मनुष्य के जीने
को समाजशास्त्रीय नजरिए से देखना बिल्कुल नया नजरिया है । यह दृषिट संस्कृति को भी
नए दृषिटकोण से देखे जाने की वकालत करती है । संस्कृति साहित्य को भी कर्इ रूपों
में प्रभावित और नियनित्रत करती है । इसके विपरीत यह भी सच है कि साहित्य भी
संस्कृति को प्राय: सिथर और स्थार्इ प्रभावशीलता देती है । कर्इ बार साहितियक
स्मृति सांस्कृतिक स्मृति के रूप में समाज को प्रभावित करती है तो कर्इ बार
सांस्कृतिक स्मृति ही साहितियक स्मृति के रूप में पुनरूत्पादित होती रहती है ।
इसीतरह साहितियक स्मृति की सार्थकता, ऐतिहासिक स्मृति को संशाधित या विस्थापित करनें
की सामथ्र्य में है । ऐतिहासिक स्मृति दुर्घटनात्मक या आपराधिक स्मृति भी हो सकती है । ऐसी स्मृति
को सतत समीक्षा और प्रतिरोध की स्मृति और संस्कृति का निर्माण साहितियक सृजनशीलता
का उपलबिध कहा जा सकता है ।
ऐतिहासिक स्मृति प्राय: अपने युग के असंगठित आम
जन के सामूहिक भटकाव या आलस्य का परिणाम हुआ करती है । कर्इ बार वह मनुष्य के
तात्कालिक सामूहिक विवेक एवं निर्णयों की अभिव्यकित हुआ करती है । ऐसे में
साहितियक सृजनशीलता के माध्यम से व्यक्त मानवीय विवेक का महत्व बढ़ जाता है ।
क्योंकि साहित्य अधिक सजग ,गम्भीर और अपेक्षित विचारशीलता की अभिव्यकित हुआ करता है
। साहित्यकारों को साहितियक सृजनशीलता के
इस सांस्कृतिक महत्व और समाजोपयोगी भूमिका को समझना चाहिए । नासमझ एवं मनोरंजनजीवी साहितियक सृजन प्राय:
आस्वादपरक या फिर उत्सवधर्मी होता है । सामाजिक स्वास्थ्य की दृषिट से एक
साहित्यकार की भी अपनी सांस्कृतिक भूमिका होती है ।
वस्तुत: साहित्य की संस्कृति विवेक की
संस्कृति है । किसी ऐतिहासिक घटना का विश्लेषण करता हुआ इतिहासकार किसी घटना से सम्बनिधत मानव-व्यवहार के
उचित-अनुचित होनें का विश्लेषण तो करता है, लेकिन वह गलत और अनुचित होते हुए भी तथ्यों से
कोर्इ छेड़छाड़ नहीं कर सकता । वह किसी सामुदायिक दु:ख य क्षोभ का निवारण भी नहीं
कर सकता । संवेदनशील मसलों पर उसकी बौद्धिक समझदारी प्राय: नि ष्प्रभावी ही रही है
। इसीलिए ऐतिहासिक स्मृति के स्थान पर साहितियक स्मृति अधिक मूल्यवान और प्रभावी
हो सकती है । वह न सिर्फ संशोधन उपसिथत करती है ,बलिक नर्इ समानान्तर एवं सार्थक स्मृति की
प्रस्तावना भी कर सकती है । उदाहरणस्वरूप
देखा जाय तो मध्ययुग में औरंगजेब सत्ता के लिए अपनें सगे भाइयों की हत्या कर
ऐतिहासिक स्मृति का निर्माण क्रता है । मध्य-युग में हर सृजित तुलसी के राम की
साहितियक स्मृति और उपसिथति उसे इसतरह अपवाद के हाशिए पर धकेलकर उसका अवमूल्यन कर
देती है कि भारत में सिर्फ हिन्दू ही नहीं बलिक मुसलमान भी प्राय: उस ऐतिहासिक
