मार्क्सवादी दृष्टि से आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेद्वी ,नामवर सिंह और चौथीराम यादव तक हिंदी- साहित्य की
ऐतिहासिक आलोचना की यात्रा भारतीय समाज के उस सांस्कृतिक और वर्गीय विभाजन के विश्लेषण का परिणाम है ,आर्थिक विकास और
उत्पादन को आधार बनाकर भारतीय विकास की सराहना करने वाले डॉ० राम विलास शर्मा भी
भारतीय समाज के जातीय-आर्थिक विभाजन को अपने विमर्श का विषय नहीं बनाते .यह
बौद्धिक कुशलता ही उनकी प्रगतिशीलता को भी सनातनी परंपरा के सशक्त उत्तराधिकारी के
रूप में चिन्हित और रेखांकित करा देती है . उनके प्रशंसकों के लिए इसी तथ्य को इस
तरह भी कहा जा सकता है कि डॉ० शर्मा जहाँ सनातनी परंपरा का वामपंथी और प्रगतिशील
पाठ प्रस्तुत करते हैं.उनकी इस पहली सनातनी (चौथीराम यादव जी के शब्दों में वर्णाश्रमी
) परंपरा के समानांतर नामवर सिंह असहमति
एवं विकल्प की एक दूसरी परम्परा को रेखांकित करते हैं .यह दूसरी परम्परा कल्पना
नहीं है .इसकी यात्रा के भी पद-चिन्ह भारत के अतीत में जगह-जगह देखे जा सकते हैं .सनातनी
परम्पारा में राजा और पुरोहित का गठबंधन
है ,सत्ता की सीकरी है तो दूसरी परम्परा में पराधीनता सा मुक्ति की खोज –इसी लिए
यदि मध्यकाल में यह आध्यात्मिक है तब भी मानवीय है .पहली परम्परा में अभिजात्य
वर्ग की सुरक्षा-चिंता वाली व्यवस्था है
तो दूसरी परम्परा में मुक्ति और अस्वीकार का जोखिम .पहली परंपरा के पास सबसे
महत्वपूर्ण चीज उसका परलोक यानि स्वर्ग है ,जबकि दूसरी परंपरा के पास जीता-जागता
वास्तविक लोक जो कबीर को अपनी आँखों से दिखाई देता है ,लेकिन पहली परंपरा के वाहक
अपनी वर्गीय अरुचि के कारण उसे अनदेखा करना चाहते हैं .चार्वाकों ,ब्रह्मर्षियों
,बुद्ध,सिद्ध और संतों तक यह दूसरी परंपरा फैली हुई है .आधुनिक काल में अम्बेडकर के
बाद साहित्यिक स्तर पर हजारी प्रसाद द्विवेद्वी ,प्रेमचन्द /मुक्तिबोध ,नामवर सिंह
और चौथीराम यादव जैसे चिंतकों के माध्यम से जारी रहनी है भविष्य में भी इस परम्परा
की यात्रा को कोई रोक नहीं सकता ,क्योकि यह एक बड़ी जनसँख्या के प्रतिरोध एवं
मुक्ति के जीवनाधिकार से जुडी परम्परा है .इसे ही चौथीराम यादव जी नें लोकधर्म कहा
है .
.फिलहाल तो ब्राह्मणवाद और पुरोहितवाद में
अभेद दृष्टि के कारण परम्परावादियों को सही नहीं सूझता ..ब्रह्म शून्य जैसी ही एक
दार्शनिक अवधारणा थी .उपनिषद् काल तक उस पर पुरोहितों का एकाधिकार नहीं था .उसके
बाद वह जातीय वर्ग-स्वार्थ से आच्छादित हो गया .उसका अमूर्तन करते हुए अबूझ और
दुरूह बनाया गया .स्वत्वाधिकारी ज्ञानी के रूप में प्रतिष्ठित कर शासक और शासित
में लोक को विभाजित कर दिया गया . इस तरह देखें तो पहली परंपरा सत्ता के संस्कृति
की है तो दूसारी परम्परा शासितों यानि लोक की संस्कृति की .गणराज्य की नैतिकता और
राजतंत्र की नैतिकता और मनोविज्ञान में अंतर्विरोध था .आज भी अगर लोकतंत्र को कायम
रखना है .सारी जनता को गुलाम बनाकर मुट्ठी भर देवताओं के लिए स्वर्ग नहीं रचना है
तो ईश्वर की अवधारणा से प्राथना करनी ही होगी कि हे प्रभु ! हम अकर्मण्य भाग्यजीवी
होने के स्थान पर अपने श्रम पर आधारित आत्म-निर्भरता जीना चाहते हैं –इस लिए बेहतर
होगा की आप तटस्थ ,निरपेक्ष और नेपथ्य में ही रहें .
यद्यपि आचार्य द्विवेद्वी नें ब्राह्मणों का
क्षत्रिय और शूद्र के रूप में परिहासत्मक विभाजन किया है –लेकिन शुक्ल-पक्ष के
यथास्थितिवादी ब्राह्मणत्व को देखते हुए –कृष्ण
पक्ष के ब्राह्मणों को जिसे आचार्य जी शूद्र ब्राह्मण कहते थे –उन्हें प्रगतिशील
ब्राह्मणत्व के रूप में देखा जा सकता है .नव्ज्जगारण के प्रमुख केंद्र बंगाल के
शान्ति -निकेतन में जाने के कारण आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेद्वी के मूल्यधर्मी ब्राह्मणवाद के लिए हिदी पट्टी के
कूपमंडूक जातीय श्रेष्ठातावादियों की तरह (अपनी सत्यनिष्ठा और आधुनिक मानवतावाद के
कारण भी ) उस कबीर की अनदेखी करना संभव नहीं था जिसने कभी नानक को प्रभावित कर संत
आन्दोलन एवं सिक्ख पंथ की नीव रखी थी और जिनके पदों से आधुनिक युग में प्रभावित साहित्यकार
रवीन्द्रनाथ टैगोर के पुनर्सृजन नें गीतांजलि जैसी विश्व-प्रसिद्ध रचना विश्व को
दी थी .इसे हम कहना चाहें तो हजारीप्रसाद द्विवेद्वी का प्रगतिशील और समावेशी
ब्राह्मणत्व कह सकते है ,जिसकी सफलता का रहस्य उसके समन्यवाद और वसुधैव कुटुम्बकम
वाली उदारता में है .इस दृष्टि से देखा जाय तो आचार्य शुक्ल तुलसीदास को भी ठीक से
कहाँ समझ पाए .पहचाना भी तो द्विवेद्वी जी नें ही जिनकी आंख खुल चुकी थी .तभी वे
लिख पाए कि भारत का लोकनायक वही हो सकता है जिसमें समन्वय की क्षमता हो और
उन्होंने तुलसी के प्रगतिशील लोकनायकत्व को भी पहचाना .आचार्य शुकल तो सिर्फ तुलसी
का शील ही देखते रहे .इस वाद-प्रतिवाद की कड़ी में राम विलास शर्मा के अवदान को
उचित स्थान देने के लिए सिर्फ इतना ही किया जा सकता है कि यह तथ्यात्मक स्तर पर
स्वीकार कर लिया जय कि सनातनी ब्राह्मणवाद का भी एक प्रगतिशील पाठ बनता है लेकिन
उसकी सीमाओं की पहचान हिंदी की लोकधर्मी परम्परा के महत्त्व को समझते और समझते हुए
ही हो सकती है .मध्यकाल में रैदास का सहज संवेदना वाला कवित्व देश-काल ;जाति-धर्म
की सीमाओं को तोड्कर मीरा में प्रतिध्वनित
हो उठा था .यदि यह गुरुत्व रैदास के पास न होता तो संभव है कि उनको भी दबा दिया
गया होता .राजनीति में नेहरू की तरह ही हिंदी साहित्य में हजारी प्रसाद द्विवेद्वी
इतिहास की त्रिकालिक गति के विशेषज्ञ थे .दोनों नें अतीत की प्रवृत्तियों और
भविष्य की दिशा को पहचाना था .वे नव के सड़ने और यथाशीघ्र डूब जाने के भविष्य को
पहचान गए थे .यह अतिक्रमण आचार्य शुक्ल नहीं कर पाए .वे अपने समय में हैं .अपने
समय में उपस्थित रह कर ही अपनी ऐतिहासिक भूमिका में कालान्तरण कर सकते हैं .उनका
इतिहास जब साहित्यकारों का जाति और कुल पूछता और बताता है तो अपने समाजिक समय की
मानसिकता को जी रहे होने की सूचना ही देते हैं .अपने समय की सामान्य समझ की सीमा
में पकडे तो उनके आराध्य तुलसी दास भी जाते हैं –ढोल गंवार शूद्र पशु नारी ,सकल
ताडना के अधिकारी ‘कह देने के कारण .पानी उतर आने से रेत में फंसी मछली की तरह .
