बुधवार, 22 जून 2016

आलोचना-समय

मुझे बाजार और राजनीतिक समय के विवेक पर विश्वास कभी नहीं रहा है (यहाँ बाजार से मेरा आशय कालाबाजारी से है , जिसमें मूल्य बढ़ाने के लिए जमाखोरी आदि करके कृत्रिम अभाव भी पैदा किया जाता है.जरुरी नहींकि उसका मूल्यांकन ईमानदार ही हो.मेरी अभिव्यक्ति में बाजार उपलब्ध इतिहास, कृत्रिम एवं प्रायोजित समय का भी द्योतक है.)मैंने विलक्षण प्रतिभाशालियों को अपनी श्रेष्ठता का आत्मविश्वास न छिपा पाने के कारण बेरोजगार होकर नष्ट होते हुए देखा है.उनका अपराध सिर्फ इतना ही था कि वे व्यवस्था द्वारा उच्च पदों पर बैठाए गए नालायकों का औपचारिक सम्मान नहीं कर पाए. मुझे बिना समाज को साथ लिए घोषित और विज्ञापित महानताएं संदिग्ध लगती हैं.दरअसल होता यह है कि बहुत चर्चित जगहें महत्वकांक्षी अयोग्यों को कूट-रचना कर सफल होने के लिए उत्तेजित करती हैं. अंततः बाजार के नियम सार्वजनिक छवियों पर लागू होते ही हैं. विज्ञापितों में से कुछ की महानता को तय करने वाले भी सामान रुचियों और पक्षधरता वाले लोग रहे हैं. मेरा सदैव से यह मानना रहा है कि सामाजिक सार्थकता और सृजनात्मक विशिष्टता दोनों के आधार पर ही किसी रचनाकार के अवदान का मूल्यांकन होना चाहिए - न कि समर्थकों और निंदकों के संख्याबल के आधार पर.
मेरा यह भी मानना रहा है कि पूर्वाग्रह रहित विश्लेषण के आधार पर बाजार द्वारा विज्ञापित कई नाम ,जितना कि वे विज्ञापित किए गए हैं- तटस्थ विश्लेषण के बाद उससे कमतर भी सिद्ध हो सकते हैं और कई उससे बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो सकते हैं , जितना कि वे जाने जाते हैं.ऐसा साहित्यिक विपणन प्रभाव और राजनीतिक आधारों पर संभव है.
हिंदी साहित्य में बहुत कुछ अमूल्यांकित अथवा संदिग्ध मूल्यांकित विज्ञापित है.बहुत कुछ ऐसा है जिसे विज्ञापित होना चाहिए था लेकिन उसे समय-सम्बन्ध के समीकरणों नें मंच से नेपथ्य में विस्थापित कर दिया. हिंदी साहित्य की सृजनशीलता को वैयक्तिक और सामूहिक (संगठनात्मक) दोनों ही प्रकार की सामाजिकता नें संदिग्ध और प्रदूषित भी किया है . पूर्व-निर्धारित शर्तों के आधार पर व्यापक पैमाने पर सृजनशीलता का निषेध भी प्रस्तुत किया गया है और लोगों की मानसिक ऊर्जा को अतीतागामी यूटोपिया एवं कल्पनाजीविता की ओर मोड़ने की साजिश भी हुई है.

बुधवार, 15 जून 2016

कविताएँ

समय में और समय में नहीं
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मैं अपने समय में हूँ
मैं इतना स्वतन्त्र हूँ कि
अपने हिस्से के समय को जी सकता हूँ !
लेकिन 'माफ़ कीजिएगा'-मैं अपने प्रति
पुरे सम्मान और सहानुभूति के साथ
आपका अपने समय में न होने का
शोक-गीत लिखना चाहता हूँ !

आपकी तरह मैं भी बीते हुए कल की संतान हूँ
लेकिन आप तो बीता हुआ कल ही हैं
मेरे
समय में और समय में नहीं
 समय के जीवित अतीत !



मित्र का होना


जब सारे शहर में जेबकतरे फैले हुए थे 
मुझे अपने मित्र की याद आ रही थी
मैं सोच रहा था 
कितना फर्क पड जाता है 
इस दुनिया में किसी अपने के मित्र होने या न होने पर 
किस तरह एक अजनबी शहर रिश्तेदार बन जाता है 
एक छोटी सी सूचना के बाद....



