शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

ज्ञानरंजन की कहानियां : सभ्यता-समीक्षा का काव्यात्मक विमर्श

 पाखी के ज्ञानरंजन अंक सितम्बर 2012 में प्रकाशित 

ज्ञानरंजन की अधिकांश कहानियों के पाठकीय अनुभव की तुलना शाम को बाजार या पिफर किसी मेले में द्घूमने से भी की जा सकती है। बाजार द्घूमने गया व्यक्ति कब मेला या बाजार देखने लगेगा और कब कुछ खरीदने लगेगा-कहा ही नहीं जा सकता। उनकी 'पिता' कहानी को ही लें तो पिता तक पहुँचने से पहले, और अंत तक भी पाठक यह अनुमान लगाने में असमर्थ ही रहता है कि कहानी के पिता ने ऐसा क्या किया होगा जो कहानी के नायक बने। ज्ञानरंजन का कहानीकार अपने पाठकों की इस प्रत्याशा से भी सृजनात्मक चुहल या शरारत करता है। कहानी के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते कहानी के पिता पाठकों से अपना नायकत्व स्वीकार करवा ही लेते हैं।


ज्ञानरंजन की कहानियाँ : 

सभ्यता-समीक्षा का काव्यात्मक विमर्श

                                                           रामप्रकाश कुशवाहा 

हिंदी में ज्ञानरंजन जीवन-विमर्श की कहानियाँ लिखने वाले अनूठे एवं संभवतः अकेले कथाकार हैं। उनकी कहानियाँ बाहरी दुनिया की द्घटनाओं के वर्णन से नहीं, बल्कि एक आम व्यक्ति के एकान्त और मौन मानसिक साक्षात्कार की मुद्रा में, मानवीय अनुभूतियों और संवेदनशील अनुभवों के लयात्मक प्रतिसंसार के साथ, आत्मसंवाद और आत्मसाक्षात्कार के शिल्प में बुनी गयी हैं। ज्ञानरंजन अपने पहले के, अपनी पीढ़ी के और परवर्ती पीढ़ी के प्रसि( कहानीकारों के बीच सबसे अधिक समाज मनोवैज्ञानिक विश्लेषक अन्तर्दृष्टि से संपन्न कहानीकार हैं। उनकी कहानियों के शीर्षक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा मनोविकारों पर लिखे गए निबंधों की याद दिलाते हैं, यह याद उनकी सूक्ष्म और विश्वसनीय मौलिक समझ के लिए भी आती है। हास्य रस, अनुभव और संबंध आदि कुछ ऐसे ही शीर्षक हैं। ज्ञानरंजन आधुनिक युग के मनुष्य के लिए नई जीवन-दृष्टि और मौलिक सूक्तियों के सर्जक कहानीकार हैं। वे अपनी कहानियों में जिस तरह बहुस्तरीय समाज के परस्पर विरोधी यथार्थ और जीवन-दृष्टियों से खेलते और उन्हें खोलते हैं, वह संवेदना और समझदारी दोनों ही स्तरों पर मानसिक मुक्ति का रोचक वृत्तान्त द्घटित करती हैं। उनकी सभी कहानियाँ अपने पाठकों को मोहभंग की चेतना और चेतावनी की समझदारी से गुजारती हैं। कुछ ऐसे कि जैसे वे अपने पाठकों को दुनियादारी के प्रति अधिक समझदार बनाने के मिशन का एक हिस्सा हैं। वे किसी भी तरह से बेवकूपफ बनाए जाने के विरु( रचनात्मक नपफरत से भरी हैं। उनकी कहानियाँ जहाँ एक ओर आधुनिकता की दृष्टि से जड़ता की मानवीय वृत्तियों एवं दुर्बलताओं का अनुसन्धानपरक लेखा प्रस्तुत करती हैं, तो दूसरी ओर आधुनिकता में निहित मानवीय पर्यावरण के विनाश और विस्थापन के संभावित खतरों के प्रति भी निर्मम चेतावनी जारी करती हैं। समझदार एवं दार्शनिक व्यंग्य ज्ञानरंजन की सभी कहानियों की अनिवार्य विशेषता हैं। वे प्रगीतात्मक आत्माभिव्यक्ति की शैली के कहानीकार हैं। प्रथम पुरुष की कथात्मक मुद्रा का शिल्प उनकी कहानियों को विश्वसनीय तो बनाता ही है,वह उनकी उस विचारशीलता के निवेश के लिए भी स्वाभाविक रूप से अधिक अवसर उपलब्ध कराता है जो उनकी कहानियों का मुख्य गुण है। ज्ञानरंजन की कहानियाँ परम्परागत अर्थों में कहानियाँ हैं भी नहीं। कथानक की दृष्टि से देखें तो कई कहानियाँ किसी बड़ी कहानी की भूमिका लगती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि अभी पात्रा-परिचय चल रहा है और कहानी आगे अभी द्घटेगी कि सहसा कहानी खत्म हो जाने की सूचना देने वाला पृष्ठ आ जाता है। पाठक पिफर पलटकर कहानी के बारे में सोचने लगता है और पाता है कि इस मुद्दे पर तो कुछ बचा ही नहीं और संतुष्ट होकर उनकी कहानियों से मिलने वाले पाठकीय अनुभव को जीवन भर नहीं भूल पाता। उनकी कोई भी कहानी द्घटनाओं में याद नहीं रहती, बल्कि प्रभावों में याद रहती है। इस तरह ज्ञानरंजन की कहानियाँ जीवन को जानने-समझने के उपक्रम में ही संपन्न होती हैं। वे जीवन से साक्षात्कार की मानसिक यात्राा हैं। वे कथानक के पात्राों में द्घटित नहीं होतीें बल्कि पूरी ईमानदारी के साथ लेखक के भीतर द्घटित होती हैं। उदाहरण के लिए अन्य कहानीकार जहाँ चरित्राों का चित्राण करते हैं, वहाँ ज्ञानरंजन की कहानियाँ पात्राों-चरित्राों के बारे में लेखक की समझदारी या अभिमत का चित्राण करती हैं। इस तरह ज्ञानरंजन की कहानियाँ जीवन के साक्षात्कार की कहानियाँ हैं। मुझे नहीं लगता कि किसी अन्य कहानीकार ने कहानी के इस रूप में भी होने की परिकल्पना की है। कमलेश्वर अपने बनाए नई कहानी के सूत्राों पर ही रीझे और खोए रहे। यद्यपि उन्होंने और उनकी पीढ़ी के अन्य कहानीकारों ने कहानी को चौंकाने वाले अन्त के शिल्प से मुक्त किया। यद्यपि चौंकाने की आदत गई नहीं और वह पूरे कथानक की परिकल्पना में ही पफैल गयी या समाहित हो गयी। चौंकाने वाला शिल्प तो 'कितने पाकिस्तान' जैसे उपन्यास तक चलता रहा। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और चित्राण अज्ञेय की कहानियों में भी था। मनोवैज्ञानिक शब्दावली में कहें तो ज्ञानरंजन की कहानियाँ जीवन के प्रत्यक्षीकरण की कहानियाँ हैं। वे साक्षात्कार, विश्लेषण और समझदारी की प्रक्रिया में द्घटित होती हैं। उनकी कहानियों का आस्वाद जीवन के नए अन्वेषण और उद्द्घाटन का आस्वाद है। इन्ही विशेषताओं के कारण मुझे हिन्दी में ज्ञानरंजन जैसा कोई दूसरा कहानीकार नहीं दिखता। अपनी पूर्ववर्ती नई कहानियों से अलग उनकी कहानियाँ कहानी की बिल्कुल नई परिकल्पना की कहानियाँ हैं। ज्ञानरंजन की कहानियों को पढ़ते समय दो-तीन बातें मन में उभरती हैं। वे हिन्दी के गिने-चुने कहानीकारों में से एक हैं जिन्होंने प्रतिमान कहानियाँ लिखी हैं। अन्य महत्वपूर्ण विशेषता यह लगती है कि वे लेखकीय अनुभव के ही कथाकार नहीं हैं बल्कि लेखकीय मूड या मनःस्थिति के भी चितेरे कथाकार है। यह विशेषता हिन्दी के दो-तीन लेखकों में ही मुझे दिखाई देती है। उनके पहले मोहन राकेश, शिवप्रसाद सिंह और उनके बाद उदयप्रकाश की कहानियों में यह विशेषता मुझे दीखती है। उनकी हर कहानी एक अलग संवेदनात्मक मनःस्थिति की उपज है। यद्यपि शिवमूर्ति की कहानी 'कसाईबाड़ा', संजीव की 'अपराध' और अखिलेश की 'चिट्ठी' में भी एक विशेष संवेदनात्मक मनःस्थिति कहानी की अन्तःप्रेरणा और कथा-वस्तु के परिचालन में देखी जा सकती है, लेकिन उनकी अन्य कहानियों के कथात्मक आयाम भिन्न-भिन्न भी हैं। यह कुछ-कुछ वैसा ही अनुभव है जैसे धूप का रंग बदलने से देखे जाने वाले दृश्य का आस्वाद बदलता है। उन्हें पढ़ते हुए पाठक सिपर्फ कथ्य में ही नहीं बल्कि मूड में भी यात्राा करता है। राजकमल से प्रकाशित अपनी पुस्तक प्रतिनिधि कहानियाँ की भूमिका में इसी बात को उन्होंने कई तरह से संकेतित किया है। 'अपनी कहानियों पर चर्चा करना, उनको छाँटना और एक प्रकार से उनमें लौटना मुझे बहुत उत्साहवर्(क नहीं लगता है। वास्तव में कुछ समय के लिए भी वापस जाने की इच्छा नहीं होती। ऐसा नहीं हुआ है कि मैंने छपकर आई अपनी किसी कहानी को पढ़ा हो। छपी कहानी दिल को एकाएक रद्द कहानी लगने लगती थी। केवल एक कहानी 'संबंध' को छोड़कर, जिसे मैंने कई बार कविता की तरह पढ़ा है, शायद उसे अब भी पढ़ सकता हूँ। ...संबंध को मैंने एक सपाटे में लिखा है। 'द्घण्टा' और 'बहिर्गमन' कहानियों ने कापफी परिश्रम करवाया, लेकिन उनको लिखते वक्त मैं अपूर्व 'कॉमिकल' मनःस्थिति में था। दूसरी कहानियों में आगे या पीछे या साथ-साथ यातना थी या ठसपन या क्षोभ।' स्पष्ट है कि ज्ञानरंजन की कहानियों एवं कहानीकला की कुन्जी रचना-क्षण के उनके सृजनशील चित्त या मूड में छिपी हुई है। इसीलिए अपनी ही कहानियों को पढ़ना उनके लिए रचना-क्षण के मूड से बाहर निकल जाने के कारण कभी आसान नहीं रहा। उनकी बहुचर्चित प्रतिनिधि कहानियों को देखें तो दूसरी चीज यह सामने आती है कि उनकी हर कहानी जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर उनके वैचारिक साक्षात्कार और विशेषज्ञ समझदारी की भी उपज है। अपनी प्रायः सभी कहानियों में कहानी के अन्तरंग तक पहुँचने से पहले ज्ञानरंजन मानो उसकी भूमिका के रूप में कथानायक की मनःस्थिति,विचारों, सूचनाओं और जीवन के लम्बे-लम्बे वर्णन के गलियारों से अपने पाठकों को गुजारते हैं। जरूरी नहीं कि ये वर्णन कहानी के आरंभ में ही आएँ, वे कभी भी, कहीं भी शुरू हो सकते हैं और कभी भी खत्म। ज्ञानरंजन के ये वर्णन नाटक शुरू होने के पहले सूत्राधार के परिचयात्मक भाषण की तरह भी हो सकते हैं और मुख्य कार्यक्रम को प्रस्तुत करने में हो रहे विलम्ब से ध्यान हटाने के लिए किए जाने वाले गंभीर प्रहसनों की तरह भी, लेकिन अधिकांश में ये पृष्ठभूमि के रंग और परिवेश को ही सूक्ष्मता से उभारते हैं। कई बार तो उनके अवान्तर वर्णन और चर्चाओं में ही पाठक इतना तल्लीन हो जाता है कि उसे याद ही नहीं रहता कि वह कोई कहानी पढ़ने बैठा है और अब तक उसके सामने कहानी का कोई टुकड़ा आ जाना चाहिए था या उसके आने में अनावश्यक विलम्ब हो रहा है। ज्ञानरंजन की अधिकांश कहानियों के पाठकीय अनुभव की तुलना शाम को बाजार या पिफर किसी मेले में द्घूमने से भी की जा सकती है। बाजार द्घूमने गया व्यक्ति कब मेला या बाजार देखने लगेगा और कब कुछ खरीदने लगेगा-कहा ही नहीं जा सकता। उनकी 'पिता' कहानी को ही लें तो पिता तक पहुँचने से पहले, और अंत तक भी पाठक यह अनुमान लगाने में असमर्थ ही रहता है कि कहानी के पिता ने ऐसा क्या किया होगा जो कहानी के नायक बने। ज्ञानरंजन का कहानीकार अपने पाठकों की इस प्रत्याशा से भी सृजनात्मक चुहल या शरारत करता है। कहानी के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते कहानी के पिता पाठकों से अपना नायकत्व स्वीकार करवा ही लेते हैं। पाठक एक कभी भी न भुलाए जाने वाले पिता के कथात्मक साक्षात्कार से संतुष्ट होकर कहानी समाप्त करता है। एक कहानीकार के रूप में ज्ञानरंजन की सपफलता इसमें है कि कहानी जिन्दगी के एक भोगे और जिए जा रहे क्षण की अनुभूतियों और पात्राों की सारी मानसिक प्रक्रियाओं तथा यथार्थ के साथ पाठक में भी संचरित-संक्रमित-संप्रेषित हो जाती है। ज्ञानरंजन की इस रचना-प्रक्रिया का रहस्य प्रायः उनकी सभी कहानियों के कविता होने में छिपा है। एक तरह से उनकी कहानियाँ समकालीन मनुष्य के अंतर्जगत की सेंधमारी से उत्पन्न हुई हैं, जिसे परंपरागत आध्यात्मिक शब्दावली में परकाया प्रवेश कहते हैं। यद्यपि भूमिका में उन्होंने सिपर्फ 'संबंध' कहानी का ही कविता होना स्वीकार किया है और लिखा भी है कि केवल एक कहानी 'संबंध' को छोड़कर, जिसे मैंने कई बार कविता की तरह पढ़ा है, शायद उसे अभी भी पढ़ सकता हूँ। किसी वास्तविक कहानी की रचना के पीछे कभी-कभी यह भी हुआ है कि एक कविता ने उसका निर्माण कर दिया। ज्ञानरंजन की कहानियों को जो चीज महत्वपूर्ण बनाती है, वह है जीवन और यथार्थ को देखने-समझने की उनकी बहुआयामी समझदारी, अभिव्यक्ति और विश्लेषण की सजग-स्वतंत्राता-यहाँ तक कि परस्पर विरोधी मानवीय सच्चाइयों को भी एक साथ देखने-समझने की क्षमता भी। वे समाज मनोवैज्ञानिक नजरिए से दृष्टिसंपन्न कथाकार हैं। उन्होंने अपनी कम ही कहानियों में अपनी निजी और मौलिक सूक्ष्म निरीक्षण-शक्ति और जीवनानुभवों को पूरी ताकत से झोंक दिया है। उनके पात्रा और कथानक इसी निवेश के बहाने बन गए हैं। उनकी इस विशेषता को समझने के लिए उनकी 'रचना-प्रक्रिया 'शीर्षक कहानी को देखा जा सकता है। यह कहानी युवक-युवती के प्रेम पर और उसके प्रति आम सामाजिक व्यवहार और दृष्टिकोण पर व्यापक समाज मनोवैज्ञानिक ब्यौरे और तथ्य सामने लाती है। कहानी सबसे पहले शहर की जनसंख्या और प्रेम के चरित्रा के बदलते स्वरूप और आनुपातिक रिश्ते बतलाती है। 