इस तरह चौथी राम यादव जी आलोचना में आचार्य द्विवेद्वी
स्कूल के समर्थ उत्तराधिकारी हैं .वे
स्वयं सामाजिक मुक्ति के सरोकारों की अनदेखी न कर पाने वाले वर्ग से आते हैं .काशी
हिन्दू विश्व विद्यालय के दीर्घकालिक अध्यापन एवं अनुभव नें जो विशेषज्ञता दी है –वह
उन्हें औचित्य दोष रहित एवं ऐतिहासिक दृष्टि से अपरिहार्य साहित्य का इतिहासविद
आलोचक बनाता है .वे बिलकुल सही समय पर बिलकुल सही बात बोल रहे हैं .उस समय बोल रहे
हैं जब छिपे और दबाए जाने का समय बीत चूका है . जिसे हजारीप्रसाद इंगित तथा नामवर
जी “दूसरी परंपरा की खोज में “पंगति” में बोल चुके हैं उसे चोथी राम यादव जी का
विमर्शकार पूर्णाहुति यानि अन्तिम गति में बोलता दिखाई देता है ,तात्पर्य यह कि वे
मुखर .साहसिक एवं निर्णायक हैं .लेकिन यह उनके आलोचक अस्तित्व का देशा-काल ही हुआ
.उनके आलोचक व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य और निजत्व उस समाजवैज्ञानिक विश्लेषण पद्धति
में छिपा हुआ है जो साहित्य को सिर्फ कल्पना जनित मनोरंजक कलावस्तु माने जाने का
निषेध करता है .उनकी दृष्टि में यदि साहित्य कल्पना भी है तो उसे एक वास्तविक
मानव-जगत को सृजित करते हुए दिखाना चाहिए क्योंकि एक सर्जक के रूप में मनोजगत
वस्तुजगत का पूर्वज या अग्रज ही होता है ,भले ही अनुभव जगत के रूप में मनोजगत पश्चज
हो .
अपनी तीनों पुस्तकों के माध्यम से चोथी
राम यादव का आलोचक एक महत्वपूर्ण एवं अपरिहार्य ऐतिहासिक भूमिका में सामने आता है
.दरअसल छवि-निर्माण और व्यक्तित्व –निर्माण दोनों अलग –अलग चीजें हैं जिस तरह कबीर
कवि व्यक्तित्व पूर्ण निर्मित हो जाने के बाद ही आचार्य रामानंद के यहाँ शिष्यत्व
की पहचान के लिए पहुंचे थे ,जिस तरह सूरदास भी बललभाचार्य के सामने गऊघाट पर
“प्रभु होऊं सब पतितन को टीकों “ गाने से पूर्व भी एक अच्छे कवि बन चुके थे- चौथी
राम यादव जी की पुस्तक “हजारी प्रसाद
द्विवेद्वी : समग्र पुनरवलोकन “(लोक भारती ) की भूमिका में व्यक्त नामवर सिंह से
प्रभावित होने और कृतज्ञता ज्ञापन को अतिशयोक्तिपूर्ण न मानते हुए भी इतना संशोधन
कारी वक्तव्य जरूरी लगता है कि नामवर जी की पुस्तक “दूसरी परम्परा की खोज “ के
प्रकाशन के समय तक चौथीराम जी काशी हिंदू
विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के लोकप्रिय एवं प्रतिष्ठित विद्वान् प्राध्यापकों
में से थे .. उनका मध्यकालीन भक्ति काव्य पर एक अतिविशालकाय शोध प्रबंध मैंने
विश्वविद्यालय के केन्द्रीय ग्रंथागार के शोध –प्रबंध वाले कक्ष में देखा था .उनके व्याख्यान इतने सजीव और
त्रिआयामिक होते थे कि सुर को पदते समय देश-काल का बोध समाप्त हो जाता था .सूर ही
क्यों हम कृष्ण-काल को भी अपने प्रत्यक्षकाल की तरह जीने लगते थे .तात्पर्य यह कि
उनकी भूमिका का वह हिस्सा भी उनके शिष्ट-विनम्र व्यक्तित्व के अनुरूप ही सौजन्यपरक
ही होगा अन्यथा यह मानना कि रामचंद्र शुक्ल और रामविलास शर्मा को पदते समय उनके
पूर्वाग्रह संप्रेषित नहीं होते –यह कहना उचित नहीं होगा .उस समय भी राम –तुलसी के
स्थान पर मार्क्स से प्रभावित यहाँ तक कि मुक्तिबोध से सम्बंधित प्रश्न हल करने पर
भी गुरुओं द्वारा अंक काट लिए जाते थे ,ऐसे में नामवर सिंह की उस बोद्धिक एवं
साहसिक इमानदारी ने चौथी राम जी को यदि नामवर जी का भक्त बना दिया हो तो कोई
आश्चर्य नहीं .यहाँ द्विवेद्वी जी के साथ-साथ लोकधर्मी साहित्य के सम्यक इतिहासबोध
के विकास में मुक्तिबोध की उस जब्त पुस्तक का योगदान कम नहीं होगा –जिसकी खुलकर
चर्चा विउवादास्पद होने से बचने के लिए स्वयम नामवर सिंह जी भी न कर पाएं होंगे .
इसतरह लोकधर्मी साहित्य के इतिहासबोध के
विकासकर्ताओं की कड़ी हजारी प्रसाद द्विवेद्वी .मुक्तिबोध .नामवर सिंह और उसके
पूर्ण और मुखर परिपाक के रूप में चौथी राम यादव तक जाती है.चोथी राम यादव की तीनों
प्रकाशित आलोचना पुस्तके –“हजारीप्रसाद द्विवेद्वी :समग्र पुनारावलोकन(१९१२ ,लोक
भारती प्रकाशन ) “लोकधर्मी साहित्य की
दूसरी धारा”(२०१३ में अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.)लिमिटेड ,नयी
दिल्ली ) तथा “उत्तर शती के विमर्श और हाशिए का समाज (२०१४,अनामिका ) दरअसल हिंदी साहित्य के प्रचलित इतिहासबोध का
पुनःपाठ प्रस्तुत करती हैं .
यद्यपि उन्होंने नामवर जी द्वारा
प्रोत्साहित होने को खुलकर साभार स्वीकार किया है .यह प्रभाव निश्चयात्मक एवं
संकल्पात्मक है .उसके पश्चात् वे हिंदी के साहित्यिक इतिहास के पुनर्लेखन की एक
दीर्घकालीन एकांत परियोजना को दायित्वपूर्ण गंभीरता से अंगीकार करते हैं .दूसरी
परंपरा की खोज ‘ का प्रतिमान जिसमें हजारीप्रसाद के साहित्य और आलोचना को युगपत रूप
में समझने की कोशिश की गयी है –चोथी राम जी के हजारीप्रसाद सम्बन्धी विश्लेषण को
एक पद्धातिपरक स्तरीयता एवं प्रमाणिकता देती है .यह पुस्तक उनके लिए सूत्र-निर्माण
की भी पीठिका प्रस्तुत करती है ..अध्यायों के शीर्षक भी इस सूत्र –शोधा का साक्ष्य
प्रस्तुत क्जराते हैं .-व्यक्तित्व की केन्द्रीय धुरी ,अंतर्विरोधों का गत्यात्मक
पक्ष , उपन्यास : रचना-प्रक्रिया और सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भा ; निबंध और आलोचना
: मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है ,संस्कृति-चिंता ,सौन्दर्यबोध ,साहित्य का
गतिशील चिंतन :इतिहास –दृष्टि : उत्थान्मुलक नैरन्तर्य –आचार्य शुक्ल ऑयर आचार्य
द्विवेद्वी का दृष्टि-भेद ;पांडित्य की लोकोंमुखता :लोक और शास्त्र का द्वंद्व
,कल-निर्धारण : मध्य कालीन बोधा की आधुनिकता ; चिंतन का लोक-पक्ष और स्त्री –अस्मिता
की खोज आदि शीर्षक और उप-शीर्षक आचार्य
द्विवेद्वी के साहित्य-बोधा और इतिहासबोध को गंभीर और प्रमाणिक विश्लेषण के साथ
प्रस्तुत करते हैं .इन अंतर्दृष्टियों का सम्यक विनिवेश ही उनकी दूसरी पुस्तक
“लोकधर्मी साहित्य की दूसरी धारा “ में विशेषज्ञ विस्तार पाता है .
