शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

मृत्यु -शोक और ...

भारत की मुख्य समस्या यह है किउसमें पेशेवर राजनीति का अभाव है और उसके नेताओं में सृजनात्मक इच्छा शक्ति और कल्पना का भी .यह एक बड़ा देश है.इस लिए सामूहिक असंतोष और संगठित विद्रोह से पर्याप्त सुरक्षित है .यहाँ के परंपरागत वोट बैंक वाले लोकतंत्र नें राजनीतिक घरानों को विकसित किया है .ये राजनीति के व्यवसायी परिवार हैं .इनका अपना आर्थिक तन्त्र है ,जो एक सीमा तक राजनीति के बाजार को प्रभावित करने में सक्षम है .कुछ के पास जातिगत वोट है तो कुछ के पास परम्परागत या आनुवांशिक समर्थक .ये निष्ठाजिवी होने के कारण किसी भी निंदा -आलोचना के अयोग्य हैं .वे एक दुसरे की सीमाओं को जानते हैं और बहुत कम प्रतिस्पर्धी हैं .इसीलिए वे प्रायः मिल -जुल कर अस्तित्व में बने रहते हैं .क्योंकि उन्हें किसी क्रांति द्वारा सत्ता च्युत होने का तात्कालिक भय भी नहीं है,इसलिए वे बिना कोई रन बनाए पिच पर बने रहने की दृष्टि से पारंगत हो गए हैं .
       जातिवाद,सम्प्रदायवाद की जो अवरोधक मशीनरी ब्रिटिश सत्ता ने अपनी सुरक्षा के लिए विकसित की थी आज वह आजाद भारत के नेताओं के लिए भी सुरक्षा के कम आ रही है .राष्ट्रवाद की भावना का लोप हो रहा है और बाजारवाद हावी हो रहा है  लेकिन भारतीय राजनीति आज भी परिवारवाद से आगे नहीं बढ़ पाई है .उसे पेशेवर होने और अपनी सेवा पर आधारित होने में समय लगेगा .एक सभ्य समाज की स्थापना करने के रचनात्मक प्रयास हम भारतीयों में नहीं दीखते .इसका नेतृत्त्व अपने नाकारेपन के बावजूद भी स्वयं को सुरक्षित और अप्रभावित समझता है .
         उस पीड़ित लड़की की म्रत्यु भारतीय समाज और सत्ता के लिए शर्मनाक है .हम भारतीय दुर्घटनाओं और अपराधों के घटित होने की प्रतीक्षा करते रहते हैं उन अपराधियों की वहशी उत्तेजना के पीछे कोई अश्लील सी.दी. या फिर इंटरनेट भी हो सकता है सम्भव है कि विडियो कोच में यह सुविधा रही हो .फ़िलहाल उस अपराध को भी भारतीय नागरिकों  के बड़े समुदाय के घटिया स्तर की अभिव्यक्ति के रूप में देखना होगा .यह भी अध्ययन का विषय हो सकता है कि क्या वे सभी इतने आवारा थे कि भारी अवसाद में थे की उनकी कभी शादी ही इस सामाजिक व्यवस्था में नहीं होनी थी .यह अपराध उनके लिए एक प्रतिक्रियात्मक आत्महत्या की तरह है .ऐसे निरस्त और उजड़े असामान्य व्यक्तित्व समाज में अकेले ही तो नहीं हैं .विदेशी बाजार जो अश्लील फ़िल्में उपलब्ध करा रहा है ,वः भी इस तरह की आपराधिक प्रेरणाएँ दे सकता है .स्त्री को एक व्यक्तित्व के रूप में न देख कर देह के रूप में देखने दिखाने का बाजार एक अदृश्य खलनायक हो सकता है .इसके बाद इस तरह के पागलों से बचने के लिए अलग से व्यवस्था विकसित करनी होगी.
           मेरी दृष्टि में तत्काल जो किया जा सकता है ,कि भारत सरकार दिल्ली में महिला चालकों और परिचालकों से संचालित बसें और 
महिला चालकों द्वारा संचालित टैक्सियाँ चलवाए . निश्चित जगहों पर ही जहाँ बसें और टैक्सियाँ रुकें वहां पर कैमरों से रिकार्डिंग की व्यवस्था हो .बसों-टैक्सियों पर बगल में नम्बर लिखने की अधिसूचना तत्काल जरी हो.इससे रिकार्डिंग में बसों-तक्सियों के नंबर भी रिकार्ड हो सकेंगे .एम्बुलेंस की तरह ही आपात महिला-सेवा वाहन भी पुलिस थानों में हों और उनके नंबर जगह-जगह प्रदर्शित हों.
    