'जनसंख्या न सिपर्फ प्रेम का विकल्प देती है, बल्कि अव्यवस्था और उपलब्धता के बीच वर्जनाओं के अनुशासन से आजादी भी। प्रेमी भी एक बड़ी भीड़ के बीच किसी पागल की तरह एक सामान्य उपस्थिति के रूप में द्घटित हो सकता है।' 'पहले प्रेम के पीछे कुरबानी भी बहुत होती थी, पर अब ऐसा नहीं के बराबर है, क्योंकि एक प्रेम चला जाता है तो दूसरा तुरन्त उपस्थित हो जाता है। और 'ऐसी जगहों में अगर कोई लड़की किसी को अपना सतीत्व सौंपना चाहे या सौंप दे तो दूसरे अलसेट नहीं देंगे क्योंकि जनसंख्या ज्यादा होती है।' ;वही, पृ. ४१द्ध 'छोटे शहर में यह नहीं हो सकता। इसके लिए भीड़ और जनसंख्या जरूरी है।' ;वही, पृ. ५०द्ध यद्यपि यह आजादी सामन्ती मूल्यों वाले भारतीय समाज की सीमा समाप्त हो जाने के कारण ही शहरों में मिलती है, लेकिन लेखक पाता है कि छोटे शहरों में सामन्ती ग्रामीण समाज का शहरी जीवन में भी नियन्त्राण और हस्तक्षेप बना रहता है। इसीलिए बड़ी जनसंख्या वाले शहर का जीवन प्रेम का सामन्ती वर्जनाओं से मुक्त उत्सव बना पाता है। ज्ञानरंजन की यह कहानी इसी उत्सव का रेखांकन प्रस्तुत करती है। ज्ञानरंजन की 'रचना-प्रक्रिया' कहानी बहुत चुपके से एक स्त्राी होने के ग्लैमर के पीछे सामान्य प्राकृतिक जैविक वजूद का मोहभंग होने के स्तर तक रेखांकन करती चलती है-'मैंने कभी उसे उंगली डालकर नाक सापफ करते नहीं देखा और न जंद्घों के बीच साड़ी खोंसते। मैं समझता हूँ उसे कब्ज भी नहीं रहता था।' ;वही, पृ.४७द्ध यह कहानी प्रेम-भावना के बौ(कि, मानसिक और शारीरिक सभी आयामों, भंगिमाओं और हश्र को पाठकों के सामने जिंदगी की समझदारी के रूप में रख देती है-'बड़े शहर की लड़की चिंतन-मनन करने वाली होती है और देह में सौंदर्य दिमाग की मापर्फत आता है।' ;वही, पृ.४८द्ध ज्ञानरंजन की नजर वहाँ तक जाती है, जहाँ प्रेम के प्रति वर्जनाएँ और प्रतिरोध उसे ;कथानायक के 'मैं' के रूप में युवा पीढ़ी कोद्ध उकसाने वाले क्रान्तिकारी लक्ष्य में बदल देते हैं। जहाँ प्रेम एक विशु( परिद्घटना न रहकर चिढ़े हुए युवा जीवन का एक रोमांचक लक्ष्य बन जाता है। गौण होते हुए भी मुख्य एवं निर्णायक जीवन-लक्ष्य का रूप लेते हुए। यह प्रेम के मनोविज्ञान का एक रिवर्स है, जिस पर ज्ञानरंजन की यह कहानी ध्यान दिलाती है। ज्ञानरंजन की 'संबंध' सिपर्फ उनकी ही नहीं बल्कि हिन्दी और विश्व-साहित्य की भी ऐसी कहानी है जिसे एक बार पढ़ने के बाद शायद ही कोई भूल पाए। यह कहानी रात के अंधेरे से सुबह के उजाले तक एककालिक यात्राा के शिल्प में सृजित हुई है। ज्ञानरंजन की यह कहानी अपने बहुस्तरीय कलात्मक शिल्प, मनोवैज्ञानिक वातावरण और रचनात्मक चुनौती की दृष्टि से अत्यंत ही महत्वपूर्ण कहानी है। इसके सभी पात्रा अपनी सामान्य एवं प्रत्यक्ष कथात्मक उपस्थिति के साथ-साथ अलग काव्यात्मक प्रयोजन तथा प्रतीकात्मक दार्शनिक निष्पत्ति भी रखते हैं। कहानी के मुख्य या कथावाचक पात्रा जो अपने समय का असंतुष्ट और निर्मम भाष्यकार है और सारी कहानी उसकी ही मानसिकता और टिप्पणियों के माध्यम से समय का विमर्श और साक्षात्कार प्रस्तुत करती चलती है, लेकिन एक बड़े कहानीकार के रूप में ज्ञानरंजन की सजगता और सपफलता यह है कि माँ के रूप मे स्वस्थ और आदर्श मानवीय संबंधों का संवेदनात्मक नेपथ्य बनाए रखते हैं। माँ सभ्यता के एक सुरक्षित पाठ की तरह है, जो अस्तित्व के विरु( सारी नकारात्मकताओं और साजिशों का निषेध है। वह जिंदगी के पक्ष में निर्णायक, अन्तहीन और अपराजेय संद्घर्ष की प्रतीक है। जीवन की नकारात्मकताओं और निषेध से आक्रान्त कथावाचक मुख्य पात्रा 'मैं' समय के अंधेरे के व्यंग्यात्मक अधिवक्ता के रूप में इस कहानी का भाषित होना संभव करता है। बेरोजगार भाई जो व्यवस्था की क्रूरता का मुख्य शिकार तथा जीवन के प्रति तमाम दुःस्वप्नों और आशंकाओं का मुख्य सूत्राधार है, कहानी के अन्त में स्वस्थ जिजीविषा और सक्रियता के प्रकाशमान प्रतीक के रूप में लौटता है। सामाजिक वास्तविकताओं के आधार पर इस कहानी का विश्लेषण करें तो यह कहानी आर्थिक तंगी में गुजरते मध्यवर्ग के करोड़ों परिवारों की जीवन-त्राासदी और सच्चाई छिपाए हुए है। यह अमानवीय होती व्यवस्था से कुचलते हुए मृत्यु के कगार पर जा पहुँचे परिवारों पर लिखी गई एक संवेदनाधर्मी महाकाव्यात्मक कहानी है। हिन्दी में भी ऐसी कहानी लिखी गई है, इसे पढ़कर आश्चर्य ही होता है। प्रेमचन्द की प्रसि( कहानी 'कपफन' की तरह यह भी व्यवस्था के संपूर्ण अमानवीकरण और संपूर्ण मोहभंग की कहानी है। त्राासद यथार्थ का आरेखन इस कहानी में क्रूर, आपराधिक और हत्यारी विचारशीलता के सहारे किया गया है। यह कहानी करुणा या दया-मृत्यु के लिए लिखी गई याचिका की तरह है-'दरअसल मैं तपाक से, अपने भाई के बारे में यह सोचने पर मजबूर हो गया कि उस बेचारे को मर ही जाना चाहिए। मैं नहीं जानता कि इस खयाल की मैंने चुपचाप खोज की हो। हो सकता है इसमें कुछ दया-भाव हो लेकिन हकीकत यह है कि मैं कापफी देर बाद भी यही चाहता रहा कि वह आत्महत्या कर ले और एक बहुत ही द्घिसटती हुई निर्मम समस्या का समाधान हो जाए।' ;प्रतिनिधि कहानियाँ, पृ.७५द्ध यह कहानी एक विस्पफोटक और झिंझोड़ देने वाले संवेदनात्मक साक्षात्कार और जीवन-पीड़ा का साक्षात्कार कराती है। कथा-भाषा की सृजनशीलता अपने चरम पर है। यह एक चिढ़ी हुई, प्रतिक्रियात्मक और निर्णायक भाषा है। गहरी द्घृणा की संवेदना और विद्रोही मानसिकता से निकली हुई भाषा। इसी रूप में यह एक क्रान्तिकारी कहानी है-'इतना मैं अवश्य जानता हूँ कि भाई की मृत्यु अगर हो गई तो निश्चितरुपेण मेरा गणित ठीक उतरेगा और यह समझा जा सकेगा कि वाकई मृत्यु से सबको पफायदा हुआ है।' ;प्रतिनिधि कहानियाँ, पृ.