यह आलोचनात्मक विमर्श प्रस्तुत करने
वाली पुस्तक तीन उपशीर्षकों में विभाजित है –लोक और वेड आमने-सामने ,हाशिए का समाज
और समकालीन विमर्श तथा आधुनिकता का लोकपक्ष .प्रथम खंड में ‘भक्ति-आन्दोलन की
पृष्ठभूमिऔर संत-साहित्य ,दलित-चिंतन की प्रति –परंपरा और कबीर ,अवतारवाद का
समाजशास्त्र और लोकधर्म , सूर की भाषा और भाषा की आधुनिकता ,सही इतिहासबोध को
रेखांकित करती दूसरी परंपरा की खोज शीर्षक
आलेख शामिल हैं , दूसरे खंड में
“मध्यकालीन समाज और हिंदी-साहित्य में नारी-मुक्ति-चेतना ,हिंदी नव-जागरण और
उत्तरशती के विमर्श ,स्त्री –विमर्श की चुनौतियां और छायावाद का मुक्ति-स्वर ,सती –विमर्श
का भारतीय सन्दर्भ और पुनर्नवा के स्त्री –प्रश्न ,रोटी हुई संवेदनाओं की आत्म-कथा
(मुर्दहिया ) शामिल हैं . तीसरे खानदा में ‘नागार्जुन की कविता में प्रतिरोध का
स्वर ,इक्कीसवी सदी का गल्प और काशी का अस्सी ,रेहान पर रग्घू या इक्कीसवीं सदी का
गाव –घर “प्रति-संस्कृति के हिंदी-साहित्य पर एक नजर (संतों घर में झगरा भारी ‘ के
बहाने ) तथा साम्प्रदायिकता और सामाजिक उत्पीडन बनाम “कबिरा खड़ा बजार में “ आलेख
शामिल हैं
तीसरी पुस्तक ‘उत्तरशती के विमर्श और
हाशिये का समाज “ अपने नाम के अनुरूप ही दलित ,आदिवासी और स्त्री-विमर्ष से
सम्बंधित है .ये आलेख अपनी प्रकृति में सैद्धांतिक और ऐतिहासिक दोनों हैं
.हजारीप्रसाद द्विवेद्वी का इतिहास का नैरंतर्यवादी दृष्टिकोण उनकी भी आलोचना को
वह तीसरी आँख देता है ,जो उनके विमर्श को सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों का विरोधी
बना देता है .भारतीय राष्ट्र की
पुनर्व्याख्या और हाशिए का समाज ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र तथा
“हिंदी नवजागरण और उत्तरशती के विमर्श “जहाँ अपनी प्रकृति में सैद्धांतिक है तो
‘दलित –आदिवासी साहित्य और उनके ऐतिहासिक श्रोत ‘,.दलित-चिंतन की प्रति-परंपरा और
कबीर ,’ रैदास के सपनों का समाज ‘ तथा रोती हुई संवेदनाओं की आत्मकथा ‘जैसे निबंध साहित्यिक
सन्दर्भों सहित दलित-विमर्श को आगे बढ़ाते हैं .अन्तिम तीन निबंध –‘मध्यकालीन
लोक-जागरण और नारी-मुक्ति-चेतना ‘,स्त्री-विमर्श की चुनौतियां और छायावाद का
मुक्ति-स्वर’ तथा ‘स्त्री-विमर्ष का भारतीय सन्दर्भ और पुनर्नवा के स्त्री-प्रश्न
‘स्त्री-विमर्श पर केंद्रित हैं .
भारतीय समाज के आधुनिकीकरण और पुनर्निमाण
के लिए बौद्धिक स्तर पर उन वर्ग-स्वार्थों की पडताल अत्यन्त जरूरी है जो उसके
नियति के प्रवाह को सही-सही न समझने की नीयत को जन्म देती रही हैं । भारत में
परम्परागत नेतत्व ब्राहमण बुद्धिजीवियों का रहा है । ब्रहमण जाति की ऐतिहासिक
भूमिका सत्ताधारियों के पक्ष में सामाजिक-सांस्कृतिक जनमत तैयार करनें की रही है ।
यधपि यह प्रत्यक्ष रूप से सत्ता के केन्द्र में कम ही रही है लेकिन कम समय
में ही उसनें भारतीय समाज पर निर्णयक प्रभाव छोड़ा है । मौर्य काल के बाद
पुष्यमित्र शुंग के रूप में तो मुगल काल के बाद पेशवार्इ के रूप मेे भारतीय समाज
को छुआछूत और अस्पृश्यता की सौगात दी । भारत में ब्राहमण-श्रेष्ठता का आधार
धार्मिक ही रहा हे । यही धामि्रक श्रेेष्ठता ही उसकी सांमंजिक-सांसकृतिक श्रेष्ठता
का आधार रही है ।आजादी की लड़ार्इ में नवजागरण तो बि्रटिश शिक्षा और सत्ता के
प्रभाव में ही होना था जबकि पुनर्जागरण का सामुदायिक आधार हिन्दू और मुसिलम
जातीयता थी । इसमें भी हिन्दू जातीयता का सही इतिहास-बोध के पुनर्रचनाकारआधार
ब्राहमण और उसकी सांस्कृतिक स्मृतियां ही थीं । इसीलिए जब भारत-भारतीकार मैथिलीशरण
गुप्त के साहित्य में भी हिन्दू जातीयता के दर्शन होने लगते हैं तो आश्चर्य नहीं
होता । यह जातीयता संस्कृत-निष्ठ तत्सम हिन्दी के विकास तक जाती है और आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल के हिन्दी साहित्य के इतिहास के मूल्य-निर्णय तक भी । इसी चेतना
के कारण ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखित हिन्दी साहित्य का इतिहास
पुनर्जागरण के इतिहासबोध का ही पाठ प्रस्तुत करता है । बंगाल के प्रवास और नवजागरण
के वास्तविक प्रवाह से परिचित होने के कारण हिन्दी में यह श्रेय प्रेमचन्द को
छोड़कर सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेद्वी जैसे
बंगाल-प्रवासी कुछेक साहित्यकारों को ही हे जो पुनर्जागरण की जातीय मनोग्रस्तता से
बाहर निकलकर नवजागरण के आधुनिक स्वरूप का साक्षात्कार कर पाए । सम्यक इतिहासबोध के
कारण सिर्फ आचार्य द्विवेद्वी ही ब्राहमण जातीयता की मध्ययुगीन सीमाओं को सही-सही जान
और पहचान पाए । उन्हें आसन्न युगान्त और आधुनिक भावी की सही-सही पहचान थी । यह
सजगता उन्हें राहुल सांकृत्यायन की परम्परा से जोड़ती है । इन इतिहासजनित
पूर्वाग्रहों का अतिक्रमण न कर पाने के कारण ही आचार्य शुक्ल का हिन्दी साहित्य का
इतिहास ब्राहमण जातीयता पर आधारित आधुनिकता.बोध का ही पाठ प्रस्तुत करता है ।
विचारशील प्रतिभा की भव्य प्रस्तुति और ऐतिहासिक समझदारी के बावजूद वे दलित-विमर्श
युग के मानवतावाद के प्रतिपक्ष में जा पड़ते हैं । आचार्य श्ुक्ल के ये विचलन उनकी
ऐतिहासिक अवसिथति की उपज हैं । वे बि्रटिश भेदनीति द्वारा प्रोत्साहित हिन्दू
जातीयता के उभार से बच नहीं सके हैं । यह वह समय था जब कबीर पिछड़ रहे थे और
हिन्दू जातीयता ब्राहमण-श्रेष्ठता के पम्परागत बोध के साथ एक दूरगामी ऐतिहासिक
विभाजन की ओर बढ़ गयी थी । हिन्दी के साहित्य-शिक्षकों की कर्इ पीढि़यां अपने पितामह
साहितियक इतिहासकार की ऐतिहासिक सीमाओं का वाचन-पाठन करती रहीं । यह श्रेय आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेद्वी को ही है कि उन्होंनें व्यापक असहमतियों के साथ हिन्दी
साहित्य के इतिहास का पुन:पाठ प्रस्तुत किया । उनमें इतिहास की विकासवादी
