संयोग यदि बार-बार
एक ही परिणाम देने लगता है , तो संयोग संयोग नहीं
बलिक किसी की साजिश प्रतीत होने लगता हैं । यह एक सामान्य मनोविज्ञान है
जिसे अधिकांशत: सभ्यता की दौड़ में पिछड़ गयी अविकसित जातियाेंं के विश्वास में
देखा जा सकता है। वे सफलता और विफलता तथा स्वास्थ्य एवं बीमारी का भी मानवीकरण
करने लगती हैं । लेकिन व्यवस्था ही यदि अमानवीय ,अनैतिक और संदिग्ध लगने लगे तो मानना पड़ेगा कि
कहीं न कहीं मानव-जाति ही अस्वस्थ हो गयी है । उसकी सृजनशीलता कुणिठत हो रही है ।
रोग -शत्रु आदि के विनाशकारी जीवाणु बढ़ रहे हैं । वह अब शीघ्र ही खतरे में पड़ने
वाली है । व्यकित -जीवन की तरह सामाजिक जीवनी-शकित भी एक प्रजाति के रूप में हमारे दीर्घकालिक
असितत्व की अपरिहार्य शर्त है । साहितियक दृषिट से यह कविता मानव-इतिहास की
आपराधिक सृजनशीलता का ऐसा ही मानवीकरण है ;जिसे एक रूपक या स्वप्न-कथा कहा जा सकता है ।
ल्ेकिन यह स्पष्ट कर देने पर यह कविता
सामाजिक दृषिट से और मह त्वपूर्ण और उपयोगी होगी कि यह मेरी कोरी कल्पना पर आधारित
न होकर मेरे द्वारा देखे गए एक स्वप्न पर आधारित है । इस दृषिट से यह लगभब मुझसे
स्वतंत्र मेरे अचेतन द्वारा सृजित कविता है । मैंनें केवल उस स्वप्न की संभावनाओं
की व्याख्या,विश्लेषण और विस्तार किया है । वस्तुत: यह कविता मेरे द्वारा एक सुबह की गहरी
नींद में देखे गए स्वप्न पर आधारित है ।
सपने में एक विधुतीय महासर्प को मैंनें आत्मरक्षार्थ क्रोध में अपने
मसितष्क से छूटती विधुतीय तरंगो से मार डाला था । स्वप्न इतना वास्तविक और जीवन्त
अनुभ्ूातियों के साथ देखा गया था जैसे वह मेरे जीवन की वास्तविक घटना हो । मैं
जागने के बाद भी बहत देर तक रोमांचित और दुखी रहा । उसे मैंने स्वप्न की झूठी सृषि
ट मानकर भूलना भी चाहा । उस स्वप्न के पहले मुझे मृत्योपरान्त होने वाले कर्इ कार्यक्रमों
में अनिच्छा से भाग लेना पड़ा था ।
भूमण्डलीकृत विश्व के एक स्वैचिछक शुभचिन्तक के
रूप में 11 सितम्बर की
त्रासदी की अचेतन पृष्ठभूमि लिए मेरा मन किसी हत्याविहीन विश्व के सपने देखने की
तैयारी कर रहा था लेकिन उसका अन्त एक ऐसे प्रतीकात्मक और भयावह सपने में होगा-
इसकी तो मैंने कल्पना भी न की थी । उस बीच निजी जीवन में भी कर्इ ऐसी मौते हुर्इं
जो दुखद थीं ।गुजरात और मऊ के दंगे कुछ ही समय पहले हुए थे । उन क अतिरिक्तं अपने
से कम उम्र के प्रतिभाशाली कवि-पत्रकार प्रदीप तिवारी ,पी.एन. सिंह के छोटे भार्इ रामानन्द सिंह ,गाजीपुर शहर में
एक प्रबुद्ध व्यापारी के परिवार की सामूहिक आत्महत्या या हत्या ,अपनी दिल्ली
यात्रा के बीच ही प्रिय नानी की आकसिमक मौतों के अतिरिक्त अपने तैनाती स्थल
मुहम्मदाबाद क्षेत्र में हुर्इ एक माफिया
नेता कृष्णानन्द राय की बहुचर्चित हत्या
एवं अन्य हत्याएं - जिनमें से प्राय: सभी मेरी अनुपसिथति में ही हुर्इ थीं
। यहां तक कि उनके विपक्षी माफिया नेता जिन पर राय की हत्या का आरोप लगाया गया-उन
पर हुआ हमला भी आश्चर्यजनक ढंग से उन्हीं दिनों हुआ था जब मैं उस क्षेत्र से बाहर
गया हुआ था । यह संयोग कुछ इतना अधिक था कि मेरे सामान्य अवकाश पर जाने पर भी
महाविधालय के प्राचार्य आशंकित हो उठते थे कि कहीं कुछ हो न जाए ।
इसमें सन्देह नहीं कि प्रतिरोध
विकसित करने की दृषिट से यह समय मेरे लिए मृत्यु चिन्तन और हत्या-चिन्तन का ही रहा
है । पाकिस्तानी नेत्री बेनजीर भुटटो की हत्या नें मुझे इतना क्षुब्ध कर दिया था
कि इतिहास का घटना-क्रम मुझे
स्वत:स्फूर्त या
आदतजन्य नहीं बलिक मानव-जाति के शैतानी अवचेतन की साजिश लगनें लगी थी । ऐसे में स्वप्न में अपने हाथों एक विशालकाय
मसितष्क वाले महासर्प मारे जाने की घटना को मैंने संभावित शुभकाल के आरम्भ के
अचेतन संकेत के रूप् में ही लिया । इसके बाद भी उस मृत्यु-सर्प पर कविता लिखने की
मेरी कोर्इ इच्छा नहीं हुर्इ । उसे कविता में लाना इसलिए भी अनुचित लग रहा था
क्योंकि उससे पुरानें अंधविश्वासों की
पुषिट के रूप में भी पढ़ा जा सकता था । कुछ दिन बाद जब मैं लगभग 80 किमी0 दूर सिथत अपने
घर गया तो चर्चा चलने पर मझली भाभी नें बताया कि कुछ दिनों पहले उन्होंनें भी ऐसा
ही महासर्प अपनें सपनें में देखा था । उनकी दिवंगत हो चुकी मां नें उन्हें सपने
में कहा था कि यह सांप हैं लेकिन आदमी की तरह बातचीत करते हैं । इस विचित्र सपनें
को ,जिसमें सर्प जैसे
एक ही प्राणी को दो अलग-अलग व्यकितयों नें स्वतंत्र रूप से देखा-उस विचार करते हुए
मैंने सोचा कि उसका होना अन्धविश्वास रहा हो या सच-मेरा सपना तो उसके न होने की
सूचना ही देता हैं । कर्इ धर्मग्रन्थों में तो वह अब भी जीवित है । कुरान की तो
एक-एक आयत उससे ही बचने की चेतावनी जारी करती है । इस कविता से जुड़ी ये असामान्य
बातें शायद शैतान से डरनें वाले धार्मिक प्रकृति के पाठकों को मनोवैज्ञानिक मुकित
दे । इस सपनें के बाद पाकिस्तान लोकतन्त्र की ओर बढ़ा ,मुशर्रफ नें लोकतंत्र के पक्ष में इस्तीफा देकर
स्वयं को बुद्धिजीवियों में शुमार कर लिया । ठोकिया सहित वाराणसी से लेकर लखनऊ तक
बहुत से खूंखार हत्यारे अपराधी मारे गए तो लगा कि हो न हो इस सपनें में कुछ
मनोचिकित्सक संभावना भी हो ।
यदि मुझे पुरानें युग के मनुष्यों की भाषा में
कहनें दिया जाय तो वह कुछ इसप्रकार होगा कि प्रकृति के बाद हमारे पास एक ही
सक्रिय अति प्राकृत शकित है-वह है शैतान
की । पाश्चात्य विश्वासों के अनुसार र्इश्वर की तटस्थता तथा आदम द्वारा उसकी आज्ञा
की अवहेलना से उपजी मानव-जाति के प्रति खिन्नता या उदासीनता के कारण शैतान के
निर्देशों से सजग रहनें की पूरी जिम्मेदारी मानव- जाति पर ही आ गर्इ है ।इस्लाम के
सन्देश से भी स्पष्ट है कि शैतान ही सहज उपलब्ध है, संघर्ष और सावधानी तो अल्लाह यानि अच्छाइयों की
आदर्श-सŸाा तक पहुंचने के
लिए ही करनी है ।
भारतीय परम्परा में तो शकित के अनैतिक प्रयोग
का सफल विरोध करने वाले महापुरुषों को ही र्इश्वर के अवतार के रूप में देखा गया है
। इस प्रकार दोनों ही परम्पराओं में
र्इश्वर हमेशा से ही सामान्य मनुष्यों की सामाजिकता में प्रतिरोध की संस्कृति के
रूप् में ही जिन्दा रहा है । इसीलिए वह प्राय: कुण्ठाकारक सिथतियों में मुकित और
सफलता की कल्पना या कामना के साथ प्रार्थना के रूप में ही याद किया जाता रहा है ।
यह तो रहा इस
कविता का अचेतन और पराचेतन पक्ष ; इसकी रचना के पक्ष में मेरा चेतन पक्ष यह है कि यह कविता
मनुष्य के अतार्किक व्यवहार और उसकी असामान्य आपराधिक मनोविकृतियों को एक
स्वप्न-कथा ( फतांसी)के माध्यम से मानवीकरण करती है । मानव-जाति की रहस्यमय
आपराधिक उŸार-जीविता का
मनोवैज्ञानिक प्रत्यक्षीकरण है ।
गिरा हुआ र्इश्वर : शैतान की आत्मकथा
कुछ ऐसेेिक
र्इश्वर
चाहे नहीं भी था लेकिन शैतान थाहुआ करे र्इश्वर
लेकिन र्इश्वर होकर भी नहीं होने की तरह था
जीवन की तरह
सर्व-उपसिथत और शान्त
लेकिन शैतान
वास्तव में था अनन्त रूपाकारों में सकि्रय औैर अशान्त
अन्धविश्वासों
में पलते बलिप्रथा से पोषित
किसी पागल देवता
की तरह
अपने असितत्व की
अमरता और अन्तहीन भूख के लिए
हथियारों को
विकसित करते सनकी वैज्ञानिकों में
और मानव-जाति को
विभाजित -पुनर्विभाजित करने वाले
संकीर्ण और
स्वार्थी मन वाले राजनीतिज्ञों में....
शैतान था अपने
जीवन और भूख के लिए
मनुष्य द्वारा की
गयी अचेतन हत्याओं और क्रोधों ंपर निर्भर
उससे कोर्इ अकेला
मनुष्य नहीं लड़ सकता था
लेकिन मानव-जाति
उसकी भूख से अधिक प्रजनन दर बढ़ा कर
अपना संख्याबल
बढ़ाकर
अतिसकि्रय जिददी
और स्वाभिमानी प्रतिरोधी मनुष्यों के द्वारा
उससे पूरी तरह
प्रभावित होने से स्वयं को बचा सकती थी,,,
वह उससे मारे
जाने के बावजूद बची रह सकती थी
वह मानवीय चूक और
दुर्घटनाओं का विशेषज्ञ था
वह समथोर्ंं को
दंर्घटनाओं से मार सकता था
र्इश्वर के लिए
बहुत कम जगह बची हुर्इ थी
वह एक आदमी के
भीतर छिपा हुआ था
अनन्त काल तक वह
बिना किसी सकि्रय हस्तक्षेप के
चुपचाप होता आया
था
वह अपने होने पर
मुग्ध था
वह सिर्फ प्यार,स्नेह और
आत्मीयता में होता आया था
उसने कभी नहीं
सोचा था कि
इस तरह होते रहने
के लिए भी
उसे एक दिन युद्ध
करना पड़ेगा
कि उससे एक दिन
पूछा जाएगा
तुम हो तो क्यों
हो ?
तुम यदि थे तो
कुछ किया क्यों नहीं ?
तुम यदि थे तो
तुम्हारी भी पसन्द-नापसन्द होनी चाहिए थी
तुमनें अपनी
वेबसाइट क्यों नहीं बनायी ?
और उसपर छोड़ा
क्यों नहीं
अपनी र्इ-मेल का
पता ?
तुमनें अपना
रजिस्टेशन क्यों नहीं करवाया ?
क्या तुम्हें पता
नहीं कि चुपचाप होना जुर्म है ?
क्या तुम्हें पता
है कि तुम हर जगह थे
ठसलिए तुम्हें हर
अपराध का गवाह बना दिया गया है.....
तुम्हारे खिलाफ
वारण्ट है
और तुम्हें हर
अपराध के लिए आना होगा कचहरी
अपनी उपसिथति के
कारण
तुम भी एक
संदिग्ध अपराधी हो
तुम अपने को
मूर्ख और अबोध घोषित नहीं कर सकते
तुम नाकोर्ं
टेस्ट के बाद भी संदिग्ध अपराधी रहोगे....
र्इश्वर सो गया
था
और उसे अपना
स्टेशन बन्द नहीं करना चाहिए था ।
र्इश्वर भारत में
था
उसनें बहुत दिनों
से अपना एक पर्यावरण बना लिया था
वह अपने घर से
कहीं बाहर नहीं गया था
वह बहुत दिनों से
चुनता आ रहा था कुछ मनुष्यों को
पीढ़ी दर
पीढ़ी.....
कभी वह भी
वर्तमान भौतिक विश्व की जीवित उपसिथति था
फिर एक दिन भयंकर
उल्कापात में मारे गए
उसके समय के
अधिकांश जीव और वह भी
उसी दिन से वह
अदृश्य और अतिरिक्त हो गया
अब वह जीवनों में
से एक था और अलग उपसिथति भी...
अब वह इस दुनिया
को समझ सकता था
और उसमें
हस्तक्षेप भी कर सकता था
उसनें धरती पर
बचे हुए जीवनों में से चुन-चुनकर
हत्यारे जीवों को
विकसित किया
उसनें सांपों को
जहर दिया और शेरों को नाखून
ताजी मारी गयी
आत्माओं के विधुतीय आवेश को चुराकर ही
वह बच रहा
था.....
शेरों की घटती
संख्या के साथ वह मानव-भक्षी होता गया
अब वह हर
हत्यारों और हर अपराधियों की प्रेरणा में था
मानव-जाति अकेली
नहीं थी
हवाओं में घूम
रही थीं अनेकों चेतनाएं
हवा में वह अकेला
नहीं था
पूरी प्रजाति घूम
रही थी जीवनी शकित से भरपूर
किसी मारे जाने
योग्य पौषिटक मनुष्यों की खोज में
वे सब अब नरभक्षी
बन चुके थे
उन्हें मन्द
बुद्धि वाले पशुओं की आत्मा से मिलने वाला
विधुतीय जैव
उर्जा का घटिया आहार अब आकर्षित नहीं करता था
वे हर समय
मानव-जाति को सेक्स और उत्पादन के लिए उत्तेजित करते रहते थे
और नहीं चाहते थे
कि कोर्इ मनुष्य अपनी स्वतंत्रता के लिए
सोचे
वे हर स्वतंत्र
चेतना वाले मनुष्यों को निरीह बनाने वाली साजिशों में लगे रहते थे
उनके लिए
विपतितयां एवे दु:ख सोचते रहते थे
वे मानव-जाति को
किसी भेड़ की तरह पालतू और आज्ञाकारी देखना चाहते थे
सारी मानव-जाति
उनकी फसल थी....
उनकी प्रजाति
अलग-अलग कबीलों और जातियों पर पल रही थी
कुछ थे जिनने
संगठित हत्याओं के लिए मजहब बनवा रखे थे
मानव-जाति की
जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा उनका बन्धक था
ताजी मारी गयी
आत्माओं को उसकी भूख मिटाने के लिए सतत आपूर्ति करती हुर्इ
कुछ थे जो
मानव-जाति के बढ़ते प्रतिरोध और उसके अहिंसक होते जाने के कारण
कृशकाय होते गए
थे
और अपने भूखे
असितत्व को बचाने के लिए
कुछ चुने हुए
मनुष्यों के भीतर छिपकर बैठ गए थे
वे सन्तों में थे
और विक्षिप्तों में भी
और अपने चुने हुए
मनुष्य की मृत्यु पर उसे छोड़कर
किसी दूसरे
मनुष्य के मसितष्क को चुनकर उसमें वास करते थे
जैसे सांप रहते
हैं बिलों में
समर्थ मनुष्यों
के मसितष्क ही उनके घर थे....
उनमें कुछ अच्छे
थे और कुछ बुरे भी
कुछ उदासीन थे और
कुछ अत्यन्त महत्वाकांक्षी
उनमें आपसी
प्रतिस्पद्र्धा थी
और वे एक दूसरे
के वर्चस्व से छीन लेना चाहते थे
दूसरे महासपोर्ं
से प्रभावित मानव-जनसंख्या....
वे मानव-जाति के
रहस्यमय अचेतन थे
उसके सारे
अपराधों के कारण और परिणाम
वे हर स्वतंत्र
मनुष्य के विरुद्ध थे
स्वतंत्र चेता
होना उनके लिए विद्रोही होना था
वे विद्रोही
किन्तु भले मनुष्यों पर
उन्हें उत्पीडि़त
करने के लिए छोड़ देते थे
शिकारी कुत्तों
की तरह अपराधी और हत्यारे मनुष्य.....