स्मृति की चर्चा नहीं करता । इस प्रकार तुलसी के राम-काव्य की एक सृजनात्मक
सार्थकता यह भी है कि वह औरंगजेब और उसके कुकृत्यों को भारतीय जनता की सामाजिक
-सांस्कृतिक स्मृति से विस्थापित और खारिज करती है ।
इसमें सन्देह नहीं कि साहित्य का संस्कृति,समाज और सत्ता से
रिश्ता बहुआयामी और जटिल है । साहित्य समाज से प्रभावित होता है और उसे प्रभावित
करता भी है । एक अच्छा और आदर्शवादी साहित्य समाज को भी एक आदर्श साहित्य बनानें
की प्रेरणा देता है । यथार्थवादी साहित्य समाज की कटु वास्तविकताओं को सामनें लाकर
उससे बचनें एवं उससे सजग रहनें के सन्देश देता है । प्राचीन काल से ही साहित्य
सामाजिक परिवर्तन का माध्यम रहा है । आधुनिक काल में भी विभिन्न विचारधाराओं के लोग
अपने मत के अनुसार साहित्य रचकर साहित्य को परिवर्तित करनें का प्रयास करते रहते
हैं ।
भारतीय साहित्य और सत्ता का एक हजार वषोर्ं का
साहितियक इतिहास सम्पूर्ण समर्पण का तथा राजनीतिक इतिहास सम्पूर्ण पराधीनता का रहा
है । दूसरे शब्दों में कहें तो इस दौर का साहित्य परार्इ सता के मानसिक समर्थन के
लिए एक अचेतन सांस्कृतिक पृष्ठभूमि रच रहा था । यधपि यह भी सच है कि उस दौर के
भकित-साहित्य के प्रति यह दृषिटकोण या नजरिया
उस दौर के साहित्य को पढ़ते हुए हम नहीं हासिल करते । यह दृषिट उस दौर की
इतिहासजीविता को अतिक्रमित करके ही पार्इ जा सकती है ।
वस्तुत: हर युग की सत्ता का हर युग के
साहित्य पर पर्याप्त प्रभाव रहा है । कभी तो यह कहना मुशिकल हो जाता है कि सत्ता,समाज और साहित्य
को प्रभावित कर रही है या साहित्य ही समाज और उसकी सत्ता के चरित्र को । इस बिन्दु
पर विचार करते हुए मेरा घ्यान बार-बार रामकथा के नायक राम के चरित्र और युग के
बादशाह बाबर तथा उसके पुत्र हुमायूं के आपसी रिश्ते और चारित्रिक साम्य की ओर जाता
है । कहते हैं बाबर नें अपनें बीमार बेटे हुमांयूं की यह कहते हुए परिक्रमा की थी
कि उसका मरणासन्न बेटा बच जाए,भले ही उसके स्थान पर स्वयं उसकी ही मृत्यु क्यों न हो जाए
। कहते हैं ऐसा ही हुआ था और उस दिन के बाद बाबर बीमार होनें लगा था और हुमायूं
स्वस्थ । इतना ही नहीं बाबर की मृत्यु के बाद हुमायूं नें अपना राज्य अपनें भाइयों
में बांट दिया था । बाबर के चरित्र की तुलना रामकथा के पात्रों से करें तो उसमें
भी दशरथ की तरह का मरणान्तक पुत्र-प्रेम देखा जा सकता है । बाबर निशिचत रूप से
हुमायूं से बहुत प्रेम करता होगा । अपनी भावना में वह भी दशरथ से कम नहीं रहा होगा
। इसी तरह हुमायूं का अपने भाइयों के प्रति प्रेम और व्यवहार में भी राम के
व्यवहार की झलक देखी जा सकती है । क्या यह एक संयोग मात्र ही है या फिर हुमायूं के
चरित्र पर भारतीय जनमानस में व्याप्त राम के आदर्श चरित्र का परिचय और प्रभाव ! यह