र्इमानदार समझ मिलती है । वर्चस्व की संस्कृति के साथ ही प्रतिरोध की संस्कृति की
वह शिनाख्त भी जिसे चौथीराम यादव नें 'लोकधर्मी साहित्य की दूसरी धारा कहा है । वर्चस्व की संस्कृति को
भारत के जातीय सामन्तवाद नें अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप पैदा किया था । वर्ण भ्ेद ,आनुवांिशक प्रारब्धवाद ,क्र्रानितकारी
असन्तोषविरोधी नियतिवाद ,मनोवैज्ञानिक
दृषिट से अनुयायी बनाने वाला आध्यातिमक दर्शन जिसे पुरोहित वर्ग की जातीय
श्रेष्ठता की सामजिक स्वीकृति के माध्यम से भकित साहित्य और संस्कृति के रूप में
प्रचारित किया गया था-इस वर्चस्व की संस्कृति की सामान्य विशेषताएं थी । जाहिर है
कि यह सामन्तवाद और पुरोहितवाद के गठजोड़ से पैदा हुर्इ सांस्कृतिक-सामाजिक
अभियानित्रकी आधुनिक मानवतावादी प्रगतिशील नजरिए से और लोकतानित्रक नजरिए से भी
आधुनिक मानवतावाद के प्रतिकूल पड़ती है ।
दरअसल मांक्र्सवाद की
सैद्धानितकी हर युग के अपनें सत्ता-संरक्षक साहित्य के असितत्व को स्वीकार करती है
। भारतीय सामन्तवाद नें आनुवांशिक तथा जातीय उत्तराधिकार वाली संस्कृति आधारित
व्यवस्था का विकास किया था ।इसकी सत्ता और उसके सहायकों का अलग चरित्र था । यह
चरित्र जनसामान्य के विशिष्टता-बोध को नकारता है । इसके प्रतिरोध में लोक नें अपनी
अलग दार्शनिकी विकसित की है । लोकधर्म की यह परम्परा प्रभु-वर्ग के अलग विशिष्टता
और श्रेष्ठता-बोध को अस्वीकार करती है । आधुनिक लोकतानित्रक युग में जन-सामान्य की
इस प्रतिरोधी धारा का महत्व बढ़ा है । चौथ्ीराम यादव के आलोचक की भूमिका इसी
प्रतिरोधी धारा के स्पष्ट एवं युगधर्मी पहचान की है । चौथीराम
यादव के आलोचक के निर्माण में हजारीप्रसाद द्विवेद्वी इतिहासबोध और पर्यवेक्षणों
की महत्वपूर्ण भूमिका है । लोकभारती से प्रकाशित अपनी पहली पुस्तक हजारीप्रसाद
द्विवेदी समग्र पुनरावलोकन को लिखते समय वे इतिहास के संघर्ष के उन जरूरी
प्रश्नों का भी साक्षत्कार करते और कराते हैं,जिसका स्वतंत्र और बहुआयामी प्रस्फुटन उनकी अनामिका प्रकाशन से
प्रकाशित उनकी दूसरी पुस्तक लोकधर्मी साहित्य की दूसरी धारा में हुआ है ।
चौथीराम का यह लेखन युग की अपनी अपरिहार्यताओं से पैदा हुआ अनौपचारिक लेखन है । यह
प्राध्यापकीय प्रोन्नति के दबावों से पूरी तरह मुक्त ज्ञान के विकास के लिए आवश्यक
एक जरूरी लेखन के रूप में है । हिन्दी की आलोचकीय विसंगतियों पर ऐसा साक्ष्यधर्मी
चिन्तन है,जिसकी
अवहेलना कर सही इतिहासबोध नहीं निर्मित किया जा सकता । अपनी इसी भूमिका में
चौथीराम यादव एक बड़े बदलाव-बिन्दु की प्रस्तावना करने वाली महत्वपूर्ण पुस्तक के
लेखक के रूप में सामनें आते हैं । एक विनम्र,उदार और साहसिक पक्षधरता उनके आलोचकीय विमर्श को महत्वपूर्ण बनाती है
। बिना किसी पूर्वघोेषणा और संगठित प्रचार के अपनें अनौपचारिक चिन्तन, समाजशास्त्रीय दृषिट और
स्पष्टवादी तेवर के साथ उनकी आलोचना एक निर्णायक विमर्श उपसिथत करती है । वर्चस्व
की संस्कृृति के समानान्तर लोकधर्मी प्रतिरोध की संस्कृति और साहित्यधारा की पहचान
चौथीराम यादव की आलोचना की केन्द्रीय चिन्ता है । यह संस्कृति वर्ण-धर्म की विरोधी और
मानवतावादी है ।
अपनी इस पुस्तक में चौथीराम
यादव नें जनपदीयता और लोकधर्मिता को अभिजात्य एवं शोषक सृजनशीलता के
प्रगतिशील विकल्प के रूप में देखा है । इसी आधार पर प्रगतिशीलता की परम्परा को वे
मध्य युग में कबीर से लेकर आधुनिक युग में प्रेमचन्द,निराला ,नागाजर्ुन,फणीश्वरनाथ रेणु , शिवपूजन सहाय,हरिशंकर परसार्इ,काशीनाथ सिंह,मैत्रेयी पुश्पा और अनामिका
आदि तक में देखा है। उनके अनुसार कबीर का सांस्कृतिक जनपद प्रगतिशील हिन्दी कविता
की कीमती रिसत है ।(भूमिका,लोकधर्मी
साहित्य की दूसरी धारा ) अपनें आलोचकीय विश्लेषण में चौथीराम यादव की यह स्थापना
महत्वपूर्ण है कि कबीर नें भाषा-विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया को ठीक पहचाना
था ,क्योंकि
भाषा-विकास की स्वाभाविक प्रकि्रया तदभवीकरण की थी,न कि तत्समीकरण की । इसी सन्दर्भ में वे आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल की इसलिए आलोचना करते हैं कि उन्होंने संस्कृत काव्यशासित्रयों का
अनुसरण करते हुए रचनाकारों पर संस्कृत बुद्धि,संस्कृत âदय,संस्कृत
वाणी का अपना आलोचकीय निर्णय लाद दिया । इसे वे हिन्दी-आलोचना के
अलोकतानित्रक होने का उदाहरण समझते हैं । वर्ण भेद के समर्थन और विरोध के आधार पर
कबीर की निन्दा और तुलसी की प्रशंसा वर्णवाद ग्रस्त मानसिकता का एक प्रतिगामी
उदाहरण मात्र है । इस पुस्तक में संकलित आचार्य द्विवेद्वाी का कबीर-प्रेम 'भकित-आन्दोलन की पृष्ठभूमि
और सन्त-साहित्य शीर्षक आलेख भकित-आन्दोलन की ऐतिहासिक सामाजिक भूमिका की पड़ताल
वर्ण-विरोधी और समर्थक दोनों ही दृषिटयों से करता है ।
भकित
आन्दोलन की पृष्ठभूमि और सन्त साहित्य शीर्षक आलेख भकित-आन्दोलन की
ऐतिहासिक-सामाजिक भूमिका की पड़ताल वर्ण-विरोधी और समर्थक दोनों ही दृषिटयों से
करती है । ऐसा करते हुए वे ब्राहमणवाद की हजारों वर्ष पुरानी मानवतावाद विरोधी
भूमिका की शिनाख्त भी प्रस्तुत करते हैं ।यह एक ऐसा कैंसर है ,जिसे छिपाना आधुनिक
प्रगतिशील दौर में असंभव ही है । ऐसा करना इतिहास-बोध की निर्णायक पुनर्रचना के
लिए जरूरी है । यह लेख शंकराचार्य और तुलसीदास से लेकर आचार्य शुक्ल तक की
ब्राहमणी पाठ का रेखांकन और प्रश्नांकन प्रस्तुत करता है । पूरे लेख में में
चौथीराम यादव की स्थापना इस केन्द्रीय दृषिट के चतुर्दिक निर्मित हुइ्र है कि
यदि निर्गण भकित आन्दोलन को भारतीय चिन्तन परम्परा के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
में देखा जाय तो बुद्ध बनाम शंकराचार्य तथा कबीर,रैदास बनाम तुलसीदास के बीच एक वैचारिक संघर्ष की
सिथति बहुत साफ दिखार्इ देती है । वर्ण-व्यवस्था के समर्थन और विरोध के इस संघर्ष
