरित्तर ' कहानी भी 'कसाई बाड़ा  कहानी की तरह भारतीय स्त्री के आधुनिकता विरोधी नकारात्मक पूर्वाग्रहों ,सामाजिक मानसिकता  और  मनोविज्ञान के सभी आयामों को उद्घाटित करने वाला नाट्यरुपक ही है.विमली की जगह कमला या ईंट भट्टे की जगह ऑफिस रखा देने से भी कोई विशेष फर्क नहीं पड़ना है .शिवमूर्ति  नें विमली को रचा ही इस तरह से है कि वह भारतीय स्त्री मात्र की पीड़ा का अधिकतम प्रतिनिधित्व कर सके .एक मात्र सच बोलने वाली मनतोरिया  का पति जब उसका बाल पकड़कर पंचायत से बाहर ले जाता है तो कहानीकार व्यंग्यात्मक टिप्पणियों का एक भी पल हाथ से बाहर जाने नहीं देता -"अपने आदमी को क्या कहे वह आदमी तो आदमी हठी हाथी होता है महावत  महावत ,चाहे कितना ही कमजोर महावत क्यों न हो !"(पृष्ठ १२२)दुराचारी ससुर द्वारा ही पंचायती निर्णय के अनुसार दागे जाने के अवसर पर लेखक पूरे समाज के ही यौन -कुंठित होने की सूचना देता है-'' कई नौजवान पतोहू को हाथ-पैर और सिर पकड़ कर  लिटा देते हैं ? कसकर दबाओ .जो जहाँ पकडे वहीँ मांसलता का आनंद ले लेना चाहता है.नोचते -कचोटते ,खींचते ,दबाते हाथ "(वही ,पृष्ठ १२२ ) कहानी का अंत करने से पहले एक बार फिर मिथकीय प्रसंग के बहाने संस्कृति -विमर्श की और वापस लौटता है कथाकार .यह याद दिलाना नैन भूलता कि पुरुषों द्वारा रचे गए शास्त्रों में स्त्री का सही और न्यायिक पक्ष पूरी तरह अनुपस्थित है .तब जब पुजारीजी भारी मन से कहते हैं -तिरिया-चरित्र समझना आसान नहीं .बाबा भरथरी नें झूठ थोड़े कहा है .तिरिया चरित्रम पुरुखष्य भाग्यम ...''(पृष्ठ १२३ ) और उसके पहले सीधे-सीधे कथावाचक 'मैं ' यानि लेखकीय टिप्पणी के रूप में -'इतने दिनों बाद फिर दुहराई जा रही है महाभारत की कथा - भरी सभा में लाचार औरत की बेइज्जती ! इसके कारण भी कोई महाभारत होगा क्या ? काहे भाई ! ई कोई रानी -महारानी है ?"(वही ,पृष्ठ १२३ )
      इस कहानी की संरचना को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि तिरियाचरित्तर कहानी सम्पूर्ण सामाजिक परिवेश का स्त्री केन्द्रित पाठ प्रस्तुत करती है .यदि यह कहें कि कहानीकार विमली की आँखों से ही पाठकों को पूरी व्यवस्था को देखने-समझाने का आग्रह करता है .स्त्री जाति का समस्त अनभिव्यक्त आक्रोश विमली के हश्र और उसकी असहाय-असह्य  घृणा में व्यक्त हो उठा है . समाज में कभी-कभी दिखने-घटने वाली विरलतम घटना को आधार बना कर लिखी गयी यह कहानी विमली के साथ अपने एक तथाकथित संरक्षक द्वारा ही छले जाने और दुखान्त घटित होने से पहले ही भारतीय समाज में एक कामकाजी स्त्री की नियति ,दिनचर्या और जीवनानुभवों का अत्यंत ही प्रमाणिकता और सूक्ष्मता से वृत्तांत उपलब्ध कराती है . यह समझना भूल होगा कि कहानी सिर्फ विसराम का ही काम-खलत्व प्रस्तुत करती है . विमली के पास उसके परिस्थितिजन्य सात्विक जीवन का एक ही पाठ है लेकिन समाज के पास अनेक-"एक किस्सा हो तो बताए कोई ! नैहर में तो इसके पीछे रोज एक किस्सा तैयार होता था . इतने किस्से पीछे छोड़ कर आई थी कि बताने लगे तो पूरी रामायण बन जाएगी "पाठक आसानी से यह अनुमान लगा सकता है कि विसराम की इस घोषित सोच से अलग कि साथ छूट जाएगा तो सारा किस्सा अपने आप खत्म हो जाएगा .वह विमली की विदाई कराने के लिए प्रेरित ही समाज में उसे लेकर व्याप्त उन कुचर्चाओं को सच मानकर हुआ था कि कि उस यौनाचारिणी बहू से वह भी आसानी से यौन सम्बन्ध स्थापित कर सकेगा .विमली को लेकर एक सर्वव्यापी कामुकता जैसे सारे संसार में छाई हुई हो ;कुछ -कुछ सूफी कवि जायसी के यहाँ मिलने वाली आकाश-पाताल एक करने वाली सर्वव्यापी विरह भावना जैसी .शिवमूर्ति जैसे समाज में मिलने वाली कामुकता का दर्शन कराने ही चले हों .उसकी विभिन्न छटाओं और मुद्राओं का ,उसके भ्रामक आकलनों का -जहाँ घटित को स्थगित कर संभावनाएं हवा में उड़ती हैं ;जहाँ जो कुछ भी हो सकता है सब सच है . अश्लील हंसी-मजाक ,इशारे और कुइसा मिस्त्री का प्रेम -प्रस्ताव जो अपवाद होते हुए भी प्रेम को कामुकता से नहीं बल्कि अस्तित्व के सहज स्वाभाविक आकर्षण और जीवन की उपलब्धि तथा सार्थकता से जोड़कर देखता है .स्वार्थी किन्तु काम-भावना का एक सात्विक प्रतिपाठ है कुइसा मिस्त्री का प्रसंग .कुछ-कुछ पौराणिक चरित्र नारद-मोह प्रसंग वाले नारद का जो प्रेम-प्रभाव में हास्यास्पद और अपमानित होते हुए भी नायिका का मान -सम्मान बढ़ाते हैं .कबीरपंथी पिता के पुत्र शिवमूर्ति  ने उसके एकपक्षीय प्रेम के दुखांत को इस दोहे का सन्दर्भ देकर कुछ पंक्तियों में ही समेत दिया है -
 "माया केरी पूतरी ,तन तरकस मन बान !