प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही रूपों में देखा जा सकता है ।
हाल के दलित-चिन्तन द्वारा प्रहार के मुख्य
केन्द्र के रूप में पुरोहित-वर्ग के वर्चस्व की चर्चा और उसपर प्रहार कोर्इ छिपी
बात नहीं रह गर्इ है । भारत में एक जाति की आजीविका का साध नही पूजा-अर्चना
व्यवसाय का रहा है । इस जाति नें उपनिषद काल की दार्शनिकता और बुद्ध-काल की
विचारशीलता को खो देनें के बाद बौद्धों की मूर्ति और भितित-चित्रकला को पौराणिक
भारतीय मिथकों के नायकोंं की पुनर्पस्तुति की ओर मोड़ दिया । ऐसे में इतिहास की
जिस एक घटना नें संत मत एवं भकित आन्दोलन के भकित-स्वरूप् को दिशा दी होगी वह
निश्चय ही महमूद गजनवी के हाथों सोमनाथ मनिदर का टूटना और लूटा जाना है । इस घटना
नें मूर्ति एवं तीर्थ आदि से भारतीय जनजीवन का ध्यान हटाकर दिव्यता के खोज की दिशा
को जीवन की ओर मोड़ दिया ।गोरखनाथ की ''जोर्इ पिण्डे सोर्इ ब्रहमाण्डे की अवधारणा में
अन्तमर्ुख दार्शनिकता का यह मोड़ देखा जा सकता है । इसके पश्चात मानव-जीवन को
केन्द्र में रखकर आध्यात्मवादी चिन्तन की जो धारा बहती है ,वह गोरखनाथ के
हठयोग को कबीर के सहजयोग तक ले जाती है ।
कबीर के यहां र्इश्वर जीवन की दिव्य असिमता का चरम मानक है । वह एक ऐसा
पारस है , जो जीवन के हर
पत्थर को सोना बनाता जात है । कबीर अवतारी
राम को तो नहीं मानते लेकिन बहुत चुपके से हर मनुष्य को र्इश्वर के अवतार में बदल
देते हैं । यहां देखने की बात यह है कि पुरोहितवाद सदैव ही वर्तमान जीवन की
अवहेलना और अतीत की स्मृतिजीविता एवं उसके महिमामण्डन में लगा रहता है । ऐसा वह
प्राय: पेशेवर कारणों से ही करता है । कबीर निश्चय ही इस रहस्य को जान गए थे-उनके ''राम-नाम का मरम है
आना,दशरथ-सुत तिंहुं
लोक बखाना का मर्म यही है । कबीर के यहां दशरथ-सुत स्मृतिपोषित राम हैं; जिसे एक जाति
नें आजीविका के लिए अपनें शास्त्रों में
बन्धक बना लिया है । कबीर इसी बन्धुआ राम से जीवन को मुक्त करना चाहते हैं और
प्रकारान्तर से हर मनुष्य में रमें हुए राम का सन्देश भी देते हैं।
आदिकाल में भारतीय संस्कृति के प्रमुख
केन्द्रों (तीथोर्ं) पर आक्रमण हो रहे थे । नाथ और सिद्ध साहित्य नें आस्था के
बाहरी केन्द्रोें की नि:सारता को समझनें और समझानें का ही प्रयास किया है ।
पुरोहिती र्इश्वर एवं आस्था के केन्द्रों के ध्वस्त होते ही सामाजिक-सांस्कृतिक
चेतना बहिमर्ुख से अन्तमर्ुख होती है । जो भी ब्रहमाण्ड यानि भौतिक पदाथोर्ं एवं संसार में है ,,वही पिण्ड यानि
देह में भी दिखार्इ देने लगता है । इन सब में यही बात मुझे महत्वपूर्ण लगती है कि
मनुष्य की स्वतंत्रता और उसके असितत्व की अर्थवत्ता बची रहनी चाहिए । वह
