मेरे प्रिय विचारक पी.एन.सिंह ने एक जीवन-मूल्य के रूप में बुद्धिधर्मी की अवधारणा दी है .वे आस्तिक होने के स्थान पर बुद्धिधार्मी होनाऔर कहलाना अधिक क्रन्तिकारी महत्त्व का और साहसपूर्ण समझते हैं .आस्तिकों के लिए नास्तिक होना एक अपराध है .धर्मभीरु प्रायः नास्तिक होने से डरते हैं.इस डर का कारण जीवन की असुरक्षा ग्रंथि तो है ही,वह अपूर्णता भी है जो एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हमें अकेले में अपनी पूर्णता का अहसास नहीं जीने देती .एक तरह से यह ठीक ही है कि अकेले में हम अपनी पूर्णता की घोषणा करने से डरते हैं .कई अन्य प्राणियों की तरह सामाजिक होना हमारा जीनेटिक गुण भी हो सकता है ..ऐसे में अकेले अपनी अपूर्णता का अहसास जीना स्वाभाविक ही है .
आस्तिकता और नास्तिकता का मनोवैज्ञानिक पक्ष यह है कि बुरे और कटु अनुभव हमें प्रायः नास्तिक बनाते हैं और प्रेममय अनुभव हमें आस्तिक ..एक बहुत सुखी समाज में ही अतिरिक्त कृतज्ञताएँ संभव हैं .जहाँ तक मेरा प्रश्न है बचपन से ही ईश्वर के होने के पारंपरिक विश्वास और समाज तथा व्यवस्था के गलत होने के मेरे निजी असंतोष नें मुझको मुझको विषम स्थिति में डाल रखा था आस्तिक मनुष्य के साथ समस्या कुछ इस तरह होती है कि जब वह एक बार यह मान लेता है कि अदृश्य हवाओं के पार कोई ऐसी छिपी शक्ति है जो उसके साथ घट रही अच्छी -बुरी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है तो एक अजीब किस्म के मानसिक युद्ध में फंस जाता है .उसकी हालत उस बन्दर की तरह हो जाती है जो अपना ही प्रतिबिम्ब दर्पण में देखकर उसपर खीसें निपोरता है .-प्रतिद्वंदी समझकर उसपर झुझलाता है .जबकि सच्चाई यह है कि किसी अमूर्त को स्वीकारना या बिलकुल नकारना दोनों ही एक मानसिक द्वंद्व में फंस जाना है .बुद्ध नें इसीलिए जो रास्ता निकालाथा वह शून्यवाद का था .उनका ईश्वर के होने के प्रश्न पर चुप लगा जाना मेरी समझ में अपनी अबोधता को ईमानदारी से स्वीकार करना था .हममें से अधिकांश में बुद्धजैसी निर्मम और निस्संग ईमानदारी नहीं है .हमारी आस्था दरअसल परंपरा से अर्जित आस्था होती है .दूसरे ऐसा मानते हैं इस लिए हमने भी उसे मान लिया . ऐसा हो सकता है कि दुसरे जो मन रहे हों वह सच ही हो लेकिन वह हमारे अपुष्ट और अप्रत्यक्ष ज्ञान का हिस्सा है ,प्रत्यक्ष एवं पुष्ट ज्ञान का नहीं .ऐसे ज्ञान को जिसके सच होने को हम कभी चुनौती नहीं देते ,वह गलत भी तो हो सकता है .
इसतरह हम देखें तो एक सच्चा बुद्धि धर्मी होना पूर्वाग्रही ,अप्रत्यक्ष एवं अप्रमाणिक अवधारणाओं से मुक्त होना भी है .अपने मस्तिष्क की उस प्रारम्भिक अबोधता को प्राप्त कर लेना है ,जो हमें प्रकृति नें हमारे जन्म लेने के समय सौपी थी .इस दृष्टि से हम देखें तो एक ईमानदार नास्तिक होना भी सच्चा बुद्धिधर्मी होना हो सकता है .बुद्धिधार्मी होना आधुनिक वज्ञानिक युग को बचाए रखने के लिए भी जरुरी है .क्योंकि प्रकृति ने जितना मानव जाति को अपनी नैसर्गिक सृजनशीलता से देना था उतना तो वह दे ही चुकी है .अब वह विकास की प्रौढ़ता को प्राप्त कर बूढ़ी हो चली है .मानवजाति के लिए आगे के अस्तित्व का रास्ता एक कठिन रास्ता ही होगा .उसे अपने रास्ते अपनी सृजनशीलता और बुद्धि से ही तलाशने होंगे .संभव है आगे की मानवजाति को सूर्य के चुकाने का भी विकल्प ढूढ़ना पड़े और आकाश गंगाओं के टकराने पर अपने बाख निकालने का भी .