अच्छे आदमी


अच्छे आदमी स्व्यं में  महत्वपूर्ण घटना हैं
अच्छे आदमी जो कभी चिढ़ाते रहे हैं शैतान को
सच करते रहे हैं धरती पर होना ईश्वर का

अच्छे आदमी ईश्वर के बिना भी अच्छे रह सकते हैं
जब वे नाराज होते हैं और किसी को भी नहीं मानते
जब वे खुश रहते हैं और आमंत्रण कि मुद्रा में होते हैं
अच्छे आदमी अच्छे ही रहते है 




बिकना 



लोग अपनी  आत्मा बेचकर अहंकार खरीदते हैं
मैं नहीं बिका तो क्या आसमान टूट पड़ेगा
सिर्फ यही न कि मैं धरती में धंस जाऊँगा
या बहुत हुआ तो पाताल तक

न बिकना भी तो सुरक्षित होना है
बाजार को नापसंद करते हुए
घर बसाना भी कोई बुरा सौदा नहीं

लोग घर बेचकर बाजार खरीदते हैं

मुझे  नहीं बेचना  अपना घर ....


कंक – संवेदना


अज्ञातवास में राजा विराट के यंहा 
एक अधीनस्थ  कर्मचारी गुमनाम कंक बनाकर रहना भी 
क्या  और  कितना ही अजीब  अनुभव  रहा होगा  सर्वकालिक  ज्येष्ठ  भ्राता  युधिष्ठिर !
कैसा लगा होगा तुम्हें यह मध्यवर्गीय  अनुभव 
कितना घुटे होगे निषिद्ध  चाकरी  का अनुबंध निर्वाहते  हुए !
यह भी  संभव है  कि तुमने  कूब  मजा  लिया होगा -
हाँ  साहब !  जी साहब ! क्या  खूब साहब !  और  क्यों  नहीं  साहब  बोलते हुए 
और  जब तुम ऐसा  कर रहे होगे तो भीतर से 
यानि  कि  तुम्हारी अंतरात्मा के अनकहे होठों से 
रजा  विराट के  प्रति  क्या वैसी  ही  फूटती होगी  गाली 
जैसी  कि  आज ?
साहब  हो  गया  है तो  अपने को  पता  नहीं  क्या  समझता है ...
खडूस है 
चापलूसी  नहीं  करो तो पचता  ही नहीं खाना 
क्या  डोंट खाने  के  बाद  तुम्हारे भी  मन में उठाता  था वैसा 
आपराधिक  दुर्भाव -कि  मन करता है उसको  अपना जूठा पानी पिला दूं 
उसके शरबत में क्यों  न मिला दूं  अपनी पेश -आब ...
जी हजूरी  करते हुए  भीतर  से  आते  थे 
ऐसे -ऐसे तुममें भी  कितने  कुविचार  
मैं  जानता हूँ  कि तुम्हें  काफी  अप्रिय  और  कटु  अनुभव  करना  पड़ा होगा 
क्योकि  तुम युधिष्ठिर  होते हुए भी 
अज्ञातवास की आजीविका के  लिए 
कंक  होने  का सिर्फ  अभिनय  कर रहे थे 
यह  भी  हो सकता है कि  तुम अपनी दुर्भाग्यपूर्ण 
अल्पकालिक स्थिति का  मजा ले रहे होगे 
जीवन के विराट मंच पर 
एक अपरिहार्य -आवश्यक अभिनय मात्र मानकर 
नौकरी में  अपने वास्तविक व्यक्तित्व को छिपाकर 
एक ओढ़े हुए कृत्रिम प्रायोजित व्यक्तित्व के साथ जीना 
तुम्हे कैसा लगता रहा भ्राता युधिष्ठिर  !



