(पूर्व में प्रकाशित एक लेख का प्रासंगिक अंश )
हिन्दी के समकालीन सहित्यिक परिदृश्य का ईमानदार विश्लेषण , उसकी सृजनशीलता को दुष्प्रभावित करने वाले ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को सही ढंग से समझे बिना संभव ही नहीं है । हिन्दी जाति के अपने यथार्थ के अनुसार उसकी सृजनात्मक समस्याएं और चुनौतियाॅं क्या हैं ? किन सामाजिक-ऐतिहासिक कारणों से हिन्दी का लेखक वैश्विक धरातल पर कोई बड़ी साहित्यिक कृति देने में अब तक असफल रहा है ? वे कौन से सामूहिक एवं सापेक्षिक भटकाव हैं ,जिनके कारण विकास के अपेक्षाकृत अपने छोटे से काल में अनेक प्रायोजित वाद और विवाद पैदा करके भी वैश्विक धरातल पर कोई भी महत्त्वपूर्ण सृजनात्मक चुनौती देने में हिन्दी जगत प्रायः असमर्थ रहा है ? आत्ममूल्यांकन की प्रक्रिया में ऐसे बहुत से प्रश्न सामने आ सकते हैं । कुछ ऐसे भी कि ‘क्या यह सच नहीं है कि पूर्व में भी आधुनिक हिन्दी कविता का स्वर्ण युग कहे जाने वाले छायावाद के कवियों की भरपूर प्रशंसा भी हम उनके प्रभावकों जैसे रवीन्द्रनाथ टैगोर,शेली,कीट्स आदि का नाम छिपाकर ही कर पाते हैं ! क्या यह सच नहीं है कि जोखिम से बचने एवं जातीय सुरक्षा पाने की अभ्यस्त हिन्दी जाति और उसके सम्पादक ,अपने लेखकों से प्रायः बिरादराना प्रभाव एवं अनुशासन में लिखी गयी रचनाओं की ही मांग करते हंै ?
क्या यह एक ईमानदार तथ्य नहीं है कि पश्चिम की तरह हिन्दी में सृजन की सामाजिकता को , मात्र स्कूल बनाने की प्रवृत्ति के रूप में ही नहीं देखा जा सकता ! पश्चिम की मौलिक सृजनशीलता से अलग हिन्दी का साहित्यिक समाज ‘जातीय’(समूह-अनुमोदित) रचनाधर्मिता को ही अचेतन रूप से बढ़ावा देता रहा है । स्पष्ट रूप से यहाॅं मेरा आशय डाॅ0 रामविलास शर्मा की हिन्दी जाति से नहीं है ,बल्कि मौलिक एवं विशिष्ट सृजन की विरोधी सर्वमान्य-सामान्य को सृजित करने के उस अघोषित मनोवैज्ञानिक दबाव से है, जिसके कारण हर नए लेखक को अपनी ही तरह का नहीं लिखना पड़ता है बल्कि वैसा कुछ लिखना पड़ता है, जैसा लिखना दूसरों को बदलने की अधिक चुनौती न देता हो और जैसा लिखने पर लिखे हुए की स्वीकृति की संभावनाएं बढ़ जाती है। इस प्रवृत्ति की व्याख्या बाजार के मांग एवं पूर्ति के नियम से भी नहीं की जा सकती है ,क्योंकि यह सृजन की सामाजिक अनुकूलता यानि दूसरों जैसा होने की होड़ को प्रोत्साहित करती प्रतीत होती है । हजारों वर्षों से प्राप्त जाति-जीवी होने का संस्कार हिन्दी सृजनशीलता कोे पूर्ण मौलिक विकल्प की खोज करने ही नहीं देता। इसे और स्पष्ट करते हुए कहें तो प्रकाशित होने और समर्थन पाने के अचेतन मानसिक दबाव में हम वैसा कुछ भी नहीं लिख और रच सकते , जो हिन्दी बिरादरी के संस्कार,सोच और मुहावरे से बाहर की उपस्थिति हो ।