इस तरह विशुद्ध
र्इश्वर केवल कल्पना था
उसकी परिकल्पना
सिर्फ मनुष्य के मन में थी
किन्तु शैतान
वास्तव में थे
घूम रहे थे धरती
पर दुर्घटनात्मक मृत्यु और बलि के लिए
वे व्यापक
नरसंहार प्रायोजित करते हुए राजनीतिज्ञों में थे
सामूहिक अफवाहों
और उन्माद से भ्रमित करते हुए
हवाओं में उड़
रहे थे या फिर
छिपे बैठे थे
चुने हुए शातिर और चालाक मानव-मसितष्कों में
इस तरह वे एक
संदिग्ध बाहरी परजीवी चेतना थे
यधपि उनकी भी
उत्पतित जीवन के उसी आदिम कोशिका से हुर्इ थी
जिससे कि विकसित
हुआ था मनुष्य
लेकिन विकास की
अपनी अलग यात्रा के कारण
वे मनुष् य से
कर्इ गुना बड़े थे और समर्थ
इसलिए सब कुछ
उनके उपर ही नहीं छोड़ा जा सकता था
उनका अपना
असितत्व था और अपने स्वार्थ
उनकी अपनी
निरीहताएं थी
वे अपने विधुतीय
आतिमक असितत्व के लिए
पहले शिकारी
पशुओं पर
फिर अपराधी
मनुष्यों पर निर्भर होते गये
वे सामूहिक रूप
से नहीं चाहते थे कि कोर्इ मनुष्य
अपनी इच्छाओं में
छिपे हुए उनकी स्वार्थी साजिशों का होना जाने
उनका वाहक हर
मनुष्य इतना समर्थ था कि
उन्हें नासितक या
आसितक होने की कोर्इ जरूरत ही नहीं थी
इस तरह वे
र्इश्वर को मानने वालों में छिपे थे और न मानने वालों में भी
वे एक साथ ही
जेहादी और क्रूर क्रानितकारियों दोनों में थे
लेकिन मानव-जाति
अब भी पीढ़ी दर पीढ़ी उनके विरुद्ध प्रतिरोध
विकसित करने में
लगी थी...
वे हर बार
बिल्कुल नए ढंग से सामूहिक हत्याओं के लिए
मानव-जाति के
वर्तमान और इतिहास में दुर्घटनात्मक हस्तक्षेप के लिए सकि्रय थे
प्राचीन भारतीय
उनके होने से बचने के रहस्य जान गए थे
वे नदियों को
छू-छूकर अपनी जीवन-उर्जा को कम रखते थे
वे बडे पेड़ों की
जड़ों को जल से भिगोकर उन्हें छूते ताकि
अधिक विधुतीय
आवेश देख्कर हवाओं में रहने वाली
डायनासार युग की
अवशेष हत्यारी आत्माएं
उनकी मृत्यु
देखने के लिए लालायित न हों
कुछ भारतीय
पन्थों ने अपने अनुयायियों को लोहे की चूडि़यां पहना दी थीं
ताकि उन्हें उनकी
काया को अपना बिस्तर बनाने में असुविधा हो
मनुष्य एक-दूसरे
से रिश्तों और भाव-सम्बन्धों में कसकर बांधे हुए
अपनी सामूहिकता
का संरक्षण और प्रतिरोध लिए उनसे बचे हुए थे
जबकि महासपोर्ं
की आत्माएं शेरों की तरह
अपने शिकार
मनुष्य को अहंकारी बनाकर मानव-झुंड से बाहर निकालने के लिए
युकितयां तलाशती
रहती थीं.......
वे पहले भी थे
और अब भी हैं
मनुष्य की आदतों
और परम्पराओं में
मानव-जाति के
भीतर से अपने चुने हुए वाहकों में
और हवाओं में भी
वे अतीत के
वर्तमान है
एक भौतिक असितत्व
के रूप में
उनकी प्रजाति नष्ट
हो चुकी है
मनुष्य की तरह वे
पुनर्जन्म नहीं ले सकते
वे समर्थ
मानव-मसितष्कों की खोज में भटकते
रहतें है
वे एक स्वतंत्र
और अलग चेतना है
न कि सभी जीवों
की चेतना में तातिवक रूप से सर्वव्यापी
वे एक सूक्ष्म और
अदृश्य जैविक विधुतीय शकित है ं
वे ही शैतान है
और वे ही भगवान
पुस्तकों में
लिखा था जैसा
ठीक-ठीक वैसे
बिल्कुल ही नहीं है वे
विशुद्ध र्इश्वर
मनुष्य की आदर्शवादी कल्पनाओं और
आकांक्षाओं की
उपज है
जबकि वे डायनासार
युग में मारे गए
विशालकाय
प्रजातियों में से एक
वे एक उन्नत
मसितष्क वाले महासर्प की जीवित आत्मा हैं
उनके होने को
पशिचम के पूर्वज मनुष्यों नें जिन्नों एवं
शैतान के असितत्व
के रूप में महसूस किया है
और भारतीय लोगो
के पूर्वजों नें हजार गुना बड़े शेषनाग एवं वासुकि के रूप में
ये जैव विधुतीय
आत्माओं के रूप में अदृश्य किन्तु निरन्तर सकि्रय महासर्प ही
चुने हुए
मनुष्यों को सर्वशकितमान बनाते रहे हैं ।
वे निरन्तर
सकि्रय और जिज्ञासु है ं
वे मानव-जाति के
सभी सकि्रय मसित ष्कों की जासूसी करते रहते ह ंै
वे मानव-जाति के
सापेक्ष है ं
वे मानव -जाति के
विचारों के साथ सोचते है ं
वे मानव-जाति के
व्यवहार और आकांक्षाओं के आधार पर
उसके भविष्य का
अनुमान लगा सकते है ं
लेकिन वे स्वयं
नहीं जानते कि उनका क्या होगा !
शिकारी पशुओं की
घटती संख्या और कम शिकारों के कारण
इतिहास में वे
नरभक्षी होते गये ह ंै
उननें अपनी भूख्
की शानित के लिए भयानक रूप से क्रूर और
निरंकुश हत्यारी
आत्माओं को चुना है
मानव-इतिहास में
बार-बार हस्तक्षेप किया है
और व्यापक
नरसंहार कराए हैं
उननें अपनी भूख
के लिए दूसरे जीवनों की आपूर्ति के लिए
मृत्यु सुनिशिचत
करने वाले सम्प्रदाय प्रवर्तित कराए हैं
वे इतिहास के अचेतन
मे सकि्रय जीवितं उपसिथति है
वे क्रोध ी और
अहंकार ी मनुष्यों में है
वे एक साथ पांच
सौ मनुष्यों के मसितष्क के बराबर है
वह मनुष्य को
अकेला करते जाते है और
एक दिन आक्रामक
और हत्यारा बना देते है
अथवा आत्महत्या
कर लेने के लिए उसकी कान में फुसफुसाते है
यह आत्मकथा उनमें
से केवल
सर्वाधिक
महत्वाकांक्षी और सकि्रय महासर्प शैतान की है
मनुष्य की कोर्इ
भी कल्पना उतनी भयावह नहीं हो सकती
जितना कि वह
था....
वह लाखों
पीढि़यों तक मानव-जाति को जीतने के
दर्पपूर्ण
आत्म-विश्वास से भरा हुआ था
वह हवेल जैसे
विशालकाय सर्प की खोपड़ी में पड़े
अतिविकसित
मानव-मसितष्क जैसा था
वह हरे रंग की
पारदर्शी विधुतीय काया से बना हुआ था
जैसे सारी
मानव-जाति उसकी निगरानी में पलती भेड़ की तरह थी...
वह एक कालातीत किन्तु
स्वैचिछक-सक्रिय सचेतन उपसिथति जैसा था
उसकी इच्छा ही
मृत्यु थी
उसके मसितष्क से
छूट रही थीं मृत्यु की किरणें
वह एक सचेतन
तडि़त था
वह नैतिक
आत्मविश्वासियों से भयभीत किन्तु
शातिर और विषमय
भयावह उपसिथति था
दुनिया के सारे
असितत्वों के विरुद्ध .......
सृषिट के विकास
के क्रम में
मसितष्क से
मेरुदण्ड तक की
विधुतीय ऊर्जा से
बनें हुए अपने आतिमक शरीर में
वह सिर्फ
बुद्धिमात्र ही था
दुनिया की कोर्इ
बोली और भाषा ऐसी न थी
जिसे वह जान और
बोल नहीं सकता था
उसकी अतिविकसित
चेतना के सामनें अन्य मनुष्यों के मसितष्क
उससे कुछ भी न
छिपा पाते हुए नन्हें बच्चों की तरह नंगे थे
मनुष्यों में वह
स्वयं के नैतिक होने का दम्भ पालने वाली जिददी आत्माओं को
उनके अद्वितीय ,विशिष्ट और महान
होने के भ्रम में रखकर मारता था
वह एक कुंठित
क्षुब्ध और प्रतिशोधी आत्मा थी
हाथों और पैरों
के विकास से वंचित
तुलना में अपनी
क्रियात्मक हीनताओं के कारण
वह मानव-जाति के
प्रति र्इष्यालु था
मानव-जाति जितली
सम्मानपूर्ण विकास करती जाती थी
वह डूबता जाता था
उतनी ही गहरी र्इष्र्या में
हर प्रतिभाशाली
मनुष्य उसके लिए प्रतिद्वन्द्वी था
वह सुकरात से
कुणिठत हुआ और
अपने प्रेरितों
को उसकी हत्या के लिए प्रेरित किया
वह बुद्ध की
करुणा से कुणिठत हुआ था
वह यीशु मसीह के
साहसिक-प्रतिरोधी प्रेम एवं अक्रोध से कुणिठत हुआ था
यीशु नें उसके
लिए लड़ाने के सारे रास्ते बन्द कर देने चाहे
उसके सारे सन्देश
युद्ध ओर अपराध के विरुद्ध थे
हत्याएं न होने
पर वह भूखा रह जाता
उसनें अपने
प्रभावितों को प्रेरित किया कि
बहुत हुआ...यीशु
को ऊंचे पर चढ़ा दिया जाना ही ठीक रहेगा....
मुहम्मद जब उसके
होने को जान गए थे
उसनें अपने
प्रभावितों से उन्हें मरवा देना चाहा
असफल होने पर
मृत्यु तक प्रतीक्षा की
उनके अनुयायियों
के बीच नेतृत्व की सारी शकितयां अपने चुने
हुओं तक ले आया
उसकी एक मात्र
पुत्री के पुत्रों तक को न छोड़ा.......
उसनें राम को
सारा युद्ध जीत लेने के बाद भी
नदी में डूबकर
आत्महत्या के लिए विवश किया
युद्ध में जीतकर
घर लाने के बाद भी
उसके द्वारा
उकसायी गर्इ चतुर ,संदिग्ध और प्रतिशोध से भरी पत्नी
अपने दो पुत्रों
को पिता के हाथों सुरक्षित पाकर
उसके ही एक
विश्वासपात्र सेवक को नए प्रेमी की पत्नी होने की कामना के साथ
छिपाकर खोदे गए
एक कूटरचित सुरंग के रास्ते कूदकर भाग गर्इ......
उसनें अपने
प्रभावितों को मरवा देने के अपराध में
उदास सोये हुए
कृष्ण को
शिकारी के
विषबुझे तीर से मरवा डाला
उसनें अपने
प्रभावितों को अपनी नैतिक ऊंचार्इ से
अपमानित करने
वाले सिक्ख गुरुओं को पसन्द नहीं किया
उसनें सिक्खों के
अनितम गुरु गोविन्द सिंह के दोनों बच्चों को
जीते जी दीवार
में चिनवा कर हत्या करा दी....
उसनें अब्राहम
लिंकन और कनेडी के लिए र्इष्र्यालु हत्यारे भेजे
उसनें रक्तरंजित
दंगों से गांधी को हतप्रभ और अवाक किया
उसनें बराबर
चुनौतियां देने वाले गांधी को
असंगत और असफल
करते हुए
एक सामान्य
मनुष्य की तरह मारा
गंधी नें अपनी
अहिंसक क्रानित और सत्याग्रह से
उसे बहुत दिनों
तक भूखा रखा था
उसनें बहुत दिनों
तक लोगों को आपस में लड़नें नहीं दिया
और हत्याएं नहीं
करने दीं
तब उसनें क्षय
रोग से ग्रसित एक बुद्धिजीवी में
अनन्तकाल तक अमर
होने की लालसा भर दी
उसनें दंगे कराए
और विभाजन के लिए मजबूर किया
वह क्रोध में था
और अपनी भूख के लिए चाहता था
दो शत्रु देशों
के बीच नियमित युद्ध
वह भारी जनसंख्या
वाले देशो को अपनी उर्वर फसल के रूप में देख रहा था
उसने जिददी गांधी
को असंगत और असफल करते हुए
एक सामान्य
क्षुब्ध मनुष्य के हाथों सामान्य मनुष्य की तरह मरवा दिया.....
उसनें हत्यारों
के नियमित जन्म के लिए
मानव-जीन से
शरारतें की
उसनें अपने डसे
हुए प्रेरितों को गुमराह किया और
नायक बनने निकले
एक शर्मीले सज्जन इन्सान को निर्दोषों का हत्यारा बना दिया
स्वयं को जीवित
रखने के लिए वह नियमित मृत्यु चाहता था
डसनें अच्छार्इ
के लिए बनें सारे धमोर्ंं को
इन्सानियत को
बांटनें वाली दीवारों और काटनें वाली तलवारों में बदल दिया....
लाखों वर्ष तक वह
घूमती धरती के सभी महाद्वीपों में घूमा
उसनें अपने
स्थायी आवास के लिए
आपस में सदैव
लड़नें वाले अहंकारी लोगों की भूमि को पसन्द किया
उसनें देखा कि
कर्इ दिशाओं से आकर मिलती पर्वत श्रृंखलाओं वाले
पामीर के पठार
में बसती हैं कितनी जातियां-उपजातियां
कठिन भौगोलिक
सिथतियों से जूझ रही जिनकी आत्मा
उकसायी जा सकती
है सब कुछ पा लेने के नाम पर
नर्इ हत्याओं के
लिए
जहां कठिन
जीवन-परिसिथतियों के बीच
अब भी बचा है
आदिम भय और आक्रामकताएं
जहां कबीले अब भी
अपनी आदिम असिमता में हैं
एक-दूसरे के
असितत्व से भयभीत और आक्रामक
जहां बात-बात में
हो जातीं हैं हत्याएं...
कठोर नियंत्रण
में अपने सदस्यों को
दूसरे कबीलों के
विरुद्ध संभाले सरदारों के मसितष्क को उसनें डंसा
और उनके द्वारा
बलात मारे गए जीवन-विधुतों का आहार करता हुआ
उनके बीच किसी
भूखे गिद्ध की तरह रहने लगा.....
वह शिकार के लिए
उड़ता रहता था
बिजलियां गिराने
वाले बादलों की खोज में
समुद्र की लहरों
पर अठखेलियां करता हुआ उंघता और
प्रतीक्षा करता
रहता था विनाशकारी चक्रवातों और तूफानों के इन्तजार में.....
घाटी में समुद्र
तक फैला हुआ एक बड़ा देश
हर वर्ष दंगों
में मारे जाने के लिए लाखों बच्चे पैदा कर रहा था
उसके द्वारा
प्रेरित हत्यारे और अपराधी
अब लाठी और छुरे
छोड़कर ए.के.सैतालिस मशीनगन चलाकर लोगों को मार रहे थे
वह कभी गांधी से
डर गया था और जगह-जगह खुलते विधालयों से भी
वह डरा था कि
पढ़े हुए परिश्कृत और प्रशिक्षित बुद्धि के लोगों को
वह अपनी
इच्छानुसार हत्याओं के लिए प्ररित नहीं कर पाएगा
लेकिन स्कूली
बच्चे भी उसकी मौज के लिए हत्याएं कर रहे थे
उसनें अपनी भूख
के अनुसार उपलब्धता के लिए
छोटे-बड़े
हत्यारों के कर्इ गैंग तैयार किए
वह उनमें दुश्मनी
के लिए झगड़ों के बीज बोता था
और फिर भूख के
दिन अपने प्रभावितों द्वारा फसल कटवाता था हत्याओं की
वह अपनी चेतना की
असीमित उर्जा के बल पर
स्वयं को र्इश्वर
और मानव-जाति का नियामक समझने लगा था
मनव-जाति भ्रम
में थी और किसी सज्जन र्इश्वर के सपने देख रही थी
जिनका र्इश्वर के
होने से मोहभंग हो चुका था
वे सिर्फ असमर्थ
दर्शक थे और उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे
वह भूखा था और
उसे मानव-मृत्यु का आहार चाहिए था
सारे वायरस जब थक
रहे थे-सारी विचारधाराएं उसके पक्ष में थीं और सहायक थीं
जिनके नाम पर मर
रहे थे आपस में लड़ते हुए मनुष्य....
जिनकी ताजी
जीवन-ऊर्जा को पाकर वह और स्वस्थ होता जा रहा था...
दुनिया के सारे
मनुष्यों की गोपनीय सूचनाएं उसके पास थीं
वह एक मनुष्य के
मसितष्क से तथ्यों-विचारों को चुराकर
उसे किसी दूसरे
प्रिय मनुष्य के मसितष्क में भी डाल दिया करता था
एसत्रपीत्र हैरान
हो जाते थे कि सारी सूचनाओं के बावजूद
डनके रंगरूटों के
पहुंचनें के पहले ही कैसे खिसक जाया करते हैं
दुनिया के सारे
खूंखार हत्यारे और डकैत
कुछ अफवाहें तो
ऐसी भी थीं कि उसने लादेन को
बमबारी से पूर्व
ही अमेरिका से प्राप्त हेलिकाप्टर के द्वारा
उसे सुरक्षित
ठिकाने पर पहुंचवा दिया था
वह मानव-जाति के
अनन्त मसितष्कों की स्मृतियों का सामूहिक ज्ञाता था
वह खुश था और
दिनोदिन और मोटा और स्वस्थ होता जा रहा था.....
वह पिददी मनुष्य
जाति की सापेक्षता में र्इश्वर की तरह ही सर्वशकितमान था
लेकिन वह
र्इष्यालु और आपराधिक था
मानव-जाति से
प्रेम करने वाला र्इश्वर नहीं था वह
वह अपने असितत्व
की आवश्यकताओं से विवश था
मानव-मृत्यु के
आहार पर ही टिका था उसका असितत्व
इसप्रकार हत्यारा
होते हुए भी किसी शेर की तरह ही निरपराध था वह....