ब्रहमाण्डीय जड़ता में जीवन का सर्वोत्तम प्रतिनिधि वर्तमान है । यदि चेतन इयत्ता
की सत्ता बाहरी दुनिया में नहीं बचती तो सूक्ष्म मनोजगत में ही बचे,लेकिन उसका बचना
जरूरी है । कबीर की मानवीय स्वतंत्रता उनके आत्माराम में बचती है तो तुलसी की राम
के चारित्रिक सौन्दर्य के प्रति प्रेम,समर्पण और सम्मान में । सामाजिक विरेचन की
दृषिट से मुझे राम ,कृष्ण और कबीर ही सवाधिक उपयोगी जान पड़ते है। ये तीनों ही
चरित्र अपमानित जीवन की समस्त संभावनाओं को उसके चरमोत्कर्ष या अतिमानवीय परिणति
तक पहुंचा देत हैं । ये तीनों ही चरित्र अपनें समय की समस्त मानवीय-सामाजिक
सुरक्षाओं से वंचित हैं । ये अपनी अर्थवत्ता को शून्य से अर्जित करते है। अपनें
समय से छीनते हुए जीते हैं। मैंने पढ़ा था कि बि्रटिश जेलों में भूमि पर बनें
चबूतरों पर सोने वाले स्वतंत्रता सेनानी अपनें कैदी जीवन के अनुभवों को राम से
बेहतर मानकर स्वस्थ-चित्त बनें रहते थे ।
मध्यकाल के साहित्य में सत्ता और समाज का सबसे
रोचक प्रभाव मुझे सूर के यहां दिखता है । मुझे सूर के
कृष्ण एक ऐसे बड़े रंगीन परदे की तरह दिखते हैं-जिसकी ओट में मध्ययुगीन शासकों की
सारी रंगीनियां और सारी अश्लीलता ढक देनें या फिर छोटा करनें की कोशिश की गर्इ है
। सूर के कृष्ण जमानें द्वारा खींची जा रही सभी रेखाओं को छोटा करनें के लिए खींची
गर्इ बड़ी रेखा की तरह हैं ; जो युग के चार
रानियों वाले शासकों का मजाक अपनें सोलह हजार रानियों वाले कृष्ण से उड़वाती है ।
ऊपर से सीधे-सीधे न दिखनें के बावजूद सूर की सांस्कृतिक चेतना वस्तुत: प्रतिरोध की
चेतना है । विश्वास न हो तो उनके भ्रमरगीत की गोपियों को देखिए । उनका भ्रमरगीत
समकालीन सत्ता का सुविचारित एवं सशक्त प्रत्याख्यान है । मध्ययुग में समाज,संस्कृति और
साहित्य के पारस्परिक सम्बन्ध का उदाहरण कृष्ण के चरित्र की अपार लोकप्रियता और
उसकी उपयोगिता में देखा जा सकता है । सामन्ती युग में बहु-पत्नी प्रथा थी और अनेक
विवाह करना मर्दानगी और शान की बात समझाी जाती थी । सामन्त और नवाब सभी इस
मानसिकता से ग्रस्त थे । समकालीन जनता में उनकी कामुकता को लेकर अनेक झूठे-सच्चे
प्रसंग तैरते रहते थे । व्यापक जनसंख्या में स्त्री-पुरुष अनुपात को देखते हुए
सामान्य मनुष्य एकल वैवाहिक जीवन जीता था । ऐसे में कृष्ण का बहुनायकत्व अपने
शासकों के प्रति र्इष्र्या और घृणा को निष्चय ही प्रति-सन्तुलन देता होगा। सूर की
गोपिकाओं में अपनें आराध्य कृष्ण के प्रति भकित-भावना के साथ-साथ र्इष्र्या,घृणा,व्यंग्य और
उलाहना की प्रवृतित को सूर के समकालीन यथार्थ-बोध से जोड़कर देखे बिना संभव नहीं
है । गोपियों के परम आत्मीय कृष्ण जब तक ब्रज में रहते हैं ,परम हितैषी सखा