इस तरह अपनी रूढ़िवादी पृष्ठभूमि और पारम्परिक संस्कार के कारण ;जाति में जीवित और सुखी रह पाने के अपने अचेतन असुरक्षा बोध के कारण हिन्दी मनीषा बहुत जल्दी ही जाति बनाने लग जाती है । उसका अधिकांश लेखन तर्ज की मर्ज का शिकार है । हिन्दी में ऐसी कई पत्रिकाएं हैं ,जिनके स्वनामधन्य सम्पादकों की कृति-आस्वाद की आदतें एवं उनके मानक तीस वर्षों से भी नहीं बदले । ऐसी पत्रिकाओं ने अपने प्रभाव-क्षेत्र के लेखकों और उनके लेखन से प्रभावित होकर पढ़ती-लिखती आ रही परवर्ती पीढ़ी को कुछ इस प्रकार अपनी रुचि,सोच, पसन्द-नापसन्द, स्वीकार-अस्वीकार की निजी बौद्धिक सीमा में नियन्त्रित और निर्देशित किया है कि हर पत्रिका और उसके द्वारा प्रकाशित साहित्य अपने अनुप्रभावित लेखक-समूह के साथ एक अलग जातीय स्कूल में बदल गए हैं ।
हिन्दी पाठकों और लेखकों को सृजन की पृष्ठभूमि के रूप में प्राप्त सामाजिक यथार्थ को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो उन्नीसवीं शताब्दी के औद्याोगिक क्रान्ति से लेकर, बीसवीं शताब्दी के कम्प्यूटर क्रान्ति तक, उसके अर्थ-तन्त्र एवं समाज नें स्वरूप बदला है । व्यापक उपभोक्ता वर्ग तक पहुॅंचने के लिए विकसित विपणन तन्त्र ने मजदूरों को कारखानों से निकालकर सर्विस सेन्टरों एवं शो रूमों के प्रशिक्षित कर्मचारियों एवं कुलियों में बदल दिया है । आधुनिक आटोमेटिक मशीनों ने कारखानों से मजदूरों की भीड़ को बाहर कर दिया है । अब उनके लिए सेल्स मैन की भूमिका ही बची है । पूंजीपतियों की गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा और उपभोक्ताओं को आकर्षित करने अर्थ-युद्ध के बीच अतिरिक्त मूल्य एक काल्पनिक अवधारणा बन गयी है और उसके स्थान पर मध्यवर्गीय जीवन को पालने में सहायक विनिमय मूल्य एवं दलाल संस्कृति निर्णायक प्रमाणित हुई है । इस सैद्धान्तिक अन्तर्विरोध से आंखे चुराते हुए भारतीय वामपन्थ पहले भारतीय किसानों की ओर बढ़ा फिर बढ़ती हुई जनसंख्या और बंटती जमीनों के यथार्थ से पलायन कर वन-विभाग सम्बन्धी कानूनों से भूमि के सरकारी अधिग्रहण के विरुद्ध उपजे असन्तोष को हवा देने के लिए जंगलों की ओर निकल गया । एक समग्र एवं आदर्श साम्यवादी व्यवस्था और समाज के निर्माण में आने वाली चुनौतियों से मुॅंह चुराते हुए ,वैश्विक एवं औद्योगिक पूंजीवाद से बचते-बचाते भारत में सर्वहारा की खोज आदिवासियों को वामपन्थ में दीक्षित करने के रूप में पूरी हुई है या बनते हुए बाधों से हुए विस्थापितों के पुनर्वास की चिन्ता और संघर्ष के रूप में । भारतीय सामाजिक यथार्थ और उसके बुद्धिजीवियों के ऐसे ही कुछ वैचारिक सीमान्त है।