वह भी इसी धरती
का था
संभवत: डाइनासार
युग का अनितम महासर्प था वह
उसकी प्रजाति
खत्म हो चुकी थी
महाविनाश में
अपनी काया के मरने के बाद भी
सचेतन जैविक
विधुत के रूप में बना रह गया था वह
अब वह कहीं भी
जन्म न ले पाने के लिए अभिशप्त था
अब वह और मरना
नहीं चाहता था....
उसका होना कोर्इ
असंभव चमत्कार नहीं था
उसका असितत्व
भौतिक विधुत के गुणधर्म के अन्तर्गत ही था
जैसे आकाशीय
विधुत जन्म लेने के बाद भी
धरती में गिरकर
समा जाने तक बनी रहती है
वैसे ही किसी
गर्भ में न गिर पाने के कारण
वैसे ही बना हुआ
था वह अपने सचेतन जैविक विधुतीय देह में....
जैसे धनात्मक
विधुतीय आवेश वाले बादल से
ऋणात्मक विधुतीय
आवेश वाले बादल की ओर दौड़ लगाते आयन
अपनी यात्रा पूरी
कर चुकने के बाद भी
अदृश्य और उदासीन
नहीं होते
गिरकर धरती में
समा जाने तक बने रहते हैं
अपनी असामयिक
मृत्यु के बाद उस अतिविकसित मसितष्क वाले महासर्प को भी
अपनी प्रजाति के
एक धरती-गर्भ की तलाश थी
जो उसके पास नहीं
था इसलिए
वह अब जन्म न
लेने के लिए अभिशप्त था
वह वैसेे ही था
जैसे प्रकृति के गुणधर्म के अनुसार
जल के अणु वाष्प
बनकर अदृश्य हो जाने के बाद भी
बचे रह जाते हैं
संशिलष्ट यौगिक के रूप् में
वह भी संसार के
अनेक यौगिकों की तरह
अपने मूल तत्वों
में पुन: विघटित न हो पाने के लिए अभिशप्त था
वह अब एक आत्मा
के रूप में मर नहीं सकता था
वह अब जन्म न ले
पाने के लिए अभिशप्त था
वह एक जैविक
विधुतीय आवेश मात्र ही था
उसने देखा कि धरती
पर जीवन की कितनी प्रजातियां
महाविनाश के बाद
अब भी घूम रही हैं
अपने असितत्व के
परिष्कार के लिए
उसकी प्रजाति के
सपोर्ं नें रूप बदल लिए थे
यधपि उसकी मूल
प्रजाति अब भी सरक रही थी धरती पर
शुक्राणुओं की
तरह अब भी अपनी पूंछ लहराते हुए
लेकिन दूसरे सर्प
जो हाथ-पैर उगाकर अब सर्प नहीं कहलाते थे
बदल लिए थे अपनी
पूंछ के उपयोग
बन्दरों और
बिलिलयों ने उन्हें सन्तुलन के लिए बचाए रखा था
गाय ,भैंस,हाथी,घोड़े और जिराफ
उनसे अपनी मकिखयां उड़ा रहे थे
उन सभी के भीतर
आज भी बचा हुआ था
विकास के क्रम
में मिला हुआ आदिम सर्पत्व
उनकी विष
ग्रनिथयां लार ग्रनिथयों में बदल गयी थीं
लेकिन विष अब भी
बचा हुआ था उनके क्रोधी मसितष्क में
वे अब भी मार
सकते थे किसी को भी
वे अब भी दे सकते
मृत्यु घटित कर सकते थे हत्याएं
अपनी इच्छाओं और
अपनी शारीरिक प्रतिक्रियाओं से....
वषोर्ं तक वह
अपनी मृत्यु से हत्प्रभ ,निषिक्रय और अवाक रहा
उसनें देखा कि अब
वह हवा में तैर सकता है
वह कहीं भी जा
सकता है अपनी इच्छा के अनुसार
किसी भौतिक चटटान
की तरह धिसटता हुआ
भारी-भरकम भौतिक
शरीर अब उसके पास नहीं था
वह अब हवा में उड
सकता था और
बादलों के ऊपर सो
सकता था
वह अब ऊंघ रहा था
और उसका विधुतीय स्तर कम होता जा रहा था
उसका शरीर जैविक
विधुत से बना था
बादलों का भौतिक
विधुत उसके काम का नहीं था
धरती पर दौड़
लगाते जानवरों का जीवन-विधुत भी उसकी भूख के लिए घटिया था
फिर उसनें मनुष्य
को देखा और उसे मच्छरों की तरह अपने लिए पसन्द किया
वह बहुत बड़ा था
उसे अपने असितत्व
को सक्रिय रूप से जीवित बनाए रखने के लिए
असामयिक मृत्यु
में मरे हुए मनुष्यों के ताजे जैविक विधुतीय आवेश की तलाश थी
भूख में और भी
मनुष्य मारनें के लिए
वह अवर्षण की
सिथति पैदा कर सकता था
और अतिवृषिट की
घनघोर घटाओं से ला सकता था बाढ़
दूसरे सपोर्ं की
तरह ही एक बार भरपूर आहार पा जाने के बाद
कर्इ-कर्इ वषोर्ं
तक चुपचाप जीवित पड़ा रहता था वह.....
उसनें बार-बार
बादलों से बिजलियां गिरार्इं और कर्इ मनुष्य मारे
वह बार-बार
सक्रिय ऊर्जा से भरता गया....
उसनें देखा कि
बादल हर समय नहीं बरसते
न ही मनुष्यों पर
गिराने के लिए हर समय बिजलियां ही मिलती हैं
उसनें यह भी देखा
कि वह किसी भी मनुष्य के अरबों-खरबों न्यूरानों वाले
मसितष्क को डंसकर
एक जीवित चेतना के रूप में बचा रह सकता हैं
उसनें देखा कि वह
किसी भी जीवित मनुष्य की खोपड़ी में वैसे ही रह सकता था
जैसे अंधेरे
बिलों में रहा करते हैं छोटी प्रजाति के सर्प
वह किसी भी
मनुष्य की चेतना पर आवेश की तरह छा सकता था
जैसे पूरी तरह
मरने के पहले मनुष्य का कोर्इ भी अंग
किसी को भी
प्रत्यारोपित हो सकता हैं
वैसे ही वह अपनी
आत्मा और चेतना का प्रत्यषरोपण करता रहा
उच्च प्राण-शकित
वाले मानव-जाति के चुने हुए मसितष्कों में
उसनें जिसके भी
मसितष्क को अपने आवास और वाहन के रूप में चुना
वे सभी उसके
द्वारा प्रदत्त असीमित सामथ्र्य के बल पर
कबीलों के सरदार
और राजा बन गए
वह किसी के भी
मसितष्क में
उसकी अन्तरात्मा
की आवाज की तरह
कोर्इ भी विचार
पैदा कर सकता था
बहुत भूखा रहने
पर वह अपने वाहक-आश्रय मनुष्य की अन्तरात्मा में फुसफुसाता-
मारों और सभी को
जीत लो.....
वह अपने वाहक
मनुष्य को बर्बर महत्वाकांक्षाओं से भर देता था
उसके विरुद्ध
सोचने वालों से भी वह उसे सावधान रखता
वह अतार्किक
उन्माद का प्रेरक था
उसके वाहक
मनुष्यों के हाथों में चमक उठती थीं रक्त-पिपासु तलवारें
मानव-जाति के
विकास के साथ
अब होता जा रहा
था उसका भी विकास
वह किसी सुपर
कम्प्यूटर की तरह
किसी भी अकेले
मनुष्य के मसितष्क से श्रेष्ठ था....
मानव-जाति का
जीवित सक्षम मसितष्क पाकर
उसनें अपने भीतर
की विषैली आदिम इच्छा को
विनाशकारी भयानक
हथियारों में बदल दिया
वह डायनासोर युग
के किसी महासर्प की तरह था
सर्प की काया में
मनुष्यों की हजारों खोपड़ी के बराबर
किसी विशाल ग्लोब
की तरह उभरे
विशालकाय
अति-सक्रिय मानव-मसितष्क की तरह
जैसे हाथों और
पैरों के विकास से वंचित
अपने आदिम
तंत्रिकातंत्र के साथ कोर्इ सर्पाकार मनुष्य.....
क्या र्इश्वर इसी
रूप में था
हमारे भीतर छिपे
हुए सर्प के अतिविकसित आदिम प्रतिरूप की तरह
मसितष्कीय विकास
के चरम पर सिर्फ मसितष्क और मेरुदण्ड-मात्र
उसका वास्तविक
स्वरूप एक सर्प का ही है
जैविक चेतना के
चरम पर प्रतिषिठत
भौतिक सक्रियता
से वंचित आध्यातिमक असितत्व मात्र !
इस ब्रहमाण्ड में
जीवन के जितनें विविध रूप संभव हैं
उसमें जैसे
डाइनासोर युग में भी सर्प की सरीसृप काया में
हाथों और पैरों
के विकास से वंचित
वह सिर्फ
मसितष्क-मात्र की तरह विकसित होता गया होगा
इतना संवेदनशील
मसितष्क कि वह अन्तरिक्ष में भटकते
मानसिक विधुतीय
तरंगों को भी जीवन की सक्रियता की तरह
पकड़ सकता
था....... शारीरिक सक्रियता से अलग
उसकी दुनिया
सिर्फ अनुभूतियों-संवेदनाओं की दुनिया थी
दुनिया में उठती
हल्की से हल्की विचार तरंगों को
उसका मसितष्क सुन
सकता था
उसके लिए हर
विचार एक विधुतीय घटना थी
जैसे मनुष्य से
लेकर धरती पर दौड़ता हुआ हर स्तनपायी
अपने मसितष्क से
लेकर मेरुदण्ड के आखिरी छोर तक फैला हुआ
तंत्रिकातंत्र की
दृषिट से एक विषहीन सांप ही था
हाथों-पैरों के
विकास के बावजूद
हर मानव-शिशु आज
भी रेंगता ही है
अभ्यास के बाद उइ
कर दौड़ लगानें से पहले....
कि मनुष्य स्वयं
ही एक अतिविकसित सर्प ही था
जीवन-विकास के
चरमोत्कर्ष पर प्रतिषिठत....
उसकी आत्मा भयभीत
कर देने वाले
विधुतीय
जीवनविकास के
क्रम में
हाथों और पैरों
को उगाकर
सरपट दौड़ लगा
रहे सपोर्ं में
मानव-जाति की
अविश्वसनीय सृजनशीलता को देखकर
र्इष्र्या और शोक
में डूबा हुआ.......
वह अपने असितत्व
में ही विषमय और दोषपूर्ण था
वह सभी जीवनों के
विरुद्ध विकसित हुआ था
वह सिर्फ अपने ही
लिए था
वह सिर्फ अपनी ही
इच्छाओं के बारे में सोच सकता था
दूसरों की
पीड़ाएं उसके लिए
सिर्फ मनोरंजन का
विषय थीं
उसकी आत्मा उसके
द्वारा मानव-जीनोंम में किए गए
छेड़छाड़ से
दुनिया के तमाम जहरखुरानों
और हत्यारों में
फैल गर्इ थी
वह अतीत के
अन्धकार और बुरे वर्तमान की तरह था
वह निरन्तर
विकसित होती मानव-जाति की
सामूहिक चेतना से
घबरा रहा था
मानव-जाति नें
उससे प्रेरितों और अनुयायियों के प्रति
प्रतिरोध निर्मित
कर लिया था
वह अंधेरे में भी
चूहों का शिकार कर लेने वाले सपोर्ं से बहुत आगे था
जैसे कुत्ते सूंघ
लेते हैं मनुष्य की सूंघ लेने की सीमा की
कल्पना से भी परे
वह सोचते हुए
मसितष्कों की हर विचार-तरंग को पढ़ सकता था
किसी मनुष्य के
मसितष्क से हजार गुना बड़ा था उसका मसितष्क
किसी की
रक्तवाहिनी में अपनी मुख-नलिका घुसा देने वाले मच्छरों की तरह
किसी के मसितष्क
को सुझा सकता था वह अपने विचार
वह किसी गुफा की
तरह अपना मुंह खोले
नि:शब्द पुकार
सकता था किसी को भी
वह अपनें शिकारों
के मन में भर देता था सिर्फ
अपनी ओर आने का
विचार
और वे उसके पास
मरने के लिए स्वयं चले जाते थे
वह अपने भावों और
विचारों को सजग होकर न जीने वाले
दुनिया के सभी
असावधन मसितष्कों का स्वामी था
सारी मानव-जाति
उसके लिए बत्तखों के झुंड की तरह थी
जिसमें से हर
मनुष्य को वह
उनकी वास्तविक
आयु पूरी होने से पहले ही मार देता था
वह सभी को मार
रहा था समय से पहले
प्रदान कर रहा था
अकाल मृत्यु
वह सपने में
था....किताबों में था....
जीवन में था और
इतिहास में भी.....
वह इसी धरती पर
उगी हुर्इ देह और मन की सच्चाइयों में था
मन के भीतर के
दिक-काल-अन्तरिक्ष में.....
असमय मृत्यु के
भय की तरह!
वह हरे रंग का
पारदर्शी था
जैसे उसके भीतर
के विधुतीय विष नें उसे हरा कर दिया था
वह इस तरह हरा था
कि मैंने सोच रखा हो कि उसे हरा होना ही चाहिए
वह स्वाभाविक रूप
से मेरी कल्पना के बाहर
मेरी किसी भी
इच्छा और हस्तक्षेप से परे
वह स्वतंत्र और
स्वााभाविक रूप से मेरे द्वारा देखे गए स्वप्न में ही हरा था...
अपने आहार और
शिकार की
सामूहिक
मानव-मृत्यु की तलाश में उड़ता हुआ
एक सचेतन जैविक
विधुत था
अपनी इच्छा से
कहीं भी जा सकता हुआ
वह जीवन-ऊर्जा के
रूप में बना रह सकता था
जीवितों की
जीवन-ऊर्जा का अपने असितत्व की निरन्तरता के लिए
अपहरण करता
हुआ.....
वह असितत्व की
सारी शकितयों
और संभावनाओं से
सम्पन्न था
उसे सिर्फ पहचाना
जा सकता था उसकी इच्छाओं से
उसके मकसद से और
उसके सुख से
उसकी हंसी से और
उसके रोमांच से
क्योंकि वह
निर्मम,क्रूर और
व्यंग्यपूर्ण था....
उसके पास नहीं था
एक संवेदनशील âदय
जैसा कि हुआ करता
है किसी सच्चे मित्र के पास.....
उसके पास नहीं था
एक आत्मीय भावुक कल्याणकामी मन
जैसा कि हुआ करता
है एक पिता के पास
उसके पास नहीं था
ममता से भरा धड़कता हुआ मां जैसा âदय.....
जैसे वह मनुष्य
के भीतर की भयावह आन्तरिक सच्चाइयों का ही मूर्त रूप था
किताबों में उसे
शैतान कहकर उसके होने की संभावना व्यक्त की गर्इ थी
इस तरह सारी
खणिडत ,अनुचित और अनैतिक
इच्छाएं
शैतान की ओर से
ही थीं
शैतान पहचाना जा
सकता था किसी भी इच्छा के प्रभाव और परिणाम से
जैसे मूचिर्छत और
नीली पड़ती देह में व्यक्त होता है विष
वह विक्षिप्त था
इसलिए उसे प्रिय था
पीड़ा से उठती
हुर्इ आवाजों का रोमांचक संगीत
अपनी अपार मानसिक
शकितयों के बावजूद
अपने भारी-भरकम
शरीर की अक्षमता के कारण मैमथ की तरह
जैसे असमय ही मार
दिया गया था वह
वह चाहता था
मृत्यु-मृत्यु......असमय मृत्यु....
अपने असितत्व की
सार्थक सक्रियता के लिए.....
वह इतना
संवेदनशील था कि
अनुभूत कर सकता
था
अन्तरिक्ष में प्रसरित
होते विचार-तरंगों को
वह दूसरों के
मसितष्क में चुपके से रख सकता था
अपनी इच्छाओं को
कोयल के घोंसले
में पालनें के लिए चोरी से
अपने अण्डे रखकर
उड़ जाने वाले कौए की तरह
वह अपनी शरारती
इच्छाओं को
सीधे सम्प्रेषित
कर सकता था अपनी इच्छाओं की तरह
वह लोगों के
मसितष्क में निश्शब्द फुसफूुसा सकतस था अपने विचार
जबकि उसका
प्रतिद्वन्द्वी र्इश्वर
अपनी मनचाही
सृजनात्मक सफलता के कारण पूर्ण-तृप्त और उदासीन था
वह आत्मीय पूर्वज
था इसलिए सभी के पक्ष में था वह
इच्छाएं उठती
रहती थीं दुनिया के सागर-मन में लहरों की तरह
सागर की तरह
उन्हें झेलता हुआ भी चुपचाप जीता रहता था र्इश्वर
क्योंकि र्इश्वर
किसी से भी नाराज ही नहीं था
इसलिए उसके भीतर
नहीं था किसी के भी लिए क्रोध
क्योंकि र्इश्वर
सम्पूर्ण असितत्त्व की अपनी पूर्णता में संतृप्त था
इसलिए
महत्त्वाकांक्षी भी नहीं था वह.........
वह बड़ा ही था
इसलिए बड़े होने की भावना से मुक्त था वह
क्योंकि वह छोटा
नहीं था इसलिए वह चाहता ही नहीं था बड़ा होना
वह पूरी तरह
स्वस्थ था-
अपने ही
असितत्त्व के आत्मविश्वास ,ऐश्वर्य और महिमा से पूरी तरह मंडित !
