भारतीय धर्म एवं संस्कृति की मुख्य दार्शनिक विशेषता एक संपूर्ण आत्मीय तथा एकतापूर्ण पर्यावरण के निर्माण में थी ,यद्यपि व्यवहार में वह समाज के आवयविक सिद्धान्त की समर्थक तथा आनुवांशिक एवं जातीय राजतंत्र की पोषक होने के कारण सामुदायिक स्तर पर घोर रूढ़िवादी रही है। उसने सामाजिक स्तर पर श्रेष्ठता और हीनता के मनोवैज्ञानिक प्रतिमान गढ़े। ऐसा प्रतीत होता है कि समाजशास्त्रीय दृष्टि से वह एक बन्द कबीले के अन्तः सम्बन्धों की आतंरिक संरचना एवं प्रस्थिति का सामुदायिक विस्तार है। धीरे-धीरे एक कबीले का पुरोहित आस-पास के अन्य कबीलों का भी पुरोहित बनता गया और एक विशिष्ट जातिवादी समाज की रचना होती गयी। जैसी कि कहावत है कि ज्योतिष-विद्या सिर्फ ज्योतिषी की ही आजीविका चला सकती है -भारतीय दर्शन और उसकी अवधारणाओं में पुरोहित-वर्ग तटस्थ भूमिका ,उदासीनता , निठल्लेपन एवं परजीविता की आत्मा समाई हुई है। उसके समर्पण का दर्शन दूसरों के वर्चस्व और अधीनता को बिना किसी विरोध या प्रतिरोध के स्वीकारने का सन्देश देता है। इसे मुख्य धारा की धार्मिकता यानि ब्राह्मण-जातीयता के पार्श्व -प्रभाव के रूप में भी देखा जा सकता है। यह जातीय मनःस्थिति ब्राह्मण को जातीय श्रेष्ठता का दम्भ तो देती है ,लेकिन आर्थिक रूप से दान-दक्षिणा के रूप में परजीविता का महिमा-मंडन भी करती है। संतोष-जीविता का यह महिमा-मंडन इस रूप में भारतीय संस्कृति के अनुयायियों में सृजनात्मक असंतोष का निषेध करती है। उसका सन्तोषजीविता का सन्देश एक बड़ी जनसंख्या को भाग्य एवं प्रतीक्षा- जीवी बनाता है। सामाजिक भूमिकाओं का आवयविक विभाजन, हर व्यक्ति से उसके लिए निर्धारित जातीय चरित्र और भूमिका की मांग करने लगता है। इससे एक स्थिर किन्तु गतिहीन समाज की रचना होती है।
इसके बावजूद भारतीय संस्कृति में जो सबसे आकर्षक बात जो मुझे दिखाई पड़ती है ,वह पवित्रता के बहाने काम-चिंतन का दमन या फिर उसका उदात्तीकरण है। काम भावना पर विजय को जीवन के पुरुषार्थ या चुनौती के रूप में लेने के कारण उसने साधु -संतों के रूप में काम -मुक्त व्यक्तिव का भी आदर्श प्रस्तुत किया था तो दूसरी ओर कृष्ण की श्रृंगार-गाथाएं ,आध्यात्मिकता के बहाने काम -भावना के विरेचन की मनोवैज्ञानिक व्यवस्था भी करती हैं। यदि अरस्तू का कैथार्सिस या विरेचन की अवधारणा सही है तो कृष्ण-कथा की इस सांस्कृतिक भूमिका को भी स्वीकार करना होगा। इसके विपरीत राम-कथा के समाज-वैज्ञानिक प्रभाव के अध्ययन से जो बातें सामने आती हैं ,उसमें आक्रमण के स्थान पर प्रत्याक्रमण एवं प्रतिरोध की क्षमता का महिमामण्डन प्रमुख है। यह सम्भवतः राम-कथा का ही प्रभाव है कि आज भी भारतीयों पर वैश्विक पर्यावरण बिगाड़ने का आरोप कम ही लगाया जा सकता है। किसी के विश्लेषण में मैंने पढ़ा था कि सामाजिक सौहार्द की दृष्टि से राम का चरित्र अनारम्भी है। राम का चरित्र संयम में रहने का सन्देश देता है। दूसरों के अस्तित्व का सम्मान करने एवं हिंसा की पहल न करने का सन्देश भी। राम-कथा किसान-जीवन के ताने -बाने के लिए या यह कहें कि जन-सामान्य के लिए सिर्फ एकल दांपत्य की प्रथा के आदर्श प्रतिमान की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है ,बल्कि वह कुटुम्बा-निर्माण की आधारभूत दार्शनिकी भी उपलब्ध कराती है। वह अर्थ और पूंजी के पारिवारिक विभाजन को हतोत्साहित करती है :सामूहिक श्रम का प्रोत्साहित कराती है। इस तरह साझी खेती को बढ़ावा देती हुई मेड़ बंदी की कुप्रवृत्ति को भी कम करती है।
यद्यपि सामाजिक संवेदनशीलता और दायित्वबोध के चारित्रिक आदर्श का केंद्रीय एवं प्रारंभिक मिथकीय चरित्र विष्णु से सम्बंधित है। परवर्ती महापुरुषों के लिए उनका पौराणिक चरित्र एक स्थायी मानक है। इन कथा-नायकों के चरित्र में ऐसे पर्याप्त तत्व हैं ,जो भारतीयों के लिए ब्राह्मण-जातीय
परजीवी धार्मिकता का संतुलनकारी प्रतिपाठ प्रस्तुत करते हैं। इन सब के बावजूद यह ईमानदारी से स्वीकार करना होगा कि प्राचीन भारत में ज्ञान के प्रकाशक एवं संरक्षक के रूप में ब्राह्मण जाति की एक ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आज के समतावादी युग में प्रतिगामी दिखने एवं होने के बावजूद वह अपनी समय-सापेक्षता में कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण था। उसने एक मानक एवं परिष्कृत केंद्रीय भाषा विकसित की। प्राचीन भारत के बहुभाषी समाज में संस्कृत के विद्वानों नें ज्ञान के संरक्षक के साथ-साथ दुभाषिए की भी भूमिका निभाई। काश्मीर का संस्कृतज्ञ सुदूर दक्षिण के किसी भी राजा के दरबार में रहने वाले संस्कृतज्ञ से संवाद स्थापित कर सकता था। स्थानीय एवं भिन्न भाषाओँ कि बहुलता के बीच जातीय रूप से ही सही ब्राह्मणों की यह भूमिका असाधारण ही कही जाएगी। उनके पास ज्ञान और स्मृतियों के संरक्षण और विज्ञापन का आज की मीडिया की तरह ही ऐसा सशक्त जातीय तंत्र था कि जिसको भी चाहा भगवान बना दिया।
परजीविता का महिमामंडन
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