सच तो यह है कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हिन्दी का साहित्यकार, गांधीवाद और माक्र्सवाद की आदर्शवादिता से प्रभावित रहने के कारण वस्तुनिष्ठ हो ही नहीं पाता है । वह किसी नए प्रस्थान के लिए असमर्थ ,पराश्रित और मोहाच्छन्न है । उस समय तक जाति और सम्प्रदाय जैसी समस्याओं कांे विमर्श का विषय बनानें में वह अपनी हेठी समझता है । कुटुम्बीय परिवार की पृष्ठभूमि तथा जातीय समाज की मनोरचना के कारण, स्त्री-स्वातन्त्र्य एवं विमर्श का पाश्चात्य स्वरूप यहाॅं आ ही नहीं सका ; क्योंकि आर्थिक वर्गान्तरण से जातीय वर्गान्तरण, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अधिक जटिल और संघर्षपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया है । पश्चिम में जाति से अधिक कुलीनता-अकुलीनता की अवधारणा नें वर्गान्तर किया है । इसलिए वर्ग-विभाजन का आर्थिक आधार ही उनके लिए पर्याप्त था । इसके अतिरिक्त अपनी पिरामिडीय संरचना के कारण पूॅंजीवादी व्यवस्था का अधिकार-तन्त्र निम्नस्तरीय एवं अकुशल व्यक्तियों को भी शोषण के बावजूद उनका इस्तेमाल करते हुए उन्हें संरक्षित भी करता था । संभवतः जटिल विकास के इसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से बचने के लिए भारतीय वामपन्थ नें वन-विभाग से शोषितों के रूप में आदिवासियों एवं जनजातियों की खोज की । हिन्दी के अधिकांश प्रगतिशील साहित्यकार ,भारतीय वामपन्थ के विकास ,शोषण एवं संघर्ष की मुख्य भूमि को छोड़कर ,सशस्त्र संघर्ष के बावजूद नक्सलवाद की वैचारिक पलायनवादिता को सृजन एवं विचार की चुनौती के रूप में देखते ही नहीं ।
अपनी भोली-ईमानदार प्रतिबद्धता एवं संवेदनशीलता के साथ हिन्दी में माक्र्सवादी सिद्धान्तों और वामपन्थी क्रान्ति के सपनों पर आधारित प्रगतिशील साहित्य एक ऐतिहासिक सच्चाई है ; लेकिन इस सच्चाई ने जिस प्रतिगामी साहित्यिक सच्चाई को जन्म दिया है ,वह है सामाजिक यथार्थ का साहित्यिक यथार्थ में रूपान्तरण न कर पाने की विफलता । एक अवरुद्ध समाज अपने यथार्थ को देर तक परिवर्तित नहीं कर पाता । ऐसे में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के कथाकार प्रेमचन्द का , इक्कीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक प्रासंगिक बने रहना , उनकी प्रतिभा की महानता को जितना प्रमाणित करता है ,उससे अधिक भारतीय समाज के अवरूद्ध यथार्थ की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है । हिन्दी क्षेत्र के अपरिवर्तित यथार्थ नें उसके बहुआयामी साहित्यिक उपयोग की सम्भावना को सीमित किया है । यदि कथा-साहित्य को लें तो यथार्थ की अपरिवर्तनीयता नें लम्बे समय से हिन्दी की कथात्मक सृजनशीलता को औसत और आवृत्तिपरक बनाए रखा है । लम्बे समय तक कुण्ठित यथार्थ के चित्रण से हिन्दी के पाठकों एवं लेखकों का बौद्धिक अन्तराल घट रहा है । लेखक ऐसा नहीं लिख पा रहा है कि उसका लिखा पाठक को पढ़ने की चुनौती दे । वास्तविक घटनाएं जो लिखित रूप में ही समाचार-पत्रों और दृश्य मीडिया के माध्यम से पहुॅंचती हैं ,वह तेजी से बढ़ते विकास के साथ अधिक लांेमहर्षक और अविश्वसनीय होती जाती हैं । आखिर समकालीन यथार्थ भी समकालीन समाज के मनुष्यों की सामूहिक सृजनशीलता का परिणाम अर्थात् मानवीय उत्पाद ही है , चाहे वह अपराध या भ्रष्टाचार ही क्यों न हो !