के रूप में चित्रित हुए हैं;लेकिन जैसे ही वे मथुरा जाते हैं,मध्य युग के शासकों के प्रति तत्कालीन जनमानस
में संचित सम्पूर्ण घृणा, किसी ज्वालामुखी विस्फोट की तरह फूट पड़ती है । कृष्ण जब तक
ब्रज में रहते हैं,तब तक गोपियों के प्रति उनका प्रेम वैध एवं किसी भी आपतित
से परे है ; लेकिन जैसे ही वे शासकों की पंकित में शामिल होते है-उनका होना-जीना सब
अक्षम्य हो जाता है । यदि मैं कहूं कि सूर का भ्रमरगीत ,मध्ययुगीन शासकों के चरित्र के प्रति तत्कालीन
जनभावना को प्रतिनिधित्व करनें वाला रूपक है
तो अत्युकित न होगी । कृष्ण सहसा ही सत्ता की कालिमा एवं कलंक के प्रतीक
में बदल जाते हैं । बल्लभाचार्य के दर्शन के आधार पर पूरे दार्शनिक विवेचन के
बावजूद मैं सूर के कृष्ण को इसी रूप् में देख और समझ पाता हूं कि वह लोकनायक कृष्ण
और सत्ता-नायक कृष्ण के द्वैत में रची गर्इ है लेकिन अपने रचनात्मक द्वन्द्व एवं
संघर्ष में वह चयन करती है लोकनायक कृष्ण का ही ।
मध्य-युग के कवियों में तुलसी का यूटोपियन
प्रतिरोध सबसे आकर्षक एवं लोकप्रिय है । राम कृषि-सभ्यता को केन्द्र में रखकर रची
गर्इ जीवन और समाज की आचार-संहिता एवं नैतिक मूल्यों के महानायक हैं । मुझे रामकथा
पूंजीवादी सत्ता के निषेध का आख्यान लगती है । राम की कथा न सिर्फ एकल दाम्पत्य की
आदिम प्रचारक है ,बलिक वह कर्इ सन्तानों की दशा में सामूहिक दायित्व और अधिकार के रूप में भूमि
एवं सम्पतित का बंटवारा भी रोकती है ।
यधपि उसकी मूल्य -दृषिट औधोगिक सभ्यता के जटिल श्रम-मूल्यों का न्यायपूर्ण
विभाजन नहीं कर पाती । इसीलिए रामकथा समान श्रम-मूल्यों वाले क्षेत्रों से अलग के
क्षेत्रों में अपने पारिवारिक एकता के सन्देश को सुरक्षित नहीं रख पाती ; न ही वह औधोगिक सभ्यता
के भिन्न क्षेत्रों वाले श्रम-मूल्यों का न्यायपूर्ण वितरण ही सुझा पाती है ।
औधोगिक सभ्यता की नर्इ पीढ़ी उसके आदशोर्ं से आंखें चुराने लगी है ;इसीलिए अलग-अलग
आय वाले एक ही संयुक्त परिवार के सदस्य एक साथ रहनें के स्थन पर चुपचाप अलग रहनें
को ही प्राथमिकता देनें लगे हैं । इन तथ्यों के बावजूद रामराज्य का यूटोपियन
प्रतिरोध किसी भी काल की व्यकितकेनिद्रत
सत्ता का निषेध एवं अस्वीकार है ।
हिन्दी का रीतिकालीन साहित्य भूषण और
गुरुगोविन्द सिंह जैसे एक-दो कवियों की रचनाओं को छोड़कर सत्ता-सन्दभोर्ं से निर्धारित
साहित्य है । अपनें अधिकांश में यह साहित्य पारिवारिक चिन्ताओं का भी साहित्य नहीं
है । रीतिकालीन कवि विशुद्ध रूप् से व्यकितवादी सरोकारों के रचनाकार हैं । घनानन्द,बोधा आलम आदि को
अपवादस्वरूप छोड़ दे ंतो निर्विकल्प प्रेम-संवेदना का उसमें अभाव नहीं है । प्रेम
यहां केन्द्र से बाहर एक उपभोक्तावादी बाहरी निर्विकल्प दृषिट के साथ उपसिथत है ।