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सिर्फ मैं ही नहीं हूँ 
दूसरे भी हैं मेरे साथ
मेरे समय में .....
सब मेरे लिए नहीं हो सकता
न मैं सभी के लिए हो सकता हूँ
हमें जीना जानना और अधिकार
सभी कुछ बाटना होगा ....
हम सिर्फ इतना ही जान सके हैं अब तक
कि हवा अधिक दबाव से
कम दबाव के क्षेत्र की ओर बहती है
और जल प्रवाहित होता है
ऊपरी तल से निचले तल की ओर ...
लेकिन ज्ञान !
हम अपनी अज्ञानता पर शरमाते हुए भी
चुपके-चुपके दूसरों से सीखते और
स्वयं को सुधारते जाते हैं ,,,,
समस्या कुछ इस तरह है कि
हमारे कसबे में
ज्ञान की एक साथ खुल गयी हैं कई दूकाने
सडक के दोनों ओर
ज्ञान भिक्षुओं का इंतज़ार कर रहें हैं
प्रदाता कोच और उनकी कोचिंग ...
वहां बैठा हर ज्ञानी
पूरेआश्वासन के साथ
जीवन का पूरा सत्र मांगता है ....
सुना है ज्ञानी होना आसान है
लेकिन समझदार होना कठिन
बहुत पहले मेरे गुरु नें दी थी यह चेतावनी
यदि तुम सफलता चाहते हो तो
अपनी अतिरिक्त समझदारी को छिपाए रहो
कि अपने समय के औसत दिमाग से
अधिक समझदार होना खतरनाक है
कि सुकरात मारा गया था अपनी समझदारी
न छिपा पाने के अपराध में
और युधिष्ठिर सिर्फ नैतिक और मूल्यजीवी बने रहने के प्रयास में
पत्नी द्रौपदी से हाथ धो बैठा ....
गुरु नें कुछ ऐसी भी दी थी सीख
कि सिर्फ अपने अहंकार को ही नहीं
अपने स्वाभिमान की उगी हुई सींगों को भी
यत्नपूर्वक छिपाए रहो ..
लोग उनका खुलेआम दिखना बर्दाश्त नहीं करते
कि तन कर खड़े होने से
झुककर बैठना अधिक आरामदायक होता है ''
उनकी सारी सीखों के बाद भी
बार-बार कर जाता हूँ गलतियाँ
जहाँ चुप रहना चाहिए बोल जाता हूँ वहां
जहाँ रुक जाना चाहिए उसके बाद भी लिखता जाता हूँ अलेख्य
उन्होंने यह भी कहा था कि
सुनिश्चित सफलता के लिए-
किसी भी साक्षात्कार में वैसा कुछ भी नहीं बताना
जिसे तुम सच समझते हो और वह वास्तव में सही भी हो
या जो सही होते हुए भी हो इतना मौलिको कि लोग
उसका विश्वास ही न कर सकें
बताना सिर्फ वही और उतना और वैसा ही सच
जितना कि प्रश्न पूछने वाला सच के रूप में जानता हो
जैसा कि सामने वाला जानता हो
और तुमसे भी सुनना चाहता हो ...
गोया ऐसे कि तुम्हें सच को नहीं बल्कि
सच के बारे में पूछने वाले को बूझना है
कि मौकरी पाना है तो सच के दंभ को नहीं
विद्वानों की अज्ञानता के प्रति सम्मान-भाव जीना सीखो
उन्हें प्रभावित करते हुए भी उन्हें इसका पता ही न लगने दो
कि वे तुमसे कितना कम जानते हैं....
(मानों सबसे सफल और सच्चे ज्ञानी
सिर्फ अपने ज़माने की दुर्बलुाताओं से