सैद्धान्तिक दृष्टि से साहित्यिक सृजनशीलता भी अनुपस्थित को उपस्थित करने की कला है और इस प्रकार कोई भी सृजन सदैव ही पृष्ठभूमि का अतिक्रमण है । वह वर्तमान के यथार्थ का उपयोग करते हुए भी उपलब्ध वर्तमान का अतिक्रमण है । वह चाहे आदर्शपरक हो या यथार्थपरक सृजित यथार्थ सदैव ही मनुष्य की चेतना द्वारा पूर्व यथार्थ के अतिक्रमण के रूप में घटित होता है। यह अतिक्रमण न घटित कर पाने के कारण ही हिन्दी में प्रकाशित यथार्थवादी कहानियों की एक बड़ी संख्या अपने समकालीन यथार्थ की भाषिक अभिव्यक्ति मात्र हैं । वे सामाजिक यथार्थ का साहित्यिक यथार्थ में सफल रूपान्तरण नहीं कर पातीं ,क्योंकि साहित्यिक यथार्थ एक सृजित यथार्थ होता है ।
अपने समकालीन यथार्थ का साहित्यिक सृजनशीलता में भी अतिक्रमण न कर पाने की अपनी ऐतिहासिक एवं प्रवृत्तिगत सीमाओं तथा विशुद्ध भारतीय शैली के बिरादराना चयन के बावजूद , व्यावसायिक दबाव न होने से लघु पत्रिकाओं नें कई मौलिक एवं प्रयोगधर्मी रचनाएं भी प्रकाशित कीं । उनमें सच को और निर्भयता से प्रस्तुत करने का गैर-व्यावसायिक साहस भी दिखा; लेकिन, यह भी सच है कि हर दौर में लघु पत्रिकाओं के सम्पादको में एक बड़ी संख्या साहित्यकार बनने के अभिलाषी नवोदित साहित्यकारों की ही रही है । स्वयं साहित्यकार न होते हुए भी ऐसे सम्पादक साहित्यिक रचनाओं के लिए मेजबान की भूमिका में थे । एक देश द्वारा दूसरे देश को मान्यता देने की शैली में-दूसरी साहित्यिक लघु-पत्रिकाओं को अपने साथ नाम-पते विज्ञप्ति करने की अच्छी प्रथा नें हिन्दी में लघु-पत्रिकाओं के आन्दोलन को एक लोकतान्त्रिक साहित्यिक संस्कृति का निर्माता बना दिया । लघु-पत्रिकाओं ने नवोदित साहित्यकारों के लिए न सिर्फ आरम्भी मंच उपलब्ध कराया बल्कि उनके प्रशिक्षण-केन्द्र के रूप में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है । इसी साहित्यिक परिदृश्य का एक दूसरा पहलू यह है कि सम्पादकीय दृष्टिहीनता के कारण हिन्दी का साहित्यिक परिदृश्य सामान्य रचनाओं से पट गया है। स्थगित सामाजिक यथार्थ से टकराते-टकराते हिन्दी का प्रगतिशील साहित्य और साहित्यकार भी स्थगित साहित्यिक यथार्थ का निर्माता और चितेरा बन गया है । उसके द्वारा सृजित कथा-वस्तु, उठाई गई समस्याएं और विचार सभी कुछ पुनरावर्ती हो गए हैं ।
व्यावसायिक पूंजी के दबाव से मुक्त होने के कारण , हिन्दी की लघु-पत्रिकाओं नें समानान्तर सिनेमा की तरह ही एक समानान्तर साहित्यिक पाठक-वर्ग भी पैदा किया है । अलग-अलग ग्रहों को केन्द्र में रखकर जैसे अन्तरिक्षीय पदार्थ एकत्रित होकर अनेक सूर्य बना देते हैं ; हिन्दी के अनेक प्रतिभाशाली साहित्यकारों के नाम से जुडी साहित्यिक पत्रिकाएं अपना नियमित पाठकवर्ग एवं आर्थिक संसाधन विकसित कर चुकी हैं । उनसे जुड़े साहित्यकार एवं प्रशंसक भी उनकी ताकत हैंे। कुछ साहित्यिक पत्रिकाएं तो लेखकों का अलग स्कूल ही बना रही हैं । इसे स्थानीयता का प्रभाव कहें या आंचलिकता का - हिन्दी की कई पत्रिकाओं नें निजी लेखक टीम विकसित कर ली है । ऐसी पत्रिकाओं ने अपने पाठकों को भी विशेषीकृत किया है । मनोविज्ञान का एक निष्कर्ष है कि जुड़वा बालकों का सही विकास नहीं