तिरिया धावै रथ चढ़ी ,पुरुखहिं करइ निसान !"
तिरियाचरित्तर कहानी का आरम्भ भी विमली और उसके एक दुर्घटना का शिकार होकर बेकार हाथों वाले पिता के साथ ईंट-भट्ठे के बोझा -मिस्त्री कुइसा के नारी-प्रेम से ही होता है .कहानीकार की यह रोचक टिप्पणी उल्लेखनीय है कि ' अपनी -अपनी पसंद .कुइसा को औरतों की गलियां ,और मिल जाए तो धक्का खाना पसंद है . अगर चार औरतें मिलकर उसे नदी में डुबोने लगें तो भी वह इंकार नहीं कर सकता ." (केसर कस्तूरी ,पृष्ठ ८२ )कुइसा एक प्रतिनिधि मानसिक यौनिकताजीवी व्यक्तित्व है .एक कल्पनाजीवी प्रेमी .बिल्लर उसका समवयस्क सहकर्मी है .दोनों ही विमली के यौन आकर्षण से अपने-अपने ढंग से जूझते हैं .जूझते तो धीर-गंभीर प्रेमी मूंछों वाले डरेवर बाबू भी है .ये सभी चरित्र प्रेमियों की अलग-अलग कोटि से पाठकों को परिचित कराती है .विमली के इस वृहत्तर परिवार या विस्तार को यह समाज आज भी पूरी तरह समझने या उसको मान्यता देने में असमर्थ है .  इन्हीं संबंधों के कलंक का साक्ष्य देकर विसराम उसे पंचायत से दण्ड पारित करवाता है .भारतीय स्त्री के लिए यौनिकता एक पराई अमानत है . विमली उसे ही विभिन्न खतरों से बचाती आई थी . शिवमूर्ति नें भारतीय स्त्री के लिए इस समाज को ठीक ही बीहड़ या जंगल का रूपक दिया है .जहाँ कितने जानवर और शिकारी पद-पद पर मिलते हैं .कहानीकार उसे मुकाम तक सुरक्षित पहुंचकर भी लुट जाना कहता है और छल से मेड द्वारा ही खेत का खा जाना ..यौन-कुंठित भारतीय समाज से सम्बंधित शोध भी इसकी पुष्टि करते हैं कि अधिकांश मामलों में स्त्रियों के प्रति लैंगिक अपराध निकट सम्बन्धियों द्वारा ही होते हैं .यौन -प्रसंगों को लेकर कहानीकार का मजाकिया और खिलंदड़ा अंदाज ही तिरियाचरित्तर कहानी को एक अश्लील कहानी बन जाने से बचाता है और वह भारतीय काम-विमर्श पर  केंद्रित हिंदी की एक विशिष्ट और अविस्मरणीय  कहानी बन पाती है
       आखिरी छलांग में आखिरी छलांग का अमूर्तन यथार्थ पर मानवीय जिजीविषा के संघर्ष और उसकी विजय की प्रत्याशा के पक्ष में है .इसमें संदेह नहीं कि बाजार व्यवस्था मानव निर्मित एक ब्लैक होल बन गयी है ,जिसमें आधार -सभ्यता (किसान 
         



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      राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,

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सोमवार, 16 जनवरी 2017

"मैंने अपना ईश्वर बदल दिया है " पुस्तक की भूमिका का कुछ अंश

जब हम ईश्वर के अस्तित्व के बारे में सोच रहे होते हैं निश्चित रूप से पूरी दुनिया और अपने जीवन के अस्तित्व के प्रति आश्चर्य से भरे होते हैं .निश्चय ही यह अनुभूति एक बड़ी और उदात्त कविता की अनुभूति जैसी है .एक ऐसी कविता जो अपने अस्तित्व के लिए कृतज्ञता और धन्यवाद भावना से भरी हो .मुझे लगता है कि ईश्वर के प्रति हमारी आस्था के मूल में सम्पूर्ण अस्तित्व के प्रति हनारा कृतज्ञता ,आश्चर्य ,धन्यता और आत्मीयता से भरा वह अभिन्न सम्बन्ध ,रिश्ता और आकर्षण ही है जो आध्यात्मिक अनुभूति के रूप में हममे प्रकट होता है .मेरे लिए सच्ची आध्यात्मिकता इसी उदात्त अनुभूति और अर्थवत्ता की खोज है | ईश्वर इसी बड़ी कविता का प्रतीकात्मक प्रत्यय है | मेरे लिए इसी उदात्त अनुभूति और कविता को जीना ही ईश्वर को जीना है | लेकिन संसार के सारे प्रचलित धर्म और उनके अंध अनुयायी इसी उदात्त कविता को जीने के अधिकार को रोकते हैं | प्राचीन काल से ही जंगली कुत्तों में मिलने वाले व्यवहार की तरह सिर्फ ,नेतृत्व ,शासक या राजा को ही नहीं रोका गया है या फिर साधु ,फकीर नबी ,पैगम्बर या अवतार माने जाने वाले गिने-चुने व्यक्तियों को ही उन्मुक्त अस्तित्व की यह आदिम कविता जीने का अधिकार मानव-जाति नें दिया है | मैं जब अपने अस्तित्व और अस्मिता को लेकर अपने हिस्से की उदात्त अनुभूति और कविता जीना चाहता हूँ –देखता हूँ उसकी सूचना मात्र से लोग घबरा जाते हैं | वे इस कविता को जीने से डराने लगते हैं .उन्हें यह खतरनाक बात लगती है कि कोई इस सृष्टि से अपने अभिन्न रिश्ते को सम्पूर्णता से रिश्ते को जीने की मांग कैसे कर सकता है ? विगत में यहूदियों के  नेतृत्व मूसा द्वारा लगाए गए ऐसे ही प्रतिबन्ध के कारण ईसा मसीह को ऐसी ही कविता जीने के अपराध में सूली पर चढ़ा दिया गया था  .