इस तरह सिर्फ
मुक्त विवेक और
सम्पूर्ण असितत्व
के प्रति आत्मीयता में ही था र्इष्वर
दुनिया की सारी
घृणा,सारी र्इश्र्या ,सारा विभाजन
षैतान की ओर से ही था
सारे स्वार्थ ,सारी रुचियां, सारे
गुण-धर्म...जो प्रकृति की ओर से भी थे
षैतान के विकृत
मनोरंजन और हस्तक्ष्ेाप से मुक्त नहीं था
दुनिया की सारी
हत्याएं और सारे युद्ध षैतान की ओर से ही थे
षैतान क्रूरता
में था और उन्माद में....
दुव्र्यवहार में
था और अपराधों में.....
षैतान आक्रामक
सक्रियता में था और इतिहास में
वह असुरक्षित
वर्तमान के सपनाें में था....
वह प्रतिषोध और
चतुरार्इ से निर्मित आत्माओं में था
वह सज्जनता के
आवरण में लिपटे कपट के साथ था
वह बर्दाष्त के
बाहर के आकसिमक हत्यारे आवेष में था
वह दूसरों को दुख
पहुंचाने के लिए की गर्इ आत्महत्याओं में था
वह स्पष्टवादिता
के अभाव से निर्मित संकोच एवं पाखण्ड में था
वह अपराधी
मानसिकता के प्रतिहिंसक अपमान-बोध में था
वह लज्जालु-मन की
दुर्निवार अतृप्त इच्छाओं में था......
सपने में भी वह
इस दुनिया का प्राणी नहीं था
सपनें में भी वह
अद्वितीय था
क्योंकि âदय की धड़कनों को
भय से बढ़ा सकने के कारण वास्तविक
लेकिन वह बना हुआ
था हरे विधुतीय आवेष से
वह मार सकता था
.....सोच सकता था....उड़ सकता था
वह अपनी
प्रतिक्रिया से अवगत करा सकता था
किसी रिमोट
कन्दोल या सुपर कम्प्यूटर की तरह
वह सिर्फ सोचने
मात्र से ही घटित कर सकता था दुर्घटनाएं
वह किसी भी
विचारधारा का प्रयोग हत्याओं के लिए कर सकता था
हत्याओं मे मारी
गर्इ आत्माओं से भोजन की तरह वह जीवन चुरा लेता था
एक जीवित
र्इकार्इ के रूप में अनन्तकाल तक स्वयं को बचाए रखने के लिए........
वह अब भी मुस्करा
रहा था
एक कुटिल मुस्कान
के साथ देख रहा था
मनुष्यों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी
जन्म लेती और आती
हुर्इ भीड़ को
वह अपनी कुण्डली
में लपेटे हुए था
करोड़ों-अरबों की
संख्या वाली मानव-भीड़
नारे लगाती
हुर्इ....स्वयं को सही और दूसरों को
गलत समझती और
ठहराती हुर्इ
जहरीले ढंग से एक
तरह..एक साथ सोचने वाली भीड़
वे एक-दूसरे को
पागल कह कर उन पर पत्थर और
गोलियां बरसा रहे
थे
एक-दूसरे के
खिलाफ कह कर
एक-दूसरे के उड़ा
रहे थे चीथड़े.....
वह डरावना और
रहस्यमय था
चतुर ,सतर्क और
बुद्धिमान था
उसके आंखों से
झांक रहा था
एक शरारती
खिलन्दड़ा हत्यारा मन
वह जैसे एक मिशन
पर था
हर दिमाग में
जन्म लेती इच्छाओं को
एक क्रूर
व्यंग्यात्मक मुस्कान में बदल देने के
उसके पास एक घायल
और चिढ़ा हुआ मन था
सिर्फ घृणा और
प्रतिशोध की भावना से भरा हुआ
सम्पूर्ण मानव
जाति के प्रति.....
वह सांप नहीं था
वह एक अतार्किक
और असंभव उपसिथति था
मेरे अनियनित्रत
सपने के संसार की
भयावह और क्रूर
वास्तविकता था वह
उसका चेहरा
दुनिया के किसी भी सांप
यहां तक कि
एनाकोण्डा और अजगर जैसा भी नहीं था
बलिक कुछ-कुछ
दरियार्इ घोड़े से भी बड़ी गुस्सैल खोपड़ी में
छिपे हुए आदमी के
दिमाग जैसा था
अपने चेहरे से
अपने भावों को व्यक्त कर पाने में सक्षम
किसी विशालकाय
काटर्ून जैसा.....
किताबों में जैसा
कि लिखा था
प्रवृत्तियों में
वैसा होते हुए भी सपने में वह बिल्कुल वैसा ही नहीं था
वह अपनी षारीरिक
असमर्थता के लिए अपमानित
एक संवेदनषील और
बुद्धिमान आत्मा था
वह एक निश्पाप
हत्यारा था
अपने भूखे जीवन
के लिए दूसरों की जीवित देह का षिकार करने वाला
एक विकसित
मसितश्क वाला बुद्धिमान भूखा अजगर.....
वह इस दुनिया का
प्राणी नहीं था
मुझे नहीं पता कि
उसे मेरे मसितष्क ने रचा था
अपनी आशंकाओं के
आधार पर या
वह सच ही आंखों
के परे की इसी दुनिया में सच ही था
कुत्ते द्वारा
सूंघी जा सकने वाली किसी अदृष्य गंध की तरह
या कोर्इ ऐसी
पराश्रव्य ध्वनि जिसे सिर्फ चमगादड़ ही सुन सकता था
वह अतीत में
जीवित रहे किसी प्राणी की ऊर्जसिवत उपसिथति का
विधुतीय अवषेश
मात्र ही था !
जीवन के सरल आदिम
प्रारूप में चेतना की जटिल किन्तु सर्वाधिक उन्नत उपसिथति था वह
विकास-क्रम में
हुर्इ सृशिट के अनन्त जीवन-अभिव्यकितयों में से
वह एक भटकावपूर्ण
और संभावनाषून्य चरम विकास था
वह असमर्थ था
लेकिन वह सोच सकता था
महसूस कर सकता
था.....देख सकता था ........पढ़ सकता था.......
प्रेरित और
परिवर्तित कर सकता था
किसी भी जीव के
मसितश्कीय तरंगों को.....
वह एनाकोण्डा से
भी हजार गुना बड़ा था
दरियार्इ घोड़े
से भी बहुत बड़ा था उसका विशालकाय सिर
मनुष्य के सिर की
तरह गोलाकार
विकसित मसितष्क
वाला महांसांप था वह
सपने में भी लगभग
पचास मीटर लम्बा
और किसी बड़े
पेड़ के मोटे तने की तरह मोटा...
सांपों की
प्रजाति का होते हुए भी
वह सांपों से
उतना ही अलग ,विषिश्ट और बड़ा था
जितना कि बौने
बन्दर से अलग और विषिश्ट मनुश्य
जितना कि छोठी
बिल्ली से षेर और बाघ
हां वह संभवत:
सांप ही था
सोचने-समझने और
अन्य अतीनिद्रय क्षमताओं से युक्त
डाइनोसोर युग का
सांप.....
संभवत: वह जीवन
की वह प्रजाति था
जिसने अपनी
प्रजाति में हाथ और पैर
विकसित न हो पाने
की जैविक अक्षमताओं को
अपनी अपार मानसिक
क्षमताओं से जीत लिया था.....
वह मनुश्य की तरह
सोच सकता था
किसी को भी चकमा
दे सकता था
वह पेड़ों के बीच
में अपनी त्वचा का रंग बदलकर
डाल की तरह झूल
सकता था
अपने भूखे पेट का
षिकार बना देने के लिए
वह अपना मुंळ
खोलकर पड़ा रह सकता था
किसी रहस्यमय
गुफा की तरह
जहां अन्य
षिकारियों से बचने के लिए
भागते हुए जन्तु
छिपने के लिए स्वयं ही
उसके मुंह में
कूदकर उसका आहार बन जाते थे.....
जैसे उसे मैमथ की
तरह ही
घेरकर मार डाला
हो हमारे डरे हुए संगठित पुरखों ने
और वह आज तक भटक
रहा हो प्रतिशोध में......
सभी
मानव-मसितष्कों से अधिक बुद्धिमान और समर्थ होते हुए भी
मानव-जाति के
आदिम पुरखों के सामूहिक हाथों
पत्थरों और
टहनियों से पीट-पीटकर हुर्इ अपनी बर्बर हत्या को
आज तक नहीं भूल
पाया था वह......
क्या पता वह
सांपों की काया वाला
मानव-मसितष्क की
तरह उन्नत बुद्धि-सम्पन्न
दैत्याकार
प्रबुद्ध सांप रहा हो
डाइनासारों जैसे
किसी विलक्षण जैविक कुल का अनितम अवशेष
जैसे अभी भी
दुनिया के कुछ द्वीपों में
पार्इ जाती हैं
दैत्याकार छिपकलियां
और उसकी प्रजाति
सोच सकती रही हो हमारी ही तरह
उसकी प्रजाति नें
भी जड़ता से ऊपर उठकर
हमारी तरह आत्मा
का आविष्कारक विकास पा लिया हो
बिल्ली प्रजाति
में मिलने वाले शेर की तरह
कोर्इ अतिविकसित
मसितष्क वाला सरीसृप रहा हो
किसी डालिफन की
तरह
मानव से भी अधिक
मसितष्कीय क्षमता वाला प्राणी
जिसे किसी गुफा
में घेरकर मार डाला हो
अपने और अपनी
सन्तान के लिए
सुरक्षित धरती की
तलाश करते मानव-पूर्वजों नें
अपने असितत्व की
सुरक्षा-चिन्ता में आक्रामक हुर्इ
मानव-जाति के
हाथों हुर्इ अपनी हत्या के पाप पर
जैसे यह उसका ही
अनितम शाप था कि
बुद्धिमान और
संवेदनशील कभी सुखी नहीं रहेंगे इस दुनिया में
हाथों को होते
हुए भी बिना हाथों वाला असमर्थ जीवन जिएंगे वे
वे अपनी एकान्त
सज्जनता के लिए जीवन-दर-जीवन अभिशप्त होंगे
उनके प्रेम मूर्ख
किन्तु बर्बर बलात्कारियों द्वारा दूषित कर दिए जाएंगे
संवेदनशीलों की
आत्मा मेरे द्वारा निर्देशित आततायियों द्वारा घेर दी जाएगी
जैसे वंचित किया
गया है मुझे मेरी भी दुनिया से
मानव-जाति के
सारे समझदार मूर्ख किन्तु बलिष्ठ बर्बरों द्वारा
अपनी ही दुनिया
को स्वतंत्रता और अधिकार के साथ जीने से वंचित कर दिए जाएंगे
बुद्धिमान शासित
और अधीनस्थ जीवन जिएंगे
अपनी चेतना के
एकान्त में अपमान जीते हुए भी
वे सिर झुकाकर
मुस्करानें का अभिनय करते रहने के लिए विवश होंगे
सपने में भी वह
वर्तमान और शरीरी नहीं था
वह एक चेतन
विधुतीय आवेश के रूप में था
एक मानवाकृति
वाले बड़े-हरे सांप की आत्मा की तरह था वह
वह एक ऐसे
विशालकाय सांप की अशरीरी आत्मा था
जो डायनासारों की
तरह रहस्यमय होते हुए भी
एक रहस्यमय
ऊर्जसिवत उपसिथति था
जैसे दो
भिन्न-भिन्न आवेशों वाली विधुत भी
धरती में समा
जाने के पूर्व तक
बनी रहती है वजूद
में
अपनी अतीनिद्रय
मानसिक शकितयों के बावजूद
शुक्राणुओं जैसी
आदिम वतर्ुलाकार गतिषीलता से आगे नहीं जा पाया था वह
वह अपनी गुफा में
बैठा-बैठा ही दुनिया के सारे मसितश्कों का सोचना देख सकता था
अपनी मानसिक
षकितयों से उनके असावधान विष्वासी मसितश्क पर
चुपके से लिख
सकता था अपनी विध्वंसक ,स्वार्थी और षरारती इच्छाएं
वह अदृश्य रहते
हुए भी था
अतीत की
प्रवृत्यात्मक उपसिथति की तरह
किसी अपराधिक
इच्छा या हिंसक विचार की तरह
वह उड़ सकता
था....फैल सकता था
रेडियों तरंगों
के किसी विशाल प्रसारण केन्द्र की तरह
वह फैला सकता था
अपनी प्रतिहिंसक इच्छाएं
धरती पर जन्म
लेते हर नए मसितष्क में......
जैसे उतरा करते
हैं वायुयान एक हवार्इ अडडे से दूसरे हवार्इअडडे पर
जैसे तितलियां
मंडराती हैं एक फूल से दूसरे फूल पर
जैसे सैनिक एक
टेंक से उतर कर दूसरे टेंक पर सवार हो जातें हैं
वह भी बदल सकता
था एक मसितष्क से दूसरे मसितष्क तक
अपना
ठिकाना.....कानों में नहीं बलिक दिमाग के भीतर ही पैठकर
कह सकता था वह
किसी सम्मानित मेहमान की तरह साधिकार-
देखते क्या हो ? मार डालो उसे !
और दूसरी सुबह
दर्ज हो जाता था अखबारों में एक और हत्यारे का होना ...
सड़कों पर दौड़ने
लगती थी पुलिस
और वह उस मसितष्क
को छोड़कर
किसी नए मसितष्क
की तलाश में निकल जाता था....
सपनें में भी वह
इतना विश्वसनीय था कि
मानों असितत्व की
बिल्कुल अलग ही कोटि में
इसी दुनिया का
वास्तविक प्राणी था वह
जैसे किसी की भी
आंतों में रह सकते थे स्वतंत्र जीवाणु
जैसे किसी भी
कोशिका में रह सकते थे वायरस
वह भी जैसे
पुनर्जीवित और सक्रिय हो सकता था
किसी भी उर्जसिवत
मसितश्क को स्वायत्त कर लेने के बाद......
संक्रमित
कोशिकाओं में पड़े हुए वायरसों की तरह
वह सभी के
मसितष्कों में पड़ा हुआ था
जीवित मसितष्कों
के तनित्रका प्रवाहों से
खींच रहा था जीवन
का रस
व्ह अमर था एक
पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच की
अचेतन उपसिथतियों
में
प्राय: ही वह
उत्तेजनाओं और आवेषों में प्रसन्न रहता था
अच्छाइयों के हर
सपने को वह बुराइयां फैलाने वाले सम्प्रदायों में बदल देता था
वह एक जीवित
प्रबुद्ध आवेष की तरह था
आवेष की अरबों
संरचनाओं से बना हुआ था उसका मसितश्क
जैसे उसके मसितश्क
के एक-एक न्यूरान
आकाषगंगा के
एक-एक ग्रह-नक्षत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हों
वह मारा जा चुका
था फिर भी मसितश्कीय ऊर्जा के रूप में जीवित बचा हुआ था वह
असितत्त्व के एक
बिल्कुल अलग आदिम पाठ के रूप में
वह एक उन्नत
मसितश्कीय क्षमता वाला महासांप ही था
मसितश्क से
मेरुदण्ड तब फैले हुए एक विषालकाय जीवन-प्रारूप की तरह
हाथों और पैरों
से वंचित
न कुछ कर पाने और
न ही दौड़ पाने की असमर्थता नें
जैसे उसमें खोल
दिए थे कर्इ नए द्वार अतीनिद्रय षकित-सामथ्र्य के
जैसे वह किसी के
विचारों को अपने मसितश्क से ही पढ़ सकता था
हमेषा ही छिपा रह
सकता था अपने आक्रमणकारियों से
दूसरे षब्दों में
वह कानों से ही नहीं बलिक अपने मसितश्क से ही
महसूस कर सकता था
दूसरों का मसितश्क
उन्हें प्रेरित
और संचालित कर सकता था
अपनी ही देह की
तरह......
वह बना हुआ था एक
काल-निरपेक्ष अमर उपसिथति
घृणा और प्रतिषोध
की पुनरावर्ती उत्तरजीविता
जीन से लेकर
सामाजिक प्रषिक्षण-तंत्र तक
मृत परम्पराओं की
जीवित मनोग्रनिथयां रच रही थीं
लिख रही थीं
अभिषाप का इतिहास
वह जब इस धरती पर
था
तब भी दहषत था ,मौत था ,दुर्भाग्य था
औरों के लिए....
र्इष्वर भी उन
दिनों किसी आदिम कबीले के सरदार जैसा ही रहा होगा
जीवन की विविध
प्रजातियों के बीच अपनी प्रजातियों के लिए
अच्छे दिनों और
सुरक्षित भविश्य की खोज करता हुआ
षैतान की षातिर
चालों से ऊबा और डरा हुआ
बहुत सतर्कता के
बावजूद भी अपने लोगों को
भूखे षैतान का आहार
बनने से न बचा पाता हुआ......
उसने षैतान की
सामथ्र्य और
उसकी असमर्थताओं
को पढ़ा होगा
उसकी षातिर चालों
को समझते हुए
उसनें मरने के
लिए तैयार की होगी अपनी चाल...
उसने अपने
साथियों की पीठ पर कांटों वाली सूखी टहनियां बांधी होगी
और जानवरों के
खालों से बनें थैलों में
रखकर चलने को कहा
होगा बडे-बड़े पत्थर
ताकि धोखे में
निगलने के बाद भी षैतान उन्हें पचा नहीं पाए
उनकी मृत्यु भी
काम आ जाए अपनी जाति की सुरक्षा में
ताकि जब भी षैतान
उन्हें खाए
पत्थर और कांटे
उसे पीडि़त कर सकें
उसने निर्देषित
किया होगा कि अनजान गुफओं के मुख पर
पहले दूर से
पत्थर फेंको.....फिर जाओं उनके पास
पेड़ों की डालों
पर भी पत्थर फेंककर यह सुनिषिचत कर लो कि
कहीं वह छिपा हुआ
षैतान तो नहीं है ?
भूखा षैतान जब
अपने जीवन के आखिरी आहार का षिकार कर रहा होगा
पत्थरों और
कांटों की सामूहिक वर्शा नें लहूलुहान कर दिया होगा उसे
अपनी ही भूख के
लिए षिकार करने के प्रयास में षिकार हाें गया होगा वह....