७७द्ध जीवन एक अवांछित उत्पाद की तरह है और पूंजीवादी व्यवस्था की निरंकुश संवेदनहीनता उसके साथ पूरी तरह अवैध होने जैसा व्यवहार करती है। दुःस्वप्न और आशंकाओं की संवेदनात्मक मनोभूमि पर सृजित इस कहानी का सुखद अंत जीवन के स्वीकार का प्रतीक है। रात को आत्महत्या कर लेने की समस्त आशंकाओं को झुठलाते हुए भाई का सुबह व्यायाम करते पाया जाना ज्ञानरंजन के कहानीकार को पूर्ववर्ती नई कहानी के भाष्यकारों-कहानीकारों की चरमोत्कर्ष तथा निष्कर्षविहीन कहानी लिखने की परंपरा को न सिपर्फ झुठलाने की सूचना देता है, बल्कि साठोत्तरी पीढ़ी को कुंठा काल का रचनाकार होने की आमधारणा को भी खारिज करता है। अपने समय में ज्ञानरंजन की कहानियाँ प्रतिरोध और अतिक्रमण का विमर्श रचती है। जाहिर है यह प्रतिरोध अपने अमानवीय समय के अस्वीकार और अतिक्रमण से ही निर्मित हुआ है। आत्महत्या जैसे शास्त्रा-निन्दित पापकर्म को मानव-अस्तित्व के स्वाभिमान और मुक्ति के सम्मानजनक प्रतीक के रूप में चित्रिात करना इस कहानी को व्यवस्था के विरु( द्घृणा की भीषण और चरमान्तक व्यंग्य-अभिव्यक्ति में बदल देता है । 'पिता' कहानी मुझे मध्यवर्गीय परिवार में दो अलग-अलग पीढ़ियों की जीवन-दृष्टि और मानसिकता में हो रही रोमांचक मुठभेड़ लगती है। यहाँ सिपर्फ मध्य-वर्ग ही नहीं है बल्कि मध्य-युग भी है-'अपनी परंपराओं और मूल्यों के साथ एक संस्कृति के वाहक अभिभावक के रूप में। आधुनिकता में पले-बढ़े बेटे उसे समझ नहीं पाते क्योंकि पिता अपने पिता की स्मृतियों से परिचालित बोध और कर्तव्य बोध को जी रहा है। वह एक युगों से चली आ रही सांस्कृतिक परंपरा का संविधान जीने वाला पिता है। कहानीकार उसके कष्टों का इस प्रकार वर्णन करता है जैसे बाइबिल में यीशु मसीह का पकड़े जाने और क्रूस पर चढ़ने वाले दिन के पूर्व रात्रिा का किया गया है। पिता का स्वाभिमान और यातना दोनों ही परंपराओं की भव्य विरासत को जीवन-मूल्य के रूप में जीने के प्रयास में शहीद हो रहे एक पिता की यातना है। यह कहानी वृ(ों एवं अभिभावकों के प्रति एक करुणामय प्रेम और श्र(ा उपजाती है। अगली पीढ़ी को स्वयं कष्ट सहकर भी सुख सौंपने की वह अमूल्य विरासत भी सौंपती है जो प्रतिदान और उआँण होने को असंभव करती है। जहाँ पिता का किया हुआ पिता को लौटाया नहीं जा सकता, बल्कि उसे अगली पीढ़ी को ही देकर न दे पाने की अतृप्ति एवं मनोग्रन्थि से मुक्ति पाई जा सकती है। अपनी 'यात्राा' कहानी के बारे में स्वयं ज्ञानरंजन नें कहा है कि ''यात्राा में वह व्यक्ति, जो मृत्यु को आमने-सामने खड़ा होकर देखता है, एक संपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में प्रकाशित हुआ है। मेरी यह कहानी उतना ध्यान आकर्षित नहीं कर पाई, जितना होता तो अच्छा था।' इस वक्तव्य में 'संपूर्ण व्यक्तित्व' के स्थान पर 'संपूर्ण व्यवहार' शब्द का प्रयोग होता तो बात अधिक स्पष्ट हो सकती थी। हुआ यह है कि ज्ञानरंजन ने सृजनात्मक श्रम के साथ मृत्यु के बाद होने वाले हर तरह के मानव-व्यवहार को एक ही चरित्रा में डाल दिया है। इसका एक ही चरित्रा अनेक प्रकार की मानसिकता को जीता और उससे गुजरता है, जबकि वास्तविक दुनिया में अनेक और प्रायः अलग-अलग व्यक्ति इस कहानी में व्यक्त किसी एक मानसिकता से गुजरते हैं। जीवन में हम देखते हैं कि बहुत रागात्मक जुड़ाव एवं दुख पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु भी करा सकते हैं। मृतक के प्रति अतिशय लगाव की स्थिति में ऐसा हो सकता है। दूसरी स्थिति यह होती है कि मृतक के प्रति द्घृणा या लगाव का अभाव उसे मानसिक स्तर पर भीतर से दुखी होने से रोके। यदि दुख में या शोक में होने के अवसर पर कोई सामान्य या स्वस्थ बना रहता है तो समाज की पारंपरिक अपेक्षाएँ उससे शोक में बने रहने का अभिनय मांगती हैं। ऐसा भी हो सकता है कि मृत्यु से दुखी व्यक्ति वास्तव में दुख जीता हुआ भी धीरे-धीरे थकता हुआ निजी जीवन जीने की ओर लौट आए। ज्ञानरंजन ने इन तीनों प्रकार की मानवीय स्थितियों को एक ही कथानायक में 'मैं' के माध्यम से व्यक्त किया है। एक ही चरित्रा की तिहरी भूमिका इस कहानी को वैश्विक स्तर पर भी एक दुर्लभतम कहानी बनाती है तो कहानी में व्यक्त कई असंब( चरित्राों का मृत्यु-चिंतन एवं तिहरी भूमिका इस कहानी के मुख्य पात्रा के कई व्यवहार एवं संवादों को अपनी अतिशयता के कारण न समझ पाने वाले पाठक की दृष्टि में अविश्वसनीय या अस्वाभाविक बनाता है। पाठक या आलोचक संभवतः एक ही पात्रा के अलग-अलग मानव-व्यवहार और मानसिकता के रचनात्मक औचित्य को ठीक से समझ नहीं पाये होंगे। प्रगतिशील आलोचकों के द्वारा इस कहानी को अस्तित्ववादी कहानी मान लिए जाने का खतरा भी था। क्योंकि ज्ञानरंजन को प्रगतिशील कहानीकार के रूप में देखने की अपरिहार्यता भी थी, इसलिए न समझ पाने के कारण चुप रहना ही उन्हें बेहतर लगा होगा, जिस उपेक्षा की ओर ज्ञानरंजन इशारा करते हैं। इस तरह ज्ञानरंजन की 'यात्राा' कहानी मृत्यु जैसे महत्वपूर्ण जीवनानुभव पर स्वस्थ जीवन के लिए गंभीर विमर्श और प्रस्तावना प्रस्तुत करती है। कहानी में दिए गए कुछ सूत्राात्मक निष्कर्ष इस कहानी की उपलब्धि और महत्व के मूल्यांकन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इन सूत्राात्मक निष्कर्षों में-'भले ही कुछ लोगों के लिए उनकी मृत्यु गंभीर बात हो लेकिन आने वाले भविष्य से इसका कोई संबंध नहीं बचा।' ;पृ. ९५द्ध 'कोई भी आनन्द के क्षणों में दुखद समाचार पसंद नहीं करता।' ;पृ. ९६द्ध तथा 'अस्तित्व की रक्षा की मानवीय क्रियाओं को कमीनगी समझना उचित नहीं है।' ;पृ. १०१द्ध आदि प्रमुख हैं। सै(ान्तिक और दार्शनिक प्रकृति की होते हुए भी ज्ञानरंजन की यह कहानी मृत्यु-प्रसंग को लेकर जीवन की सभी संभावनाओं की सृजनात्मक और वैचारिक यात्राा करती है। मानवीय शोक अंतर्मन से लेकर अभिनय तक अनेक रूप बदलता है। थका हुआ जीवन अन्ततः