             मेरा सीधा सा प्रश्न है कि हम ब्रह्माण्ड से अपने रिश्ते को सीधे-सीधे क्यों नहीं जी सकते ? क्या सिर्फ इस लिए कि सामंती नेतृत्व वाले पिछले धार्मिक समाजों  नें सभी को ऐसा अधिकार जीने के लिए वर्जित किया है |क्योंकि जीवन अनेक रूपों-प्रारूपों में है और लगभग एक भीड़ के रूप में भी | .सामूहिकता और सामाजिकता की सह-अस्तित्वपूर्ण भावना हमें अपनी प्रजाति की सामूहिकता के पक्ष में इस सृष्टि को अकेले ही जीने के अधिकार से रोकती है | भारत में प्राचीन काल में इस कविता को जीने की घोषणा गिने-चुने लोगों नें ही की है .संख्य-दर्शन के प्रवर्तक कपिल ,महर्षि पतंजलि ,विश्वामित्र ,शंकराचार्य ,गोरखनाथ और कबीर आदि इतने ही नामों के लिए मैं अपनी स्वीकृति प्रदान कर पाता हूँ | महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध की कविता का भी अलग संवेदनात्मक  महत्त्व है लेकिन  वह सम्पूर्ण प्रकृति की तुलना में मानव-प्रकृति की दार्शनिक व्याख्या से अधिक सम्बंधित है | वह सीधे-सीधे सम्पूर्ण अस्तित्व को उदात्त भाव-रूप में जीने से सम्बंधित नहीं है | पश्चिम में ईसा ही इस कविता को जीने का दुस्साहस करते दिखते हैं | 
                 इस भावाधिकार को मैं सृष्टि को अपने अस्तित्व और अस्मिता से जोड़कर जीने के भावाधिकार के रूप में देखता हूँ | इस दृष्टि से इस्लाम भी  मुझे एक निषेधात्मक धर्म ही लगता है | जहाँ इस कविता को जीने से ही सभी को एक साथ मना  कर दिया गया है | इसी दृष्टि से इस्लाम और भारत के पुरोहित-जातीय धर्म को मैं प्रकृति निषेधात्मक धर्म ही मानता हूँ | ये दोनों एशियाई धर्म सृष्टि से जीवन के रिश्ते को सीधे-सीधे जीने देने के पक्ष में नहीं हैं | ये कबीले और जाति के पक्ष में व्यक्ति-जीवन को निरीह बनाने और बताने  वाले धर्म हैं | ये चाहते हैं कि मनुष्य उस अस्मिता को जिए ही नहीं और सृष्टि से अपने प्रत्यक्ष रिश्ते को प्रजाति के प्रत्यय के पक्ष में समर्पित कर दे | मैं जब अपने ईश्वर को बदलने की मांग कर रहा हूँ तो इसी निषेधात्मक निरीह बनाने वाले ईश्वर की अवधारणा  को अस्वीकार करने की घोषणा कर रहा हूँ |
            आज  हमारे समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके लिए ईश्वर एक कालातीत विषय हो चुका  है | मार्क्सवाद और वैज्ञानिक चेतना के प्रभाव से उन्हें लगता है कि ईश्वर को चिंतन और रचना का विषय बनाना ही समय की बर्बादी है | बहुत से लोग जो धार्मिक अर्चना और वर्जना की पुरानी आदतों से बाहर निकल गए हैं ;उनके लिए ईश्वर की अवधारणा  को स्वीकार करना एक खास तरह की जीवन-पद्धति और पूर्वाग्रहों सहित पिछड़े समय की सामाजिक आदतों को भी पुनः  स्वीकार करने जैसा है | यदि दुनिया का एक बड़ा हिस्सा ईश्वर की अवधारणा के बिना भी नैतिक और अनुशासित होकर जीना सीख गया है तो क्या जरुरत है उसे वहां से विस्थापित कर पुरानी दुनिया के विश्वासों में ले जाने की ? मार्क्स से सहमत होते हुए बहुत से ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो बिना ईश्वर के ही पूरे आत्म-विशवास के साथ जीना और सोचना चाहते हैं | क्योंकि अतीत में ईश्वर के नाम पर भी सवेदित जन-समुदायों नें बहुत से नरसंहार और सामुदायिक अपमान किए हैं | अतः हमें ईश्वर की अवधारणात्मक शुद्धता और उसमें शामिल मानव-व्यवहार के हिस्से को साफ़-साफ़ अलगाने का निर्णय लेना ही  होगा | ताकि हम तय कर सकें कि प्रभाव और दुष्प्रभाव अवधारणा की कमियों के कारण है कि संगठनों और उसके नेतृत्व के चलते !