इसीतरह मारे जाने
के बाद ही
मेरे
अचेतन....मेरे सपने में जिन्दा रहने के लिए आया होगा षैतान
बस गया होगा मेरी
जाति की अचेतन स्मृतियों में
मेरे जीन में
दर्ज हो गए होंगे उसे मारने के कौषल
उसे मृत्यु के
षाष्वत अचेतन प्रतीक के रूप में चुन लिया होगा
तभी तो वह इतना
उर्जावान था कि वास्तविक जगत में मारे जाने के बाद भी
वह बना रह सकता
था एक अतृप्त किन्तु सक्रिय जीवित आत्मा की तरह
वह बना रह सकता
था वैसे ही जैसे
धनात्मक और
ऋणात्मक आवेश वाले बादलों के बीच
विधुतीय आवेशों
की यात्रा से निर्मित तडि़त
धरती पर गिरने से
पूर्व तक
विधुतीय आवेश में
बना रह सकता था....
अब वह सिर्फ
जैविक विधुतीय आवेश के रूप में ही बना सकता था
धरती पर नहीं बचा
था उसकी प्रजाति का कोर्इ भी प्रबुद्ध प्राणी
जो उसकी
जैविक-भौतिक ऊर्जा को पुनर्जन्म दे पाता
नश्ट हो चुके
हवार्इ-अडडे वाले वायुयान की तरह
वह अब कभी भी
जन्म लेकर जीवन में न बदल पाने के लिए अभिषप्त था
वह अब एक अषरीरी
उपसिथति के लिए अभिषप्त था
और हमेषा बने
रहने के लिए चुराता रहता था
नासमझ,असावधान ,मूर्ख किन्तु
उत्तेजित-क्रोधित मनुष्यों के मसितष्क से जैविक आवेश
उन्हें अपनी
अभिव्यकित का माध्यम बनाकर
वह अब
प्रागैतिहासिक गुफाओं और बिलों में नहीं बलिक
मनुष्यों के
दिमाग में रहा करता था.....
जबकि जीवन के
अन्य प्रारूप जो कि वस्तुत:
मसितश्क से लेकर
मेरुदण्ड की अनितम कषेरुकाओं तक
हाथ और पैर उगाकर
रूप बदल लेने के बावजूद
अब भी भीतर से
सांप ही थे
अपने वंषजों में
हाथ-पैर उगाकर धरती पर कुलांचे भर रहे थे
वे हाथियों ,घोड़ों,बिल्लयों कुत्तों
और कंगारुओं के रूप में थे
वे चमगादड़ों ,बन्दरों और
मनुश्यों के रूप में थे
अपनी
लार-ग्रनिथयों में जहर बनाना भूल जाते हुए भी
वे काटना
-फुफकारना नहीं भूले थे अभी तक
वे अब अपने हाथों
से ही मार सकते थे बिना किसी विश
उनके मसितश्क में
ही बनने लगे थे दूसरों को मार देने वाले घातक विश
वे अब धरती से सीधे
खींच कर अना सकते थे विश
निर्जीव यन्त्रों
से कारित कर सकते थे कभी भी प्रायोजित दुर्घटनाएं एवं सामूहिक मृत्यु
वे बड़े-बड़े
कारखानों में बनाने लगे थे और भी घातक और सक्षम जीवन-विश....
वह अब बने रहने
के लिए अभिशप्त था
पवित्र घोषित की
गर्इ धार्मिक किताबों और दन्त कथाओं में
उसनें
धर्मग्रन्थों को बदल दिया था
और उनके
अनुयायियों को गुमराह कर दिया था
वे अब भी हत्याएं
कर रहे थे
सांपों को मारना
छोड़कर करने लगे थे मानव-बध
अब हत्या से
हुर्इ हर नर्इ मृत्यु उसे विकृत आनन्द से भर रही थी
अब वह देह का
नहीं बलिक जीवनों का शिकारी बन गया था
अब वह फैल गया था
मानव की ज्ञान-शिराओं में
सभ्यता के सबसे
समर्थ मनुष्य की खोपड़ी ही बन गयी थी
उसके रहने की
सुरक्षित गुफा
वह अब भी राज कर
रहा था
शिकार कर रहा
था-कहीं भी...कभी भी गोलियां चलवाकर
वह प्राय: खोज
करता था सबसे अतृप्त मनुष्य की
और उनमें उतार
देता था हिंसक अमानवीय महत्वाकांक्षाओं का घातक विष
वह उन्हें उड़ाने
लगता था सर्वशकितमान मनुष्य बनने के सपनों के साथ
स्वस्थ , शान्त और विनम्र
आत्माओं को वह कर देता था
दौड़ से बाहर और
मानव-जाति की स्मृतियों का सारा अन्तरिक्ष
भर देता था
प्रतिशोधपूर्ण हत्याओं और क्षत-विक्षत लाशों में....
वह बदल सकता था
अपना रूप और आकार
उदाहरण के लिए
मात्र तीन चार सेकेण्ड के सपने में
जब मैंने सपने
में ही पकड़ी थी उसकी पूंछ
वह हरे रंग के
कासिमक सांप की तरह था
जिसे पकड़ लेने
के बाद भी
किसी हरे धुंएं
की काया की तरह
उसके पार भी देख
सकता था मैं.....
वह अपने अशरीरी
रूप में भी
दुष्टता की समझ
से सम्पन्न
जैविक विधुतीय
ऊर्जा की तरह प्रतीत हो रहा था.....
मानसिक शकित और
मसितष्क के आयतन के रूप में भी
वह मुझसे बहुत
बड़ा था
वह सक्रिय
इलेक्टानों से निर्मित हरे विधुतीय आवेश-सा दिख रहा था
मैं उसकी बराबरी
नहीं कर सकता था
मेरे जैसे न जाने
कितने मानव-मसितष्कों का समुच्चय था वह
वह सम्मोहित और
स्तब्ध कर देने वाली दुर्भावना से बना हुआ था
वह असुरक्षित ,डरा हुआ किन्तु
आक्रामक था
मेरे द्वारा देख
लिए जाने के बाद भी वह यथाशीघ्र छिप जाना चाहता था
कुछ ऐसे कि
अदृश्य बने रहने में ही उसकी सुरक्षा थी
जैसे वह नहीं
चाहता था कि मानवों के संगठित पुरखों द्वारा
कभी घेरकर मार
दिए जाने के बाद
अपनी सूक्ष्म
उपसिथति से भी वह वंचित कर दिया जाए
वह अब एक आदिम
उन्माद के आवेश मात्र की तरह था.....
उसके विशालकाय
मसितष्क से फूट रही थीं
दूसरों को
प्रभावित कर देने वाली इच्छाओं की विचारहीन विधुत तरंगे
वह सिर्फ
पूर्वाग्रहों से जन्में र्इष्यालु क्रोध के रूप में था
प्रतिशोध की
ज्वाला से जलती हुर्इ आंखों से देख रहा था वह
वह एक प्रजाति के
रूप में धरती पर
अपने जीवित न रह
पाने की क्रोधपूर्ण र्इष्र्या से क्षुब्ध था.....
वह घुस सकता था
किसी के भी जीवित मसितष्क में
किसी सक्रिय
जैविक ऊर्जा की तरह
और छिपकर बैठ
सकता था जैसे
बख्तरबन्द टैंकों
में छिपकर बैठ जाते हैं सैनिक
और नचा सकता था
अपनी इच्छाओं की लय और ताल पर
कोर्इ एक ही नहीं
बलिक बड़ा मानव-समुदाय
उसके होने को
सिर्फ उसके घातक प्रभावों और
नकारात्मक
दुर्घटनाओं से ही जाना जा सकता था
जिधर वह होता था
उधर फैल जाता था रक्तपात
हत्या के लिए
एक-दूसरे को ललकारने लगती थी मानव-जाति
नगरों में फैल
जाते थे दंगे...होने लगते थे युद्ध
आग के षोलों से
भरी हुर्इ मिसाइलें गिरने लगती थीं
महिलाओं और
बच्चों पर.....
दुनिया के अचेतन
मन की ठहरी बन्द सुरंगों में बैठा हुआ था वह
संचालित और
प्रभावित कर रहा था
लोगों के मसितश्क
में बनते हुए मनोरसायनों को
लोगों के अन्त:स्रावी ग्रनिथयों और उनके
प्रभावों को....
उसके एक आवेषी
फूत्कार से ही
मारे जा रहे थे
लाखों करोड़ों लोग.....
वह मानव-मन की
दुर्बलताओं को जल्द भुनाने वाले
षातिर बाजार के
रूप में था
जिसमें विक्रेता
बनकर घूम रहे थे जहरखुरान ही जहरखुरान
उसके संकेत
मुस्काते आमंत्रणों में भी थे और शिष्ट अभिवादनों में भी
वह नैतिक
अच्छाइयों को नापसन्द और अनैतिक बुराइयों को
पसन्द की तरह
फैला रहा था बाजार में.....
वह एक ऐसी
प्रवृत्ति के रूप में था जो
अच्छे लोगों को
रोक रहा था सच्चाइयों से
वह सज्जनों को
असफल कर उन्हें सामाजिक कुण्ठा पैदा करने वाले
दृश्टान्त के रूप
में प्रस्तुत कर रहा था
रोक रहा था
समझदार लोगों को सच कहने से
अभिव्यकित के
किसी भी मंच पर ऐसे लोगों को न पहुंचने देने के लिए
वह कृत-संकल्प था
और सचेश्ट था
उसने अच्छे
लाेंगों को पकड़-पकड़कर
समय की
अन्धी-बन्द सुरंगों में छिपा दिया था
वह नहीं चाहता था
कि उसके प्रभाव सेअब भी स्वतंत्र और अछूते
अच्छे लोग सामने
आएं और उससे प्रभावित लोगों की मूच्र्छा टूटे
लोग इतना जाग
जाएं कि मुषिकल हो जाए
लोगों की इच्छाओं
पर उसके द्वारा नियन्त्रण रखना
कि अपने विवेक के
अनुसार स्वतंत्र हो जाएं लोगों की इच्छाएं
सजग होने के पहले
ही हिंसक प्रतिक्रियाओं के लिए
सभी को विवष कर
देता था वह......
हर नया मनुश्य
जन्म लेते ही
उसके द्वारा
दूशित सभ्यता ,संस्कृति और विचारों के प्रति विष्वास की निश्ठा और षपथों से
बांध दिया
जाता......लोग समझते थे कि जो कुछ भी मेरे द्वारा
मेरे हाथों हुआ
है-उसे किया है मैंने ही
वेअब क्रियाओं को
नहीं बलिक सिर्फ प्रतिक्रियाओं को जी रहे थे
जन्म लेते ही
उनकी आत्माएं ग्लानि ,क्रोध और अपराध-बोध से भर जाती थीं,
एक अपमानजनक
अवांछित इतिहास-बोध का उत्तराधिकार पाते ही
घबरा जाते थे वे
या फिर हो उठते थे हिंसक और उग्र
उन्हें दबोच लेता
था वह एक दमित कुणिठत अवसाद में....
आत्माओं का सारा
नैतिक बल चूसनें के बाद
वह चल देता था
नर्इ जन्प्मी अछूती आत्माओं कर खोज में.....
अपने षिकार की
खोज में वह
इजराइल से
अफगानिस्तान ,इराक,कोरिया ,पाकिस्तान
और अमेरिका तक
घूम रहा था
अपनी सत्ता के
लिए हर नए जन्में मनुश्य के अचेतन का षिकार करता......
वह अब डर भी रहा
था
कि एक दिन
मानव-जाति के सामूहिक अचेतन में छिपी हुर्इ उसकी उपसिथति को
देख न लिया
जाए....पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ते ज्ञान,षिक्षा और सोच के साथ
मानव-जाति की
जागती आत्माएं लुप्त कर रही थी उसका आवासीय पर्यावरण
तेजी से
स्वावलम्बी होते उत्तेजित मसितश्कों के साथ
दिनों-दिन मुषिकल
होता जा रहा था उसका
एक मसितश्क से
दूसरे मसितश्क के बीच उसका घूमना और छिपना
वह अब घबराया
हुआ-सा छिपता-भागता घूम रहा था
लोग अब इन्कार कर
रहे थे उसके प्रभावों और संकेतों केो मानने-स्वीकारने से....
जनसंख्या बढ़ रही
थी और
ढेर सारी
प्रतिभाओं के जन्म से
मानव-जाति की
सामूहिक ताकत बढ़ रही थी
पहले की तरह लोग
अपने मसितश्क से सिर्फ जी और कर ही नहीं रहे थे
बलिक अपने
मसितश्क के सोचने के बारे में भी सोच रहे थे
लोग अब सोचने लगे
थे कि क्या और क्यों सोच रहे हैं वे
लोग अब दूसरों के
भीतर जन्मी इच्छाओं पर
बिना सहमति के
अनुक्रिया करने से इन्कार कर रहे थे
लोग बच रहे थे
सिर्फ प्रतिक्रियाओं को ही करने-जीने से
लोग अब चाहते थे
अपने ही विवेक की षर्तों पर अपनी इच्छाओं का होना....
षैतान अब और घबराया हुआ छिपता भाग रहा था
एक मसितश्क से
दूसरे मसितश्क तक
अब वह और अधिक
हिंसक हो चला था
इसके पहले कि लोग
अपनी प्रार्थनाओं में
विवेकपूर्ण
विचारों को स्वायत्त कर पाते
वह उन्हें गलत
अन्त:प्रेरणाओं से दिग्भ्रमित कर देता ।
लेकिन अब लोग सच
जानना चाहते थे
उनका अचेतन
क्षुब्ध हो रहा था
अब षैतान नहीं
छिप पा रहा था लोगों के अद्र्धचेतन असावधान मन में
न ही उन्हें वह
मार पा रहा था कि कुछ नए जीवनों की आतिमक ऊर्जा को
वह अपने होने में
मिला सके
मैंने जब वह सपना
देखा
लादेन पकड़ा नहीं
गया था
पकड़कर मारे जा
चुके थे सददाम हुसैन
बेनजीर भुटटो को
सुलाया जा चुका था मौत की नींद
नगर के ही एक सफल
व्यवसायी पिता नें
अपने पूरे परिवार
के साथ आत्मदाह कर लिया था
अपने बावर्ची के
साथ भागी हुर्इ पत्नी नें
अपने ही पति को
सुधार और प्यार के विष्वास में लेकर
धोखे से मार डाला
था
एक कवि-पत्रकार
मित्र प्रदीप तिवारी की असमय मृत्यु
दिल्ली से
बम्बर्इ लौटने पर असमय हो गयी थी
एक आत्मीय विनोद कुमार
राय के बेटे की
लम्बी बीमारी के
बाद हो गयी थी असमय मृत्यु
डा0 पी0एन0सिंह के भार्इ
रामा और
अपनी प्रिय नानी
की भी âदयगति बन्द हो
चुकी थी
जिन्हें यदि मैं
समर्थ होता तो
सृषिट के अन्त तक
बचाकर रखता
सपने से बाहर के
वास्तविक जीवन में हो रही थीं
ऐसी ही
मूर्खतापूर्ण मौतें और हत्याएं.......
दुर्घटनाएं बढ़
राही थीं और
उसके द्वारा चुनी
गर्इ बन्धक आत्माएं बढ़ रही थीं
किसी सर्वव्यापी
गिरोह की तरह.....
इसके बावजूद भी
मैं डर या भय में बिल्कुल ही नहीं जी रहा था
न ही ऐसा ही है
कि मुझे सपने बहुत आते हों
संभवत: आते भी
हों तो मुझे याद नहीं रहते.....
25 फरवरी 2008 की नींद के बाद
सुबह के सपने में
मैंनें शैतान की आत्मा को मार डाला
उन दिनों न मैं
पवित्र कुरान पढ़ रहा था ,न ही बाइबिल
न ही देखी थी
कोर्इ हारर फिल्म
कि मैं शैतान के
बारे में सोचता....
सपने में मेरे
पीछे किसी परिचित आत्मीय भीड़ की
अदृश्य पुकारती
आवाजें थीं
तेजी से किसी
अज्ञात बिल में घुसकर
चकमा देने का
प्रयास करते हुए
एक हरे रहस्यमय
सांप को देखकर चीखती हुर्इ-
पकड़ो...पकड़ो...मारो....
जैसे उन्हें डर
था कि वह विशेष शातिर अशरीरी सांप
छिपकर अदृश्य हो
जाएगा तो
फिर-फिर डंसता
रहेगा अन्नतकाल तक
लोगों के जीवन ,मन और बुद्धि
को....
आकसिमक सपने में
मुझे ऐसा लगा था
जैसे वे सारे लोग
मुझे ही संबोधित कर रहे थे
विधुतीय गति से
मैंने झपटकर उसकी पूंछ पकड़ी
वह आधा बिल में
घुस चुका था
और तेजी से
फिसलता जा रहा था मेरे हाथ से....
अपने को उसे पूरी
तरह पकड़कर उसे
रोकने में असमर्थ
और असफल होते देखकर
मैंने भाले जैसी
कोर्इ नुकीली चीज
जोर से उसके पूंछ
पर दे मारी
वह चमकीला अस्त्र
भी शायद
जैसे मेरी आत्मा
और इच्छाओं के
विधुतीय आवेशों
से ही बना था
उस शैतान की तरह
ही
मेरे आतिमक आवेश
यानि कि मानसिक ऊर्जा से बना हुआ
भाले जैसी वस्तु
उसकी पूंछ को पारकर
जमीन में गहरार्इ
तक धंस गयी थी......