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

विचारधारा और मानवीय समाज

अधिकांश विचारधाराएँ वर्तमान व्यवस्था की अपर्याप्तता का अतिक्रमण करने और मनुष्य की भविष्योन्मुख सृजनशीलता तथा उसकी प्रत्याशी कल्पनाशीलता का परिणाम हैं..विचारधाराओं के निर्माण की तात्कालिक परिस्थिति और उनके लोकप्रिय होने की समकालीन मानवीय आवश्यकताओं को देखें तो किसी भी यूटोपिया के ऐतिहासिक आधार को समझा जा सकता है .क्योंकि हर विचारधारा का अपना देशकाल और अपेक्षाओं-इच्छाओं का अपना मानवीय पर्यावरण होता है ,इस लिए जब दूसरी पारिस्थितिकी और समय में उसे पूरी तरह सही मानकर जीने का प्रयास करते हैं तो जीवन या तो पिछड़ता है या फिर विकृत होता है.ऐसी विचारधाराएँ असुविधा,गतिरोध और तनाव पैदा कराती हैं . क्योंकि अधिकांश विचारधाराएँ और यूटोपिया अपने निर्माण के समय की वास्तविकताओं की प्रतिक्रिया में ही जन्म लेते हैं ,लेकिन उनके अनुयायी और प्रशंसक उन्हें सार्वभौम और सर्वकालिक मन लेते हैं.इस समझ के अभाव में किसी यूटोपिया या विचारधारा के साइड -इफेक्ट का चिंतन नहीं हो पाता.इस तरह हर यूटोपिया में मानवीय पर्यावरण के विनाश के कुछ खतरे हो सकते हैं..
             वस्तुतः सभ्यता के बहुत से आयाम हैं और हो सकते हैं .इसी तरह व्यवस्था -चिंतन के भी  बहुत से आयाम हो सकते हैं.शासन-सत्ता का स्वरूप ,उसकी प्राथमिकताएं और नियम,नागरिकों या शासितों के अधिकार या नियम आदि व्यवस्था-चिंतन करने वाली विचार-धाराओं के मुख्या-विषय रहें हैं . इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कोई भी विचारधारा तकनीक और विज्ञानं की व्यावहारिक प्राथमिकताओं को ही प्रभावित कर सकती है ,उसकी ज्ञानात्मक सैद्धांतिकी को नहीं .
    व्यापक लोकप्रियता और संस्कारगत मानवीय उपस्थिति के कारण विचारधाराए प्रायःअतीतजीविताको बढावा ही देती हैं.सामजिक अनुकरणशीलता में पुनरुत्पादित होने के कारण वे अतीतोंमुखी समाज की रचना भी करती हैं इसी लिए आधुनिक होना सदैव नया होना ही नहीं होता ,न ही आधुनिक सभ्यता से आशय पूरी तरह वर्तमान की अद्यतन सभ्यता ही है .दरअसल हम जाने -अनजाने यथार्थ का कालान्तरणकर रहे हैं -प्राचीन को आधुनिक बना रहे हैं .अतीत और वर्तमान दोनों ही एक साथ उपस्थित हैं .वस्तुतः आधुनिक और वर्तमान में फर्क है .विडम्बना याह है की जो वर्तमान है वह आधुनिक नहीं है और जो आधुनिक है वह वर्तमान नहीं है .आज का वर्तमान इतिहासग्रस्त है .अतीत का पुनरुत्पादन किया जा रहा है .इसी तरह हमारी सामूहिक जीवन अथवा सभ्यता की यात्रा वांछित-अवांछित,सुनियोजित-अनियोजित भविष्य के साथ,भविष्य की ओर हो रही है .