वह संवेदना के स्तर पर नहीं बलिक ज्ञान और सामान्य-बोध के स्तर पर है । अधिकाशंत:
मजाक और मनोरंजन के विषय के रूप में ।
भारतेन्दु-युग से ही आधुनिक हिन्दी-साहित्य की
यात्रा याचना से स्वावलम्बन के भव-बोध की यात्रा है । हीनता की मनोग्रनिथ के प्रति
प्रतिरोध और निजता की खोज भारतेन्दुयुगीन हिन्दी-साहित्य की विशेषता है । निज
सत्ता के अभाव का बोध,सामाजिक एवं सांस्कृतिक कुण्ठा इस दौर के साहित्य को
आत्म-मुल्यांकन का साहित्य बना देती है । यह युग प्रतिस्पद्र्धा एवं आत्मपरिष्कार
का भी है । द्विवेद्वी युग में ये प्रवृतितयां ही अधिक निर्णायक रूप् ले लेती हैं
। परम्परा एवं अतीतजीवी प्रवृतित के कारण भारत में नवजागरण एवं पुनर्जागरण की
दोनों ही धाराएं साथ-साथ प्रवाहित हुर्इ हैं । आमतौर पर पुनर्जागरण और नवजागरण को
एक ही समझ लिया जाता है ; जबकि पुनर्जागरण से अभिप्राय स्वर्णिम अतीत की असिमता को
पुन: प्राप्त करने की दिशा में हुआ जागरण है,जबकि नवजागरण का सम्बन्ध आधुनिकता से है ।
अन्य एशियार्इ समाजोंं की तरह एक
परम्पराजीवी समाज होनें के कारण भारत में नवजागरण की चेतना सम्पूर्णता में देखनें
को नहीं मिलती । इसका एक कारण यह रहा है कि कठोर जातीय बन्धन के कारण उसकी
आधुनिकता भी स्वत:स्फूर्त न होकर आयातित ही रही है । इसीलिए हिन्दी एवं अन्य
भाषाओं के साहितियक बोध में परम्परा एवं आधुनिकता का द्वन्द्व बना रहा है । उसकी
आधुनिकता में भी परम्पराजीविता के लिए गुंजाइश एवं छदम पलायन मिलता है । ऐसा चेतन
एवं अचेतन सजगता एवं चालाकी के रूप में रहा है । जातीय यथार्थ से पलायन की
प्रवृतित के कारण ही हिन्दी का अधिकांश लेखन प्रामाणिक और विश्वसनीय लगता ही नहीं
। काफी दूर तक वह एक भगोड़ा साहितियक लेखन है । वह रचते हुए भी बचता है और बचते
हुए रचता है । उसनें साहित्य के ध्रातल पर एक काल्पनिक यथार्थलोक विकसित किया है ।
इसीलिए उसका अधिकांश आदर्शवादी ढंग की कृत्रिम प्रगतिशीलता की शिकार है । वह बिना
किसी सटीक माप के रचे गए फैन्सी वस्त्र की तरह है । इसे आर्थिक एवं राजनीतिक सत्ता
के दाेंहरे प्रयोग से प्रामाणिक,संस्थानिक एवं व्यापारिक इतिहास के रूप में प्रायोजित एवं
विज्ञापित किया गया है। यह एक तथ्य है कि हिन्दी के दलित साहितियक लेखन नें इस
साहितियक वर्जना,संकोच एवं साजिश को तोड़ा है । इस समकालीन परिदृश्य में कि आज भी अशिक्षा,पूर्वाग्रह और रीतिरिवाजों से अनुशासित सामाजिक
जीवन जीनें की बाध्यता के कारण भारतीय जनमानस अपनी पिछड़ी चेतना का अतिक्रमण नहीं
कर पा रहा है । यही सिथति अधिकांश एशियार्इ देशों और उनके यहां उपसिथत विविध
समुदायों के सांस्कृतिक जीवन की है । सशक्त सांस्कृतिक पृष्ठभूमि,प्रबल सामुदायिक