छिपने के लिए
विधुतीय गति से उड़ता-भागता हुआ वह
पीड़ा से कांपकर
ठहर गया था
मेरी आत्मा की
इच्छा से निर्मित नोकदार वस्तु से बिंधने के बाद
सपने में भी
सोचने का वक्त बिल्कुल नहीं था मेरे पास
बस मैं इतना ही
जानता था कि कोर्इ घातक एवं अनिष्टकारी प्राणी
भागा जा रहा है
छिपने के लिए
और यदि वह बच
पाया तो कुछ नए संकटों को
सृजित कर सकता है
वह किसी अन्तहीन
सिलसिले के अन्त जैसे निर्णायक क्षण में
अनावृत्त और
स्पश्ट दिख गया था वह
मारो-मारो की
डरी-ललकारती आवाजें अब भी गुंजा रही थीं अन्तरिक्ष को
सपने मे भी जैसे
मैं अपनी आत्मा की इच्छाओं से निर्मित
हथियारों से ही
प्रहार करता जा रहा था
उसके ऊर्जावान
हरे आवेषित सिर पर
मैंने अपनी
इच्छाओं में ही पाया कि
मैंने उसे वास्तव
में मार दिया है....
अब मैं निशिचंत
होकर उस विचित्र भयावह आत्मा को
सपने में भी
साफ-साफ देख सकता था
अब मैंने देखा कि
हवा में तैरता हुआ-सा
वह रहस्यमय हरा
सांप उतना छोटा नहीं था जितना
उसकी पूंछ पकड़ते
समय वह दिखलार्इ पड़ा था
वह घृणा,प्रतिशोध और
शरारत से भरा हुआ था....
पूंछ तो अब भी
उसकी गड़ी थी धरती के भीतर
मेरी इच्छाओं से
बनी उस भालेनुमा वस्तु के नीचे ही
धंसा और फंसा हुआ
वह अब बिल्कुल ही
भाग नहीं पा रहा था
वह अब लगभग एक
मीटर मोटा और
पचास मीटर लम्बे
कासिमक प्राणी के रूप में
बचकर भागने के
लिए संघर्ष कर रहा था
और घबराया हुआ-सा
स्वयं को रोकने वाले को
बहुत दूर से
पलटकर देखने की कोशिश कर रहा था
वह अपनी भाग सकने
की असमर्थता से खिन्न और
अपने कभी भी मारे
जाने की आशंका से भयभीत था...
वह अपनी
रहस्यमयी-शैतानी आंखों से
पीडा ,भय और लाचारी के
साथ
घूर रहा था
मुझे......
वास्तविक जिन्दगी
में सांपों को
बिना मारे ही
छोड़ देने वाला मैं
डरी हुर्इ भीड़
द्वारा उकसाने की उत्तेजना में
मैंने वही किया
जो हजारों वर्षों से
करती आ रही है
मानव-जाति
किसी सहज-वृत्ति
की विधुतगति से
मुझे याद है उसके
विषमय सिर पर अपना प्रहार
सपने में मैं
उसके सिर पर नहीं
बलिक जैसे अपने
भय पर ही किसी अस्पष्ट वस्तु से
जो संभवत: मेरी
इच्छाओं से बना हुआ था
मैं तब तक किसी
हीरोें की तरह प्रहार करता रहा
जब तक कि वह मर
नहीं गया........
सपने में जैसे
मुझे लगा कि मैंने
पूरी मानव-जाति
को
आदिम शैतान के
प्रतिशोध से जीत लिया है
अपने उस हिंसक
आक्रोश से
जिसे मेरी
(मानव-)जाति नें
मुझमें किसी
विरासत की तरह स्थानान्तरित किया है
अपने आदिम भय ,असुरक्षा और घृणा
के साथ....
क्या मैंने जीत
लिया है अपना अचेतन ?
जगने के बाद
मैंने बहुत देर तक सोचा....
उसके मारे जाते
ही मैंने देखा कि
आसमान से हो रही
है सांपों की बारिश
वे सभी कराह रहे
थे
आश्चर्य कि गिरने
के बाद मैं उन्हें साफ-साफ पहचान सकता था
अपने आस-पास
घूमने वाले आदमियों की तरह
कर्इ तो बिल्कुल
रिश्तेदारों जैसे ही थे
ये वे लोग थे
जिनने अपनी आत्मा को
किसी बिकाऊ मशीन
की तरह शैतान को सौंप दिया था
शैतान के
प्रोत्साहन पर वे शिखर तक जा पहुंचे थे
ये वे लोग थे
जिन्हें सभी अपनी आत्मा में घृणा करते थे
और उनके सामनें
उनके सम्मान का अभिनय....
शैतान उनपर
अविश्वास करता था
शैतान उनसे नैतिक
बनें रहने के लिए क्षुब्ध रहता था
उनके नैतिक बने
रहने की परीक्षा के नाम पर
उन्हें उनकी
निर्धनता के लिए अपमानित करता था
शैतान चाहता था
कि लोग अपनी निर्धनता का अहसास करें
उससे मुकित के
लिए अनैतिक होकर भी धनी बनने का स्वप्न देंखें
लेकिन जब उसने
देखा कि लोग अब
बिना अनैतिक हुए
भी धनी बनना जान गए हैं
नए मनुष्य की
बौद्धिक सृजनशीलता से घबराने लगा था वह...
वह अब भी
अकेले-अकेले हजारों मनुष्यों से भी अधिक सामथ्र्यवान था
लेकिन अब वह
अयोग्य और कम बुद्धिमान मनुष्यों को ही
अपने प्रेरक
प्रभाव में ले सकता था
वह अब भी नापसन्द
लोगों की हत्याएं करा सकता था
उनकी स्वतंत्र
बुद्धि को अपने विरुद्ध विद्रोह मानते हुए
वह चिनितत था कि
कर्इ विद्रोही अपनी मृत्यु के मूल्य पर भी
अपने सही होने का
सन्देश छोड़ गए है
मानव-जाति
धीरे-धीरे अपने भीतर एक सजग प्रतिरोध
विकसित करती जा
रही थी
वे अब भावुक
समर्थक नहीं थे और अपने पूर्वजों की कर्इ मूखताओं को
अपनी स्पष्ट
नापसन्दगी के साथ याद करने लगे थे
शैतान से प्रेरित
हर घटनाएं इतिहास की किताबों में दर्ज थी
वे उन्हें
पढ़-पढ़ कर ऊब रहे थे और बदलना चाहते थे.....
शैतान उनके सभी
पुस्तकालयों को नहीं जला सकता था
वे अपनी बुद्धि
से बुद्धि को ही मशीनों में बदल चुके थे
वे अपनी स्मृति
को कम्प्यूटर में बदल चुके थे
वे अब निशिचंत
होकर सो सकते थे
कभी भी न सोने वाली
बुद्धिमान मशीनों को
अपनी ओर से काम
करता हुआ छोड़कर
शैतान अब नए
मनुष्यों की बुद्धि को अपने प्रभाव में लाने के लिए
अनथक प्रयास
करते-करते थक रहा था
वह अब बूढ़ा हो
रहा था
वे एक जैसी
किताबें पढ़ रहे थे और एक जैसा सोच रहे थे
वे अब अपने सोचने
के बारे में भी सोच रहे थे
वे अब सोचने लगे
थे कि क्या सोचें और क्या न सोचें
वेअब अपने पिछले
सोचे हुए को सुरक्षित रखते हुए
कुछ नया सोचते जा
रहे थे
अब बहुत कम
मसितष्क बचे रह गए थे जिनके भीतर से
जैविक विधुतीय
आवेश चुराकर बचा रह सकता था वह
वह अब कुपोषण का
शिकार हो रहा था
उसके चुने हुए
वाहक मसितष्क गुफाओं में छिपकर भी स्वयं को
बचा नहीं पा रहे
थे
जो बचे थे वे
इतने डर गए थे कि उन्हें फिर नर्इ हत्या के लिए
उत्तेजित कर पाना
उसके लिए भी अब संभव नहीं था
शैतान अब तक
दूसरों को कुणिठत करता था और
फिर अपनी शतोर्ं
पर जीने और करने के लिए उन्हें उत्तेजित
अब वह स्वयं
कुणिठत हो रहा था
हार रहा था
दिनोंदिन और प्रबुद्ध एवं सतर्क होती जा रही मानव-जाति से.....
धरती पर आखिरी
बार स्वयं से डरे हुर्इ मानव-जाति के हाथों
र्इंट-पत्थरों
द्वारा घायल करके मार दिए जाने के बाद
किसी सूक्ष्म
सचेतन वायरस की तरह
एक मसितष्क से
दूसरे मसितष्क के बीच
स्वयं को जीवित
रखने के लिए जीवन का विधुतीय आवेश
चुराने के लिए
हजारों वर्षों से भटक रहा था वह
किसी परजीवी
जीवित आवेश की तरह
जैसे मच्छर पलता
रहता है मानव-रक्त पर
वह भी एक शकित के
आदिम अहंकार से भरा हुआ
एक अप्रशिक्षित
और प्रतिशोधपूर्ण उन्मादित मन ही था
जो उसी प्रकार
मार देना चाहता था संवेदनशील सोचते हुए मसितष्कों को
जैसा वह स्वयं
मार दिया गया था
स्वयं अधिक
बुद्धिमान होने के बावजूद
अपने से कम
बुद्धिमान मनुष्यों के हाथों...
वह जीवन के विकास
के क्रम में जैसे पिछड़ गया था
उसकी प्रजाति
नहीं विकसित कर पार्इ थी
मानव जैसी समर्थ
हाथ
वह रीढ़धारी जीवन
की प्रजातियों का ऐसा आदिम प्रारूप था
जिसने अपनी
शारीरिक असमर्थता की क्षतिपूर्ति
अपने अतीनिद्रय
मसितष्कीय विकास से कर ली थी
उसने अपनी
लार-ग्रनिथयों को विष से भर लिया था
वह अपने
भारी-भरकम काया को लेकर
क्योंकि अपनी
प्रजाति के अन्य सांपों-अजगरों की तरह
लेकर भाग भी नहीं
सकता था इसलिए
क्ेवल गुफा की
तरह अपना मुख खोलकर
चुपचाप पड़ा रहता
था वह...
वह अपनी प्रजाति
के अन्य सांपों की तरह
सिर्फ शारीरिक ताप
से नहीं बलिक
अपने शिकारों के
मसितष्कीय विधुत तरंगों को पकड़ लेता था बहुत दूर से
उनके मसितष्क को
अपने मसितष्क की उच्च-स्तरीय विधुत तरंगों से
प्रभावित कर अपनी
ओर आने के लिए विवश कर देता था वह
अनितम बार मार
दिए जाने के बाद भी
स्वयं को मारने
वाले मनुष्यों की टीम के अनेक मसितष्कों को
अपने असितत्व का
आधार बनाकर
हजारों वर्ष से
अपने असितत्त्व का कालान्तरण करता आया था वह....
मानव-जाति उसे
अपने धर्मग्रन्थों में पढ़ सकती थी
अपनी दंत-कथाओं
में उसके असितत्त्व पर चर्चा कर सकती थी
गहरी नींद में
जाने पर अपने सपनों में भी देख सकती थी
लेकिन बीते जमाने
की बात मानकर
उसके होने पर
अविश्वास भी करती थी.....
सिर्फ उसके वाहक
ही जानते थे कि वह कहीं वास्तविक असितत्त्व में भी है
जो जानते थे वे
उसके भरोसे जीत लेना चाहते थे पूरी दुनिया
सिकन्दर ,चंगेज खान ,नेपोलियन , हिटलर और स्टालिन
नें
अपने भीतर भी
महसूस किया था उसका होना
वह उनके साथ रहा
और उसके भरोसे ही वे जीतते गए
वह उनके अचेतन
में इतना छिपा हुआ था कि
सभी उसके द्वारा
दिए गए निर्देशों को
अपने भीतर उठाा
हुआ विचार मानकर ख्ुाश रह सकते थे
वह नहीं चाहता था
कि लोग उसके द्वारा कराए गए कायोर्ं को
किसी
प्रतिशोधपूर्ण आत्मा के द्वारा पे्ररित कृत्य मानकर
उसे अपना वाहक
बनाने से इन्कार कर दें ।
आश्चर्य कि अपनी
हत्या के लिए मानव-जाति से
इतनें वर्षो तक
क्षुब्ध रहा शैतान
वह हर उसको मार
देना चाहता था
जो उसकी सत्ता को
स्वीकार नहीं करते थे
जो अपनी बुद्धि
और मन से मूचिर्छत नहीं थे और अपनी विवेकपूर्ण
विश्लेषक आत्मा
के भीतर जाग गए थे
जिनके मसितष्क को
वह बहुत प्रयास के बाद भी
अपने नियन्त्रण
में नहीं ले पाता था
उनकी देह की ही
मन्द बुद्धि प्रेरित-आवेशित हत्यारों द्वारा
हत्या करा देता
था वह.....
कभी कृष्ण,कभी सुकरात ,कभी र्इसा तो कभी
गांधी की तरह
उसके होने को कभी
जान लिया था राम ने ंतो
उसनें उसे अपने
पिता के राज्य से वन में निर्वासित करवाकर
उसकी पत्नी सीता
को भ्रमित करा सिद्धकर दिया कि
कि एक साधारण
निरीह मनुष्य है तुम्हारा पति राम
बेहतर यही है कि
तुम भाग कर मेरी शरण में आ जाओ
आकर बन जाओं मेरे
वाहक रावण की पत्नी ऐश्वर्य के लिए
तब उसके वाहक
रावण के सैनिकों से प्रेरित अनवरत आक्रमणों से घबराकर
राम की पत्नी
सीता उसके वाहक रावण के साथ भाग निकली.......
रावण और उसके सैनिक
उसके पिता जनक के यहां
स्वयंवर में हुए
अपने राजा राावण के बहिष्कार और अपमान से क्षुब्ध थे
वे जनक की बेटी
का अपहरणकर अपने राजा रावण की रानी बनाना चाहते थे
वे चाहते थे कि
जनक को उसके शैव राजा रावण को बाहर रखने के लिए
उनके आराध्य शिव
का धनुष तोड़ने की शर्त रखने की सजा मिले....
सीता को चुराकर
उनका वाहक राजा
एक विनम्र,नैतिक और समर्थ
मनुष्य राम के क्रोध का शिकार हो गया....
राम नें जब शैतान
के वाहक रावण को मार डाला तो
उसने सीता को फिर
भ्रमित किया
सीता को बताया कि
उसका पति राम तो साधारण मनुष्य ही हैं
वे तो विजयी हुए
उसके बुद्धिमान सहायक सेनापति की अपार बुद्धि से
सेनापति चतुर था
और अपनी युकितयों को दूसरों की बुद्धि से छिपाकर
अपने समकालीनों
को चमत्कृत कर देता था
जैसे वह सुरंग
खोदकर दुश्मन के किले में जासूसी के लिए घुसा था लेकिन
उसनें अपने भीतर
किले में उड़कर जाने की सामथ्र्य होने की अफवाह फैलायी
वह अवसरवादी ,विनम्र और चतुर
था
वह अपने
उददेश्यों,आकांक्षाओं और
भावों को छिपा लेता था....
शैतान के वाहक
राजा को मारकर
अपनी पत्नी सीता
को अपने राज्य अयोध्या में वापस लाने के बहुत दिनों बाद
जब शैतान के निर्देशों
की अवमानना करने वाले राजा नें
अपनी पत्नी का
परित्याग कर दिया
शैतान नें उसके
वीर सहयोगी सेनापति को ही प्रेरित कर दिया
विश्वासघात के
लिए.....शैतान से प्रेरित विद्रोही राजा की पत्नी
उसके सेनापति के
प्रेम में पड़ चुकी थी
वह उसके सेनापति
को ही मानने लगी थी
दुनिया का सबसे
ताकतवर और सबसे समझदार पुरुष....
जब शैतान का
विद्रोही सत्यनिष्ठ और नैतिक राजा राम
अपनी पत्नी सीता
को शैतान का साथ दउेने के लिए प्रायशिचत कर लेने
तथा दुनिया का
सर्वोत्तम पुरुष मानकर
आत्मशुद्धि कर
चुकी पत्नी के पुन: अपने प्रेम में पड़कर
अपने पास वापस आ
जाने की राह देख रहा था
शैतान से प्रेरित
उसकी पत्नी को
शैतान से प्ररित
उसका ही सदैव आज्ञाकारी,विनम्र तथा समर्पित दिखने वाला सेनापति
सभा-स्थल के नीचे
से नगर के बाहर नदी तक अपने हाथों खोदी गर्इ सुरंग के रास्ते
अपने साथ भगा ले
गया.......
त्यागी राजा अपनी
पत्नी से सच्चा प्रेम चाहता था
जबकि उसकी पत्नी
अपनी अद्वितीय सुन्दरता के अहंकार से भरी हुर्इ थी
त्यागी राजा जो
मूलत: एक दार्षनिक राजा था
अपने आदषोर्ं और
कर्तव्यों के प्रति समर्पित निश्ठा तथा
आत्मसंयम के
अहंकार से भरा हुआ था.......
संदिग्ध और
निर्वासित रानी प्रतिषोध की आग में जल रही थी
वह प्रेम में
नहीं प्रतिस्पद्र्धा में थी
सहानुभूति में
नहीं बलिक घृणा में थी......
रावण मारा जा
चुका था
रावण को जीता था
राम नें अपने प्रिय-चतुर सेनापति के द्वारा
वह एक बार फिर
षैतान की प्रेरणा और प्रभाव से
राम की पुरुशार्थ
के प्रति अविष्वास से भर गयी
उसनें चतुर
सेनापति को ही दुनिया के सबसे श्रेश्ठ पुरुश के रूप में देखा
चतुर सेनापति
अविवाहित था और अपने ब्रहमचर्य तथा आचरण को लेकर
समाज में समादृत
भी-वह अपने यष को खोना नहीं चाहता था
वह उस रानी के
लिए कभी जीवन की कीमत पर लड़ा था
निर्वासित रानी
के प्रेम-प्रस्ताव पर वह नहीं नहीं कर सका
त्यागी राजा पहले
ही उसे अविष्वास के साथ सार्वजनिक रूप से मुक्त कर चुके थे
जब निर्वासित
रानी प्रजा की दर्षक भीड़ के बीच
राजा के प्रति
अपने प्रेम और निश्ठा की अभिव्यकित के लिए बुलार्इ गयी
उसने सभा-स्थल के
नीचे पहले से खोदी गर्इ सुरंग के ऊपर
ऊंची आवाज में यह
कहते हुए थपथपाया-
अगर मेरा प्रेम
सच्चा है तो धरती फट जाय
और मुझे धरती मां
वापस स्वीकार करें
भीतर से कूटरचित
खोखली धरती फट गयी
उसमें से सोने का
सिंहासन उभरा
एक महिला जो
संभवत: चतुर सेनापति की मां थी
स्वयं धरती मां
होने का अभिनय करते हुए उसका हाथ पकड़ कर
सुरंग में उतर
गयी......