होता क्योंकि वे एक-दूसरे का ही अनुकरण करते रह जाते हैं । किसी तीसरे के प्रति बिल्कुल उदासीन रहने के कारण कुछ नया नहीं सीख पाते । हिन्दी की अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं ने भी प्रायोजित लेखन का शिकार होकर अपने अलग वैचारिक साहित्यिक पूर्वाग्रह विकसित कर लिए हैं । साहित्य के इतिहास पर चढ़ाई करने वाले अलग साहित्यिक गिरोह के रूप में सम्पादकीय आत्मश्लाधा एवं महत्त्वपूर्ण होने के भ्रम के साथ सिर्फ वार्द्धक्य ही नहीं, बल्कि मौलिक एवं नई सृजनशीलता की दृष्टि से मृत्यु की ओर भी बढ़ रही हंै। इसे हिन्दी का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उसकी शीर्ष साहित्यिक पत्रिकाएं भी किसी दल या व्यक्ति-विशेष का साहित्यिक ‘फ्रण्ट’ नजर आने लगी हैं । निजी जीवन में चरित्रहीनता के आरोपों का सामना कर रहे कुछ सम्पादकों नें तो किसी अन्धे-बहरे की तरह व्यापक सहित्यिक समाज और सरोकारों से स्वयं को काट लिया है । वे अपने ऊपर लगे आरोपों के मानसिक प्रतिरोध में निर्लज्ज ,असंवादी ,सीमित ,संकीर्ण एवं असामान्य हो गए हैं । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय राजनीति की सभी बुराइयों के प्रतिनिधि व्यवहार, हिन्दी-साहित्य की रचनाधर्मिता और विकास के परिदृश्य को भी विद्रूपित कर रहे हैं ।
एक सीमा तक हिन्दी-साहित्य के वर्तमान परिदृश्य को , उसके राजनीतिक यथार्थ का ही साहित्यिक रूपक कहा जा सकता हैं । यथार्थ की अनुकूल या प्रतिकूल सृजनात्मक सम्भावनाओं पर विचार करने के स्थान पर उसका साहित्यकार प्रायः अपने समकालीन इतिहास और यथार्थ का साहित्यिक रूपान्तरण प्रस्तुत करता है । इससे उसके लेखन में मानवीय सृजनशीलता के अन्य आयाम नहीं उभर पाते । उसका अधिकांश साहित्य सम्पूर्ण मानव-जाति के नाम सृजित ,सम्बोधित और सम्प्रेषित भी नहीं है । वह कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों के नाम सम्बोधित निजी पत्र बनकर रह गया है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि हिन्दी का साहित्यकार जिन मूल्यांकन-मानों की कल्पना कर साहित्य सृजित करता है , उसकी हैसियत मात्र एक स्कूल की ही है । एक आंचलिक या क्षेत्रीय सच्चाई की तरह उसके साहित्यिक समाज नें सराहना और समीक्षा के नाम पर मूल्यांकन-मान के रूप में जो फतवे जारी किए है-वे काफी बचकाने अथवा नीरस है।
हिन्दी-साहित्य में भी वर्चस्व और प्रभुत्त्व के कांग्रेसनुमा सत्ता-केन्द्रों के साथ , अनेक क्षेत्रीय शक्तियाॅं और क्षत्रप काबिज हो गए हैं या काबिज होने का प्रयास कर रहें हैं । कुछ पुराने उजड़े हुए साहित्यिक-केन्द पुनःः संगठित हो रहे है। कई प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने अपनी उपेक्षा से आहत मन की प्रतिक्रिया में साहित्यिक पत्रिकाएं निकाल ली हैं । हिन्दी का साहित्यिक चरित्र भारतीय राजनीति के चरित्र का ही अनुकरण करता प्रतीत होता है । जिस प्रकार नेहरू और शास्त्री के बाद आपात काल के कांग्रेस नें सत्ता और इतिहास को बन्धक बनाने के प्रायोजित प्रयास में , काल-पात्र गड़वाने से लेकर प्रतिभा-नियोजन के लिए पार्टी से योग्यों का निष्कासन किया -व्यक्तित्व और चरित्र से हीन