             इस  दृष्टि से जब वर्तमान को देखता हूँ तो पता हूँ कि अलग मानसिकता और संस्कृति के कारण समाज में ऐच्छिक विक्षोभ का भी अलग-अलग स्तर दिखता है .कम इच्छाएँ विकास की इच्छा और आवश्यकताओं के बोध को सीमित कराती हैं .इस लिए जब  कोई विचारधारा मानव-इच्छाओं को प्रेरित-प्रभावित कराती है तो वह मानवीय पर्यावरण और आविष्कारों को भी प्रभावित करने की स्थिति में होती है -चाहे वह गांधीवाद ही क्यों न हो .उदहारण के लिए देंखे तो गांधीवाद  पूंजीवाद को नैतिक और मानवीय बनता है .बनाने की अपील करता है .वह कुछ अधिक विश्वासी है .जबकि मार्क्सवाद एक नकारात्मक नियामक है और वह मनुष्य को असभ्य ,अनैतिक और अमानवीय बनाने का अवसर ही नहीं देता .मानव -मनोविज्ञान की दृष्टि से दोनों की ही आलोचना की जा सकती है .गांधीवाद का तरीका मानव-इच्छाओं की निगरानी करने का है .व्यक्ति की इच्छाओं को अनुशासित और परिसीमित करने के कारण गांधीवाद जिस मनुष्य को निर्मित करेगा वह नैतिक दृष्टि से सज्जन और भद्र पुरुष तो होगा लेकिन उसमे सृजनशीलता की कल्पनाशक्ति कुण्ठित हो सकती है .बहुत प्रभावी होने पर वह बहुत सी तकनीकों और आविष्कारों को हतोत्साहित कर सकता है .
               इसके विपरीत मार्क्सवादी विचारधारा के आधार पर निर्मित व्यवस्था की अयोग्यता भिन्न प्रकार की होगी .वह पूंजी की उन्मुक्त और निर्बाध सृजनशीलता के अधिकार को सीमित करना चाहता है इस तरह वह अभिप्रेरणा के स्तर पर सृजनशीलता के आनंद को कुण्ठित करता है . इस दृष्टि से मार्क्सवाद नकारात्मक है .
सामूहिकता में चलने -चलाने की उसकी इच्छा की तुलना परेड में चलने से की जा सकती है .वह कदमताल को अधिक महत्व देता है .
                 मार्क्सवाद में से दमन ,अविश्वास और तानाशाही को निकालकर उसमे पूंजी -निर्माण की सामूहिक और सकारात्मक सृजनशीलता को बल देने वाली व्यवस्था लाईजा सकती है .मार्क्सवाद को लेकर एक और समस्या यह है कि नियामक विचारधारा होने के कारण मार्क्सवाद संवादी नहीं है .उसकी सैद्धांतिकी बाजार और मुद्रा दोनों को ही व्यर्थ और ध्वस्त कराती है .बाजार के पास मांग और पूर्ति का सटीक सूचनातंत्र तो होता है ,किन्तु मानवीय संवेदना और नैतिक चेतना विभाजित और वर्ग-आधारित होता है.नए मार्क्सवाद को मार्क्सवाद की नैतिक चेतना और संवेदना के साथ बाजार से संवादी होना भी सीखना होगा .क्योंकि बाजार मानवजाति की सृजनशीलता का सर्वोत्तम संग्रहालय भी है .