चुपके से अपने पास वापस लौट आता है-'थक जाना मैंने गौर किया है, हमेशा मुझे सच्चाई के निकट कर देता है।' ;पृ. ९५द्ध दुखी होना एक सामाजिक जरूरत के रूप में व्यक्ति पर कुछ प्रदर्शनात्मक व्यवहार करने की अपेक्षाएँ लादता है। यही अपेक्षाएँ ही जीवितों के लिए मृत्यु को विसंगति और विडंबना से पूर्ण बना देती हैं। मृत्यु-शोक का वर्णन करते हुए ज्ञानरंजन की यह कहानी दिलचस्प पारसी औरत, देशी गुलाब, मृतक की गर्भवती पत्नी कौमुदी, सभ्य देशों में शोक-प्रदर्शन के लिए विकसित रिवाज तथा आकाश में द्घुमड़ते बादलों की चर्चा से गुजरती हुई, जीवन की उन छोटी-छोटी वास्तविकताओं की ओर इशारा करती है, जो चाहे और या दूसरे दुःखों के विचलन के या व्यस्तता के रूप में ही क्यों न हो, जिन्दगी को सिपर्फ दुख में ही जीने की इजाजत नहीं देती-'यह खुदा की इनायत है कि चारों तरपफ की जिंदगी से कुछ न कुछ हमेशा निकल आता है। यह कुछ इतना साधारण मगर जबरदस्त होता है कि दबोचते हुए दुख को चुपचाप लतियाकर बाहर के बाहर कर देता है। संकट में मेरी सहायता दूसरी चीजें ही किया करती हैं।' ;पृ. १००द्ध समोसे, संतरे और सुन्दर स्त्रिायाँ मृत्यु-शोक में भी जीवन के नेपथ्य, आहटों और दस्तकों की सृष्टि करते हैं। यह कहानी अपने अंत में मृत्यु-चिंतन को छोड़कर जीवन जीने के पक्ष में वक्तव्य जारी करती है। मृत्यु-चिंतन और शोकाकुलता का मानवीय व्यवहार एक संवेदनशील सभ्यता के लिए आवश्यक है-'इसमें तारीपफ की बात नहीं हैं, लेकिन तुम छोटे से अज्ञात महात्मा हो। केवल भावुक होकर अवकाश, शहर और पत्नी के लिए तुम सैकड़ों मील से चले आ रहे हो।' ;पृ. १०२द्ध तथा 'यहाँ पहुँचकर मेरे रोने और खुश होने के बीच पफर्क समाप्त हो गया।' ;पृ. १०३द्ध ज्ञानरंजन की अनुभव कहानी शहर के यथार्थ और परिकल्पना के बीच उसके द्वारा अपने नागरिकों को दिए जा रहे जीवनानुभवों की पड़ताल करती है। कहानी के अंत में कहानी का नायक अपने जीवनानुभवों के लिए न सिपर्फ हीनता-ग्रन्थि और धिक्कार भावना का शिकार होता है, बल्कि एकांत में अपने ही गाल पर तमाचे जड़ता हुआ आत्मभर्त्सना के बहाने शहर भर्त्सना की सपफल लेखकीय अभिव्यक्ति करता है। इस दृष्टि से यह सकारात्मक और निष्कर्षात्मक अंत और हस्तक्षेप वाली कहानी है। ज्ञानरंजन की प्रायः सभी कहानियाँ सकारात्मक और सक्रिय अंत की प्रस्तावना करती हैं। साठोत्तरी पीढ़ी के मोहभंग काल के अन्य कथाकारों के बीच ज्ञानरंजन की यह निजी विशेषता है। वे सभ्यता-विमर्श के कहानीकार हैं। उनकी कहानियों का यथार्थ अब भी कालान्तरण करते हुए देखा जा सकता है। उनकी कहानियों में व्यक्त टिप्पणियाँ अब भी अद्यतन हैं। कलात्मक तकनीकों की दृष्टि से 'अनुभव' ज्ञानरंजन की समृ( कहानियों में से एक है। यह कहानी आधुनिक नागरिक जीवन के दर्शन को निम्न शब्दों में प्रस्तुत करती है-'एक बार तो अनुभव हर चीज का होना चाहिए, यह आज की जिंदगी का ब्रह्म सूत्रा है।' ;प्रतिनिधि कहानियाँ, पृ. ६७द्ध 'आदमी सबसे भिन्न है। इसको कभी मत भूलो। उसका लोक आश्चर्यों से भरा है। मन को अनुभवों के विराट में दौड़ने दो, भटकने दो।' ;प्रतिनिधि कहानियाँ, पृ. ६७द्ध मोइत्राा द्वारा किसी को जीप से कुचलकर हत्या करने का प्रसंग स्पष्ट रूप से पफैण्टेसी शिल्प के इस्तेमाल का उदाहरण है-'मैंने कहा, कुत्ते, तुम क्या मर्डर करोगे।' ...गाड़ी स्टार्ट करते हुए उसने कहा, 'तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है, शु( द्घी ;वह मुझे हमेशा शु( द्घी कहता था।द्ध इधर आओ। उसने इसके बाद लंबा हाथ बढ़ाकर जीप के पिछले हिस्से से एक कुचला हुआ मूंड़ उठाया और वापस गिरा दिया।' ;वहीं, पृ. ६२द्ध यह कहानी शहर के अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए दृश्यों एवं दृष्टान्तों के अनेक चित्रा प्रस्तुत करती है। अनुभव कहानी का कथानायक 'मैं', मित्रा गणेश के बहाने शहरी जीवन में अपनी मानसिक चर्या के अनुभवों एवं उन अनुभवों से निष्पादित सूत्राों को पाठकों के सामने प्रस्तुत करता चलता है। अलग-अलग पदबंधों में लिखी कविता की तरह यह कहानी अलग प्रसंगों, अलग दृष्टान्तों-दृष्टिपातों के माध्यम से जीवन और सभ्यता का विमर्श उपस्थित करती जाती है-'मैं समझता था कि यह मनुष्य का विस्तार है कि वह जहाँ पैदा हो, वहीं न मर जाए।' ;पृ. ५८द्ध 'मैंने सोचा, अगर मैं दर्शक हूँ तो मुझे जल में कमल-जैसा होना है। ...जुड़ोगे तो भोगोगे। लोगों को पहचानने में व्यर्थ वक्त जाया न करो। केवल अपना काम करो। ;पृ. ६३द्ध 'आलोचकों को भाड़ में जाने दो। उनकी खोपड़ी लजीज आलोचनाओं से लबालब भरी है। वे उसी में डूबे-उतराएँ, व्यस्त रहे। अजीब जाति है इनकी। ये समय को चाल रहे हैं, लोगों को चाल रहे हैं, इतिहास को चाल रहे हैं, विद्वान हैं, चलनी बन गए हैं।' ;पृ. ६३द्ध 'यह मार थी और इस मार को खाकर मैंने कहा, अब जैसा भी द्घटे लेकिन बागडोर का प्रयोग खत्म।'' ;पृ. ६४द्ध 'यह शु( दलदल है। अपने को बरबाद मत करो।' ;पृ. ६५द्ध इस कहानी में ज्ञानरंजन की रचना-प्रक्रिया की मुख्य विशेषता कथा-भाषा को काव्य-भाषा में रूपान्तरित और उससे विस्थापित करने की है-'शान्ति की चपेट बढ़ती जा रही थी। मैं अन्दर से बहुत शान्त था। मैं अपनी अशान्ति को किसी दार्शनिक भाले से ही भेदना चाहता था। शान्ति किसी दुरभिसंधि के एक माकूल इस्तेमाल की तरह बहुत आराम के साथ चल रही थी।' ;पृ. ५६द्ध 'शहर अपनी कब्र में विदा ले रहा है? बगीचे, सड़कें और इमारतें अब एक भूत की तरह हिल रही हैं।' ;पृ. ६४द्ध तथा 'क्या तुम्हें उनमें परिपक्वता की सड़ांध नहीं आ रही है। वे अपना हाथ उठा चुके हैं और अब दिन भर में सिपर्फ कई हजार धड़धड़ाती सांसें लेते हैं।' ;पृ. ६५द्ध पाठकीय सार्थकता के लिए यह कहानी क्षेपक की शैली में एक अप्रत्याशित जीवन-अनुभव प्रस्तुत करती चलती है। अंधेरे में अपनी गिरी चवन्नी खोजते एक अनजान व्यक्ति की अपनी माचिस