कदमताल करने वाले लोग हैं )
हे गुरुवर ! तुम्हारी दी हुई सारी शिक्षाएं याद हैं मुझे
लेकिन मैं उनका अतिक्रमण करने का अपराध करता रहा हूँ
अब मैं भी आपकी तरह बूढ़ा और अनुभवी हो चला हूँ
लेकिन मुझे लगने लगा है कि
हमेशा सुरक्षित और अनुशासित जीवन जीना
मानव जाति के हित में नहीं होता
कि इस दुनिया को बदलने के लिए
कुछ रोमांचक और मौलिक मूर्खताएं भी घटित होती रहनी चाहिए
कभी-कभी निकलना ही चाहिए बुद्धं की तरह
महल और सुख की सारी चिंताएं छोड़ कर ...
चुनना चाहिए अपमानों और अपराधों का शिकार होने की
संभावनाओं वाला जोखिमपूर्ण वर्जित रास्ता
नए बेहतर रास्तों की खोज के लिए ....
बाहर के सारे रस्ते भीड़ से भरे हुए हैं
बेहतर क्या होगा किसी के भी लिए -
वह यात्रा स्थगित कर दे और घर से ही न निकले
निकले और वह भी डूब जाए भीड़ को चीरते-तैरते हुए अपने गंतव्य की ओर
भीड़ के छटने का और पथ के मुक्त होने का इंतजार करे
स्वयं रुका रहे दूसरों को रास्ता देने के नाम पर
या दूसरों के साथ चले ....
सच तो यह है कि इसमे से कुछ भी सोचनीय नहीं है
कि जनसँख्या-वृद्धि ( भीड़} मानव जाति के उत्तरधिकरियो
प्रतिनिधियों का वैकल्पिक उत्पादन है
कि हर व्यक्ति वैकल्पिक और फालतू रूप से पैदा हुआ है
मानव-जाति की सुरक्षा और अस्तित्व की निरंतरता के लिए
हर व्यक्ति अपनी ओर से कुछ बोलना चाहता है और शोर उत्पन्न कर रहा है
एक समय में कुछ लोगों के चुप होने की जरुरत है कि
कुछ अच्छा बोलते लोगों को साफ-साफ सुना जा सके
इस सच्चाई की परवाह किए बिना कि
कि एक समय में अधिकांश लोग
एक जैसा ही सोचते-समझते और बोलते हैं ..
शर्त सिर्फ इतनी ही है कि जो बोल चुके हैं
उनका चुप होकर बैठ जाना जारी रहना चाहिए
कुछ बोलते लोग एक ही बात दुहराए जा रहे हैं मंच पर
यद्यपि वे थक गए हैं
फिर भी बोलते हुए दिखना चाहते हैं देर तक
मेरे पास अपने बोलने का कोई वाजिब कारण नहीं है
सिर्फ इस चिढ़ के अतिरिक्त
कि जो बोला जा रहा है उससे मेरी असहमति बढ़ गयी है
तब जबकि मैं न भी बोलूँ
सभी को सुनते रहने के लिए अभिशप्त हूँ
अस्तित्व की आवृत्ति एवं बारम्बारता वाली दुनिया में
जबकि संगठित होकर अपराध करने वाले गलत्कारियों की संख्या बढ़ गयी है
हमें इस दुनिया को शेयर करते हुए ही जीना चाहिए
छोड़ कर बार-बार हटने की इच्छाओं के बावजूद
मैं अभी फेसबुक पर बना रहना चाहूँगा
शेयर करते हुए
जो जहाँ और जितना है
वहां और उतना उसके लिए उसके हिस्से की दुनिया छोड़कर ....
( श्रद्धेय गुरुवर स्वर्गीय विजय शंकर मल्ल जी की पावन स्मृति को समर्पित )
३१.०५.२०१६