             मुझे यह भी  लगता है कि ईश्वर और मनुष्य के रिश्ते पर विचार करते समय प्रकृति की पूर्ण अस्मिता को न जी पाने की उसकी अपूर्णता -जो उसे पूर्ण होने के लिए सामाजिकता की ओर ले जाती है ;उसे भी ध्यान में रखना होगा | भेड़िए ,हाथी मधुमक्खी एवं चींटी आदि प्रजातियों की तरह मनुष्य भी एक सामाजिक प्राणी है | इतिहास के जंगली चुनौतियों वाले दौर में जब चारों ओर शिकारी ,संकट और मृत्यु की संभावना ही विचरती होगी -बहुत से संकटों का सामना तो अतीत का मनुष्य समूह में ही कर पाया होगा , जैसे सुरक्षा में तैनात कुछ लोगों के जागने की कीमत पर कुछ लोगों को सोने दिया जाता है | इस तरह सामजिकता का जैविक आधार सामूहिकता में सुरक्षा की खोज का अचेतन भी है |
            मेरा यह भी मानना है कि सामाजिक प्राणियों में पूर्णता की मनोवैज्ञानिक खोज व्यक्ति स्तर पर संभव ही नहीं है | वह अपने से बाहर के वृहत्तर से जुड़ कर ही पूर्णता का अहसास जी सकता है | क्योंकि मनुष्य भी एक समूहजीवी प्राणी ही है इसलिए लाखों वर्षों के क्रम-विकास में इसका प्रजातीय व्यक्तित्व वैयक्तिक स्तर पर अपूर्णता जीने वाला ही है | इस दृष्टि से देखें तो अस्तित्व और अस्मिता का वृहत्तर अमूर्तन उसके अचेतन मनोवैज्ञानिक बनावट का एक हिस्सा और जरुरत  है | इसी मनोभूमि को जीते हुए वह अपनी  प्रजाति के द्वारा निर्धारित विश्वासों के प्रति अपनी आस्था और विशवास को  प्रकट करता रहता  है | तात्पर्य यह है कि अधिकांश सांस्कृतिक विशवास अलग-अलग प्रजातियों के द्वारा अतीत से लेकर आज तक अपने सामूहिक विवेक के सापेक्ष निर्धारित किए गए  सत्य हैं | यहाँ प्रवृत्यात्मक रूप से ईश्वर की जगह समुदाय, संप्रदाय और समाज को भी रखा जा सकता है –इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि वह इनमें से क्या जी रहा है और क्यों ? महत्वपूर्ण बात यह है कि वह अपनी शून्यता अथवा एकाकी निरर्थकता को किसी न किसी अवधारणा के माध्यम से प्रजाति की सम्पूर्णता के प्रति अपने समर्पण से भरेगा | इसके अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक धरातल पर ईश्वर माता और पिता के संरक्षक भूमिका और उनके अभिभावकत्व का भी दार्शनिक प्रत्यायन है –वयस्क होने पर भी जीवन में माता-पिता की अनुपस्थितियों के क्षण के माता-पिता की तरह भी ईश्वर हमारे वृहत्तर भाव-अस्तित्व का एक हिस्सा है |
          अपनी इस ईश्वर विषय पर विशेष रूप से केन्द्रित  पुस्तक  “मैंने अपना ईश्वर बदल दिया है “ का धृष्टता और चुनौतीपूर्ण नाम रखते हुए दूसरों की तरह मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा है ; लेकिन यह प्रश्न उठ सकता है कि  ईश्वर जो लगभग सारी मानवजाति को ही समान रूप से अपने-अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त है उसे यदि मैं न मानने का दावा नहीं कर रहा हूँ तो फिर उसे बदलने की जरुरत ही क्यों आ पड़ी ! इस सत्य को देखते हुए कि भारत जैसे सांस्कृतिक देश में ईश्वर की अवधारणा और विश्वास तो बहुत बड़ी जनसँख्या की आजीविका का भी आधार है | यदि मेरी तरह दूसरे भी अपने-अपने ईश्वर की अवधारणा को  बदलने लगे तो एक बहुत बड़ी जनसँख्या को विस्थापित होना पड़ सकता है | अस्तित्व से लेकर अर्थ-व्यापार तक आस्था एक गंभीर प्रश्न है और थोडा भी परिवर्तन बड़े मानवीय और पर्यावरणीय प्रभावों को जन्म दे सकता है | 