यह एक
अप्रत्याषित और जादुर्इ दृष्य था
अपमानित राजा सब
कुछ जान-समझकर भी कुछ नहीं कर सकता था
अषिक्षित एवं
श्रद्धालु प्रजा उच्चस्तरीय कूटरचित घटना को विष्लेशित करने में असमर्थ थी
सामान्य जनता
भगोड़ी रानी को किसी दिव्य चमत्कारिक षकित से सम्पन्न मानकर
श्रद्धाभाव से
सुरंग के रास्ते अदृष्य हुर्इ रानी के लिए जय-जयकार करने लगे
वे उसकी सती
मानकर पूजा करने लगे.....
एक दिन एक भटकते
हुए ऋशि नें अप्रत्याषित रूप से उसकी भागी हुर्इ पत्नी को जीवित देखा
और आकर उससे उसके
साथ हुए धोखे के बारे में कहा
उसकी रानी को
भगाने वाला चतुर सेनापति
अब भी उसके दरबार
में आकर उसकी प्रषंसा किया करता था
उसके लिए लड़ाइयां
लड़ा करता था और उससे भरपूर धन लेकर जाया करता था
षालीन राजा नें
अपने गुप्तचरों द्वारा सब कुछ जान लेने के बाद भी उससे कुछ नहीं कहा
षैतान नें उसे
पीडि़त किया था और उसके ही विष्वासपात्र मित्र द्वारा उसे छला था
उसे सारे आदषोर्ं
से घृणा हो गयी थी
वह एक संवेदनषील ,षिश्ट नैतिक और
सज्जन मनुश्य था
उसकी आत्मा अपनी
पत्नी और विष्वासपात्र सेनापति के द्वारा की गयी बेवफार्इ को सह नहीं पार्इ
उसे सारी
स्त्री-जाति और दुनिया से घृणा हो गयी
उसनें राज्य को
अपने बच्चों के पक्ष में छोड़ दिया और
नदी में डूबकर
आत्म-हत्या कर ली
उसकी प्रजा उसे
र्इष्वर का रूप समझती थी और बहुत प्यार करती थी
उसके डूबते ही
उसके राज्य के कहुत से लोग उसके प्रेम में
उसके साथ ही जाकर
नदी में डूब मरे......
उसनें अपने आचरण
से षैतान को चुनौती दिया था
और षैतान द्वारा
प्रभावित मनुश्यों के द्वारा पहुूचार्इ गयी पीड़ा के द्वारा
आत्महत्या के लिए
विवष कर दिया गया.....
उसका मन समय और
परिसिथतियों के सापेक्ष विकसित हुआ था
उसके भाग्य नें
उसके साथ धोखा किया
वह समय और उसके
प्रवाह की प्रवृत्तियों के पार नहीं देख सकती थी
वह एक चंचल और
वर्तमान जीवी आत्मा थी
वह नहीं जानती थी
कि उसका वर्तमान पति अपनी सामथ्र्य में भविश्य का नायक है
वह वर्तमान के
सर्वश्रेश्ठ विज्ञापित पुरुश रावण की पत्नी बनने की एकान्त कामना में थी
उसका पिता जनक जो
देख रहा था वह सब वह नहीं देख पा रही थी
संभवत: वह राम और
रावण के बीच प्रत्यक्ष युद्ध द्धारा परीक्षा न होने के कारण
रावण की
अनिश्टकारी सामथ्र्य को लेकर अपनी आत्मा में आषंकित और भयभीत थी
संभवत: वह उसके
प्रति आत्मीयता और सहानुभूति प्रदर्षित कर
अपने दाम्पत्य की
सुरक्षा का आष्वासन चाहती थी
उसने अपने राम से
विवाहित होने की विवषता को प्रदर्षित करते हुए
कातर और तिर्यक
दृशिटपात से उसे देखा.......
अपनी जाति के
सांस्कृतिक आराध्य षिव के धनुश को न तोड़ पाने की विवषता के साथ
सीता की आत्मीय
दृशिट से बंधा हुआ रावण जनक द्वारा आयोजित स्वयंवर-सभा में
किंकर्तव्यविमूढ़
हुआ अपने आसन पर चुपचाप बैठा रह गया
उसकी आत्मा
प्रतिषोध ,अपमान और
प्रतिक्रियाओं से भर गयी
शैतान सिर्फ एक
बार घबरा गया था
स्वयं से
अप्रभावित हाें चुके गौतम बुद्ध की पवित्र मुस्कान देखकर
तब पूरब को
छोड़कर पशिचम की लम्बी यात्रा पर निकल गया था वह
वहां उसने देखा
कि एक उसके असितत्व के प्रति आशंकित बालक
दूसरे बालकों की
तरह खेल नहीं रहा है
उस सोचते हुए
बच्चे को दूसरों से अलग अच्छार्इ और नैतिकता पर
चिन्तन और बहस
करते देखकर वह डर गया
उसनें बालक
मुहम्मद से छीन लिया पहले मां...फिर पिता
वह चाहता था कि
अनाथ बच्चा दुनिया की परेशानियों से सदैव घिरा रहे
और वह चिन्तन
करना छोड़ दे
शैतान द्वारा
अकारण और निर्ममता से अपने अभिभावकों का जीवन छीन लिए जाने से
बालक मुहम्मद
उसके कायोर्ं के प्रति अविश्वास,घृणा और क्रोध से भर गया
डसने शैतान
द्वारा लोगों को कबीलों में विभाजित कराकर
लड़ाते रहने की
साजिश को पहचाना
और दुनिया के
सारे कबीलों को पवित्र आत्मा से प्रेरित होकर
दुनिया के एक ही
वैशिवक कबीले में बदल देने का सपना देखा.....
शैतान के
मनुष्यों के मसितष्क में वास्तव में जीवित होने को
जब नबी मुहम्मद नें पहचान लिया तो शैतान नें उसके
दुश्मनों को प्रेरित कर
नबी मुहम्मद की
हत्या करा देनी चाही
नबी मुहम्मद नें
जब देखा कि शैतान उसे भी र्इसा की तरह
विनम्र और शान्त
रहने पर उसे मार डालेगा
तब उसनें भी
शैतान से प्ररित अपने दुश्मनों की तरह
हाथ में तलवार
लिया और अपने शुभ-चिन्तक सैनिक तैयार किए...
शैतान ने जब देखा
कि शैतान के नाम पर मारे जा रहे हैं उसके अनुयायी
वह चुप लगाकर छिप
गया और नबी मुहम्मद की मृत्यु का इन्तजार करने लगा
नबी मुहम्मद के
मरते ही उसने असली-नकली और सही-गलत के नाम पर
असावधान
अनुयायियों में मतभेद पैदा कर दिया
शैतान नें नबी
मुहम्मद की एकमात्र पुत्री के पुत्रों को मरवाकर
शैतान के विरुद्ध
सजग करने वाले नबी मुहम्मद से अपना प्रतिशोध पूरा कर लिया.......
वह मध्यकाल में
मध्य एशिया में चंगेज खां की सेनाओं के साथ घूमा....
शैतान नें जब
देखा कि मनुष्य-जाति
जब अपनी जाति के भीतर
पैदा हुए वैज्ञानिकों की
अज्ञान के
विरुद्ध लड़नें वाली सृजनात्मक बुद्धि से
छीनती जा रही है
सृषिट के अनेकों रहस्य- उसनें अहंकार से भरे हुए
असावधान
राजनीतिज्ञों को असुरक्षित राष्टवाद के नाम पर
प्ररित किया कि
हथियार बनाओ और मारो
किसी भी
तरह...किसी को भी....क्योकि पराए हैं सभी
और जब तक तुम
मारते रहोगे....बचे रहोगे
उसने सभी
मनुष्यों को अपनी स्वावलम्बी बुद्धि की स्वतंत्र और विवेकपूर्ण
क्रियाओं से
वंचित किया और सभी मनुष्यों को
अपने जीवन में
मात्र प्रतिक्रियाएं ही जीते रहने के लिए विवश कर दिया
वे डरे ...आक्रामक
हुए...बचाव के नाम पर हत्याएं कीं
हत्याओं की
ऐतिहासिक स्मृति और परम्परा दी.... और एक-दूसरे को मारते हुए मारे गए....
उसनें गांधी को
अपने पे्ररितों के भीतर
गांधी के कायोर्ं
के प्रति घृणा और आक्रोश जगाकर मारा
जैसे वह अपनी
सन्तान पर नि:शेष स्नेह लुटाने वाला कोर्इ पिता नहीं
बलिक रीढ़धारी
जीवधारियों में सबसे पहले जन्मा हुआ
कोर्इ
विफल-कुणिठत बड़ा भार्इ हो
अपने हिस्से का
प्रेम सफल छोटे भाइयों में बंट जाने की चिन्ता से र्इष्र्यालु
लोग अब खुश थे
लेकिन अपनी
सम्मानपूर्ण अहिंसक इच्छाओं पर
लोगों की आंखें
अब किसी अज्ञात प्रतिशोध
और अव्याख्यायित
घृणा से
शैतान की तरह जल
नहीं रही थीं ।
यधपि मैंने अपने
मसितष्क से बहुत पहले ही
उसे कर दिया था
बाहर
लेकिन अब वह मारा
जा चुका था
और संभवत: किसी
के भी मसितष्क का
नहीं कर सकता था
अचेतन अपहरण
संभवत: अब उसका
कोर्इ वजूद ही नहीं था....
या इसके विपरीत
आगे भी गाजरघास की तरह उगती रहेंगी
पीढ़ी दर पीढ़ी
अच्छी और बुरी आदतें
और बहुत से
अन्धविश्वास पिता पीढि़यों से पुत्र पीढि़यों के बीच
चुपचाप
स्थानान्तरित होकर पुनर्जीवित होते रहेंगे
संवादहीनता और
असुरक्षा उन्हें आक्रामक बना देगी
भय और अपमान
उन्हें प्रतिषोध के इतिहास की ओर ले जाएगा
फिर सपने में
मारे गए उस रूहानी शैतान के बिना भी
यह दुनिया
शैतानियत से मुक्त हो पाएगी !
जिस समय यह कविता
लिखी जा रही है
पाकिस्तान में
बेनजीर भुटटो की हत्या हो चुकी है
शायद जीते जी
उनके दिमाग को जीत नहीं पाया था शैतान
इसीलिए उनकी देह
को गोलियों से डंस लिया होगा
अब वहां चुनाव
होने वाले हैं
फिलहाल तो मैं
अपने सपने में ही शैतान की हत्या कर खुश हूं
लेकिन यदि मैंने
वास्तव में ही शैतान की
यानि कि
मानव-जाति की सबसे भयावह अचेतन प्रवृत्ति को
सच ही मार डाला
है तो मैं यह शुभकामना कर सकता हूं कि
फिर कभी वहां
किसी दूसरे शासक की हत्या नहीं होनी चाहिए
यदि शैतान की
आत्मा मारी जा चुकी है तो
दुनिया में शानित
हो जानी चाहिए.......
काश ! ऐसा ही हो
कहते हैं सुबह के
उजाले में देखा हुआ सपना सच होता है.....
जागने पर मैं
पूरे दिन परेशान रहा
सोचता रहा कि
कहीं सच ही तो नहीं था
अपने निरंकुश
असितत्त्व के लिए हत्यारी मानव जाति के नाम
कोर्इ कोर्इ
प्रतिशोध भरा अभिशाप
शैतान की मिथकीय
स्मृति का आधार कहीं सच तो नहीं !
कहते हैं अपने
सुरक्षित विकास
और प्रवास के
क्रम में मानव-जाति की किसी राक्षसनुमा प्रजाति
मैमथ और डैगन
जैसे कर्इ वास्तविक जीवधारियों को विलुप्त किया है
शिकारी -हत्यारी
मानव-जाति नें...
ऐसे में कहीं सच
तो नहीं था
शैतानी नकारात्मक
ऊर्जा का असितत्त्व
जो हमें गलत
कायोर्ं के लिए प्रेरित करता रहता था
कभी अपने जीवित
शरीर से वंचित किए जाने पर
अशरीरी होकर भी
अपने ऊर्जसिवत शरीर से
लोगों की चेतना
में घुसकर एक-दूसरे की हत्या के लिए उकसाता है
या यह सब केवल
हिंसक प्रतिक्रियाओं की श्रृंखला है......
व्जह कोर्इ भी
हो-मारो!
वह हर समय
फुसफुसाता हुआ कहता रहता था जैसे
मानव-जाति के
अचेतन मन के अंधियारों से उठते विचारों में
बेलता रहता था कि
एक-दूसरे से डरते और मारते हुए
सिर्फ मारने के
बारे में ही सोचो !
वह चाहता था कि
वह अनन्त काल तक छिपा रहे
सारी दुनिया के
सक्रिय मसितष्कों के पीछे
उनके विचारों के
निर्णायक सृजनकर्ता
और निर्देशक की
तरह....
क्या वह भी कभी
इस धरती पर जीवित था ?
डाइनासारों की
तरह....
यदि शैतान वास्तव
में था तो
वह क्यों नफरत
करता था मानव-जाति से ?
क्या वह भी जब
जीवित था तो मानव-जाति के पुरखों द्वारा
घेरकर कभी मार
डाला गया था ?
और तब से ही वह
प्रतिशोध में डंस रहा था
मानव-जाति के
सामूहिक अचेतन-चित्त को.....
यदि ऐसा वास्तव
में उसके साथ हुआ है तो
मुझे उसको सपने
में भी अपने हाथों मार देने का दु:ख रहेगा .....
मैं उस दिवंगत
आत्मा से क्षमा मांगता हूं
और उसकी शानित के
लिए कामना.....
वह मुझसे लड़ रहा
था
मुझे रोक रहा था
मेरे ही भीतर
शतरंज के किसी
चतुर खिलाड़ी की तरह
किसी भी कीमत पर
शह पाने और मुझे मात देने के लिए
दु:ख ,करुणा ,कर्तव्यबोध और
नैतिक-संकट से लेकर मृत्यु तक को
किसी गति-अवरोधक
की तरह उपसिथत कर देता हुआ......
एक यथासिथतिवादी
आलसी अशिष्ट भीड़ की तरह
जो मुझे घेरे हुए
थी किसी मजबूत चटटान से......
वह पूरी
मानव-जाति के प्रति
प्रतिशोध और घृणा
की भावना से भरा हुआ था
वह वैसा ही
व्यवहार लौटाना चाहता था सारी मानव-जाति को
जैसा उसकी
प्रजाति के साथ अतीत की मानव-जाति ने की थी
अन्यथा वह भी
निष्पाप था
जैसा कि दुनिया
का हर असितत्व अपने असितत्व के रूप में निष्पाप है
स्वयं को बचाए
रखने के प्रयास में ही आक्रामक हो जाते हैं सभी
भीतर की असुरक्षा
ही उन्हें आक्रामक बना देती है
वे डरते हैं और
विष बनाने लगते हैं
वे बचने के लिए
विष बनाते हैं और
दूसरों की मृत्यु
का कारण बनते हैं
वे मारने के लिए
विष बनाते हैं और विष
बनाने के कारण
मारे जाते हैं...इसप्रकार उनका भय
विष के लिए होता
है और विष भय के लिए
इसप्रकार चलता
रहता है मृत्यु और हत्याओं का एक अन्तहीन चक्र......
जैसे वहां
असितत्व की सम्पूर्ण एकता ही र्इष्वर था
और षैतान जीवन के
असितत्व का विकास के नाम पर
एक-दूसरे के
विरुद्ध भटक जाना था....
जैसे षैतान र्इष्वर
और जीवों की आत्माओं के बीच में
उगे हुए सूरज को
ढके रहने वाले बादलों की तरह था
वह अन्धकार के
षासक की तरह राज कर रहा था सभी के मसितश्क पर.....
र्इष्वर जो
असितत्व के सारे विस्तार में
चेतना की
सम्पूर्ण निर्णायक उपसिथति की तरह छिपा हुआ था
सभी के पक्ष में
होने की कोषिष में पूरी तरह तटस्थ और अनभिज्ञ था
वह इतना अबोध और
विरक्त था कि जैसे वह कहीं था ही नहीं
षैतान जो स्वयं
भी एक अधिक समर्थ चेतन उपसिथति ही था
अपनी देह के मारे
जाने के बाद स्वयं ही सोच रहा था
र्इष्वर की ओर से
कुछ आत्माएं जो
विवेक में थीं
जल रही थीं दीप
की तरह
कुछ नक्षत्रों सा
दूसरों को पहुंचा रही थीं रोषनी
उनकी प्रकाषित
आत्मा के तेज और चकाचौंध से
षैतान बन्द कर
लेता था अपनी आंखें
उनके जाते ही फिर
षुरू कर देता था अपने खेल.....
क्या पता ! कौन
सी आत्मा रहती है मुझमें ?
मैं वही बासी
सामान्य आत्मा हूं
जिसे मानव-जाति
के अनवरत षिक्षण-तंत्र नें
एक विषिश्ट और
जटिल आत्मसाक्षात्कार वाली
चेतन उपसिथति में
बदल दिया है
या फिर मेरी
स्वानुभूत विषिश्टता का है कोर्इ अर्जित रहस्य.......