चाटुकारों को मुख्यमंत्री बनाकर जनता के ऊपर थोपने का असफल एवं आत्मघाती प्रयास किया और जिसका ही प्रतिक्रियात्म्क परिणाम यह हुआ कि तिरस्कृत-निष्कासित प्रतिभाओं ने अलग पार्टी ही बना ली और आगे चलकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक बने । इतिहास और सत्ता का मुख्य राजमार्ग साजिशन बन्द कर दिए जाने से समर्थ प्रतिभाओं ने स्वतंत्रता,प्रतिरोध और विकल्प के लिए क्षेत्रीय पार्टियाॅं बनायीं । कुछ-कुछ वैसा ही -व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा,राग-द्वेष,उपेक्षा तथा स्थापन-विस्थापन के भितरघातों के प्रतिक्रियात्मक सन्तुलन नें हिन्दी के साहित्यिक परिदृश्य को बहुवैकल्पिक एवं विविधतापूर्ण बना दिया है ।
इस रूढ़िवादी देश में जैसे आजादी के पूर्व कुछ ही नेताओं ने मिलकर भारत-’पाकिस्तान के रूप में कई करोड़ भारतीयों का भविष्य और वर्तमान बिगाड़ दिया ,वैसे ही हिन्दी के साहित्यिक इतिहास को कुछ गिने-चुने वर्चस्वशाली मस्तिष्क ही बना-बिगाड़ और बांट रहे है। सम्बन्धों एवं रुचियों पर आधारित उनकी स्मृतियाॅं एवं उनका प्रायोजित चयन ही हिन्दी साहित्य के मानक इतिहास के रूप में विज्ञापित हो रहा है । इधर इस आरोप का प्रतिपक्ष भी देखने में आ रहा है -स्कूलों और विश्वविद्यालयों तक के पाठ्यक्रमों में गैर-मानक साहित्य और साहित्यकारों की अराजक प्रविष्टि के रूप में । लघु पत्रिकाओं की बढ़ती हुई संख्या के पीछे साहित्य में सक्रिय प्रायोजित सृजनशीलता तथा वर्चस्व के यथार्थ से असहमत साहित्यिक विपक्ष और प्रतिरोध की समानान्तर साहित्यिक संस्कृति के निर्माण का संघर्ष भी है।
‘समकालीन सोच’ के प्रवेशांक (जून 1989) में व्यक्त डाॅ0 पी0एन0सिंह की इस विचारपूर्ण समझ का विस्तार करना भी हिन्दी समाज और साहित्य के विश्लेषण में सहायक होगा कि ‘ अभी हमारी सामाजिक चित्ति मुख्यतः मध्ययुगीन है,जिसमें आदिम अवशेषों की भी कमी नहीं है । हमारा वैज्ञानिक और ऐतिहासिक ज्ञान हमारी सामाजिक चेतना एवं आचरण की वस्तु नहीं है , अभी यह मात्र सूचना की चीज है । हमारे वैज्ञानिक एवं विद्वान सामाजिक संवेदना के स्तर पर अपढ़ हैं । हमारे यहाॅं शास्त्रज्ञों का नहीं ,बल्कि बुद्धिधर्मियों का हमेशा अभाव रहा है ।’ इस अभाव की पूर्ति हिन्दी समाज अन्तर्निभरता और अन्तर्सहमति से करता है । उसके जातीय या प्रवृत्तिपरक सृजनधर्मिता का राज भी यही है । इसके कारण ही वह प्रायः प्रतिभा-स्वातंत्र्य को एक विजातीय एवं विपक्षी तत्त्व के रूप में देखता है । नए लेखकों को एक पूर्वनिर्धारित द्रैक पर चलकर आने का अग्रिम प्रस्ताव भेजता है । लेखन में नव-रीतिवादी आवृत्ति की परिस्थितियाॅं पैदा करता है ।
इस जड़ता को तोड़ने के लिए सभ्यता के विकास-क्रम में सामने आयीं अद्यतन सूचनाओं को हिन्दी के आम लेखकों-पाठकों तक उपलब्ध कराने की जरूरत है । अधिक से अधिक विदेशी साहित्य को हिन्दी भाषा में उपलब्ध कराने की भी जरूरत है । हिन्दी के ऐसे साहित्यिक परिदृश्य पर यह सुझावपरक टिप्पणी की जा सकती है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की उच्चस्तरीय पाठ्य-सामग्री सर्वसुलभ न होने के कारण हिन्दी मनीषा के सृजनात्मक उत्पाद भी किसी अपढ़ एवं अप्रशिक्षित मस्तिष्क की उपज की तरह सामनें आते हैं । क्योंकि सामाजिक यथार्थ के साहित्यिक यथार्थ एवं कृति में रूपान्तरण की प्रक्रिया रचनाकार के बौद्धिक श्रम ,सोच , दृष्टि एवं ज्ञान के समन्वय के पश्चात् ही किसी विशिष्ट कृति के सृजन के रूप में पूरी हो पाती है ।