एक बुद्धिधर्मी होने के लिए दरअसल प्रश्नधर्मी होना जरुरी है ."श्रद्धावान लभते ज्ञानं " और संशयात्मा विनश्यति जैसे सूक्ति- वाक्य प्राचीन काल में मुर्ख और अबोध अनुयायी बनाने के लिए भले ही आवश्यक रहे हों लेकिन वैज्ञानिक युग की सच्चाई तो यही है कि "शंकावान लभते ज्ञानं .
आस्तिकता और नास्तिकता का मनोवैज्ञानिक पक्ष यह है कि बुरे और कटु अनुभव हमें प्रायः नास्तिक बनाते हैं और प्रेममय अनुभव हमें आस्तिक ..एक बहुत सुखी समाज में ही अतिरिक्त कृतज्ञताएँ संभव हैं .जहाँ तक मेरा प्रश्न है बचपन से ही ईश्वर के होने के पारंपरिक विश्वास और समाज तथा व्यवस्था के गलत होने के मेरे निजी असंतोष नें मुझको मुझको विषम स्थिति में डाल रखा था आस्तिक मनुष्य के साथ समस्या कुछ इस तरह होती है कि जब वह एक बार यह मान लेता है कि अदृश्य हवाओं के पार कोई ऐसी छिपी शक्ति है जो उसके साथ घट रही अच्छी -बुरी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है तो एक अजीब किस्म के मानसिक युद्ध में फंस जाता है .उसकी हालत उस बन्दर की तरह हो जाती है जो अपना ही प्रतिबिम्ब दर्पण में देखकर उसपर खीसें निपोरता है .-प्रतिद्वंदी समझकर उसपर झुझलाता है .जबकि सच्चाई यह है कि किसी अमूर्त को स्वीकारना या बिलकुल नकारना दोनों ही एक मानसिक द्वंद्व में फंस जाना है .बुद्ध नें इसीलिए जो रास्ता निकालाथा वह शून्यवाद का था .उनका ईश्वर के होने के प्रश्न पर चुप लगा जाना मेरी समझ में अपनी अबोधता को ईमानदारी से स्वीकार करना था .हममें से अधिकांश में बुद्धजैसी निर्मम और निस्संग ईमानदारी नहीं है .हमारी आस्था दरअसल परंपरा से अर्जित आस्था होती है .दूसरे ऐसा मानते हैं इस लिए हमने भी उसे मान लिया . ऐसा हो सकता है कि दुसरे जो मन रहे हों वह सच ही हो लेकिन वह हमारे अपुष्ट और अप्रत्यक्ष ज्ञान का हिस्सा है ,प्रत्यक्ष एवं पुष्ट ज्ञान का नहीं .ऐसे ज्ञान को जिसके सच होने को हम कभी चुनौती नहीं देते ,वह गलत भी तो हो सकता है .
इसतरह हम देखें तो एक सच्चा बुद्धि धर्मी होना पूर्वाग्रही ,अप्रत्यक्ष एवं अप्रमाणिक अवधारणाओं से मुक्त होना भी है .अपने मस्तिष्क की उस प्रारम्भिक अबोधता को प्राप्त कर लेना है ,जो हमें प्रकृति नें हमारे जन्म लेने के समय सौपी थी .इस दृष्टि से हम देखें तो एक ईमानदार नास्तिक होना भी सच्चा बुद्धिधर्मी होना हो सकता है .बुद्धिधार्मी होना आधुनिक वज्ञानिक युग को बचाए रखने के लिए भी जरुरी है .क्योंकि प्रकृति ने जितना मानव जाति को अपनी नैसर्गिक सृजनशीलता से देना था उतना तो वह दे ही चुकी है .अब वह विकास की प्रौढ़ता को प्राप्त कर बूढ़ी हो चली है .मानवजाति के लिए आगे के अस्तित्व का रास्ता एक कठिन रास्ता ही होगा .उसे अपने रास्ते अपनी सृजनशीलता और बुद्धि से ही तलाशने होंगे .संभव है आगे की मानवजाति को सूर्य के चुकाने का भी विकल्प ढूढ़ना पड़े और आकाश गंगाओं के टकराने पर अपने बाख निकालने का भी .
एक बुद्धिधर्मी होने के लिए दरअसल प्रश्नधर्मी होना जरुरी है ."श्रद्धावान लभते ज्ञानं " और संशयात्मा विनश्यति जैसे सूक्ति- वाक्य प्राचीन काल में मुर्ख और अबोध अनुयायी बनाने के लिए भले ही आवश्यक रहे हों लेकिन वैज्ञानिक युग की सच्चाई तो यही है कि "शंकावान लभते ज्ञानं .