में तुलसीदास,शंकराचार्य
के साथ खडे़ दिखार्इ देते हैं तो कबीर और रैदास बुद्ध के साथ । (पृ0 25 ) चौथीराम
यादव निगर्ुण भकित आन्दोलन को लोकभाषा के आन्दोलन के रूप में देखें जानें की
प्रस्तावना करते हुए कबीर की प्रशंसा और आचार्य शुक्ल की भत्र्सना उनकी भाषानीति
के लिए भी करते हैं । उनके अनुसार सामन्ती-पुराहिती रूढि़यों को अभिव्यक्त करनें
वाली भाषाओं के स्थान पर क्षेत्रीय भाषाओं का विकास,उस युग की ऐतिहासिक आवश्यकता भी ,जिसके चलते निगर्ुण आन्दोलन
के प्रवर्तक कबीर नें अपनी भाषानीति को स्पष्ट करते हुए संस्कृत को कूप-जल और भाषा
को बहता नीर घोषित किया । भाषा-विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया को पहचानने में
कबीर नें कोर्इ गलती नहीं की और तत्समीकरण के स्थान पर तदभवीकरण की स्वाभाविकता को
रेखांकित किया । यहां संस्कृत बुद्धि, ,संस्कृत âदय और
संस्कृत वाणी के समर्थक आचार्य शुक्ल की भाषा-दृषिट से कबीर की भाषादृषिट का
सर्जनात्मक अन्तर भी स्पष्ट हो जाता है ।(वही 24 ) यह लेख सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रगतिशील
इतिहास-बोध की समझदारी निर्मित करनें के साथ-साथ अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए
हिन्दी आलोचना में याद किया जाएगा । यह हिन्दी आलोचना का सामाजिक क्रानितधर्मी पाठ
है ,जो
न सिर्फ कबीर की ऐतिहासिक स्मृति को समर्पित है ,बलिक उनकी खरा सच बोलने
वाली उस विचारक परम्परा को भी जो निन्दा को आपरेशन के औजार की तरह इश्तेमाल करती
है । यह आलोचना का समाजशास्त्रीय पाठ है-लेकिन उत्पादन श्रम को हेय बताकर उपभोक्ता
संस्कृति की अकर्मण्यता विकसित करने वाले धर्मशास्त्रों के समर्थक इन
बुद्धिजीवियों नें ऐसी कोर्इ आचार-संहिता नहीं बनार्इ कि उच्च वर्ण के लोग शूद्रों
द्वारा उत्पादित खाधाान्नों का सेवन न करें । चौथीराम यादव कबीर आदि संत कवियों
द्वारा वर्णश्रम के प्रति अश्रद्धा पैदा करना लोक विरोधी आचरण नहीं बलिक मध्यकालीन
लोकजागरण का प्रगतिशील कदम मानते हैं ।(पृ0 44) उनकी दृषिट में कबीर मध्ययुगीन देशज आधुनिकता को
आधुनिक कवियों और लेखकों के आधुनिकता-बोध से जोड़ने वाला सम्बन्ध-सेतु है । (पृ0 45 )
'अवतारवाद का समाजशास्त्र और
लोकधर्म चौथीराम यादव ज ी का महत्वपूर्ण आलेख है । यह एक ऐतिहासकि सच्चार्इ है कि
समाजशास्त्रीय आलोचना का प्रगतिशील विवेक वर्णश्रम वादी और माक्र्सवादी आलोचना की
शुद्धतावादी पूर्वाग्रही जड़ता की तुलना में अधिक सार्थक है । चौथीराम जी का यह
आलेख अनेक दृषिटयों से महत्वपूर्ण है। रामकथा को पुरुष-सत्तात्मक यूटोपिया और कृष्णकथा
को मातृसत्तात्मक यूटोपिया के रूप् में विश्लेषित कर भारतीय समाज के लिए कर्इ
महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले गए हैं । चौथीराम यादव के अनुसार तुलसीदास का रामचरित
मानस पुरुषसत्तात्मक समाज के लिए अवतारवाद का वर्णाश्रमी पाठ है ; जबकि सूरदास के सूरसागर की
कृष्णकथा मातृसत्तात्मक समाज का लोकधर्मी रूपान्तरण है तथा यह पौराणिक अवतारवाद के
पाठ से बिल्कुल अलग है । इसका कारण यह है कि सूरदास नें कृष्ण का चित्रण मानवीय
अन्तरंगता के साथ किया है और वे भूल गए हैं कि उनके कृष्ण र्इश्वर भी हैं । जबकि
तुलसीदास राम का र्इश्वरताबोध बनाए रखनें के प्रयास में राम के सहज मानवीय रूप् को
उभरने ही नहीं देते । रामकथा में तुलसी की अभिव्यकित राम की सामन्ती गरिमा
और शिष्टाचार को बनाए रखती है ।इसीलिए चौथीराम यादव मातृसत्तात्मक समाज की
पौराणिक स्मृति,साहितियक
रूपक और यूूटोपिया की प्रस्तुति की दृषिट से कृष्ण-काव्य को महत्वपूर्ण मानते हैं
। इस लेख में ऐसे बहुत से स्थल हैं जो भारतीय संस्कृति की ब्राहमणवादी संरचना का
समाजशास्त्रीय पुन्:पाठ प्रस्तुत करते हैं । निर्णयक और निर्मम न्यायिक टिप्पणियां
चौथीराम यादव की आलोचना की विशेषता है । इस लेख में ब्राहमणवादी और ब्राहमण-विरोधी
दोनों ही धाराओं की सम्यक पड़ताल की गर्इ है । यह एक तथ्य है कि राम-काव्य की
तुलना में कृष्ण-काव्य और संरचना का समाजशास्त्रीय पुन्:पाठ प्रस्तुत करते हैं ।
निर्णयक और निर्मम न्यायिक टिप्पणियां चौथीराम यादव की आलोचना की विशेषता है । इस लेख
में ब्राहमणवादी और ब्राहमण-विरोधी दोनों ही धाराओं की सम्यक पड़ताल की गर्इ है ।
यह एक तथ्य है कि राम-काव्य की तुलना में कृष्ण-काव्य औराल की गर्इ है । यह एक
तथ्य है कि राम-काव्य की तुलना में कृष्ण-काव्य और चरित्र के प्रगतिशील पक्ष पर
हिन्दी में मौलिक कम ही लिखा गया है । चौथीराम यादव ज ी की यह पुस्तक पहली बार
आधुनिक समाजशास्त्रीय दृषिट से कृष्ण7चरित्र की सम्यक समीक्षा करती है ।
रामकथा का समाजशास्त्रीय
विश्लेषण करते हुए चौथीराम यादव की यह स्थापना महत्वपूर्ण है कि वर्चस्ववादी
संस्कृति की रक्षा और प्रतिरोध की संस्कृति का नकार ही रामकथा का पौराणिक लक्ष्य
है ।(पृ0 74) उनके
अनुसार राम-रावण के प्रतीकात्मक संघर्ष का निहितार्थ वर्चस्व की संस्कृति बनाम
प्रतिरोध की संस्कृति का संघर्ष है ; जिसमें तमाम जातीय-विजातीय परम्पराओं की जय-पराजय और स्मृतियां
समाहित हैं ।( वही,पृ0 74 )चौथीराम
जी नें रामकथा के अधिक ब्राहमणवाद-सम्मत होनें का जो संकेत किया है एवं तुलना में
कृष्ण-चरित्र को जो अधिक चुनौतीपूर्ण और उन्मुक्त पाया है ,उसमें पर्याप्त बल है ।
दलार्इलामा संस्था की तरह राम का तो जन्म ही ब्राहमण ऋषियों द्वारा बहुप्रचारित सांस्कृतिक
परियोजना के अन्तर्गत होता है । राम का सारा संघर्ष ब्राहमण ऋषियों के उस संघर्ष
पर खरा उतरनें का ही है । बात सिर्फ इतनी सी ही लगती है कि ब्राहमणें से असहमत
होने के कारण रावण राम के विष्णुत्व पर विश्वास नहीं कर पाता । राम और पाण्डव भी
यदि प्राचीन नियोग प्रथा की उपज रहे हों तब भी उनकी आनुवांशिक श्रेष्ठता के
वैज्ञानिक आधार से इन्कार नहीं किया जा सकता । निश्चय ही राजा दशरथ नें नियोगी जनक