मातृ-शोक


माँ की अन्तिम यात्रा के बाद
कुछ हुआ है ऐसा कि
जब मैं लौटना चाहता हूँ घर को
घर अब घर की तरह नहीं रह गया है
वह उदास और धूसर है
किसी भी जीवन-संवाद से वंचित
उनकी जड़ता की अन्तिम स्मृति की तरह ....

जैसे गुजराती हुई ट्रेन से दृश्य बदलता है
जितनी तेजी से दृश्य बदलता है
उतनी तेजी से भागता हुआ लगता है समय
बचपन में हमारा सोना-जागना –उठाना –गिरना खेलना
खाना-पीना हँसाना –बोलना चीखना
चाहे वह आँगन में ही क्यों न रहा हो
वे सारे दृश्य एक पीछे छुट गयी यात्रा की तरह लगते हैं ...

पड़ोसियों के ढेर सारे बच्चो सहित हम सारे नन्हे मित्र
आज एक बड़ी परियोजना के हिस्से की तरह याद आते हैं
उन दिनों जब ढेर सारी माएं
नयी पीढ़ी की उंगलियाँ पकड़ कर उन्हें चलना सीखा रही थीं
उस भीढ़ में माँ मेरे लिए  कुछ खास थीं
और मैं भी उनके लिए
यह एक विशिष्टता और अनन्यता का रिश्ता था .....
पिता की उनपर सारी आसक्ति और रीझ के बावजूद
तब तक मैं यह नहीं जानता था कि
मेरी माँ भी एक परी थीं
और दिखाई न देने के बावजूद
अपने भीतर छिपाए हुए हैं एक अदृश्य पंख
और एक दिन उड़ जाएंगी एक अज्ञात देश समय के साथ
सारे पुत्र मोह के बावजूद अपने वार्धक्य की अशक्तता से लाचार
अपने पुत्र को लोक और समय में छोड़कर......

इस सच के साथ कि दुनिया की सारी मृत्युएँ एक दुर्घटना ही होती हैं
चाहे वे कितनी ही प्राकृतिक क्यों न हो
इस सच के साथ कि आदमी का बच्चा
जितना लम्बा समय सयाना होने में लगता है
उससे कम समय नहीं लगता उसे बूढ़ा होकर मरने में ...
इस सच के साथ कि सारे ईश्वर ,सारे धर्मं और क़ानून
या फिर बिना ईश्वर धर्म या क़ानून के
हर मनुष्य का यह सामाजिक जीवनाधिकार है कि
उसे सेवादार  शांतिपूर्ण  सुखद और सम्मानित म्रत्यु मिले
तमाम असुविधाओं के बीच मैं अपनी माँ को धरती की तरह बचाए रखना चाहता था ...
अकेले में बुदाबुताते हुए
कि हे काल इतनी भी जल्दी क्या है
माँ से भी मैं कहता ही रहता था
कि बुढ़ापा और म्रत्यु तो जीवन का भद्दा मजाक है
वह जीवन का वांछित नहीं ,बल्कि जीवन की मजबूरी है
उसके बारे में सोचकर क्या चिंता करना
आप सिर्फ शांतिपूर्वक  जीने पर ध्यान दें
वृद्धावस्था की लाचारी के अपने सारे अपमानबोध के बावजूद
वे धीरे-धीरे बुढ़ापे को  जीने की जिदा के साथ जीतते हुए जीना सीखा रही थीं ....

जीने की भरपूर इच्छा के विरुद्ध
उनकी म्रत्यु भी एक दुर्घटना ही थी
जब उनकी देह नें उनकी एक न सुनी ...
उस पल को याद कर
मैं अभी भी कविता लिखने की मनःस्थिति में नहीं हूँ ...

मैं नहीं जानता कि माँ के मरने का भूकंप से क्या रिश्ता हो सकता था
माँ का धरती से क्या रिश्ता हो सकता है
उनकी म्रत्यु के बाद क्यों विचलित हो गयी धरती !
गत १८ अप्रैल २०१५ को घर के आँगन की अनापेक्षित घास नोचते हुए
किसने उनकी साँस पर प्रतिबन्ध लगा दिया
बिना मुझसे पूछे ....वह भी तब
जबकि निश्चय ही वे
मेरे आने की आहट की प्रतीक्षा में होंगी
काल जिसकी आत्मा निश्चय ही किसी निर्मम हत्यारे मनुष्य की है
या फिर वह अन्धकार की सारी कालिमाओं से बना हुआ कोई महासर्प ही होगा
जो चिढ़ता होगा जीवन की हर मुस्कान से
या फिर एक अर्थहीन और मुर्खता पूर्ण यांत्रिक स्थगन
जिसके फलस्वरूप मेरी माँ धरती पर ही चिर निद्रा में सो गयीं
जबकि वे मुझे यानि कि अपनी जैविक कलाकृति को
आँखे  हमेशा के लिए बंद हो जाने तक जीते रहना चाहती थीं ..