जलाकर सहायता करना और चवन्नी पाकर उसका अपनी झेंप मिटाने के लिए तुरन्त खिसक जाना। इस परिस्थिति को ज्ञानरंजन ने असामान्य तर्क की अभिव्यक्ति के साथ प्रस्तुत किया है। व्यवहार के कारण के रूप में वह एक भिन्न परिकल्पना देता है-'चवन्नी लेकर जब वह खड़ा हुआ तब उसे लगा कि सन्नाटा और अकेलापन है और उसकी चवन्नी खतरे से बाहर नहीं है। कृतज्ञता और भय के बीच पफंसा वह तेजी से खिसक गया।' ;पृ. ५७, ज्ञानरंजन, प्रतिनिधि कहानियाँद्ध आर्थिक विपन्नता में पड़े मनुष्य के लिए चवन्नी का महत्व और उसको खोजते हुए किसी मनुष्य द्वारा पकड़ लिए जाने के कारण खिसक लेना एक प्रत्याशित सामाजिक अनुभव है लेकिन कहानीकार और कथानायक 'मैं' उसका कारण दूसरा ही प्रस्तुत करते हैं, जिसकी असहजता को पाठक महसूस कर सकता है और उसके अन्तराल में सोचने के लिए विवश भी हो सकता है। इस तरह यह कहानी सोचने के लिए भी पाठकों को उकसाती चलती है। प्रेम-भावना की सामाजिकता की पड़ताल की दृष्टि से ज्ञानरंजन की 'हास्यरस' कहानी महत्वपूर्ण है। यह कहानी कचहरी में प्रेम-विवाह करके अभी-अभी बाहर निकले एक नवविवाहित दम्पति के प्रेम व्यापार और मानसिकता का चित्राण पुरुष-मन और चिन्तन के माध्यम से करती है। यह कहानी आज प्रकाशित होती तो संभवतः स्त्राी-विमर्शवादी महिला-कथाकार शोर मचा देतीं, लेकिन इसमें कुछ ऐसा सामान्यीकरण है कि पुरुष के स्थान पर स्त्राी पात्रा रख दिया जाए तो भी उसकी मनोवैज्ञानिकता सुरक्षित रहेगी। हास्यरस कहानी का आरंभ कथा-नायक की इस स्वीकारोक्ति के साथ होता है कि 'बाहर निकलते ही मैंने अपने को दूसरा और पराजित अनुभव किया मेरी पत्नी संतुष्ट और निश्चिंत है और उसके खिले हुए चेहरे से मुझे प्रसन्नता नहीं हो रही है। यह खिला हुआ चेहरा और कुछ नहीं, विजय का गर्व है। यह स्पष्ट हो चुका है कि मैं द्घाटा खा चुका हूँ और मुझे पराजित करने वाला मेरा साथी तत्काल हर चीज की मांग करने का अधिकारी हो गया है।' ;पृ. २९द्ध इस कहानी में ज्ञानरंजन ने प्रेम विवाह के प्रेमेतर कारणों का भी सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत किया है, जो प्रेम विवाहों को प्रायः द्घटित करते हैं। चयनित साथी के व्यक्तित्व की पसंद-नापसंद, प्रेम के पूर्व-दृष्टान्तों का प्रभाव कुछ अधिक उत्तेजक और जोखिमपूर्ण ढंग से क्रान्तिकारी ;अंतर्जातीयद्ध विवाह करने की लालसा, जो ऐसे विवाहों के कर्ताओं को विशु( प्रेम से इतर भी नायकत्व और वैशिष्ट्‌य प्रदान करते हैं। यदि प्रेम वास्तव में प्रेमियों के परस्पर व्यक्तित्व के गहरे प्रभाव से उत्पन्न नहीं है तो विवाह के पश्चात जोखिम की उत्तेजना समाप्त होते ही मोहभंग का शिकार होकर प्रेम, गले पड़े प्रेमी की हत्या तक भी जाते देखा गया है। मोहभंग की इन्हीं वैचाारिक संभावनाओं की तलाश करने वाली यह कहानी प्रेम विवाह पर एक बहुआयामी विमर्श प्रस्तुत करती है। ज्ञानरंजन की अन्य कहानियों की तरह इस कहानी में भी प्रेम और विवाह जैसी सामाजिक और सांस्कृतिक आदत पर अनेक रोचक और मौलिक टिप्पणियाँ की गई हैं। जैसे-'वह बड़ी उत्सुकता, ताजगी और सिपफारिश के साथ गवाही देने आया था। असलियत यह थी कि वह अनुभव प्राप्त करना चाहता था।' ;पृ. ३१द्ध 'ऐसी स्त्रिायों के चरित्रा का क्या भरोसा किया जाए? कब किसी दूसरे पर पिफसल पड़ें। ;पृ. ३२द्ध 'मुझे भी दुनिया को पटाना चाहिए।' ;पृ. ३६द्ध 'इस समय मुझे सिलसिलेवार वे सभी परिचित और गृहस्थ दोस्त याद आ रहे हैं, जो पिकनिक, भोजन और द्घरेलू समारोहों में मुझ अकेले अविवाहित को निमंत्रिात करके दया दिखाते और अपनी उदारता का परिचय देते हैं। मैं ऐसे सब लोगों के द्घर जाऊँगा और अपनी स्त्राी दिखाऊँगा।' ;पृ.३७द्ध तथा 'कुंवारे लोग दूसरे की बीवी देखकर लालची और ईर्ष्यालु भी सकते हैं।' ;पृ. ३८द्ध 'पफेंस के इधर और उधर' कहानी वस्तुतः शहरी नागरिक जीवन की सामाजिकता का अपने पड़ोसी से उसकी संबंधहीनता और संवेदनहीनता का रोचक वृत्तांत प्रस्तुत करती है। मनुष्य स्वभावतः ही एक सामाजिक प्राणी है और उसके लिए निरपेक्ष-तटस्थ जीवन जीना प्रायः संभव ही नहीं। कहानी में पफेंस के उधर रहने वाले पड़ोसी में दूरवर्ती सामाजिकता मिलती तो है, लेकिन वह आधुनिक समय के विस्थापन की मानव-नियति से संस्कारित और संयमित रूप में है, जबकि इस पार की सामाजिकता अपनी जड़ों को जीने वाली स्थानीय सामाजिकता है। कहानीकार ने इस कहानी में आधुनिकताजीवी और परंपराजीवी पड़ोसियों की भिन्न मनोरचना और वैचारिकी का द्वंद्व भी सम्मिलित कर दिया है। कहानीकार ने दोनों ही पड़ोसियों को एक समकालीन और समकक्ष सामाजिक वास्तविकता की तरह उपस्थित कर बिना किसी अतिरिक्त टिप्पणी के उसे पाठकों के सामने रख दिया है। ज्ञानरंजन की बहुआयामी और बहुपक्षीय जीवन-दृष्टि उनकी अन्य कहानियों की तरह इस कहानी को भी सर्वकालिक और विशिष्ट बनाती है । ज्ञानरंजन की 'छलांग' वयःसंधि में अन्तर्मन की सच्चाइयों और सार्वजनिक अभिनय के बीच द्वंद्व को रेखांकित करने वाली एक अच्छी कहानी है। यौन भावनाओं को लेकर चेतन व्यवहार और अचेतन मन की कशमकश को चित्रिात करती यह कहानी ज्ञानरंजन की अन्य कहानियों की तरह ही मानव-मन के भीतरी रहस्यों को उजागर करती है। इसे किसी व्यक्ति द्वारा दिखाए जा रहे चरित्रा और जिए जा रहे चरित्रा के पफर्क के रूप में भी प्रस्तुत किया जा सकता है। बाहर से सब कुछ शांत और सभ्य दिखने के बावजूद जिंदगी को अशांत और यातनादायी रिश्तों में बदल देती है। उनकी 'अमरूद का पेड़' कहानी पुरानी पीढ़ी द्वारा यथार्थ के सही साक्षात्कार न कर पाने की समस्या से संबंधित है। मनोवैज्ञानिक शब्दावली में इसे अंधविश्वासपूर्ण प्रत्यक्षीकरण की समस्या के रूप में भी देखा जा सकता है। कहानी में कन्हैयालाल की बूढ़ी पत्नी के इस कथन के साथ कि 'पश्चिम की तरपफ यदि मकान का मुखड़ा हो और सामने ही अमरूद का पेड़ तो राम-राम बड़ा अशुभ होता है।' संस्मरण के शिल्प में लिखी गयी इस कहानी में अमरूद का पेड़ अपनी अविस्मरणीय पफलदार उपस्थिति के बावजूद दुर्भाग्यपूर्ण जीवन की तमाम आशंकाओं और अभिशाप का प्रतीक भी बन जाता है। नयी पीढ़ी के आशावादी और अंधविश्वास रहित जीवन-बोध की सराहना करने वाली यह कहानी इस स्वस्थ दृष्टि की प्रस्तावना करती है कि 'हममें दृष्टिकोण की उदारता परिलक्षित होती और किसी भी द्घटना या आकस्मिकता या एक सम्पूर्ण परिस्थिति को हमलोग अनहोनी नहीं मानते थे। जीवन में सब सहज है, सब संभव।' ;पृ. ११द्ध इस कहानी की माँ अपने संपूर्ण प्रतिरोध के बावजूद जीवन की नकारात्मकताओं को अपशगुनी अमरूद के पेड़ से जोड़ने के लिए विवश होती है। 