              मैं जानता हूँ कि सबसे पहले लोगों को इस बात से ही आपत्ति होने लगेगी कि ईश्वर के होने और न होने पर तो बहस हो सकती है ; यदि ईश्वर सच ही उसी रूप में हुआ , जिस रूप में माना जाता है तो मनुष्य उसे बदलने की सोच भी कैसे सकता है ? यदि ऐसे किसी ईश्वर से हमें आपत्ति भी होगी तो हम सिर्फ उनसे स्वयं को बदलने का अनुरोध ही कर पाएंगे | यदि वास्तव में कोई ईश्वर नहीं हुआ तभी हमें ईश्वर के नाम पर मनुष्य जाति जो कुछ भी जी रहा है उसे बदलने और न मानने का अधिकार होगा | आस्तिकों के लिए इस तरह भी सोच सकते हैं कि एक स्थिति यह भी हो सकती है कि यदि थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि ईश्वर तो हैं लेकिन हम ही भटक गए हैं तो अपने विचारों को सुधारने की जरूरत होगी | क्योंकि मानव-जाति ईश्वर का होना मानने वालों और होना न मानने वालों के बीच बंटी है | इसे देखते हुए ही मैंने भी ईश्वर के होने और न होने दोनों ही सत्य को अपने विचारणीय लक्ष्य से बाहर कर दिया है |दूसरे शब्दों में मेरा लक्ष्य उन सार्थक मानवीय सत्यों को ही काव्यंकित करने का रहा है ,जिनका होना वर्त्तमान और भावी मानव-जाति के अस्तित्व के लिए मुझे सार्थक और प्रासंगिक लगा |दूसरे शब्दों में मैंने नकारात्मक भूमिका वाले आध्यात्मिक चिंतन को हानिकारक और भटकाव मानकर उनसे दूर रहने का प्रयास किया है |
                  उदहारण के लिए ईश्वरवादी चिंतन में सबसे अधिक हानिकारक बात मुझे सब कुछ ईश्वर के नाम पर छोड़ देने वालों की उस नकारात्मक मानसिक स्थिति से लगी जिससे पूर्ण समर्थन की मानसिकता को जीने वाले लोग सब कुछ ईश्वर पर छोड़कर अपने लिए निर्धारित कर्तव्यों से भी विमुख हो जाते हैं |इससे उनका आत्मरक्षक प्रतिरोध ख़त्म हो जाता है और वे उस मनोवैज्ञानिक सुरक्षातंत्र को जीने की स्थिति में नहीं रहते जिससे ईश्वर की अवधारणा ही कलंकित होती है | यह आध्यात्म का इतना खतरनाक प्रभाव है कि इसी सत्य को साधने-जीने के प्रयास में धर्मजीवी भारतीयों को हजार वर्ष की गुलामी दूसरे समुदायों की अधीनता के रूप में लिख गयी ;संभवत: यह सजा भारतीयों को कई हजार वर्षों तक अपनी जनसँख्या को सम्पूर्ण समर्पण का मादक दर्शन पिलाने के कारण ही मिली थी | इससे कम से कम संघर्ष की मानसिकता और चेतना वाला समाज निर्मित हुआ | इससे यह देश आनुवांशिक शासकों का स्वर्ग बन गया | राजा के पुत्र राजा होते रहे और मंत्री के पुत्र मंत्री ,सैनिक के पुत्र सैनिक होते रहे और किसान के पुत्र किसान | इससे कम से कम विरोध वाले पूरक समाज की रचना हुई | पीढ़ियों को व्यवस्था-निर्माण पर कम से कम सोचना पड़ा और कई-कई पीढ़ियाँ मजे-मजे उत्सव मानती हुई जीती रहीं | सबसे पहले तो ईश्वर की अवधारणा और उसपर मनुष्य की मानसिक निर्भरता को कम करने के लिए इस रिश्ते को बदलने की जरुरत इस लिए भी है कि जैसे ही हम अपने विवेक को दूसरों के हाथ में पूरी तरह सौंप देते है ,सैद्धांतिक गुलामी की शुरुआत तो उसी क्षण हो जाती  है |