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

प्रतिरोध में ब्राह्मणवाद! और समय के कैंसर



प्रतिरोध में ब्राह्मणवाद ! 


अभी मैं आगरा-मथुरा के पर्यटन से लौटा हूँ
और हतप्रभ रह गया
ब्राह्मणवाद की ताकत प्रतिरोध और आजीविका की शैली देखकर
क्या अदा है ब्राह्मणवाद के चुपचाप दुनिया जीतने की
इनसे तो सीखना चाहिए मार्क्सवादियों को भी .....

वे एक पुराने राजा की प्रशंसात्मक स्मृति से
समय के राजा  को अप्रतिष्ठित कर देते हैं
अपने गगनचुम्बी किले में बैठा हुआ झींकता रहता है राजा
करता रहता है ईर्ष्या अतीत के सम्मानित राजा से
बीते ज़माने का राजा जो समय में न होते हुए भी
हर पल के मानवीय समय में है
उसे देता हुआ मानक श्रेष्ठता की चुनौतियां

गया राजा जिसने एक जातिके पुरखों को खुश कर दिया था
और जिसकी कृतज्ञता में
आज भी उसके गुणगान में लगे हैं जाति-विशेष के वंशज

समय के राजा का किला
अपने समय के आसमान को जीतने के बाद
अपने अभूतपूर्व होने के घमण्ड की मांग के बावजूद उपेक्षित खड़ा है
समय के दरबार के समानान्तर
जनस्वीकृति की शक्ति से खड़ा है एक और दरबार
स्मृतिलोक के अप्रतिम शासक के सम्मान में स्तुतिगान करता हुआ

एक सामूहिक जीवन-समय
अपनी रूचि पसंद और स्वीकार की कसौटी पर
समय की वास्तविक विजेता शक्तियों को
मनोवैज्ञानिक स्वतंत्रता के साथ अस्वीकार कर रहा है

यह एक अहँकार रहित होकर
भिक्षाटन से आजीविका अर्जित करने वाली
अपनी जातीय श्रेष्ठता की अभिमानी जाति का प्रतिरोध है
 जिसकी विजयों और युद्ध-नीति के बारे में
कितना कम जानते हैं हम और आप !

जो अपने समुदाय के अधिकृत योद्धाओं के पराजित होने के बाद भी
बिना हारे लड़ती और जीतती आई है
अहंकार रहित हारी हुई सी  दिखने के बावजूद
एक बड़े समुदाय के मानस-लोक पर
चुपचाप राज करती हुई

समय के नापसंद राजा के समानान्तर
अतीत से खोज कर लाती हुई
मनोलोक के राजा का चरित और सौन्दर्य .....

व्यभिचार की स्वतंत्रता के अराजक सामंती समय में
अपनी एक ही पत्नी के लिए कुण्ठित क्यों होते हो जन-भाई
समय के राजा के पास तो मात्र तीन-चार ही रानियाँ हैं
अनुकरण मत करो
क्योंकि अनुकरण किया ही नहीं जा सकता
मनोलोक के अतुलनीय एवं कालातीत लीलापुरुष का
उसके पास सोलह हजार रानियाँ हैं जो समय के राजा के बस की बात नहीं ....

एक पूरी जाति का गप्पी सृजन-तंत्र
समय की वास्तविकताओं के बहिष्कार और अस्वीकार में लगा हुआ है
लोक के स्मृतितंत्र पर सुनियोजित और संगठित वर्चस्व के साथ
गाते हुए समय को भजती और भाजती हुई  -राधे-राधे -राधे ....


समय के कैंसर 

जब हम एक जगह किसी मानवीय भूमिका में उपस्थिति होते हैं तो
उसी समय किसी अन्य मानवीय भूमिका के लिए
सामाजिक रूप से अनुपस्थित भी होते हैं
जब हम बन जाते हैं व्यवस्था के एक हिस्से के पुर्जे
दूसरे हिस्सों के लिए होते जाते हैं असंगत

कोई भी सर्वव्यापी नहीं हो सकता
एक व्यक्ति के रूप में
लेकिन प्रभाव के रूप में हो सकता है
उन संगठनो के कारण
जो एक व्यक्ति के विवेक कोसभी का विवेक बना देते हैं

होते हैं जिनके पास अपने ही समय के बंधुआ मस्तिष्क
और जो महानता की ओट में शर्मनाक ढंग से
दूसरों के लिए सोचते हैं
और बन जाते हैं समय के कैंसर


ज्ञान भी एक सम्पदा है 

सब कुछ बाँट देने के बाद भी
बचा रह जाएगा जिसे देकर भी दिया नहीं जा सकेगा
रह जाएगा अपने भीतर
अपनी निजी समझदारी के रूप में
जो एक भिन्न यात्रा से आई होगी और ले जाएगी अलग राह
जो एक अलग अनुभव की पृष्ठभूमि पर
पुष्पित और पल्लवित करेगी जीवन को...
यह ठीक है  किहम अपनी रुचियाँ और स्वभाव के लिए होते हैं जिम्मेदार स्वयं ही
और उसे किसी से भी साझा नहीं कर सकते

सब कुछ बराबर कर देने के बावजूद
रह जाएगा कुछ विषम -विसंगत
और यह सोचना कि
जो कुछ है अपने पास उसे दिया भी जाय या नही
ज्ञान जो परमाणु बम बनाने की प्राविधि के रूप में भी हो सकता है
और दुरुपर्योग किएजा सकने वाले अधिकार के रूप में भी

ज्ञान एक शक्ति है
इसी लिए सुरक्षा के लिए
स्वभाव और चरित्र मागती है