'द्घण्टा' ज्ञानरंजन की उन बहुचर्चित कहानियों में से एक है, जिनके निहिताथों का पफलक बड़ा है। ज्ञानरंजन की अन्य कहानियों की तरह इस कहानी में भी सभ्यता-समीक्षा का गंभीर विमर्श उभरता है। वैसे तो उनकी हर कहानी सभ्यता-समीक्षा के अलग-अलग विशेष आयाम अपने वैचारिक एवं काव्यात्मक गद्य के माध्यम से उठाती है। 'द्घण्टा' कहानी में असुविधाजीवी निम्न मध्यवर्ग की पृष्ठभूमि से आए बु(जिीवी के माध्यम से पूंजीवादी व्यवस्था में तथाकथित उच्च-अभिजातवर्गीय उपनिवेश की समीक्षा की गई है। कलात्मक दृष्टि से भी 'द्घण्टा' कहानी का शिल्प महत्वपूर्ण है। इसका कथानक कहानी के मुख्य पात्रा के चिन्तन से ही नहीं बल्कि सामाजिक व्यवहार और सक्रियता से भी उभारा गया है। प्रथम दृष्ट्‌या पेट्रोला मध्यवर्गीय असुविधाजीवियों का आशियाना लगती है । कुन्दन सरकार का द्घण्टा होना आर्थिक अपंगता या परावलंबिता का ही प्रतीक है। कहानी की सारी सृजनात्मक संभावनाएँ रेस्त्राां को पूंजीवादी-बाजारवादी सभ्यता के रूपक के रूप में प्रस्तुत करने में ही छिपी हुई हैं। रेस्त्राां के डॉयस पर नृत्य करती युवती के अधोवस्त्रा का नाड़ा खुलकर लटकने पर, उसके चमकदार परिधान के पीछे से उसके मलिन अन्तःवस्त्राों का झांकना उसके निम्नवर्गीय होने की ही प्रतीकात्मक द्घोषणा है। द्घण्टा की अनुगूंज संपूर्ण निम्न-मध्यवर्ग के प्रतिनिधि के रूप में भी सुनी जा सकती है । इस तरह कहानी में रेस्त्राां का संपूर्ण परिवेश मनोवैज्ञानिक सांकेतिकता लिए हुए और सोद्देश्य है । उसका उत्सवधर्मी, नाटकीय, कृत्रिाम, प्रायोजित जीवन बाजार केन्द्रित शहरी सभ्यता का प्रतिनिधि प्रतिरूप ही है। इस कहानी में भी सूत्राात्मक निष्कर्ष एवं काव्यात्मक अभिव्यक्ति वाले अनेक अद्वितीय रोचक स्थल हैं-'वह ;पेट्रोलाद्ध कापफी अज्ञात जगह थी। उसे केवल पुलिस अच्छी तरह जानती थी।' ;पृ. १०४द्ध, 'चीजों को चखते हुए वे दूसरों की औरतों का शील सभ्यतापूर्वक चाट रहे थे। वे अपने अलावा दूसरों को वहाँ अनुपस्थित समझ रहे थे। कहीं वे इस दुर्गन्ध के भी शिकार थे कि रेस्त्राां का यह हॉल उनके लिए वातावरण बनाता है और यह दुनिया उनकी शोभा के लिए बनी है।' ;पृ. १०९द्ध, 'उनकी आँखों में बेडरूम सीन चमक रहा था। 'बहिर्गमन' कहानी आधुनिक मीडिया-युग के नायकों के जीवन, यथार्थ और प्रसि(ि की प(ति पर केन्द्रित सर्वाधिक प्रभावी, प्रामाणिक और विशेषज्ञ कहानी है। यह कहानी एक मामूली आदमी की आँख से समय के ख्यातिलब्ध बड़े विशिष्ट आदमी मनोहर और सोमदत्त के संवेदनातीत बड़प्पन की शवपरीक्षा है। अपने आम ;निम्नमध्यवर्गीयद्ध परिवेश से असंतुष्ट अतिसंवेदनशील कस्बाई युवक मनोहर अपनी महत्वाकांक्षी ऊंची उड़ान के साथ ही किसी राकेट की तरह ही अपनी संवेदनशीलता का ईंधन खोता जाता है। आम समाज की जड़ता से क्षुब्ध, उसके यथार्थ को द्घृणा और नापसंदगी के ज्वलनशील ईंधन से पीछे छोड़ता हुआ ग्रामीण कस्बे से दिल्ली पहुँचता है पिफर दिल्ली से भी दूसरे बूस्टर इंजन प्रवासी सोमदत्त का प्रयोग कर विदेश यात्राा पर रवाना हो जाता है। यह कहानी मूलतः अवसरवादी उपलब्धियों एवं विशिष्टताबोध को खारिज करती है। कहानी के प्रारंभ में ही कथावाचक 'मैं' ने अपनी पृष्ठभूमि स्पष्ट कर दी है-'मैं विद्रोही नहीं था। मेरा मार्ग नितान्त सड़ियल, भाग्यशून्य और आम था। मैंने अपने मामूली जीवन को केवल चौकन्नी पहरेदारी के अन्दर जिलाए रखने की ही तमन्ना की थी।' ;पृ. ११७द्ध इस तरह इस कहानी का कथावाचक मैं एक आम आदमी की दृष्टि से असमान्यता के आकांक्षी कथानायक मनोहर के रूप में आज के आम सपफल बु(जिीवी की महत्वाकांक्षी उड़ान का कथांकन करती है। ज्ञानरंजन की प्रगीतात्मक आत्माभिव्यक्ति वाली आरंभ की छोटी कहानियों से अलग 'बहिर्गमन' कथावस्तु और शिल्प दोनों ही स्तरों पर महाकाव्यात्मक संपूर्णता और विस्तार वाली अद्वितीय कहानी है। पहली दृष्टि में इसके कथानक को प्रतिभा-पलायन, करियर-निर्माण की महत्वाकांक्षी यात्राा, विदेशगमन की अभिलाषा आदि से भी जोड़कर देखा जा सकता है, लेकिन आगे चलकर यह कहानी यौन-सुख की कामना वाली आधुनिकता से असहमति का आख्यान बन जाती है। इस दृष्टि से सोमदत्त के जीवन का वह प्रसंग कापफी संकेतपूर्ण है, जब अनिच्छुक रहने की स्थिति में देर रात में पत्नी के पास पहुँचे सोमदत्त को उसकी पत्नी ही एक अन्य स्त्राी के पास यौन-सुख के लिए भेज देती है। ऐसी पत्नी इस उदारता और स्वतंत्राता का इस्तेमाल अपने पक्ष में भी कर सकती है, इस संभावना को कहानीकार ने पाठक की कल्पना के लिए छोड़ दिया है। वस्तुतः बहिर्गमन कहानी की अविस्मरणीयता एक संवेदनशील विद्रोही क्रांतिधर्मी कस्बाई युवक के कुण्ठा, संद्घर्ष और निष्क्रमण की जीवन-यात्राा में उसकी संवेदनात्मक मृत्यु या उसके संवेदनातीत होते जाने के व्यक्तित्वांतरण और विस्थापन के त्राासद आख्यान होने में छिपी हुई है। आधुनिक सभ्यता में पूंजी और बाजार पर आधारित प्रसि(ि के खोखलेपन, उसकी कला, पेशेवर मनोविज्ञान और मिथ्या छवि-निर्माण की प्रक्रिया पर भी यह कहानी अच्छा प्रकाश डालती है।
ये...
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सोमवार, 17 सितंबर 2012