काल का रावण उनके बेटे कलयुगी राम को
एक बार फिर नौकरी रूपी सोने के हिरन का पीछा कराते
उनके अन्तिम पल से बहुत दूर लेकर चला गया था
मेरे अधिकारी का कहना था कि नौकरी देश के सेवा के लिए की जाती है
और नौकरी यानि मातृभूमि यानि  कर्तव्य के लिए
माँ का शहीद हो जाना भी एक तुच्छ घटना है
कि नौकरी जनहित में की जाती है जबकि माँ हमेशा व्यक्तिगत होती है
यह एक यांत्रिक , अमानवीय और संवेदनशून्य सत्ता का तर्क था
जिसके विरुद्ध मैं पूरे दो वर्ष तक
रात्रि सेवा और संग के लिए उनके पास पहुंचता रहा ....

चालाकियों और झूठ के इस गंदे-अंधे दौर में
उनके अविश्वास के सम्मान में
कई बार इच्छा हुई कि मैं अपनी लाचार माँ के प्रदर्शन के लिए आमंत्रित करूँ
कि बुढ़ापा किसी भी बीमारी से बढ़ कर है
कि पागलो,बूढों,विकलांगों,बेरोजगारों से लेकर अयोग्यों एवं असफलों तक
परिवार अब भी अन्तिम शरण और जीवित संस्था है
जबकि सरकारें अब भी गैरजिम्मेदार और बाजारू
कभी –कभी तो मध्ययुगीन कबीलों के वारिसों से संचालित ...

मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि मेरी माँ नें जितने वर्षों तक मुझे
अपनी उंगलियाँ पकड़ कर चलना सिखाया
और अपने हांथों अपना भोजन पका लेने तक मुझे बड़ा किया
उतने वर्षों तक मेरी भुजाओं का सहारा माँगने का उन्हें अधिकार है ...

मेरे कार्यस्थल के सर्वाधिक भ्रष्ट पतित और झूठे (अ )सहयोगी
माँ के प्रति मेरी सतत चिंता को
माँ के नाम पर मांगी गयी मेरी अवकाश –प्रार्थनाओं को
मेरी दीर्घकालिक यानि कि स्थाईचालाकी का हिस्सा मानते थे ....

तो क्या मेरी माँ इस लिए दिवंगत हो गयीं कि
मेरी माँ सबको अपने अन्तिम संस्कार दिवस पर बुलाकर
यह दिखाना चाहती थीं कि देखो मेरा बीटा झूट नहीं बोल रहा है
कि मैं सचमुच ही अस्वस्थ थी अन्यथा यह दुनिया छोड़कर जाती ही क्यों !

यह समाज जो इतना झूठा और असम्वेदनशील हो गया है कि
कि वह सच बोलने वाले को मुर्ख या झूठा समझता है
उनका इतने अपमानो के बीच जीना और जाना
दोनों ही जैसे धरती को बर्दाश्त नहीं हुआ
उनकी अनैक्छिक एवं अवांछित मृत्यु को यादकर ही जैसे यह धरती क्रोध से कम्पने लगी 
शायद जंगलों के काटे जाने और शेरों के मार दिए जाने से
पूरी तरह नरभक्षी हो चुका काल भूखा था
उसे अपनी क्षुधा –शांति के लिए अभी भी और माओं की जरुरत थी
मैं अपने ही दुख और क्षोभ से बुरी तरह डर गया था
मैंने अपने मातृशोक और भूकंप में अजीब सा रिश्ता देखा
मैंने अपनी माँ कीई आत्मा की शांति के लिए
भविष्य में शान्तिचित्त बने रहने और दुख-बोध को
न जीने का संकल्प लिया     


चेहरों की यह किताब ....



आदमी का शक्ल लेकर घुमती हैं यहाँ
बेहद अक्लमंद और कम - अक्ल दोनों ही
अपने होने को प्रदर्शित कर रहे होते हैं
ऐसा लगता है कि जैसे किसी चोर-दरवाजे से
झांक कर देख रहे हों लोगों के भीतर का सच .....
कुछ चुपचाप अकेले  पड़े हैं फेसबुक पर
तो कुछ गिरोह बंद रूप में
कुछ बेहद शालीन तो कुछ खतरनाक इरादों के साथ
कुछ सुखद झोंकों की तरह तो कुछ तूफानी
कुछ इंसानियत से भरे तो कुछ शैतानी
अजब -गजब है फेसबुक यानि चेहरों की यह किताब ....
साहित्यिक इतिहास का समाजधर्मी पुनः पाठ