के रूप् में सर्वश्रेष्ठ पिता का ही चयन किया होगा । चारों बालकों में सिर्फ राम
और लक्ष्मण को ही अपना शिष्य बनानें के लिए मांगनें के कारण अधिक संभावना यह भी है
कि विश्वामित्र ही उनके नियोगी पिता रहे होंगे । श्रृंगी ऋषि तो उस यज्ञ के
पुरोहित मात्र थे ।राम के ब्रहमत्व को ब्राहमणें नें अगि्रम मान्यता दे दी थी ।
मनोवैज्ञानिक दृषिट से भी देखें तो राम पर उस जाति की अपेक्षाओं पर खरा उतरनें का
भारी दबाव रहा होगा । रावण नें उन्हें चुनौती देकर ब्राहमणी विभ्रम से बाहर
निकालकर मनुष्य की तरह निरीह बनानें और बतानें की असफल कोशिश की और दशरथ द्वारा
चयनित जीन से घटिया साबित हुआ और मारा भी गया । यह भी एक सच्चार्इ ही है कि इतिहास
के नेतृत्वकर्ता प्रतिपक्षियों से अधिक विकसित रहे हैं । प्रचीन आयोर्ं की जातीय
एकता और आनुवांशिक योग्यता के आधार पर वर्ण विभाजन के विकसित जातीय चरित्र को शायद
आज की समझ से समझाा नहीं जा सकता । यदि ध्यान से देखा जाय तो रामकथा राजतन्त्र में
विकसित नागरिक समाज के मूल्यों की महागाथा प्रस्तुत करती है । इसके समाज के सभी
वगोर्ं में एक आवयविक निर्भरता है ,जो सहयोग की संस्कृति का प्रचार करती है,जबकि कृष्ण-काव्य के नायक
कृष्ण का नायकत्व गणतन्त्र के नायक का नायकत्व है । इस भेद के कारण दोनों के
मूल्य-निर्धरण में अन्तर है । चौथीराम यादव के अनुसार सूरदास के सूरसागर में
चित्रित समाज ,रामचरित
मानस के पौराणिक समाज से बिल्कुल भिन्न समाज है । सूरसागर में चित्रित समाज चाहे
वैदिक समाज की स्मृति (नास्ट्रेलिजयाद्ध हो अथवा भावी समाज का स्वप्न (यूटोपिया)
दोानों ही सिथतियों में वह मानस के बन्द समाज से कहीं ज्यादा खुला हुआ आधुनिक समाज
है और कभी-कभी तो स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की सामाजिक उन्मुक्तता के कारण
उत्त्रआधुनिक जैसा भी प्रतीत होता है । (पृ067)
वस्तुत: राम का चरित्र
प्राचीन आयोर्ं के जातीय आदर्शवाद को पूर्ण चरमोत्कर्ष में सामनें लाता है ,जबकि कृष्ण का चरित्र उस
जातीय आदर्शवाद से पूरी तरह बाहर और स्वच्छन्द है । कृष्ण को बहुत प्रतिरोध और
संघर्ष के बाद ब्राहमणें द्वारा मान्यता मिली । कृष्ण के पालक नागरिक जीवन को
नापसन्द करने वाले प्रकृतिजीवी प्रजाति और संस्कृति के लोग थे । राम की तरह प्रारम्भ
से ही आरोपित गरिमा-बोध से मुक्त रहने के कारण कृष्ण का चरित्र अधिक सामाजिक तथा
जन-सामान्य के लिए तादात्म्यपूर्ण है । वह ब्रहमणी अपेक्षाओं के अनुशासन में
निबद्ध नहीं है । अपनें प्रारमिभक संघर्ष में वह इन्द्र-पूजा का विरोध करनें के
कारण ब्रीहमणवादी वर्चस्व की अवहेलना की सूचना भी देता है । इस अर्थ में चौथीराम
जी नें उसे ठीक ही रामकथा से अधिक प्रगतिशील पाया है ।'उनके अनुसार वैदिक काल से
लेकर मध्यकालीन सूरदास के गोचारी काव्य तक कृष्ण की ऐतिहासक यात्रा वस्तुत: जननायक
से लोकनायक बनने की ही अन्तर्यात्रा है ,भले ही समय-समय पर उसे र्इश्वर का मुकुट भी पहनाया जाता रहा हो ।
लेकिन सूरदास के लिए यह मुकुट किसान-संस्कृति के किसी प्रभावशाली मुखिया की पगड़ी
से ज्यादा अहमियत नहीं रखता। वैदिक काल का सीमान्त और उत्तर वैदिक काल का आरम्भ
भारतीय इतिहास का वह समय है जब आयोर्ं का प्शुचारी जीवन कृषि-जीवन में रूपान्तरित
हो रहा था । कृषि-केनिद्रत इस नर्इ जीवन-पद्धति मेें इन्द्र के वर्चस्व वाली यज्ञ
प्रणली और निरन्तर होने वाले युद्ध बहुत मंहगे और घातक सिद्ध हो रहे थे,उस सिथति में तो और भी जब
यज्ञों के लिए मवेशी और अन्य प्शु बिना मूल्य चुकार ही हथिया लिए जाते थे ।
जाहिर है कि ऐसे यज्ञ प्शुपालक किसानों के आर्थिक शोषण के जटिल कर्मकाण्ड बन
गए थे । सामाजिक जीवन के इस परिवर्तित मोड़ पर किसानों के हित में यज्ञ और
इन्द्र का विरोध एक एंतिहासकि अनिवार्यता बन गया था । ऐसे ही समय यज्ञ और इन्द्र
का विरोध करने के कारण गोरक्षक कृष्ण नें किसानों का प्रवक्ता बन ,जननायक का गौरव अर्जित कर
लिया और लगातार बढ़ती लोकप्रियता नें उसे पूज्य बना दिया । कृष्ण का यह
चाित्र प्राय: धर्मभाीरु रहनें वाली सामान्य जनता को कर्म एवं वास्तविकताजीवी बनने
का सन्देश देता है ।यह स्पष्ट रूप से पौराणिक स्मृति में मिलने वाला पुरोहितवाद का
प्रत्यक्ष क्रानितकारी विरोध है । चौथीराम जी नें उचित ही यह रेखांकित किया है कि 'सूरदास के सूरसागर में
चित्रित समाज,रामचरित
मानस के पौराणिक समाज से बिल्कुल भिन्न समाज है । उनका यह आरोप कि जननायक कृष्ण को
अपनें ही लोक के विरूद्ध पुराण्कारों नें खड़ाकर दिया महत्वपूर्ण है । विरोधी
नायकों को अपना बनाने की कोशिश ब्राहमण जाति नें अपनें तरीके से की थी और अब भी कर
ही रही है । दक्ष का यज्ञ विध्वंस करनें वाले शिव को महादेव घोषित कर देना और
कालपनिक देवताओं की पूजा का बहिष्कार कराने वाले कृष्ण को ही विष्णु का अवतार
घोषित कर देना एक ही जैसी ब्रहमणी नीति का हिस्सा है । यह एक-दूसरे को मान्यता
देनें और असितत्व-समर्थन जैसी बात लगती है । यह सच है कि कृष्ण-चरित्र अधिक
नैसर्गिक और मानवीय है ।उसे ब्राहमणवाद नें नहीं गढ़ा बलिक उसनें ही ब्राहमणवाद को
अपनें तरीके से गढ़ लिया है । कृष्ण-चरित्र की लोकधर्मिता और लौकिकता अपनें
आध्यातिमक संस्करण के बावजूद साफ-साफ दिखती है ।
सूूर की भाषा और भाषा की
आधुनिकता शीर्षक लेख भाषा की मनोवैज्ञानिक प्रकृति का सम्बन्ध उसके प्रयोक्ता
साहित्यकार के वर्गीय चरित्र से जोड़ते हुए मध्ययुगीन साहित्यकारों के
समाजशास्त्रीय अर्थवत्ता पर प्रकाश डालती है । इसमें सन्देह नंहीं कि भाषा की
वर्गीय और जातीय भूमिका की पड़ताल आधुनिक समाजशासत्रीय अवधारणा है । जातीय दंभ और
बड़प्पन की भाषा-संरचना वर्ग-विशेष में श्रेष्ठता के दंभ के साथ प्रति-वर्ग
में हीनता की ग्रनिथ का भी प्रचार करती है । चौथीराम यादवइ स मनोवैज्ञानिक