क्या षैतान की
तरह मेरी भी जैविक विधुतीय मानसिक तरंगे
इस अन्तरिक्ष में
एक सन्देष की तरह व्याप्त हो चुकी हैं
जीन-संष्लेशण की
जिस कूट-भाशा में लिखा गया हूं मैं
वैसा ही बार-बार
लिखा जा सकूंगा मैं आगे भी
या फिर यहीं
समाप्त हो चुकूंगा मैं हमेषा कें लिए
या फिर जैसे दो
विपरीत आवेष वाले बादलों के बीच
कौंधी हुर्इ जैसे
भौतिक बिजली भी वहीं आसमान में ही उदासीन और षान्त नहीं हो जाती
बलिक एक आवेषित
असितत्व के रूप में बनी रहती है
तडि़त बनकर धरती
के गर्भ में समा जाने तक
वैसे ही मैं भी
इस विष्व के जीवन-क्षितिज पर
मृत्यु के बाद भी
आवेषित भटकता रहूंगा
किसी मानव-गर्भ
में पुन: जन्म पा लेने तक....
एक बार होने के
बाद
जैसे जल जल ही
बना रहता है
बर्फ ,वाश्प और तरल के
रूप में
दृष्य और अदृष्य
होते हुए भी
अपने मूल
निर्माता तत्वों के परमाणुओं-हाइडोजन और आक्सीजन में
टूटकर बिखर या
विलीन नहीं हो जाता
वैसे ही क्या पता
बनी रहे मेरी भी वासना
और इस धरती पर
बार-बार जन्म लेता रहूं मैं.......
मेरे पुरखों ने
उसकी प्रजाति को नश्ट कर किया है जो अपराध
एक उड़ते हुए
वायुयान के लिए जैसे
उसकी उड़न-पटटी
ही नश्ट कर दी गयी हो
अजन्मा षैतान
उतरने के लिए विवष था मानव-चित्त पर
जिसे सृशिट के
निर्माण के लाखों-करोड़ों वशोर्ं बाद
अमूर्त स्वप्न
में भी मार डाला मैंने
किसी अज्ञात
जातीय भय से प्रेरित होकर......
किसी भी प्राणी
का वैसा अप्रिय अन्त नहीं होना चाहिए
कि अनन्तकाल तक
के लिए क्षुब्ध होता रहे समूचा जैविक
अन्तरिक्ष
पीड़ा की हर
लहरें जो मसितष्क के जैविक रेडियों-स्टेषनों से निकलती हैं
अनन्तकाल तक के
लिए फैलती हैं जैविक अन्तरिक्ष में
क्षुब्ध करती
है....लौटती है जीवन-श्रृंखला में परा-चेतन तरंगों की तरह
आवेषित कर देती
हैं जैसे किसी नए जीन को
पुनर्जन्म की कभी
न टूटने वाली श्रृंखला की तरह
नर्इ आपराधिक
हत्याओं के लिए उन्माद से भरती रहती हैं
जैसे आतिमक ऊर्जा
की गिरती हैं बिजलियां
फिर किसी जीवन के
गर्भ में पुनर्जन्म लेने के लिए......
ओ ! शैतान मुझे
अफसोस है तुम्हारी मृत्यु पर
मुझे दु:ख है कि
यह दुनिया तुम्हारी नहीं रह सकी
विकास की सारी
घातक तरकीबों के बावजूद
तुमने चिढ़ा और
डरा दिया प्रकृति की सहजीवी प्रजातियों को
तुमनें अपने
असितत्व को असहिष्णुता तक पहुंचा दिया था
तुम यदि मारे
नहीं जाते तो मर गयी होतीं दुनिया की सारी जातियां
तुममें अपरम्पार
विष था और क्रोध
तुम किसी को भी बर्दाश्त
नहीं कर सकते थे अपनी र्इष्र्या के विरुद्ध
तुम अपने
सामथ्र्य से मदान्ध थे
तुम्हारी सयांसों
से छूटने लगा था विष
तुम्हारा जीना ही
दूसरों का मरना बन गया था....
तुम्हारा निर्माण
प्रकृति की सृजन-शाला में एक भूल की तरह था
तुम्हारा जीवन
पूरी तरह दूसरो पर आश्रित था
तुम्हारी भूख की
व्यवस्था नहीं कर सकती थी प्रकृति
एक दिन सभी को
पूरी तरह खा निगलने के बाद
जीने के लिए
आखिरी शिकार को न तलाश पाती हुर्इ तुम्हारी प्रजाति
अपने ही भीतर की
भूख से जलकर दम तोड़ देती......
तुम मारे गए थे
बचे हुए जीवनों के सामूहिक प्रतिरोध से
सामूहिक उत्सव की
तरह
तुम्हारा मरना
अपरिहार्य था
एक अवसर
था...मुकित था....
अपनी ही शतोर्ं
पर जीवन जीने के लिए एक आश्वासन था
जब तुम मनुष्यों
की तरह ही बुद्धिमान थे
और सोच सकते थे
उससे कर्इ गुना बेहतर तो
तुम्हें खुश ही
होना चाहिए कि एक दिन
दूसरों को मारने
के पहले ही घेरकर मार दिए गए तुम !
ओ ! शैतान यह सच
है कि तुम दूसरों से अधिक बुद्धिमान थे
तुम दिमाग की हर
तरंगों को पकड़ सकते थे
तुम्हारी प्रजाति
नें शारीरिक अक्षमताओं के मूल्य पर
अतीनिæय मानसिक विकास
की अपूर्व मानसिक क्षमताएं अर्जित कर ली थीं
फिर भी अपने
आखिरी वंशजों तक घेरकर मार दिए गए तुम !
तुम हाथों और
पैरों के विकास से वंचित
जीवन की एक
असमर्थ उपसिथति थे
तुमने अपने ढंग
से जीता था अपनी असमर्थता को
तुम विधुत की तरह
लहराकर अपना मेरुदण्ड
पीछे छोड़ सकते
थे पैर वालों को
तुम अंधेरे में
भी भांप सकते थे उनकी गर्म उपसिथति
तुमहारेे पास
अदृश्य को भी देख लेने वाली आंखें थीं
तुम सोचते कि लोग
तुम्हारे पास आंएं और लोग
खिंचे हुए चले
आते थे तुम्हारे पास
तुम सोचते और लोग
रुक जाते थे तुम्हारी प्रतीक्षा में
तुम सोचते और लोग
तुम्हारे लिए एक-दूसरे को मारकर छोड़ जाते थे
तुम्हारा प्रबल
मसितष्क किसी रेडियो-स्टेशन की तरह
प्रेरित और
प्रभावित कर सकता था दुनिया के किसी भी असितत्व को....
तुम रहस्यमय और
अदृश्य थे फिर भी तुम
पहचान लिए गए और
घेर कर मार दिए गए......
हे शैतान ! तुम वैसे
ही पापी नहीं थे
जैसे अपनी भूख के
लिए जंगल में भागते जन्तुओं का शिकार करने वाला शेर
जैसे अपनी
आत्मरक्षा के प्रयास में डरी हुर्इ भीड़
कभी-कभी घृणा से
पीटते हुए ही मार डालती है अपराधी को
हां ! तुम भी
अपराधी नहीं थे
तुम्हारे भीतर के
भय नें ही तुम्हें विष से भर दिया था
तुम्हारे विकलांग
विकास की असमर्थता नें तुम्हें
शिकारी बना दिया
था.....फिर एक दिन एक प्रजाति के रूप् में हमेशा के लिए
मार दिए जाने के
क्रोध और प्रतिशोध नें शैतान
मुझे तुम्हारे
साथ पूरी सहानुभूति है....
यहां तक कि सपने
में तुम्हें मारकर
सपने से बाहर
निकलने के बाद भी
अब भी तुम्हें
मारने के लिए प्रायशिचत से भरा हुआ हूं मैं
मैं किसी को भी
मारना नहीं चाहता था
मैं किसी की भी
हत्या करना नहीं चाहता था
तुम तो मेरे
पूर्वजों के सहोदर थे ...भार्इ थे तुम
सारे मेरुदण्ड
वाले जीवों के सबसे भव्य...सबसे विशाल
और संभवत: सबसे
बुद्धिमान पूर्वज
पूंछ और पूंछहीन
हाथ और पैरों वाले दूसरे जानवरों के विकास के साथ
दूसरे अपना रूप
बदलते रहे....
एक दिन दुनिया पर
राज करने लगे हाथों और पैरों वाले विषहीन सांप
दौडने और
कुलांचें भरने लगे....ौड़ने लगे दो पैरों पर और
एक दिन अपनी
इच्छाओं को साकार कर देने में समर्थ मनुष्यों में बदल गए....
तुम मानव-जाति से
पहले भी जान चुके थे सृषिट के अनेकों रहस्य
तुमने स्वयं को
मारने वाली मानव-जाति के वंशजों पर राज किया है
तुमने खेला है
अरबों-ख्रबों मानव-मसितष्कों से गेद की तरह
किसी
सैन्प्य-निर्देशक की तरह निर्देशित किया है तुमने
मानव-ताति के मन,वृत्ति और चरित्र
को
तुम्हारी ही इछा
से प्रेरित होकर दुश्मनों की तरह इतिहास में लड़ती रही हैं मानव-सेनाएं
चरित्रहीन
मनुष्यों को तुमने शकित बांटी
तुमने स्वयं को
चुनौती न देने वाले मूखोर्ं को शासक बनाया
तुमने उनमें
कुण्ठा पैदा की...उन्हें अपमानित किया
विवश किया कि वे
अपने घुटनें टेक दें
अपनी उन इच्छाओं
को पूरा करने के लिए
जिनको पूरा करने
के प्रलोभन के साथ उन्हें वह
अपना प्रतिनिधि
और अनुयायी बना देता था ........
हे शैतान ! क्या
यह तुम्हारा ही अभिशाप है कि
इस धरती पर हर
तटस्थ ,निषिक्रय किन्तु
समझदार व्यकित
अपनी पूरी जीवित
संवेदनशीलता के बावजूद
अपनी अपूर्ण
इच्छाओं सहित घेरकर मार दिया जाता है अपने ही भीतर....
हरा दिया जाता
है....अन्तमर्ुखी और आत्मलीन मसितष्क
व्यक्त नहीं हो
पाते....उनकी इच्छाएं रौंद दी जाती हैं दूसरों की
नासमझ ,अन्धी ,संवेदनहीन
इच्छाओं द्वारा
समय के इतिहास
में अंकित नहीं हो पाते
अपने ही भीतर
जीने वाले संकोची ,अन्तमर्ुखी -आत्मलीन मसितष्क
उनका हर सोचना
समय के विपक्ष और प्रतिरोध में डाल दिया जाता है....
उनकी धरती जीत ली
जाती है बिना उनसे पूछे
हाथों और पैरों
द्वारा हथियार चलाते
अपेक्षाकृत हीन
और मूर्ख किन्तु संगठित बर्बरों द्वारा
उन्हें चाहने
वाली उनकी प्रमिकाएं उनकी ओर
प्रेम की मूक
याचना के साथ देखती हुर्इ
बलात अपने
समाजप्रदत्त पतियों के घर की ओर विदा हो जाती हैं
निरीह और कमजोर
आत्माएं देखती रहती हैं
अपनी असमर्थ परवश
देह के साथ बलात्कार
बुद्धिमान
मूखोर्ं द्वारा शासित होते हैं और बुद्धिजीवी
अपनी आन्तरिक
असहमति के बावजूद प्रत्युत्तर में
हां सर ! हां सर
! कहते रहते हैं....
ओ शैतान ! तुम
अकेले ही नहीं सताए गए हो
इस धरती पर अपनी
शारीरिक अक्षमता के लिए......
या तुमसे पहले और
तुमसे बाद भी
मारी गयी है और
मारी जा रही हैं कितनी बेबस लाचार औरतें
यदि तुम अब भी
लोगों के चेतन मन को प्रभावित
कर सकने वाली
अचेतन सामथ्र्य के साथ हो तो
उनकी ओर क्यों हो
जो अपहरण करते हैं
दूसरों के जीने
की स्वतंत्रता का
जो दूसरों के
जीवन की कीमत पर सुखी रहते हैं
क्यों हो तुम
उनकी ओर ?
तुम्हें तो हर
अत्याचार के विरुद्ध होना चाहिए था
अपने पवित्र और
मिशनरी प्रतिशोध के साथ
अपनी अतीनिæय मानसिक शकितयों
को सौंप देना चाहिए था
पे्ररित करना
चाहिए था मनुष्य को कि वह अब और न मारे
उन असहाय
असितत्वों की रक्षा के लिए
किसी रक्षक
पवित्र आत्मा की तरह होना चाहिए था तुम्हें
जो रह सकते थे
लेकिन अब नहीं हैं
तुम्हारे मारे
जाने के बाद भी तो धरती पर मारे गए हैं कितने सारे जन्तु
जब दुनिया से
आखिरी मैमथ और डोडो मारे जा रहे थे कहां थे तुम ?
जो जीवन है यहां
और जो यहां होकर
चला गया है
जीवन के अनेक
विफल प्रारूपों के बीच
बची और भटकती
हुर्इ यह मानव-जाति
जिसकी मुस्कान के
पीछे छिपी हुर्इ है
अनन्त आक्रमणों
और हत्याओं का सिलसिला
रक्त की वह नदी
जो उसनें अनेक जीवों की शिराओं को
काटकर बहार्इ
थी.....इतना मासूम और निष्पाप
नहीं रहा होगा
उसका असितत्त्व
इतनी घृणा...इतने
दुश्मनों और इतने अभिशाप के साथ
उसका होना ही
सत्यापित करता है
उसके हत्यारे
अपराधिक अतीत को.....
या फिर वास्तव
में मासूम ही है मानव-जाति
हमारे पालतू
जानवरों जैसे गधे,घोड़ों,बकरियों और मुर्गियों की तरह मासूम
जिसे उसके भीतर
घुसे वायरसों और बैक्टीरियाओं की तरह ही
कुछ विधुतीय
जैविक असितत्व ही प्रभावित कर रहे हैं
अनपढ़ कबीलार्इ
विश्वासों में जीवित और परेशान करने वाली
प्रेत-आत्माओं की
तरह.....
या फिर हमारी ही
आत्माओं का क्षुब्ध,नाराज और अतृप्त अचेतन है
एक-दूसरें के
भाग्य और दुर्भाग्य का अचेतन इतिहास रचता हुआ......
मसितष्क के
एकान्त उनींदे अन्तरिक्ष में
घटित होती घटनाओं
को
जो हमारी आत्मा
को वास्तविक अनुभूतियों से रौंद देती हैं
जब हमारे सपनों
के अनुरूप ही
उनके अर्थो की लय और ताल पर नृत्य करने लगते हैं
हमारे मसितष्क के
मनोरसायन
प्रेरित और
सक्रिय हो जाती हैं हमारी अन्त:स्रावी ग्रनिथयां
एडीनल ग्रनिथ
सक्रिय हो जाती है
और सपने में ही
भय से पीले पड़ जाते हैं हम
क्या हमारे
स्वप्न भी हमारे जैविक इतिहास के हिस्से नहीं हैं !
फिर मैं उस सपने
का क्या करूं ?
जिसने अभी-अभी
मुझे हत्यारा बना दिया है
अपने पीछे खड़ी
चीखती आवाजों की अज्ञात डरी भीड़ द्वारा
उत्तेजित कर
मुझसे सांपों से हजार गुना बड़े
आदमी की बौद्धिक
क्षमता और शक्ल वाले एक रहस्यमय प्राणी की
हत्या करा दी गयी
है...
जबकि मैं नहीं
चाहता था किसी से लड़ना या मारना
किसी को
भी....जीवन के सहोदर अनन्त प्रारूपों में से किसी प्रारूप को भी
क्योंकि मेरी ही
तरह जीवन की विविध अभिव्यकितयां हैं सब.......
यहां जीवन एक साथ
हुआ है
स्वयं को
बहुविभाजित करता हुआ जैविक असितत्व
फैल गया है
हिमालय की बर्फीली ऊंची चोटियों से लेकर
प्रशान्त महासागर
की अतल गहराइयों तक
एक-दूसरे पर
निर्भर और कभी-कभी विरुद्ध
एक-दूसरे के
साथ-साथ जीते हुए
अनुकूल या
प्रतिकूल विकसित होते गए हैं सभी-
एक-दूसरे के
सापेक्ष और स्वतंत्र
लेकिन हुए
हैं.....हाें रहे हैं सभी अपने ही भीतर से
और होने के बाद
टकरा जाते हैं एक-दूसरे से
हो जाते हैं
हतप्रभ और अवाक
कभी-कभी तो चिढ़
जाते हैं
एक-दूसरे के होने
से ही
सोचने लगते हैं कि
वह न होता तो
और भी बेहतर
तरीके से इस धरती पर
फैल सकता था
हमारा वजूद....
उस दिन सपने में
मारा गया था मेरे हाथों
जैसे डाइनासार
युग का मानव जैसी बुद्धि और
समानुपातिक बड़ी
खोपड़ी वाला
किसी समझदार
चिन्तक रहस्यमय प्रजाति का
मैं जागा और उदास
हो गया
एक आधुनिक कवि
ऐसे अविश्वसनीय सपनें का क्या करेगा ?
मैंने सोचा वे
हंसेंगे मुझपर
जो र्इश्वर और
शैतान दोनों को प्राचीन मनुष्यों द्वारा रची गर्इ कहानियां मानते हैं
क्या शैतान और
र्इश्वर दोनों एक ही थे
वह मानव-जाति की
तुलना में इतना बड़ा और शकितशाली था कि
वह मानव-जाति का
र्इश्वर तो हो ही सकता था
व्ह स्वयं नासितक
रहता तब भी बना रह सकता था
मानव-जाति के लिए
र्इश्वर
वह अधिकांश की
प्रार्थनाएं र्इमानदारी के साथ सुन भी रहा था
वह तो यह भी नहीं
चाहता था कि लोग र्इश्वर के चक्कर में अपना वक्त बरबाद करें.......