यह दुनिया


यह दुनिया जो एक मकड़ी के जाले की तरह है
और मैं भी हूँ उस जाले का एक तार
दूसरों से जुड़ा हुआ
जोड़ता हुआ दूसरों से
दूसरों से बंधा हुआ
बांधता हुआ दूसरों को
मेरा हिलना हिलाता है दूसरों को
मेरा टूटना तोड़ देता है -
संवेदना के कोमल तार
इसी जाले पर दौड़ती है समय की मकड़ी

मैं एक अदृश्य बुनावट का हिस्सा हूँ समाज की
मेरा होना सिर्फ अकेले का
अपनें असम्बद्ध एकांत में होना नहीं है
शायद इसीलिए जब मैं दूसरों को तोड़ता हूँ
स्वयं टूट जाता हूँ
जब मैं छोड़ता हूँ दूसरों को
स्वयं छूट जाता हूँ
मेरी यात्रा एक सामूहिक यात्रा है सम्पूर्ण मानव -जाति की

शायद इसीलिए
मेरे सौभाग्य का ईश्वर
मेरे मित्रों और मेरे चाहने वालों की
शुभकामनाओं से बना हुआ है
दूसरों कोमुझसे मिलाने वाली ख़ुशी में रचा-बसा है
मेरी आत्मा का सच्चिदानन्द !

और मेरे दुर्भाग्य का शैतान भी
मुझे नापसन्द करने वालों की घृणा में छिपा हुआ है
उनकी अरुचि से बना हुआ है
मेरे निर्णयों के प्रति असहमतियों से बना है
मेरे अस्तित्व और सार्थकता का प्रतिपक्ष

मेरा अच्छा या बुरा होना
सिर्फ मेरे भीतर का ही
मेरे भीतर तक ही होना नहीं है।



शून्यकाल के नायक


बाजार में एक ही शिखर था
बिल्कुल एवरेस्ट की तरह
घटता-बढ़ता रहता था लेकिन
झुककर किसी ऊंट की तरह कर्इ बार
किसी अदने से व्यकित को भी बिठा लेता था अपनी पीठपर
फिर उसे बहुत दूर से दिखता और दिखाता था किसी शाहंशाह की तरह
एक ही एवरेस्ट की पीठ पर सब चढ़ना चाहते थे एक दिन
कूबड़ ही एवरेस्ट का था समय का पैमाना बना हुआ
दूल्हे और बारात के आने की प्रतीक्षा और पूर्वाभ्यास में
कुछ लोग बैठकर ऊंघ रहे थे एवरेस्ट की पीठ पर
समय के सूनेपन को भरते हुए
शून्यकाल के नायक!
बाजार में
यह एक मेले का एवरेस्ट था
जहां कुछ शराबी
अपने-अपने सिर पर अपने जीवन का बोझ उठाए
थकी हुर्इ यात्री भीड़ की पीठ पर
इतिहास की दिशा का पोस्टर चिपका रहे थे ।

समय के कैंसर


जब हम एक जगह किसी मानवीय भूमिका में उपस्थिति होते हैं तो
उसी समय किसी अन्य मानवीय भूमिका के लिए
सामाजिक रूप से अनुपस्थित भी होते हैं
जब हम बन जाते हैं व्यवस्था के एक हिस्से के पुर्जे
दूसरे हिस्सों के लिए होते जाते हैं असंगत
कोई भी सर्वव्यापी नहीं हो सकता
एक व्यक्ति के रूप में
लेकिन प्रभाव के रूप में हो सकता है
उन संगठनो के कारण
जो एक व्यक्ति के विवेक कोसभी का विवेक बना देते हैं
होते हैं जिनके पास अपने ही समय के बंधुआ मस्तिष्क
और जो महानता की ओट में शर्मनाक ढंग से
दूसरों को स्थगित और निरस्त करते हुए 
दूसरों के नाम पर सोचते हैं
और बन जाते हैं समय के कैंसर