भावना तथा जन्म आधारित जातीय नस्लीय संरचनाओं की उपसिथति के कारण उसकी अधिकांश
जनसंख्या भौतिक समृद्धि के बावजूद आधुनिकता की दार्शनिकी को भी स्वायत्त करनें में
असमर्थ है ।
हिन्दी में साहित्य-सृजन का कार्य जितना
आज चुनौतीपूर्ण ,संशय और संकटग्रस्त है ;उतना इतिहास में पहले कभी नहीं था । इसका सबसे प्रमुख कारण
तो यह है कि हम एक सांस्कृतिक शून्य-काल से होकर गुजर रहे हैं । पिछले युग के
मनुष्य की अधिकांश धारणाएं वर्तमान युग में निमर्ूल सिद्ध हुर्इ हैं । इस तरह
सभ्यता और संस्कृति का पिछला पाठ बड़े
पैमानें पर अप्रासंगिक हुआ है । आजादी के बाद सार्वभौमिक मानवतावाद को
गांधीवादियों और राजनीतिक स्तर पर
कांग्रेस पार्टी द्वारा इतिहास की मुख्य धारा को अधिग्रहण कर लेने के बाद, उसकी नियति और
प्रासंगिकता भारतीय सन्दर्भ में कांग्रेस के पार्टी-चरित्र और विश्वसनीयता से जुड़
गयी है । आज के भारत में गांधी का ब्रान्डनेम नेहरू परिवार और प्रकारान्तर से
कांग्रेस (इनिदरा) की गिरफत में है ।
गांधी की राजनीतिक विरासत स्वयं कांग्रेस की गिरफत में है लेकिन विडम्बना यह है कि
गांधीवाद का स्थायी चरित्र सत्ता के विपक्ष और विरोध की संस्कृति रचने की है ।
इसलिए वह अन्ना हजारे के आन्दोलन में
स्वयं को पाने का प्रयास कर रही है ।
विडम्बना यह है कि गांधीवाद भी हिन्दी
जाति और उसके समाज में व्याप्त असिमता के संकट का स्थार्इ समाधान प्रस्तुत नहीं
करता । उसमें एक अम्बेडकर की असहमति या दलितबोध की लाइलाज पीड़ा की हमेशा गुंजाइश
है । अपनी जातीय मनोग्रस्तताओं एवं
स्थानीय बीमारियों के कारण ही हिन्दी का यथार्थबोध कभी भी सार्वभौमिक नहीं बन सकता
- वह अभी अपनी वैयकितक नकारात्मकताओं से मुकित एवं क्रानित की प्रतीक्षा में ही है
। अपनी नग्न वास्तविकताओं के साथ वह देशज सामूहिक मनोविकृतियों का साहित्य है । वह
अपने राजनीतिक और साहितियक परिदृश्य की तरह साहित्य में भी सिर्फ जातीय सेनाओं की
सृषिट कर सकता है । यह आश्चर्य नहीं कि किसी मथे गए गन्दे तालाब की तरह उसका पानी
किसी जातिवादी लोकतंत्र के कीचड़ पर सिथर हो ।
परम्परागत भारतीय समाज यथासिथति को नियति और
नियति को र्इश्वर के साथ जोड़कर एक व्यापक और संशयमुक्त शासित समाज और संस्कृति की
रचना करता था । इसमें सन्देह नहीं कि ऐसा सामाजिक और सांस्कृतिक भारत देशी और
विदेशी शासकों के लिए स्वर्ग था । राजनीतिक संघर्ष से बचने और बचानें के लिए
नेतृत्व की महत्वाकांक्षा को या तो जाति-विशेष तक सीमित कर दिया गया था या फिर
विदेशियों तक । आखिर उसकी भकित-चेतना का राज उसके सम्पूर्ण एवं नि:शेष समर्पण में
ही निहित था । इस तरह अधिकांश एशियार्इ समाजों की तरह भारतीय समाज भी तथा उसकी संस्कृति और साहित्य