                   यह समाज-मनोवैज्ञानिक प्रश्न उठाया जा सकता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उसका ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण-भाव का लाभ अंतत: उसके समाज और समुदाय को ही मिलता है | इस सत्य के औचित्य को सिर्फ तभी स्वीकार किया जा सकता है जब नेतृत्व सजग और योग्य हो | अयोग्य नेतृत्व के समय यही निष्ठा ही नकारात्मक हो जाती है |या आत्मघाती हो सकती है और ऐसा करने वाले किसी भी जाति और धर्म के अनुयायियों की स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है | इसलिए जो ऐसा सोचते हैं कि पुरखों नें जो-जो और जैसा कुछ कह रखा है उसे पूरी ईमानदारी से अक्षरशः न मानना ईश्वर की अवहेलना है तो ऐसा मानने वालों को मैं मूर्ख ही मानता हूँ | सच कहा जाए तो ईश्वर की अवधारणा का यही नकारात्मक दुरुपयोग ही बदलाव की आवश्यकता का प्रमुख आधार है | दूसरी बात यह है कि भारतीयों की एक बड़ी जनसंख्या को निष्क्रिय और निरर्थक बनाने में इस विचारधारा की महत्वपूर्ण भूमिका है | हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम जैसे ही अपने हिस्से का कोई कार्य ईश्वर के नाम पर छोड़ देते हैं प्रकारांतर से उस कार्य को करने का दायित्व अपने ही समाज के दूसरे लोगों को सौंप देते हैं | जिस समाज में ऐसा करने वाले बहुत से लोग हो जाएँगे वहां कुछ नया करने और बनाने की संभावना ही समाप्त हो जाएगी | उनकी निष्क्रियता से नेतृत्व पर भी काम का बोझ बढ़ेगा और एक दिन ऐसे अनुयायी असफल जनसँख्या में बदल जाएँगे |
           इन्हीं आधुनिक दृष्टिकोणों को ध्यान में रखते हुए ईश्वर की अवधारणा के सभी पक्षों को सतर्कतापूर्वक छानबीन करने की जरुरत है | क्योंकि हमारे विश्वासों -अविश्वासों से ईश्वर जैसी जनसंख्यात्मक अवधारणा का कुछ नहीं बनता और बिगड़ता लेकिन हमारा भूत,भविष्य और वर्तमान सभी कुछ खतरे में पड जाता है |

ईश्वर पर सोचते हुए और ईश्वर की शिकायत करते समय हम इस तथ्य की अनदेखी करते हैं कि एक प्रभावी प्रत्यय के रूप में साहित्य का ईश्वर और इतिहास का ईश्वर ,आदर्श का ईश्वर और व्यवहार का ईश्वर ,भविष्य का ईश्वर और अतीत का ईश्वर एक ही लोक और काल से जुड़े होने के बावजूद एक नहीं है | परंपरागत ईश्वरवादी ईश्वर को सृष्टि की उदभावक एवं परिचालक शक्ति के रूप में अतीत एवं वर्तमान से देखते हैं ,जबकि जरूरत उसके अधिक से अधिक भविष्य में निवेश की है | वह उदात्त जीवनबोध और ब्रह्माण्डव्यापी अस्मिताबोध के लक्ष्य के रूप में अब भी हमारे जीवन के लिए उपयोगी और प्रासंगिक हो सकता है | वस्तुतः लेखकीय कल्पना एवं आकांक्षाओं के रूप में ही सही ,साहित्य और भविष्य हमारी सृजनशीलता के वर्त्तमान भावी आयामों एवं योजनाओं से संबन्धित होते हैं ,जबकि नियतिवाद के प्रमुख आधार - घटित इतिहास का सम्बन्ध, आदर्शों से अधिक अस्तित्व से जुड़े स्वार्थों और संगठित महत्वाकांक्षाओं से भी होता है | इतिहास में मानव-जाति अनेक बार आदर्शों और नैतिकताओं से परे सामूहिक या संगठनात्मक रूप से अनेक अप्रिय एवं आपराधिक घटनाओं को कारित-सृजित करती दिखती है |
सब कुछ ईश्वर की इच्छा से संचालित और उसके अधीन मानने वाले आध्यात्मवादी और सब कुछ भौतिक परिस्थितियों के समीकरण का परिणाम मानने वाले मार्क्सवादी दोनों ही समान रूप से मानव-जाति के विवेक और निर्णय की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करते | जबकि हम जानते हैं कि मानव-जाति की घटिया आदतें प्रायः उसके अस्तित्व की सुविधाओं और स्वार्थों-हितों से संचालित रही हैं | मेरी दृष्टि में इतिहास मानव-चरित को ही अधिक ईमानदारी से व्यक्त करता है आदर्श जीने के उसके संकल्पों और आदर्शों को कम ,जो कि साहित्य का क्षेत्र है | साहित्य का ईश्वर ही शिव या कल्याणकारी है ,क्योंकि वह हमारी उदात्त मनोभूमि के साथ हमर आचरण और व्यवहार में उतरता है | हमारे जीवन और समय का हिस्सा बनता है | एक सामूहिक सांस्कृतिक पाठ के रूप में एक बड़ी जनसँख्या या जन-समुदाय को जीवन-व्यवहार का एकल प्रारूप सौंपता है | कुछ-कुछ संगीत की तरह जो एक साथ सभी के मस्तिष्क में एक समान लय का संचरण करता है | इससे एक समानताधर्मी समाज निर्मित होता है|