हिन्दी के सहित्यिक परिदृश्य के समाज-वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए हिन्दी सिनेमा से उधार लिए गए व्यावसायिक और समानान्तर जैसे शब्दों से बेहतर विशेषण मुझे दूसरे नहीं दीखते। व्यवसायिक के स्थान पर लोकप्रिय शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है ;लेकिन, हिन्दी में भारतेन्दु ,देवकीनन्दन खत्री ,प्रेमचन्द,दुष्यन्त और हरिवंशराय बच्चन जैसे गिने-चुने लेखकों को छोड़कर किसी को लोकप्रिय साहित्यकार कहना भी इस शब्द का अपमान करना ही होगा । व्यावसायिकता से मेरा प्रयोजन पेशेवर रूप से प्रायोजित साहित्य से है । लोकप्रिय में प्रभावी नेतृत्त्व उपभोक्ता या पाठक वर्ग का रहता है जबकि व्यावसायिक में व्यवसायी का-यद्यपि वह अपनी सारी रीति एवं नीति उपभोक्ता या पाठक को केन्द्र में रखकर ही बनाता है, लेकिन बाजार पर निर्भर रहने के कारण प्रायः पाठक वर्ग उसकी सृजनशीलता एवं श्रम पर आश्रित तथा प्रतीक्षा में ही रहता है । एक बार बिकाऊ माल की सही पहचान हो जाने के बाद साहित्यिक प्रवृत्तियाॅं आवृत्ति या व्यसन के रूप में, रूप बदल-बदलकर थोड़े हेर-फेर के साथ पाठकों तक पहुॅंचने लगती है । यही कारण है कि व्यावसायिक पत्रिकाएं प्रायः यथा-स्थितिवादी होती हैं ;रूप ,सौन्दर्य एवं आस्वादधर्मी होती हैं।
सामान्यतः लघु पत्रिकाओं के आन्दोलन को बाजारवाद और उपभोक्ता-संस्कृति के समानान्तर रचनात्मक प्रतिरोध की संस्कृति के रूप में देखा जाता है । इस देखने का ठोस आधार भी है । उपभोक्ता संस्कृति के प्रभाव से विकृत रचनाशीलता का सबसे प्रामाणिक उदाहरण हिन्दी फिल्मों की वर्तमान दशा-दिशा है । लोकप्रियता के अर्थशास्त्र नें उसे नुस्खों के अजायबघर में बदल दिया है । हिट-पिट के उसके लम्बे इतिहास नें उसकी व्यावसायिकता को एक कला-संस्कृति में बदल दिया है । हिन्दी की व्यावसायिक पत्रिकाओं ने भी साहित्यिक सृजनशीलता को एक अलग कलात्मक रूढ़ि दी है । इस रूढ़ि की एक कलात्मक उपलब्धि है- हिन्दी में गीत और नवगीत लेखन की निरन्तरता तथा पारिवारिक कहानियों की आवृत्तिपूर्ण उपस्थिति आदि ; लेकिन हिन्दी के साहित्यिक परिदृश्य में विचारहीन विचारशीलता अथवा अवरुद्ध विचारशीलता के यथार्थ का भी ठोस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है ।
इस परिदृश्य को देखते हुए आश्चर्य नहीं कि हिन्दी की मुक्त विचारशीलता का अधिकांश हिस्सा लघु-पत्रिकाओं में छपकर ही सामने आता है । हिन्दी का प्रबुद्ध पाठक वर्ग लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित साहित्य को समानान्तर साहित्य के रूप में स्वीकार करता है । साहित्यिक सृजनशीलता के अधिक ईमानदार और बहुआयामी स्वरूप लघु-पत्रिकाओं के माध्यम से ही हिन्दी में सामने आ रहा है । व्यावसायिकता के दबावों से मुक्त गम्भीर विचारशीलता एवं प्रतिरोध की साहित्यिक संस्कृति को जन्म देने के