भाषा-संरचाना के कारण ही केशव और तुलसी की काव्यभाषा को सूर की सहज भाषा क
सापेक्ष खारिज करते हैं । चौथीराम यादव के अनुसार सूरदास कस शैली-सौन्दर्य बहुत कुछ
उनकी भाषा पर आधारित है ।उन्होंनें भाषा को अपनें आन्तरिक अनुभव में इस प्रकार ढाल
लिया था कि भाव-सम्प्रेषण के संकट से वे प्राय: मुक्त रहे हैं ।(पृ081)भषा यदि कविता और गध को
निकट ला सके तो यह उसकी बहुत बड़ी उपलबिध होगी । सूर की भाषा के गधात्मक स्वरूप
में सांगीतिक लय कहीं विशेष बाधक नहीं है ।(वही पृ0 84)सूर की भाषा के गधाात्मक
स्वरूप् का एक मूल कारण यह है कि वह मूलत: आाम जिन्दगी की भाषा है सामान्य
जन-जीवन के मुहावरे,लहजे,सांस्कृतिक आचार-विचार,सामाजिक रीति-रिवाज,तीज-त्यौहार एवं उत्सव आदि
की जीवन्तता को रूपायित करनें वाली समाज-प्रचलित भाषा ही सूर की भाषा हैजो जिन्दगी
के मुहावरों और अनुभवों से टकराकर कहीं-कहीं आक्रामक और धारदार हो उठी है ।
स्वभावत: सूर की भाषा में मुहावरों-लोकोकितयों और कहावतों की प्रधानता है ।(पृ085) सूर
कीउकितयां भाषा की रूढ़ता का माध्यम न होकर सशक्त अभिव्यंजना की आवश्यक उपादान हैं
। इन्हें सूर के व्यापक सामाजिक अनुभव का प्रामाणिक दस्तावेज भी कहा जा सकता है
।सूर की भाषिक संरचना में तत्सम की अपेक्षा तदभव शब्दों को ज्यादा तरजीह देना,भाषा की जीवन्तता का
परिचायक है ।तत्सम शब्दों का रूप-परिवर्तन करके भी भाषापन की रक्षा की गयी है
।इसतरह खड़ीबोली को काव्यभाषा बनाने में जो योगदान सुमित्राननदन पंत का है ,ब्रजभाषा के बनानें और
सजानें में सूर का योगदान उससे कम महत्वपूर्ण नहीं है ।(पृ0 87)
हिन्दी नवजागरण और उत्तरशती
के विमर्श शीर्षक आलेख दलित नवजागरण से सम्बनिधत समकालीन बहसों पर केनिद्रत है ।
इस आलेख में प्रेमचन्द और दलित-विवाद ,धर्मवीर की विवादास्पद स्त्री-विरोधी और पुरूषवादी दलित-दृषिट ,डा0अम्बेडकर का ऐतिहासिक
सामाजिक-राजनीतिक चिन्तन, समकालीन
दलित हिन्दी कविता तथा दलित आन्दोलन को नर्इ दिशा देने के लिए दलित चिन्तकों की
भूमिका आदि कर्इ विमशोर्ं पर दृषिटपात किया गया है । नवां आलेख स्त्री-विमर्श की
चुनौतियां और छायावाद का मुकित स्वर
रोती संवेदनाओं की आत्मकथा
शीर्षक आलेख तुलसीराम की बहुचर्चित आत्मकथा मुर्दहिया की समाजशास्त्रीय साहितियक
समालोचना है । चौथीराम यादव के अनुसार मुर्दहिया व्यकितकेनिद्रत आत्मकथा होनें के
साथ ही धरमपुर की दलित बस्ती का लोकाख्यान भी है ।(पृ0174) वह समूचे उत्तर
प्रदेश के ग्राम्यांचल का सामाजिक-आर्थिक एवं राजनैतिक रिपोर्ताज है .वे
घटना-प्रसंगों के चित्रण में लेखक की सूक्ष्म निरीक्षण-दृषिट और अदभुत वर्णनात्मक
क्षमता की प्रशंसा करते हैं । उनके अनुसार ‘ लोकजीवन का जितना व्यापक परिवेश और
उसके जितने विविध लोकरंग –लोकगीत ,लोकसंगीत ,लोक-नृत्य आदि मुर्दहिया में देखने को
मिलते है मिलते हैं, उतने तो ग्रामीण जीवन के महान आख्याता प्रेमचंद के कथा-साहित्य
में भी नहीं मिलते .( ९४) मुर्दहिया के मार्मिक स्थलों का उद्धरण तथा उन पर की गयी विवेचनात्मक टिप्पणिया इस आलेख को
महत्वपूर्ण बनाती है . उसमें वे शिष्ट साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र से भिन्न
दलित-साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र पाते हैं जो सवणेर्ं और दलितों के कन्ट्रास्ट में
रचा गया है ।(पृ0180) मुर्दहिया
में मृतप्राय और उपेक्षित शब्दों को पुनर्जीवन देने की सामथ्र्य है ,जो ग्रामीण जीवन के एक
समानान्तर शब्दकोश बनानें की प्रस्तावना करती है ।(वही,पृ0 180) इसमें संदेह नहीं कि मुर्दहिया में तुलसीराम का आत्म –संघर्ष
एक ऐसी सभ्यता से मुक्ति का संघर्ष है ,जो मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद होते हुए भी
अपराध-बोध से रहित ,निर्मम एवं अमानवीय है .
नागाजर्ुन
की कविता में प्रतिरोध का स्वर शीर्षक आलेख वर्गान्तरण की विद्रोही परम्परा
में रखकर नागाजर्ुन का मूल्यांकन करने की कोशिश है । चौथीराम यादव के अनुसार
भारातीय चिन्तन में प्रतिरोध की परम्परा उतनी ही पुरानी है जितनी अलगाववाद पर
आधारित वर्चस्ववादी विचार-परम्परा । प्रतिरोध का स्वर मूलत: भौतिकवादी,लोकवादी और मानवतावादी स्वर
है जो शुद्धतावादी विचार-सत्ता और भाषा के आभिजात्य के विरुद्ध तनकर खड़ा है
। प्रतिरोध हिन्दी का मूल चरित्र है । व्यंग्यगर्भित आक्रोश-भरा प्रतिरोध का स्वर
और खतरे से खेलने का अदम्य साहस या तो कबीर में दिखार्इ देता है या नागार्जुन में
।(पृ0 185) इस आलेख
में नागाजर्ुन की प्रगतिशील जन-संवेदना की पड़ताल की गयी है । इसमें उनकी हरिजन
गाथा जैसी दलित प्रसंग वाली कविताओं का भी विश्लेषण है । जिसे वे आन्दोलन धर्मी
कविताओं की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी जनवादी परम्परा की क्रानितकारी कविता मानते हैं
।
इक्कीसवी
सदी का गल्प और काशी का अस्सी शीर्षक आलेख की विशेषता उसके समाजशास्त्रीय विमर्श
के रूप में लिखे जानें में है । विमर्श के रूप् में लिखे जाने के कारण ही यह आलेख
उन मुददों और बहसों को आगे बढ़ाता है जिसे काशीनाथ सिंह की कृति काशी का अस्सी
अपनी सृजनशीलता में उठाती है । चौथीराम यादव के अनुसार भूमण्डलीकरण और बाजारवाद के
इस अन्धे दौर में काशी का अस्सी विषय-वस्तु ही नहीं,भाषा और शिल्पगत प्रयोगों
की दृषिट से भी उत्तर-आधुनिक काल की नर्इ रचनाशीलता का सवोर्ंत्तम उदाहरण है ।
उन्होने काशीनाथ सिंह को उनकी भदेसपन की हद तक फैली फक्कड़मिजाजी की अद्वितीय औघड़
भाषा के लिए सराहा है । उनके अनुसार गध विधाओं के पक्के ढांचे का टूटना,उनकी शुद्धता और स्वायत्तता
का विखंणिडत होना ,उत्तर-आधुनिक
रचनाओं की खास पहचान है ।इसलिए काशी का अस्सी गधा-विधाओं का अन्तर्पाठ प्रस्तुत
करता है और इसीलिए उसका रूपबन्ध उत्तर-आधुनिक है ।(पृ0 200) काशी का