इसके विपरीत इतिहास के कटु -आपराधिक अनुभवों पर आधारित एक नियतिवादी ईश्वर वस्तुतः इस तथ्य को स्वीकार करना ही है कि जो कुछ भी घटा है उस सारे से ईश्वर की सहमति रही है | वह सब ईश्वर की संलिप्तता और समर्थन से ही घटित हुआ है या कि इस सब में मानव जाति प्रत्यक्ष रूप में सिर्फ कार्य करती हुई दिखाई मात्र पड़ती है ; जबकि वास्तविक कर्ता अदृश्य शक्ति ईश्वर ही हैं !(मानों )
नियतिवादी सारे उत्थान और पतन का श्रेय ईश्वर को देते हुए मानव-समूहों और संगठनों की प्रभावी भूमिका पर संगठनों की सामूहिक सक्रियता किस प्रकार शताब्दियों के लिए मानव-भविष्य की वांछित दिशा को भटका देती है ,इस सत्य पर चुप्पी लगा जाते हैं | जबकि हम जानते हैं कि हमारे आदर्शबोध और नैतिक नियम अज्ञात भविष्य का सामना करते समय भी हमारी प्रजाति के लिए किसी टीम के नियमों की तरह हीकितने महत्वपूर्ण हैं | स्वस्थ सांस्कृतिक आदर्श हमारे अस्तित्व में सहायक हमारे वर्त्तमान और भावी व्यवहार के लिए संविधान की तरह हैं | क्योंकि साहित्य हमारी शुभ एवं सद इच्छाओं एवं कामनाओं की अभिव्यक्ति है | इसलिए मैं मानता हूँ कि हमारे साहित्य एवं आदर्शों के अवधारणात्मक उदात्त (ईश्वर!) की सार्थक भूमिका अब भी बची हुई है जबकि मानव-मन की दुर्बलताओं की नग्न अभिव्यक्ति करने वाला स्वार्थों एवं हितों पर आधारित इतिहास का नियतिवादी ईश्वर अवश्य ही आपराधिक होने से त्याज्य,कालातीत और संदिग्ध हो चूका है |

रविवार, 8 जनवरी 2017

भीड़ में

पूरा मेला बाजार बन जाए
और मैं उसकी भीड़ में गुम हो जाऊं
तब भी क्या मैं मैं नहीं रहूँगा .....
यह सच है कि भीड़ का चेहरा नहीं होता 
लेकिन जिस चेहरे को पहचानने का भ्रम जी रही भीड़
वह चेहरा एक मदारी का है

जिंदगी,आस्था और विश्वास

जिंदगी में कुछ काम मैं अपने लिए करता हूँ और कुछ उन दूसरों के लिए ,जो सगे हैं और इतने सगे हैं कि पूरी दुनिया में अरबों की जनसँख्या छोड़कर सिर्फ मेरे ही हिस्से पड़े हैं .पहले पिताजी थे .वे कवियों को नाचने-गाने वाले समुदाय का एक हिस्सा समझते थे .उनके द्वारा कवियों को हिकारत से देखने के कारण ही छुप-छुप कर कविताएँ लिखता हुआ भी कभी कवि कहलाने के बारे में सोचा नहीं , न ही कभी उपनाम ही लगाया .अब यह उदासीनता मेरे स्वभाव का एक हिस्सा और लगभग स्थायी भाव जैसी हो गयी है .जबतक माँ रहीं तब तक माँ के हिस्से को भी उनकी भावनानुसार जीता रहा .उनकी पीढ़ी से सांस्कृतिक असहमति के बावजूद उन्हें पूर्ण सम्मान दिया .कुछ इस तरह सोचता रहा कि अंधविश्वासपूर्ण होते हुए भी सिर्फ वैचारिक असहमति के लिए हमें असहिष्णुता प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए .उग्र प्रगतिशीलता के नाम पर किसी पर अपना विश्वास इस तरह बलात नहीं थोपना चाहिए कि वे सुबह-शाम बिलकुल मेरी तरह क्यों नहीं सोचने लग रहे हैं .सांस्कृतिक परिवर्तन वैसे भी तात्कालिक और वैयक्तिक मामला नहीं है .उसके स्थायित्व और सामूहिकता का सम्मान करते हुए ही नयी पीढ़ी की आवश्यकताओं के अनुरूप बदलाव के लिए सुझाव देना उचित होगा .