अपनें मूल रूप् में सम्पूर्ण जनसंख्या की स्वतंत्रता का विरोधी था । उसका
निस्पृहतावादी दर्शन प्राकृतिक संसाधनों की समृद्धि तथा कृषि आधारित न्यूनतम
आर्थिक सुरक्षा से पैदा हुआ था । वह एक ऐसे समाज की व्युत्पतित था जिसका जैविक
असितत्व अपनी अमूर्त कल्पनाजीविता के बाद भी सुरक्षित रह सकता था ।
एक लम्बे समय तक भारत के कम्युनिस्ट समूह
नें भारतीय समाज के दलित अन्त्यज को सर्वहारा की वर्गीय अवधारणा से विस्थापित करने
की असफल कोशिश की है । लेकिन गांधीवाद की तरह वह भी आदिम मूलतागामी दर्शन होने के
कारण विकास और आधुनिकता में असिमता के इस संकट का समाधान नहीं देख पाया । यह मान लेने कें पर्याप्त कारण हैं कि दलित और
सर्वहारा दोनों की निर्माण प्रविधियां एवं शोषक परिणतियां एक नहीं हैं । सर्वहारा
की अवधारणा आर्थिक मुकित के सपने से जुड़ी हुर्इ है ,जबकि दलित की सामाजिक और सांस्कृतिक मुकित से ।
प्राचीनकाल से भारतीय परम्परागत सामाजिक व्यवस्था जन्मना दलित को बलात
सर्वहारावर्गीय बनाती रही है । समकालीन
दलितवाद सामूहिक असिमता के इसी मुकित-संघर्ष की लड़ार्इ लड़ रहा है । उन्हें लम्बे
समय से अलग रखा गया है ,इसलिए आत्मनिर्णय के मानवाधिकार के अन्तर्गत उनके
मुकित-संघर्ष के नैतिक औचित्य का समर्थन किया जाना ,माक्र्सवाद की तर्ज पर दलित राजनीतिक वर्चस्व
की सहायक और अनुगामी साहित्य की केन्द्रीय उपसिथति भारतीय इतिहास की विकास-यात्रा
के लिए जरूरी लगती है । लेकिनप्रतिकि्रयावादी निषेध या अस्वीकारवादी चरित्र के
कारण यह आधुनिकता की विकास-यात्रा में सहयोगी और संवादी होनें के स्थान पर
पूर्वाग्रहग्रस्त एवं असंवादी लगने लगता है । समानान्तर वृत्तान्त की रचना करने के
प्रयास में आधुनिकताविरोधी वृत्तान्त रचनें की दिशा में भटकाव से इस आन्दोलन को
बचाना चाहिए । हमें यह भी नहीं भूलना
चाहिए कि दलितवाद जातिवाद के सैद्धानितक औचित्य की आधारभूमि पर ही प्रासंगिक बना
हुआ है । यह जातिवाद की स्वीकृति के भीतर ही सामाजिक बराबरी की मांग करने वाला आन्दोलन
है । एक प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन के मुददे के रूप् में यह प्रकारान्तर से
नारी-मुकित और जातिवाद से मुकित का विरोधी और अपने प्रतिकि्रयात्मक यथासिथतिवादी
जातीय पूर्वाग्रह के चलते बहुत हद तक प्रतिगामी और पोषक भूमिका में है ।
यह एक तथ्य है कि आजादी के बाद की भारतीय
राजनीति नें अलग-अलग राजनीतिक दलों के चरित्र एवं उनके नेतृत्व की मानसिकता के
माध्यम से मध्ययुगीन सामाजिक -सांस्कृतिक अधिरचनाओं की सुनियोजित वापसी की है । यह
वापसी वंशवाद ,परिवारवाद,जातिवाद,सम्प्रदायवाद सभी स्तरों पर की गर्इ है । इसनें भारतीय लोकतंत्र को समुदायवादी
लोकतंत्र में परिणित कर दिया है ।