अस्सी अपनी नर्इ अन्तर्वस्तु और शिल्पगत प्रयोगों के साथ भूमण्डलीकरण,बहुराष्ट्रीयकरण,निजीकरण और बाजारवाद के
सांस्कृतिक हमले के विरुद्ध प्रतिरोध का महाआख्यान है । ( पृ0 214)'प्रतिसंस्कृति
के हिन्दी-साहित्य पर एक नजर शीर्षक आलेख काशीनाथ सिंह के कथा-रिपोर्ताज 'संतो घर में झगरा भारी
के बहानें समाज और साहित्य में न्रतिसंस्कृति का विमर्श प्रस्तुत करती है ।
छायावादी कवयों की सामाजिक पीड़ा और चेतना को कम ही देखा गया है अपने स्त्री
विमर्ष की चुनौतियां और छायावाद का मुीक्त-स्वर शीर्षक आलेख में चौथीराम
जी नें उसे पहलीबार गम्भीरता से उनके साहित्य में उपसिथत जीवन-वस्तुओं की
समाजशास्त्रीय पड़ताल की है ।
“ उत्तरशती के विमर्श और हाशिए का समाज “
में भारत के जातीय एवं सांस्कृतिक अतीत के सापेक्ष उसके आधुनिकीकरण एवं मानवीकरण
की समस्या और चुनौतियों की विस्तृत पड़ताल चौथीराम यादव जी नें की है .आज के बदले
हुए परिवेश में स्त्री-विमर्श ,दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श को वे हजारों साल से
गुमशुदा अस्मिताओं का आन्दोलन कहते हैं .(भूमिका ,पृष्ठ 9 ) भारत के सन्दर्भ में
गांधी और मार्क्स को बीसवीं शताब्दी का तो अम्बेडकर को इक्कीसवीं शताब्दी का सबसे
बड़ा चिन्तक ,लेखक ,समाजशास्त्री और अर्थ शास्त्री मानते हैं .इसी सन्दर्भ में यह
महत्वपूर्ण प्रश्न भी उठाते हैं कि गाँधी और नेहरू युग की तरह हमें उनके दौर को
अम्बेडकर युग के रूप में भी यद् करना चाहिए ,क्योंकि वे सिर्फ राजनैतिक मुक्ति की
लडाई ही नहीं लड़ रहे थे बल्कि सामान्य जनता की सामाजिक –आर्थिक मुक्ति यानि आजादी
की दूसरी लड़ाई भी लड़ रहे थे (वही ,पृष्ठ 9 )उनकी दृष्टि में श्रम विहीन पराश्रित
भद्र-लोक मानव-जीवन का स्वाभाविक-वास्तविक सौंदर्यशास्त्र नहीं रच सकता दलित साहित्य और उसका सौन्दर्य-शास्त्र कलावाद
विरोधी ,मनुष्य-केंद्रित और जीवनवादी साहित्य है.जिसके समुचित मूल्याङ्कन के लिए
दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र लिखा जा रहा है .( १० ).
चौथ्य्रम यादव नें भारतीय
नवजागरण के समानांतर सामाजिक मुक्ति को ध्यान में रखकर लोकजागरण की भी प्रस्तावना
की है .वे इस तथ्य की और ध्यान दिलाते हैं कि ब्रिटिश शिक्षा कजे प्रभाव के कारण
उच्चा शिक्षित और सम्पन्न लोग ही नवजागरण के सवाहक बनें , जबकि एक बड़ा दलित-पिछड़ा
वर्ग यथास्थिति में पड़ा रहा .लोक-जागरण की इस प्रक्रिया को वे एक लम्बी
इतिहास-परम्परा में देखते हैं ..उनके अनुसार यदि ‘मध्यकालीन लोक-जागरण आधुनिक
नवजागरण का पहला चारण है तो उत्तरशती में दलित विमर्श उसको पूर्णता प्रदान करने
वाला अगला विकास (१०३) इस तरह लोक-जागरण
को कबीर ,दादू-रैदास से लेकर अम्बेडकर और उनसे प्रभावित दलित साहित्यकारों तक
लोकजागरण की एक सुदीर्घ परंपरा है .ईसीई क्रम में वे प्रेमचंद को मानवीय संवेदना
के सबसे बड़े लेखक के रूप में महत्वपूर्ण मानते हैं .प्रेमचंद के साहित्यिक विकास
को प्रायः गांधीवाद और मार्क्सवाद कजे प्रभाव में रखकर ही मूल्यांकित किया जाता है
.चौथीराम जी नें कँवल भारती और गोदान के सिलिया-मातादीन कथा-प्रसंग के माध्यम से
उनपर पड़े अम्बेडकरवादी प्रभावों को भी
रेखांकित किया है .इस क्रम में क्षत्रिय होने के कारण धर्मवीर के अँध बुद्ध-विरोध का व्यंग्यात्मक प्रत्याख्यान
भी प्रस्तुत करते हैं .यद्यपि इसका तार्किक प्रत्याख्यान गणतंत्र और राजतंत्र के
अंतर्विरोध को दयां दिए बिना संभव ही नहीं है .यह एक तथ्य है कि गणतंत्र में अपने
बड़प्पन या विशेष होने की दावेदारी संभव नहीं ,न ही शासित होने की अपरिहार्यता ही
थी कि सर्व शक्तिमान ईश्वर की परिकल्पना करना आवश्यक हो .पराधीनता और
सर्व्शाक्तिमानता की परिकल्पना और संस्कार राजतंत्र व्यवस्था के अंतर्गत ही
पुरोहितों द्वारा विकसित किए गए
सस्मारानात्मक होते हुए भी यह कहना उनके
व्यक्तित्व को समझाने-समझाने के लिए संभवतः उपयोगी हो कि जिस समय .नामवर सिंह की
चर्चित पुस्तक “दूसरी परंपरा की खोज “प्रकाशित
हुई थी .उन दिनों मैं भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में शोध–छात्र था .उन दिनों
चौथी राम यादव जी नामवर सिंह के देशव्यापी आलोचक –ख्याति से प्रभावित रहने के
साथ-साथ उनके कनिष्ठ भ्राता काशीनाथ सिंह के लगभग पारिवारिक मित्र के रूप में
स्थापित थे .अभिन्न सहचर –ऐसे में समझा जा सकता है कि नामवर जी के प्रति अविकल
श्रद्धा-भाव को जीते चौथीराम जी के आलोचक व्यक्तित्व के स्वतन्त्र विकास की
संभावनाएं मनोवैज्ञानिक स्तर पर कम ही थीं .वे लम्बे समय तक अंतर्मुखी
द्वंद्वात्मक भाव ही जीते रहे जैसा कि हजारीप्रसाद द्विवेद्वी वाली पुस्तक की
भूमिका में उन्होंने लिखा है कि “राम चन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेद्वी के
इतिहास लेखन और आलोचना कर्म से गुजरते हुए मेरे में में तरह-तरह के सवाल उठाने लगे
.यदि तुलसीदास लोकधर्मी कवि हैं तो कबीर लोकधर्म विरोधी क्यों ? क्या लोकधर्म को
वर्णधर्म का पर्याय माने बिना कबीर को लोकधर्म विरोधी खा जा सकता है ?रामभक्ति की एक ही शाखा से जुड़े होने के
बावजूद इनके सामाजिक चिंतन में इतना अंतर क्यों है ? “ इत्यादि .स्पष्ट है कि
रामचंद्र शुक्ल ,हजारी प्रसाद द्विवेद्वी एवं नामवर सिंह की तरह चौथीराम यादव जी
भी साहित्यिक इतिहास के तार्किक एवं मानवीय शैक्षणिक व्यवस्थापन की महत्वपूर्ण
समस्या से अपने ढंग से जूझा रहे थे .सत्यनिष्ठा की एक ईमानदार परंपरा के उत्तराधिकार ने उन्हें प्रोत्साहित किया .देखा जाय तो
रामानंद और बल्लभाचार्य की समावेशी प्रगतिशील परंपरा ही हजारीप्रसाद जी तक आती है
,जिसका युगापेक्षी विस्तार नामवर सिंह के पश्चात् चौथीराम यादव जी भी कर रहे है .अपनी
इन महत्वपूर्ण पुस्तकों के माध्यम से चौथीराम जी समाजशास्त्रीय दृष्टि से सम्पन्न
ऐतिहासिक आलोचना के विमर्शकार के रूप में सामने आते हैं .