               विवाह होने के बाद भी पारिवारिक स्तर पर मेरे लिए क्रांतिकारिता जीना लगभग असंभव ही था ,क्योंकि पत्नी विवाह से पूर्व ही एक वाहन दुर्घटना में अपने पिता और भाई को खो चुकी थीं .वे मनोवैज्ञानिक रूप से इतनी असुरक्षित थीं कि जीवन के प्रति मेरे मेरे आध्यात्मिक सम्मान भाव को देखकर ही भीतर ही भीतर वे जैसे डरती रहती थीं .कुछ ऐसे ही जैसे स्वाभिमान से जीना ही किसी का अपमान कर देना हो .भारतीय धर्म जिसे ब्राहमणों नें जातीय रूप से विकसित किया है उसमें विनम्रता और अहंकार रहित होने पर विशेष बल दिया जाता है .अहंकार आध्यात्मिकता का शत्रु है .इस सामूहिक प्रशिक्षण से जनता का एक बड़ा हिस्सा यथास्थितिवादी और विनम्र बना रहता था .आज हम समझ पाते हैं कि यह भक्तिपंथ सामाजिक रूप से न सिर्फ ईश्वर के समक्ष झुकने का प्रशिक्षण देता था बल्कि राजा और सामंत प्रभु वर्ग के समक्ष झुकने का भी जो किसी भी बात पर कभी भी किसी की गरदन उड़ा सकते थे और उस समय उन्हें रोकने वाला कोई भी क़ानून नहीं था .इस तरह प्रकारांतर से इस भक्ति पन्थ नें जनसामान्य के एक बड़े हिस्से को संगठित प्रभु-वर्ग से मारे जाने से बचाया . बुद्ध क्योंकि गणतंत्र के नागरिक थे महाजनपदों के राजतंत्र का आध्यात्मिक पाठ उन्हें सही नहीं लगा .दुःख के होते हुए उनके लिए ईश्वर की प्रशंसा करना दार्शनिक दृष्टि से भी संभव न था .आज के लोकतान्त्रिक समय में भी जनता को विनम्र और सिर्फ अनुयायी बनाए रखने में धर्म की परंपरागत भूमिका ख़त्म नहीं हुई है .भारत में ऐतिहासिक रूप से ब्राह्मण जाति द्वारा संगठित रूप से बनाए गए इसी मनोवैज्ञानिक स्वर्ग का लाभ पहले हिन्दू राजाओं और सामंतों नें उठाया ,फिर मुगलों ने,अंग्रेजों ने और स्वतंत्रता के बाद नेहरू परिवार नें और अब अन्य क्षेत्रीय दलों के स्वामी राजनीतिक परिवार ले रहे हैं .यह स्थिति आगे भी देर तक चलती रहेगी क्योंकि परंपरागत धार्मिक और जातीय संगठन अब भी विभिन्न रीति-रिवाजों ,मान्यताओं और उत्सवों के साथ पूरी तरह सक्रिय हैं .इस तरह भारतीय मूल की जनसँख्या की समस्या यह है कि उनका दार्शनिक और सांस्कृतिक ढांचा सामंती एवं मध्ययुगीन है.
                 भारत में दूसरी बड़ी जनसँख्या इस्लाम के अनुयायियों की है .एशियायी मूल का धर्म होने से वह भी भक्तिपंथी ही है .वह भी आध्यात्मिक धरातल पर अल्लाह के प्रति तो सामाजिक धरातल पर इस्लामी कबीले के प्रति पूर्ण समर्पण की मांग करता है .इस तरह उसका भी मनोवेज्ञानिक पर्यावरण व्यक्ति के विवेक की स्वतंत्रता का निषेध करने वाला ही है .हिदुत्व में ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता ब्राहमणों के आधिपत्य से होकर जाता है तो इस्लाम में उसके प्रवर्तक की अपरिहार्य मध्यस्थता से . इन दोनों धर्मों में जन्मे हुए लोग इनकी सामाजिक सांस्कृतिक ऐतिहासिक विशिष्ट स्थिति की अवहेलना नहीं कर सकते .यद्यपि कुछ समानांतर सम्प्रदायों की उपस्थिति जैसे जैनियों के अनेकान्तवाद और बौद्धों के प्रभाव के कारण दार्शनिक शंकराचार्य, गोरखनाथ और कबीर से होते हुए हिंदुत्व में ऐसी गुंजाईश बनी कि मनुष्य अपने आध्यात्मिक स्वाभिमान को जी सके .विवेक की स्वतंत्रता का यह पर्यावरण भारतीय लोकतंत्र की दीर्घायुता के लिए जरुरी है .
                 आवयविक सिद्धांत की दृष्टि से देखें तो हिंदुत्व और ईसाइयत में ईश्वर और मनुष्य का रिश्ता पिता-पुत्र वाला होने से प्रकारांतर से मनुष्य को ईश्वर के सारे अधिकार प्राप्त हो जाते हैं .इसमें से आध्यात्मिक समानता का भी अधिकार है .इसमें ईश्वर एक सम्मानित पूर्वज की तरह विशिष्ट बना रहता है -उत्तराधिकार में वर्त्तमान मनुष्य को सब कुछ सौंपने के बावजूद .इस्लाम अपने सूफी मत के माध्यम से प्रेम की एकता के माध्यम से यह प्रयत्न करता है .
हिदी का प्राध्यापक होने और भक्तिकाल को आधुनिक दृष्टि से पढ़ाने के पेशेवर दबाव में इतने सम्प्रदायों और उनके भिन्न -भिन्न ईश्वरों से सामना हुआ कि मैं अपनी पत्नी के स्तर पर एकांत भक्ति-भाव में फिर वापस नहीं लौट सकता .फिर भी मैं ईसाइयत ,बौद्ध ,हिदुत्व और इस्लाम में अलग-अलग तरह की कविता देख पाता हूँ .इस्लाम के अनुयायी किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह अपने ईश्वर को जीते दिखाई देते हैं तो हिंदुत्व को पर्यावरण के सबसे बडे संरक्षक धर्म के रूप में प्रासंगिक पाता हूँ .बुद्धत्व मानसिक सोंदर्य तो ईसाइयत करुणा और सेवाभाव देकर मानवता के लिए अब भी प्रासंगिक है .इस दृष्टि से मार्क्सवाद भी शोषण और असमानता के विरुद्ध प्राचीन घृणा का ही विस्तार है .