र्इश्वर के बिना... (र्इश्वर का समाजशास्त्र )

र्इश्वर के बिना...

(र्इश्वर का समाजशास्त्र ) 



मैंने सारी सफलताएं
र्इश्वर के बिना ही प्राप्त की हैं-मित्र नें कहा

दुखती पिण्डलियों के साथ चढ़ा हूं समय का पहाड़
जैसे किसान र्इश्वर से अधिक अपने
बहते पसीनें को जानता है
खेत जोतते और मिटटी तोड़ते हुए
आजीविका के लिए सारी-सारी रात जागकर
ट्रेन और ट्रक चलाते ड्राइवरों की तरह
जो लड़ते रहते हैं अपनी नींद और मृत्यु से

हर शिकारी के लिए
र्इश्वर से अधिक अनुभव ही सफल बनाता है
जैसे खाना बनाने का हुनर सीखे बिना
नहीं बजवायी जा सकतीं सफलता की तालियां

शेरनी अपने अनुभव से पहचानती है कि
कि कौन-सा उपयुक्त शिकार बच्चा,बूढ़ा है या लाचार
और किसे बनाया जा सकता है
घायल होने के जोखिम के बिना
आसानी से अपना शिकार
या फिर कितनें सहयोगियों के साथ मिलकर
मर गिराया जा सकता है कोर्इ बड़ा शिकार...

परिदृश्य में र्इश्वर कहीं नहीं था
और आसानी से जिया जा सकता था र्इश्वर के बिना
समझते हुए समय और बाजार को
नेताओं को जीत के लिए र्इश्वर को नहीं
जनता के मन को समझना और पटाना था
डकैत और हत्यारे अपने अनुभव यानि हुनर से ही जानते थे कि
किस हत्या के लिए कितनें साथियों की जरूरत होगी
और कहां छिपकर लगाना होगा उन पर घात !

इधर एक मित्र की कविता पढ़ी
र्इश्वर का होना हास्यास्पद बताते हुए
और मुझे पूरी तरह लगा कि वे सच बोल रहे हैं
मित्र जो बार-बार कहते है कि
मैंने सारी सफलताएं (आत्मा पर पत्थर रखकर)
सिर्फ राजनीति से हासिल की हैं
जैसे कि अनेक मूर्खों को विद्वान कहा है
(जो वास्तव में हेड का साला होने के कारण
एक दिन प्राफेसर पद तक जा पहुंचे )
और भ्रष्टों को महान.....

ऐसे बिकाऊ दौर में जब खरीदनें की शकित न हो तो
सफलता के लिए मुझे र्इश्वर से अधिक
अपनी विनम्र वाणी और
चापलूसी में झुकी अपनी दुखती कमर पर अधिक भरोसा है

फिर भी जब जंगल में शिकार कम हो जाते हैं
या फिर बढ़ जाते हैं शहर में अपराध
बढ़ जाती है जीने की प्रतिस्पद्र्धा और असुरक्षा
बढ़ती प्रतीक्षा और घटते धैर्य के साथ-साथ
हर उच्छवास और हर बात में
एक मुहावरे के रूप में
लौट आता है र्इश्वर....

निष्कर्ष रूप में र्इश्वर
सिर्फ शाकाहारियों और सदाचारियों के लिए है
या फिर अपने पुरखों के प्रति सुरक्षित उत्तराधिकार के लिए कृतज्ञ
उन प्रतीक्षा (नियति) वादियों के लिए
जो स्वयं सही रहते हुए दूसरों के भी सही बने रहने के प्रति
सिर्फ प्रार्थना ही कर सकते हैं....



तकनीकी दरिद्रता में....


एक दुर्घटना की तरह आती है तकनीकी दरिद्रता
बहुत कुछ अप्रत्याशित और अविश्वसनीय....
शहर के ए0टी0एम0 मशीनों के एक साथ लिंक फेल होने की तरह....
या फिर ऐसी छुटिटयां जब बैंक वाले निकल पड़ते हैं एक साथ
जेल की टूटी दीवारों के पार निकल भागे कैदियों की तरह....

तकनीकी दरिद्रता में जब हम किसी से कहते हैं कि
रुपए नहीं रहे मेरे पास....तो मित्र
मनने के लिए तैयार ही नहीं होते
कि रुपए भला कैसे नहीं होंगे हमारे पास !
पत्नी और बच्चे भी नहीं करते विश्वास
कि सुबह से बनाने के लिए नहीं मिला कोर्इ और....

तकनीकी दरिद्रता में
भीतर से घबराहट होने लगती है
और ट्रेजरी के बाबू पर भी आता है गुस्सा
दूकानदार यधपि अपमानित नहीं करते
लगते हैं गर्व भरे सहयोगी-सâदय
फिर भी अपमानमय रहता है अन्त:करण....

तकनीकी दरिद्रता में दुखते समय को लावारिस छोड़कर
आगे बढ़ जाते हैं-बहुत कुछ हम नहीं कर पाते
कर्इ बार तो स्वयं भीख मांगने की परिसिथतियों में
होते हुए भी नहीं मांग पाते भीख......

तकनीकी दरिद्रता चुभती है मजाक -सी
रोते हुए भी हंसना पड़ता है खुद पर
भविष्य के लिए बचत की मिलती जो सीख !

समयांकन


चूहे बिलिलयों से बचने के लिए
सांपों के लिए बिल खोद रहे थे
घबराहट में और अधिक संख्या में
बेमौत मारे जा रहे थे कायर......
भागकर चूहों की तरह ही
सापों के मुख में जा फंसे थे !

और मैं चारों ओर से घिरे हुए बाढ़ में डूबे
अकेले खडे़ ऊंचे पेड़ पर चढ़ बैठे बन्दर की तरह
अकेला बचा हुआ था
मानक आदशोर्ं के शिखर ऊंचाइयों की
थकी हुर्इ टहनियां पकड़े
ज्बकि सभी बदल गए थे-चुपके-चुपके-चुपके...
एक-दूसरे से अपने अपमानजनक समझौतों की खबरें छिपाए
किसी सुरक्षित शरणस्थल पर पहुंचकर
डूबते हुओं के प्रति
अफसोस प्रकट करने के लिए.....