अवसाद 

उतना सौंदर्य कहाँ जी पाउँगा 
इस दुनिया के नेपथ्य में चली गयी है वह दुनिया 
जिसे मैं दुनिया जानता था 
पहले पिता गए 
और आँगन में उतर आई चिलचिलाती धूप 
पेड़ चुपचाप अतीत में  गए 
कंकरीट का जंगल  देखकर 
हवाएं मुंह ढक कर खांसने लगीं 
फिर माँ वाष्प बनकर अदृश्य हो गईं 
समय का असहनीय सूरज तपने लगा सर पर 
मैं एक घबराई हुयी भीड़ के पैरों तले फेंक दिया गया हूँ  

दर्शकदीर्घा से 

हर सुबह अखबार में छपता है 
तीन मरे तेरह घायल 
अखबार जो काली स्याही से छपे होते है 
छिपा लेते है सडकों पर फैले हुए लाल रक्त ....

रोती हुई स्त्रियाँ और बच्चे 
दूर कही खो जाते है 
खबरों की भीड़ के पीछे 

सुबह की गर्म चाय के साथ 
हम अपने सुरक्षित बचे रह जाने की 
खुशियाँ मानते हैं 
खुशियां मनाते हैं कि 
सुरक्षित बच गए है सारे स्वजन 

कि  अब भी बची हुई है 
हमारे निकट संबंधों की दुनिया 
हमारी जानी - पहचानी दुनिया बची हुई है 

सड़क पर पड़ी लावारिस लाश के 
अन्त्य कर्म के लिए 
क्रमशः पुलिस है कुत्ते है कीड़े हैं 

घटनाओं और बाहरी दुनिया से अलग हम जी रहे हैं 
अख़बारों में छप जाने से बचते-बचाते 
सुबह के अखबार और चाय के साथ 
गुनगुनी प्यारी धुप के साथ 
और अपनी बची हुई दुनिया के लिए 
सभी के प्रति अंतहीन आभार के साथ 
बैठे हुए दर्शक दीर्घा में 



द्रौपदी-प्रसंग'

यद्यपि तुम जानते थे कि व्यास जी का कैमरा लगा हुआ है
पूरे देश और उसके भविष्य के लिए
हो रहा है उसका आन -लाइन प्रसारण ....

क्या कहीं भीतर से जाग उठा था तुम्हारा शरारती विचारक !
या तुम मारना चाहते थे समूची भारतीय संस्कृति के गाल पर
प्रश्न का एक करारा तमाचा?
कि कन्या को भी दान में लेने-देने की वस्तु मानते हो
तो लो मैंने दिया

या फिर नकारात्मक मानसिकता के अभिशप्त क्षणों में
तुमने अर्जुन के कौशल और पुरुषार्थ से जीती हुई
और माँ की आज्ञा से मुफ्त में मिली द्रौपदी को
सिर्फ अपना अधिकार जताने के लिए यूं ही दान कर दी....

क्या दाम्पत्य के अन्तरंग क्षणों में
सिर्फ अर्जुन को वरण करने वाली द्रौपदी
तुम्हें कभी भी भीतर से अपना पति
स्वीकार नहीं कर पायी ?

क्या कुंती नें भी अपनी बहू को
सिर्फ इसी लिए पांच पतियों के बीच बाँट दिया कि
कल उनकी बहू सबकुछ जानने के बाद
अपनी सास के चरित्र पर उंगली न उठाए
कि उसकी बहू अपनी सास को नियोग के लिए
अलग-अलग पुरुषों से समागम करने वाली स्त्री न समझे...

या तुम द्रौपदी के असमान व्यवहार से
उपेक्षित आहत अपमानित और दुखी थे
भीतर ही भीतर दुर्योधन की तरह ही
उसकी प्रखर तर्क-बुद्धि से आतंकित और
उसके व्यंग्य बाण मारने की प्रवृत्ति से आहत थे...

या तुम्हें भीतर ही भीतर पूरा अंदेशा था
और सुनियोजित थे तुम कि
कौरव सत्ता का घृणास्पद चेहरा
पूरी तरह खुलकर सामने आए
और तुमने पूरी तरह कर दिया
अपने कुटुम्ब को उनके हवाले
उनके विवेक की प्रकृति और स्वभाव के
सार्वजनिक निदर्शन के लिए