कारण हिन्दी का समानान्तर साहित्य , बौद्धिक स्वातंन्न्य का असंगठित क्षेत्र बनकर भी उभरा है । असंगटित इसलिए कि एक-दूसरे को महत्त्व एवं स्वीकृति देने के बावजूद हिन्दी का यह साहित्यिक परिदृश्य अन्तरिक्ष में फैले तारों अथवा भारतीय राजनीति में सक्रिय क्षेत्रीय दलों की तरह इतना बिखरा हुआ है कि यदि वैयक्तिक ग्राहक न हो तो हिन्दी क्षेत्र के अधिकांश शहरों और कस्बों में इन पत्रिकाओं की सार्वजनिक उपस्थिति देखने को नहीं मिलती । बुक स्टालों पर इनकी अनुपस्थितिं एक सामान्य पाठक के लिए समकालीन सृजनशीलता के इतिहास से भी अनुपस्थित करती है । व्यावसायिक पत्रिकाओं के बीच स्थानीय लघु-पत्रिकाएं ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाती हैं ; फिर भी ये लघु-पत्रिकाएं हिन्दी-क्षेत्र एवं हिन्दी क्षेत्र से बाहर भी साहित्यिक सृजनशीलता का सार्थक परिवेश एवं उपनिवेश निर्मित करती हैं ।
गम्भीरता से देखा जाय तो सम्पादक साहित्यिक इतिहास के निर्माण का प्रथम द्वार ही है ।
वह रचना का प्रथम किन्तु मौन समीक्षक होता है । वह रचना का प्रस्तावक होता है । इधर हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में यह भूमिका किसी व्यक्ति-विशेष की नहीं बल्कि व्यक्ति-समूह की होने लगी है । यह चेहरा-विहीन सम्पादन का दौर है । अब यदि कोई रचना अस्वीकृत होती है तो सम्पादकीय टीम में शामिल पता नहीं किसने किया । अब इतिहास में वैसा आरोप नहीं लगाया जा सकता , जैसा कि निराला की ‘जुही की कली’ कविता न छापने पर महावीर प्रसाद द्विवेद्वी के सठियाने की बात ध्यान में आती है । इधर कई साहित्यिक पत्रिकाएं एक साझे मंच में बदल गई हैं और ‘खण्डे-खण्डे सम्पादक भिन्ना ’ जैसी स्थिति हो गई है । अतिथि सम्पादक , चयन सम्पादक ,कार्यकारी सम्पादक और वैधानिक सम्पादक जैसी अनेक कोटियाॅं बन गई है । सम्पादन में ‘अन्य-पुरुष’ के प्रचलन नें आहत लेखक द्वारा सम्पादक को गाली दिए जाने की सम्भावना ही समाप्त कर दी है । पत्रिकाओं और लेखकों की भीड़ में रचना की स्थिति कन्या जैसी हो गयी है ।
एक जगह से खेद सहित वाला जवाब मिल गया तो प्रकाशन रूपी विवाह के लिए दूसरी पत्रिका का दरवाजा देखिए। अधिक चिन्ता की कोई बात नहीं -क्योंकि जो पढ़ रहा है वही पढ़ रहा है और वह कहीं भी पढ़ लेगा । हिन्दी का नए दौर का जो साहित्यिक परिदृश्य है उसमें लेखक ही पाठक है और पाठक ही लेखक । व्यसनी है तो छपने की लालच में खरीदेगा ही और पढेगा ही । छपेगा तो लेखक कहलाएगा नहीं तो पत्र लिखेगा कि अगली बार जब वह छपे तो उसके छपने पर भी पत्र लिखने वाले रहें । अन्यथा नाराज होने पर सभी मौन साध लेंगे ।
सच तो यह है कि भारत के लिए प्रगतिशीलता का एक ही सही तात्पर्य हो सकता है-अपनी सृजनशीलता के माध्यम से अतीत के यथार्थ में परिवर्तनकारी हस्तक्षेप । इस दृष्टि से मैं उन्हीं सम्पादकों का सम्पादन-कर्म सार्थक मानता हूॅं , जो किसी न किसी रूप में अतीत से मुक्त होने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते हैं । यह प्रक्रिया बेहतर भविष्य के सपने के साथ बेहतर विकल्प की तलाश के बिना सम्भव ही नहीं है । एक सार्थक साहित्यिक सृजन इसी यात्रा में ही घटित हो सकता है ।